एक तरफ राज्यसभा में भी सीएबी यानी नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो गया दूसरी तरफ इस बिल को लेकर पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में भारी असंतोष दिखाई पड़ रहा है और कुछ लोग इसे सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की बात कर रहे हैं । राजनीतिक गलियारों में यह बात फैलाई जा रही है कि अब देश में अल्पसंख्यक नहीं रहेंगे और अगर रहेंगे तो उनकी हैसियत वैसी नहीं रहेगी जैसी आज है । जबकि गृह मंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि "हम नागरिकता छीनने नहीं देने की कोशिश में हैं।" लंबी बहस के बाद सीएबी बुधवार को राज्यसभा में भी पारित हो गया। इसके पक्ष में 125 और विपक्ष में 105 वोट पड़े। कुल 209 सांसदों ने मतदान में हिस्सा लिया। भाजपा की पुरानी सहयोगी शिवसेना ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। वह वकआउट कर गई। अब इस बिल के कानून बनने के रास्ते साफ हो गए।
बुधवार को इस विधेयक पर चर्चा के दौरान जमकर विरोध हुआ। विरोध के उस माहौल में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि "अगर देश का बंटवारा नहीं हुआ होता तो यह विधेयक कभी नहीं आता। बंटवारे के बाद जो स्थिति उत्पन्न हुई उससे निपटने के लिए या कहें उस से मुकाबले के लिए इस विधेयक को लाना पड़ा। अब से पहले की सरकारें समस्याओं से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थीं प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हमने ऐसा करने का साहस किया।"
अमित शाह ने जोर देकर कहा कि "हम ईसाई ,हिंदू, सिख ,जैन और पारसी समुदाय को नागरिकता दे रहे हैं। हम किसी की नागरिकता छीन नहीं रहे।" इसके पहले 2015 में भी इस बिल को पेश किया गया था लेकिन लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में वह पारित नहीं हो सका। क्योंकि सरकार के पास सदन में बहुमत नहीं था। शाह ने कहा "70 वर्षों तक इस देश को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया था। नरेंद्र मोदी ने सबके साथ न्याय किया है। मोदी जी ने वोट बैंक के लिए कुछ नहीं किया। अमित शाह ने कहा इस बिल का उद्देश्य चुनावी लाभ नहीं है। उन्होंने कहा कि देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ और इसी कारण इस विधेयक को पेश करना पड़ा। बकौल अमित शाह नेहरू लियाकत समझौते में अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की बात है भारत में इस समझौते को लागू किए जाने के बाद उस पर अमल किया गया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर बेहद जुल्म हुए उन्हें इतना सताया गया कि वह अपना घर बार छोड़कर भाग आए और यदि रहे तो अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा। जबकि भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्पसंख्यक समुदाय से या स्पष्ट करें तो मुसलमान रहे हैं। अब से पहले भी नागरिकता बिल में संशोधन हुआ है। जब श्रीलंका और युगांडा की समस्याएं आईं तो तत्कालीन भारत सरकार ने उसी हिसाब से बिल में संशोधन किया। आज फिर कुछ ऐसी समस्या उत्पन्न हुई है इसलिए कानून में संशोधन करने की जरूरत महसूस की गई है। इसे राजनीतिक नजरिए से नहीं मानवीय नजरिए से देखने की जरूरत है। अमित शाह ने स्पष्ट कहा इस विधेयक को हमारी लोकप्रियता से कोई लेना देना नहीं है हम चुनावी राजनीति अपने दम पर करते हैं।
उधर सोनिया गांधी ने इस विधेयक पर विरोध करते हुए कहा कि यह संविधान का काला दिन है और इसी तरह की संज्ञा से संविधान की इतिहास में इसे याद किया जा सकता है। सोनिया गांधी का कहना है यह कट्टरपंथी सोच वालों की जीत को दिखाता है। यह कुछ ऐसा है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लड़ाई लड़ी थी भारतीय संविधान के नींव के पत्थर के रूप में जाने जाने वाले डॉक्टर अंबेडकर ने भी कहा है कि अगर हमारे पड़ोसी देशों में लोगों को प्रताड़ित किया जाता है तो उन्हें नागरिकता देना हमारा कर्तव्य है। अमित शाह ने इसी बात को उठाते हुए कहा कि हमारे देश में लोकतांत्रिक पद्धति को कभी रोका नहीं गया, सिर्फ इमरजेंसी की अवधि में थोड़ा ऐसा हुआ। उन्होंने अफगानिस्तान , बांग्लादेश और पाकिस्तान के संविधान का हवाला देते हुए इन तीनों देशों का राज धर्म इस्लाम है और यह तीनों देश हमारी भौगोलिक सीमा से जुड़े हैं और इस्लामी हैं । इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय वहां हिंदू है और उनपर सारे जुल्म होते होते हैं इसलिए वह भागकर हमारे देश में आते हैं । शाह ने आंकड़े पेश करते हुए कहा कि हमने विगत 5 वर्षों में उपरोक्त 3 देशों के 566 मुसलमानों को भारत की नागरिकता दी है उन तीनों देशों में उन लोगों को नागरिकता दे रहे हैं जो अल्पसंख्यक हैं और धर्म के आधार पर उनको उत्पीड़ित किया जा रहा है विपक्षी दलों में इसे संविधान के समानता के अधिकार के विपरीत बताया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाएगा।
पूर्वोत्तर भारत में इस विधेयक का जमकर विरोध हो रहा है। जगह जगह छात्रों ने मार्च निकाला है और कई जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। उनका कहना है कि यह संविधान के विपरीत है। छात्रों के प्रदर्शन को देखते हुए वहां अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। लोग कह रहे हैं यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और कोर्ट में इसे निरस्त किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसा होता भी है तो जो व्यक्ति या जिस दल ने इसे कोर्ट में पहुंचाया है उसकी जिम्मेदारी होगी कि वो प्रमाणित करें कि यह संविधान के विपरीत है । इस विधेयक से संविधान के मूलभूत ढांचा नहीं बदला जा सकता है। यह मामूली कानून है जिसके जरिए संविधान का ढांचा बदलना मुश्किल है। इसलिए इस बात को कोर्ट में साबित करना कठिन हो जाएगा कि इससे संविधान का ढांचा बदला है और अब अगर कोर्ट से स्वीकार करता भी है तो हालात थोड़े से बदल सकते हैं । क्योंकि अब यह कोर्ट पर निर्भर करता है कि संविधान के मूलभूत ढांचे को कैसे परिभाषित करता है। अगर इसे कोर्ट में चुनौती दी गई तो देश ही नहीं संपूर्ण विश्व की निगाहें इस पर होंगी । बहुसंख्यक वाद के कारण कई बार संसद गलत कानून बना देती है तो ऐसी स्थिति में अदालत न्यायिक समीक्षा की अपनी ताकत को प्रयोग में लाते हुए इस पर अंकुश लगाती है और संविधान को बचाती है। अब अगर यह मामला कोर्ट में जाता है तो पूरी दुनिया की निगाहें इस पर होगी।
Thursday, December 12, 2019
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