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Sunday, December 8, 2019

न्याय जरूरी है बदला नहीं

न्याय जरूरी है बदला नहीं 

हैदराबाद मुठभेड़ के बाद बलात्कार पीड़िता के परिजन और आम जनता में बहुत से लोग इस पर खुशी से तालियां बजाते नजर आए के कि बलात्कारियों को मार डाला गया। कुछ लोगों ने पुलिस के समर्थन में जुलूस भी निकाले। टीवी और सोशल मीडिया में पुलिस कार्रवाई के समर्थन में6 बयानात भरे थे। हालांकि इस तरह के जवाब कभी भी कार्रवाई की वैधानिकता को उचित नहीं बता सकते और ना प्रमाणित कर सकते हैं । यह कानून के प्रति हमारे अविश्वास का एक उदाहरण है। हमारी संसद में लिंचिंग पर बहस होती है उनके बारे में दलीलें  दी जाती हैं ऐसा लगता है की इनका इरादा कानून बनाने का नहीं कानून तोड़ने का है। बेशक बलात्कार एक गंभीर तथा  अत्यंत घृणित अपराध है और इस तरह के अपराधियों से तुरंत तथा कड़ाई से निपटने की जरूरत है। ऐसा होता नहीं है और यह नहीं होना हमारी पुलिस व्यवस्था तथा न्याय व्यवस्था का एक दुखद अध्याय हैं । ऐसे मामलों को जल्दी निपटाने के लिए पुलिस को प्रभावशाली ढंग से तथा तीव्रता से जांच करनी चाहिए। न्याय व्यवस्था में इसे फास्ट ट्रैक कोर्ट से  निपटाया जाना चाहिए और जल्दी से जल्दी सजा  मिलनी चाहिए।  जब तक लोगों के मन में घटना की तस्वीर रहेगी उसके पहले अगर सजा मिल जाती है तो यह हमेशा याद रहती है। सार्वजनिक सोच से घटना के बिंबो या प्रतीकों के धुंधला जाने से सजा का मोल कम हो जाता है। दुर्भाग्यजनक है कि निर्भया कमेटी की अनुशंसाओं को अभी तक लागू नहीं किया जा सका। जबकि घटना के 7 वर्ष हुए ।सरकार ने इस मामले में खर्च के लिए एक सौ करोड़ रुपयों का आवंटन किया है। इनमें से अधिकांश राशि निर्भया कोष में मिले धाम से एकत्र की गई है। अभियुक्तों को इस तरह के मुठभेड़ों में मार दिया जाना न्याय पूर्ण नहीं है। मुठभेड़ कभी भी सामान्य नहीं होते। इस तरह के न्याय आमतौर पर  सशक्तिकरण के विरुद्ध होते हैं। यह कानून से अलग मारा जाना और इसके लिए जनमत तैयार करके एक तंत्र को विकसित करना एक तरह से से पुलिस और उच्च वर्गीय मानसिकता है। इससे सबसे बड़ी गड़बड़ी यह  होती है की समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस की मानसिकता पनपने लगती है और लोग कानून को अपना काम करने से रोक देते हैं। उत्तर प्रदेश में एक विधायक पर इसी तरह बलात्कार का मुकदमा हुआ और वह केवल जन बल के आधार पर मुक्त घूम रहा है। यही हालत कठुआ बलात्कार कांड में भी हुई। जो बलात्कार का अपराधी था उसका वहां जनाधार व्यापक था और भारी जन बल था। पकड़ा नहीं जा सका जो लोग इस तरह के न्याय को उचित बताते हैं वह इस तरह के अपराधों को भी उचित बता सकते हैं। अगर इस मामले में कोई उदाहरण तैयार करना है तो एक ही रास्ता है कि तेजी से न्याय हो। संविधान दिवस के समाप्त हुए अभी एक पखवाड़ा भी नहीं गुजरा है।  संविधान दिवस के दिन बड़ी-बड़ी बातें हुई थी अगर इसी तरह का न्याय करना है तो हमें संविधान की क्या जरूरत है।
      सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे ने शनिवार की शाम को इस मुठभेड़ पर उंगली उठाते हुए कहा कि न्याय कभी मुठभेड़ नहीं सकता।  गैंगरेप के आरोपियों को एनकाउंटर में मारे जाने की घटना की आलोचना की। उन्होंने कहा कि न्याय कभी भी आनन-फानन में नहीं हो सकता। ऐसा होने पर वह अपना चरित्र खो देता है। विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री लियोन एफ सोल्जर के मुताबिक न्याय और बदले की भावना में कई फर्क होते हैं। बदला प्रथम स्थान पर तो स्पष्ट रूप से भावनात्मक होता है जबकि न्याय निष्पक्ष होता है।


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