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Thursday, December 26, 2019

भय और क्रोध से लाभ नहीं होने वाला

भय और क्रोध से लाभ नहीं होने वाला 

  सी ए ए ,एनपीआर और एनआरसी और न जाने से कई वाकयों पर इन दिनों देश में बहुत सी जगहों पर या फिर कुछ चुनिंदा जगहों पर प्रदर्शन हो रहे हैं या हो चुके हैं। ऐसा लगता है हमारे देश का सामूहिक मनोविज्ञान आंदोलन प्रदर्शनकारी हो गया है। इसमें नौजवानों की संख्या ज्यादा है। वे यही नौजवान है जो जी जान से पढ़ते हैं और फिर डिग्रियां लेकर रोजगार के लिए घूमते हैं। ऐसा लगता है पूरे देश को कुछ मानसिक थेरेपी की जरूरत है। एक वर्ग ऐसा है जो कहता है इस सरकार ने जो कुछ भी कहा किया वह परम सत्य है।  दूसरा वर्ग ऐसा है जिसे सरकार के कहने से कुछ लेना-देना नहीं है। वे इसे झूठ मानते हैं या फिर किसी दूसरे लक्ष्य पर निशाना लगाने की तैयारी मानते हैं। सच क्या है?
     भारत में जो पहला अखबार निकला था हिकीज गजट उसका आप्त वाक्य था "  वी इनफॉर्म, वी एजुकेट एंड वी रिफॉर्म। " अखबारों के बारे में  लोगों में  एक आस्था पैदा हो गई।  वह  इसे  सत्य के संधान  का साधन समझते थे। बाद में सत्ता ने लोगों को किसी न किसी बात से आतंकित कर या कह सकते हैं भयभीत कर अपनी सत्ता को कायम रखने का एजेंडा बनाया। एजेंडा सेटिंग के इस युग में भय के हथियार से झूठ भी सच बनाया जाने लगा। झूठ को सच बनाने का यह हथकंडा हमारे जीवन में सामान्य रूप से चलने लगा। लेकिन बहुत से लोग हैं जो इसे समझ नहीं पाते हैं। उन्हें अपनी चारों तरफ देखने की जरूरत है? लेकिन क्या देखेंगे हमारे राजनीतिज्ञ हमें गलत जानकारियों से भयभीत कर  चुनाव जीतते हैं। वे मीडिया के सहयोग से लोगों के दिमाग में बैठे भय को उभार कर उन्हें आतंकित कर देते हैं । भय  स्वार्थी तत्वों के लिए सबसे बड़ा हथियार है। वे आम जनता को कुछ भी कर डालने के लिए तैयार करा देते हैं। विख्यात बट्रेंड रसैल ने कहां है कोई आदमी या दार्शनिक कोई समूह या कोई राष्ट्र तब तक मान्यता पूर्ण ढंग से यह समझदारी से नहीं सोच सकता जबतक वह भय से प्रभावित हैं।
        इस भय के प्रभाव से उत्पन्न जो सबसे बड़ा भाव होता है वह है गुस्सा। बेशक यह गुस्सा अल्पकालिक होता है। इस गुस्से का प्रवाह और उसका टिकाऊ पन ही बताता है कि वह कितना ज्यादा था यह केवल क्षणिक था या दीर्घकालिक था। इसकी सबसे बड़ी खराबी यह होती है की इस के जरिए स्थाई  परिवर्तन नहीं हो सकता। अभी जो हमारे देश के नागरिकों में गुस्सा दिख रहा है वह परिवर्तन कार्य नहीं है 1979 में मंडल आयोग का गठन हुआ था। विश्वनाथ प्रताप सिंह इस सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट 1990 तक लागू करने की बात की थी। लेकिन इसके खिलाफ लोगों में खासकर छात्रों में गुस्सा भड़क उठा और बड़ी संख्या में छात् एक छात्र ने तो आत्मदाह कर लिया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया। कोई बदलाव नहीं लागू हुए । 2010 में अरब स्प्रिंग के नाम से आंदोलन आरंभ हुआ और पूरे मुस्लिम राष्ट्र में सरकार विरोधी आंदोलन शुरू हो गए । शुरू में तो यह माना गया था कि से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएंगे और आम जनता की राजनीति में हिस्सेदारी आरंभ हो जाएगी। लेकिन क्या हुआ ? कुछ भी तो नहीं? 2011 में भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत बडा  आंदोलन हुआ इसमें समाज के सभी हिस्सों के लोगों ने भाग लिया। इसके जवाब में सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 बनाया।  2012 में निर्भया कांड के बाद भी ऐसे ही कुछ हुआ। कानून भी बन निर्भया कोष भी तैयार किया गया। लेकिन क्या महिलाओं की सुरक्षा हो सकी। महिलाएं   अभी भी अरक्षित हैं। इन सभी घटनाओं में क्या समान था ? ध्यान से देखें तो केवल एक बात ! वह था लोगों का गुस्सा और वह गुस्सा भय के कारण उत्पन्न हुआ था।
        इस वर्ष देशभर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन हुआ। कमोबेश 24  व्यक्ति मारे गए। प्रदर्शन करने वालों  की एक ही मांग थी इस अधिनियम को वापस लिया जाए । लेकिन कुछ नहीं हो रहा है। बेशक कानूनी परिवर्तन जरूरी है लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है लोगों के सोच में बदलाव। लोगों के भीतर व्याप्त डर की समाप्ति। इससे जो सबूत मिलते हैं वह है कि प्रदर्शनकारियों को अपने दिमाग में कुछ पहले से रखना होगा । प्रदर्शन का उद्देश्य भय जनित गुस्सा   नहीं होना चाहिए बल्कि इसमें स्थाई रूप से एक ऐसा भाव होना चाहिए जिससे मांगो के बारे में सरकार के कदमों पर नजर रखी जा सके और ऐसा भय से उत्पन्न क्रोध से नहीं हो सकता, बल्कि समझदारी और सुनियोजित आंदोलन से हो सकता है। आज जो कुछ भी हुआ वह कल कोई फल देगा इसकी उम्मीद नहीं है। इस आंदोलन से कोई बदलाव आएगा ऐसी कोई उम्मीद नहीं है, फिर भी कुछ न कुछ करना है यह मानकर ही कदम आगे बढ़ाएं। 


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