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Friday, December 27, 2019

सीमा रेखा मत लांघिये जनरल साहब!

सीमा रेखा मत लांघिये जनरल साहब!

भारत के सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने गुरुवार को एक सार्वजनिक समारोह में सी ए ए के विरुद्ध आंदोलन पर टिप्पणी की। उनका ऐसा कहना भारतीय संविधान में विहित सीमा रेखा को लांघने की मानिंद है। भारतीय संविधान में सिविलियन और सैनिक दोनों के लिए एक सीमा रेखा बनी हुई है और उस सीमा रेखा को लांघना सिविलियन या उनकी नागरिक उच्चता के विरुद्ध है। हमारे संविधान में व्यवस्था है कि हमारी सेना किसी भी सत्तारूढ़ दल का औजार नहीं है और ना ही जनता के बीच के किसी आंदोलन में हस्तक्षेप करने की अधिकारी है। इसके लिए उसे सरकार से आदेश लेना होता है। बगैर इसके वह अगर कुछ ऐसा करती है तो वह गलत है। भारत की सेना अब तक गैर राजनीतिक रहती आयी है और उसने स्वेच्छा से संयम बरता है। भारत की सेना लोकतंत्र से बिल्कुल पृथक रहती है और यही इसकी प्रतिष्ठा है। सेना का  सबसे पहला  अभिव्यक्ति पूर्ण उपयोग  बांग्लादेश  युद्ध के दौरान  इंदिरा जी ने किया था। उन्होंने  हेनरी किसिंगर को  चाय पर बुलाया था  और  साथ ही  जनरल मानेकशॉ को भी  पूरी  वर्दी में  आने का  आदेश दिया था  इंदिरा जी  के साथ बैठे  हेनरी किसिंगर  जनरल मानेकशॉ को बावर्दी देख कर चौंक गए।   इसी के माध्यम से  उन्होंने  इशारा कर दिया  कि अब  सेना  मोर्चा संभालेगी। लेकिन तब भी जनरल मानेकशॉ ने अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। वे चाहते तो उस समय के वातावरण को देखते हुए बहुत कुछ कह सकते थे। बिपिन रावत एक ऐसे सेना प्रमुख हैं जिन्होंने पहली बार किसी    आंदोलन के बारे में सार्वजनिक तौर पर टिप्पणी की है और चेतावनी भी दी है। जबकि सच यह है कि जनरल साहब को कुछ ही दिनों में रिटायर होना है और उन्होंने ऐसे नाजुक मौके पर इतनी बड़ी बात की है। यहां जनरल साहब की बात सत्तारूढ़ दल की ध्वनि प्रतीत होती है और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। कुछ दिन पहले से हमारी सरकार सीएए के विरुद्ध आंदोलन को अपराध मूलक साबित करने में लगी हुई थी। अब एक फौजी उस पर टिप्पणी कर रहा है। जबकि सच यह है कि यह आंदोलन किसी नेता के बगैर चल रहा है। बेशक इस आंदोलन में हिंसक घटनाएं हुई हैं, तोड़फोड़ हुए हैं ,आगजनी हुई है लेकिन स्पष्ट रूप से इसमें कोई नेता नहीं दिखा है। नौजवान अपना असंतोष जाहिर करने के लिए सड़कों पर एकत्र हो गए और उन्होंने पथराव और तोड़फोड़ आरंभ कर दी। जनरल साहब ने इस आंदोलन पर उंगली उठाते हुए नेतृत्व की व्याख्या की।  उन्होंने कहा की " नेता वह नहीं जो देश को गलत दिशा में ले जाए। नेता वह है जो लोगों को सही दिशा दिखाए।" यहां एक प्रश्न है क्या जनरल बिपिन रावत यह बता सकते हैं कि इन  आंदोलनों का नेता कौन है?   अगर कोई नेता है  तो सरकार उससे बात क्यों नहीं कर पा रही है। सरकार उनसे बात नहीं कर पा रही है या कहें कि उसमें वार्ता की क्षमता खत्म हो रही है। वह अपनी इस कमजोरी को छुपाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग कर रही है और गिरफ्तारियां कर रही हैं । इंटरनेट बंद कर दिए जा रहे हैं , धारा 144 लगा दी जा रही है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रभाव सबसे ज्यादा दिख रहा है।
          सेना विशेषज्ञ और अवकाश प्राप्त सेना अधिकारियों का मानना है कि इस तरह के खुल्लम खुल्ला बयान कम से कम जनरल रावत के स्तर के अधिकारी को नहीं देना चाहिए था। यह एक राजनीतिक बहस है और यहां तक कि पाकिस्तान में भी ,जो  राजनीति में  सेना के हस्तक्षेप के लिए बदनाम है  वहां भी , ऐसी बहस नहीं सुनी देखी गई है। वायु सेना के अवकाश प्राप्त  वाइस मार्शल कपिल काक ने कहा है कि " सेना को किसी सियासत में नहीं पड़ना चाहिए। खास करके भारतीय सेना जो राजनीति विहीन है। सेना के नेतृत्व को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि भारतीय जनता किसी भी संकट में सेना की ओर ही देखती है।" पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल रामदास ने कहा है की हमारे देश में स्पष्ट नियम  हैं कि "हम यानी सैनिक देश के लिए काम करते हैं देश की सेवा करते हैं ना कि राजनीति के लिए काम करते हैं। आज जो सुना गया है वह बिल्कुल गलत है ऐसा किसी भी पद पर रहने वाले अधिकारी को नहीं कहना चाहिए।"
         विगत साढ़े 5 वर्षों में भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में बड़ा उग्र तेवर अपनाया है और इस क्रम में सेना को भी शामिल कर लिया है। उसे देवता के बराबर का स्थान दे दिया है। समस्त आलोचकों ,विरोधियों और एक बड़ी आबादी को बाहरी दुश्मन खास करके पाकिस्तान समर्थक पहचान से जोड़ दिया गया है । मोदी सरकार और सेना के बीच का अंतर  धुंधला होता गया है। खासकर के राष्ट्रीय सुरक्षा की जवाबदेही के मामले में। भारतीय जनता ने सरकार को नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान के विरुद्ध  आक्रामक रणनीति अपनाते देखा है। यह एक तरह से सैन्य रणनीति थी ।  कश्मीर में धारा 370 हटा दिया गया। राज्य का विशेष दर्जा भी खत्म कर दिया गया। इसके बाद वहां एक अनिश्चित सी हालत है जैसे कहीं तालाबंदी हो गई हो। 2016 में भी जन आंदोलन में आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों का निहत्थे लोगों द्वारा विरोध के मामले में देखा गया। सेना आतंकवादियों और नागरिकों में अंतर नहीं कर रही  थी। नोटबंदी से लेकर बालाकोट  हमले तक में सेना को किसी न किसी रूप में राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते पाया गया है।  चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा को मसला बनाया गया। यह एक तरह से सेना का बिंब के रूप में प्रयोग किया जाना था। हमारी वायु सेना के बड़े अफसरों ने राफेल जेट विमानों से सौदे का खुलकर समर्थन किया। उनका काम मूल्यांकन करना, तकनीकी पैकेज को देखना, दीर्घकालीन रखरखाव के पैकेज का आकलन करना इत्यादि था ना कि सौदे का समर्थन करना। इससे सेना की निष्पक्षता को लेकर गंभीर संदेह पैदा हो गया। यहां  जिज्ञासा होती है कि क्या हमारी सेना का राजनीतिकरण हो गया है? क्या सेना किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक विचारधारा का औजार हो गई है? यह भारत के लिए बेहद राहत की बात है कि इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर अभी भी हमारी फौज और अराजनीतिक नैतिकता से बंधी हुई है। इसके बावजूद राजनीतिक माहौल बदल गया है और कुछ अधिकारी वह बयान दे रहे हैं जो उन्हें नहीं देना चाहिए। ऐसे में भी राजनीतिक किस्म के बयानों के दोषी बड़े अधिकारियों को सावधान नहीं किया गया बल्कि उनका बचाव किया गया। उनकी पीठ ठोकी गई । लेकिन यह भारत के सौभाग्य की बात है। इसके बावजूद हमारी सेना का राजनीतिकरण नहीं हुआ और अपना स्वार्थ साधने में लगी राजनीतिक जमात इसको अंजाम भी नहीं दे सकी । ऐसी स्थिति का बचाव करने से अच्छा है कि हमारे फौजी आत्म निरीक्षण करें ताकि कोई संकट न पैदा हो जाए।


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