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Tuesday, December 17, 2019

आंदोलन हो पर हिंसा नहीं

आंदोलन हो पर हिंसा नहीं 
लोकतंत्र में सबसे जरूरी है कि बातचीत के अवसर सदा खुले हों और बातों को भी , चाहे वह विरोधी भी हों , उन्हें वक्त का हाकिम सुने. लेकिन हमारी सरकार के पास उन लोगों से बातचीत के लिए कोई भाषा ही नहीं है जो उसके खिलाफ बोलते हैं. नतीजा यह हो रहा है कि हमारा समाज बदल रहा है और वह बदलाव नकारात्मक होता जा रहा है. यह नकारात्मकता हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को धीरे- धीरे समाप्त कर रही  है. विगत हफ्ते भर के अखबारों की तस्वीरों को देखें और अखबारों के शीर्षक पढ़ें. एक अजीब सी सनसनी होगी  अपने चारों तरफ.  ख़बरों की  भाषा बदल रही है. ‘ वी इन्फॉर्म , वी  रिफोर्म ‘ से चलकर ‘ वी डिसटॉर्ट, वी डिस्ट्रॉय ‘ तक पहुँच गयी है. ऐसा नहीं कि केवल सरकार ही स्थाई तौर पर वार्ता कर रही है बल्कि सरकार के सामने बैठने वाले भी कम खतरनाक  नहीं होते  जा रहे हैं. पूरा समाज राजनीतिक दल बंदियों में  विभाजित हो चुका है ।   करप्ट व्यापारी  बैंकों से रुपया लेकर देश छोड़ देते हैं  और गरीब किसान महाजन के  कर्ज के डर से खुदकुशी कर लेता है।  हम रोज ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं अब यह हमारे लिए आम बात हो गई है। अब तो ऐसा लगता है अगर किसी दिन इस तरह की घटना नहीं हुई तो हम आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कई लोग इसे मामूली बात कहते हैं कई लोग इसे ईर्ष्यावश वायरल की गई कहानी बताते हैं  और कुछ लोग इसे मीडिया का प्रचार बताते हैं। कोई भी घटना घटती है तो कुछ लोग इसे  किसी खास राजनीतिक  पार्टी की करतूत  बताते हैं या फिर यह प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समाज या  मुगल राजा या ब्रिटिश राज अथवा कांग्रेस की देन  बताते हैं।  वह इन घटनाओं को खारिज कर देते हैं नरेंद्र मोदी कीर्तन करने लगते हैं।
  
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में
वह सब कहते हैं कि अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा 

दूसरी तरफ  हमारे समाज में  ऐसे भी लोग बसते हैं जो  इन घटनाओं के बारे में जनता को बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें गालियां सुननी पड़ती है ,उन पर तोहमतें लगाई जाती  हैं।  कुछ लोग हैं जो हर बात के लिए बिना सोचे समझे सरकार को ही दोषी बता देते हैं। हमारा सहारा समय और सारी ऊर्जा इस दोष लगाने और दोष को खारिज करने  में खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर पाते। क्या ऐसा नहीं लगता , अब समय आ गया है कि हम थोड़ा रुकें,सोचें  और तब  बताएं की हकीकत क्या है और इसमें हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए।  हम ऐसी जगह पर आकर खड़े हो गए जहां ऐसा लगता है कि किसी को भी समाज की चिंता में बस हम केवल अपने अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने में लगे हैं। हर पक्ष या तो मोदी के गुणगान करने में लगा है या उसे भला बुरा कहने में। हम लगातार मोदी को स्थापित करने या उसे गद्दी पर से हटाने के बारे में ही सोचते और हर घटना को बारूद की तरह इस्तेमाल करने की सोचते हैं। यहां बात राजनीतिज्ञों की नहीं हो रही है और ना उनके झंडाबरदारों की।  यहां बात हमारी और आपकी है जो इस गृह युद्ध में शरीक  हैं।
   इन घटनाओं में सच  गुम हो गया सा लगता है।... और खो गए से लगते हैं वे लोग जो इसके चपेट में आकर या तो मर गए या घायल होकर  पड़े हुए हैं। गरीब और किसान हाशिए पर चले गए हैं तथा केवल बहस का  मसला  भर हैं।  यह सुनने में बड़ा असंवेदनशील और कठोर लग रहा है लेकिन जरा सोचें तो हम क्या हो गए हैं।
    अगर हमें एक संवेदनशील समाज के रूप में कायम रहना है हमें बदलना होगा यह समय आ गया है। अन्यथा मोदी के जाने के बाद भी हम वही रहेंगे जैसा बन चुके हैं ।अपने समाज के बंटवारे को खत्म पूरा समाज राजनीतिक दल बंदियों में  विभाजित हो चुका है ।   करप्ट व्यापारी  बैंकों से रुपया लेकर देश छोड़ देते हैं  और गरीब किसान महाजन के  कर्ज के डर से खुदकुशी कर लेता है।  हम रोज ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं अब यह हमारे लिए आम बात हो गई है। अब तो ऐसा लगता है अगर किसी दिन इस तरह की घटना नहीं हुई तो हम आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कई लोग इसे मामूली बात कहते हैं कई लोग इसे ईर्ष्यावश वायरल की गई कहानी बताते हैं  और कुछ लोग इसे मीडिया का प्रचार बताते हैं। कोई भी घटना घटती है तो कुछ लोग इसे  किसी खास राजनीतिक  पार्टी की करतूत  बताते हैं या फिर यह प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समाज या  मुगल राजा या ब्रिटिश राज अथवा कांग्रेस की देन  बताते हैं।  वह इन घटनाओं को खारिज कर देते हैं नरेंद्र मोदी कीर्तन करने लगते हैं।
  
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में
वह सब कहते हैं कि अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा 

दूसरी तरफ  हमारे समाज में  ऐसे भी लोग बसते हैं जो  इन घटनाओं के बारे में जनता को बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें गालियां सुननी पड़ती है ,उन पर तोहमतें लगाई जाती  हैं।  कुछ लोग हैं जो हर बात के लिए बिना सोचे समझे सरकार को ही दोषी बता देते हैं। हमारा सहारा समय और सारी ऊर्जा इस दोष लगाने और दोष को खारिज करने  में खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर पाते। क्या ऐसा नहीं लगता , अब समय आ गया है कि हम थोड़ा रुकें,सोचें  और तब  बताएं की हकीकत क्या है और इसमें हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए।  हम ऐसी जगह पर आकर खड़े हो गए जहां ऐसा लगता है कि किसी को भी समाज की चिंता में बस हम केवल अपने अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने में लगे हैं। हर पक्ष या तो मोदी के गुणगान करने में लगा है या उसे भला बुरा कहने में। हम लगातार मोदी को स्थापित करने या उसे गद्दी पर से हटाने के बारे में ही सोचते और हर घटना को बारूद की तरह इस्तेमाल करने की सोचते हैं। यहां बात राजनीतिज्ञों की नहीं हो रही है और ना उनके झंडाबरदारों की।  यहां बात हमारी और आपकी है जो इस गृह युद्ध में शरीक  हैं।
   इन घटनाओं में सच  गुम हो गया सा लगता है।... और खो गए से लगते हैं वे लोग जो इसके चपेट में आकर या तो मर गए या घायल होकर  पड़े हुए हैं। गरीब और किसान हाशिए पर चले गए हैं तथा केवल बहस का  मसला  भर हैं।  यह सुनने में बड़ा असंवेदनशील और कठोर लग रहा है लेकिन जरा सोचें तो हम क्या हो गए हैं।
    अगर हमें एक संवेदनशील समाज के रूप में कायम रहना है हमें बदलना होगा यह समय आ गया है। अन्यथा मोदी के जाने के बाद भी हम वही रहेंगे जैसा बन चुके हैं ।अपने समाज के बंटवारे को खत्म नहीं कर पाएंगे और ना उन चीजों को मिटा पाएंगे जो इन दिनों घटना के रूप में सामने आ रही है  तथा  हमें एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान से अलग कर रही है। हम एक इंसान के रूप में उस महापंक  में फंसे रहेंगे जिसे इस सरकार ने तैयार किया है।

गजब यह है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं
वह सब के सब परेशान  हैं  वहां पर क्या हुआ होगा

नहीं कर पाएंगे और ना उन चीजों को मिटा पाएंगे जो इन दिनों घटना के रूप में सामने आ रही है  तथा  हमें एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान से अलग कर रही है। हम एक इंसान के रूप में उस महापंक  में फंसे रहेंगे जिसे इस सरकार ने तैयार किया है।

गजब यह है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं
वह सब के सब परेशान  हैं  वहां पर क्या हुआ होगा

       
 

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