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Monday, January 13, 2020

पाकिस्तान को देना होगा उत्तर

पाकिस्तान को देना होगा उत्तर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को विश्व प्रसिद्ध बेलूर मठ में अपने एक संबोधन के दौरान कहा कि नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए) को लेकर विपक्षी दल नौजवानों को भड़का रहे हैं ,उन्हें गुमराह कर रहे हैं । मंत्री ने कहा यह कानून लोगों से नागरिकता लेने के लिए नहीं नागरिकता देने के लिए है। हावड़ा में बेलूर मठ में एकत्र  जन समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि "आज राष्ट्रीय युवा दिवस पर मैं फिर से देश के नौजवानों से, पश्चिम बंगाल के नौजवानों से , उत्तर - पूर्व के नौजवानों से ,जरूर कुछ कहना चाहता हूं। उन्होंने कहा कि, ऐसा नहीं है कि देश की नागरिकता देने के लिए रातों-रात कानून बनाया गया है। हम सबको पता होना चाहिए कि दूसरे देश से किसी भी धर्म के किसी भी व्यक्ति को जो भारत में आस्था रखता है, भारत के संविधान को मानता है ,भारत की नागरिकता ले सकता है। कोई दुविधा नहीं है।" इसमें प्रधानमंत्री ने कहा कि "मैं फिर कहूंगा कि सीएए नागरिकता छीन लेने के लिए नहीं है यह नागरिकता देने के लिए है। इस कानून में भारत की नागरिकता देने के लिए सहूलियत और बढ़ा दी गई है। यह सहूलियत किसके लिए बढ़ी है? यह उन लोगों के लिए बढ़ाई गयी है जिन पर बंटवारे के बाद बने पाकिस्तान में उनकी धर्म - आस्था की वजह से अत्याचार हो रहा है।" प्रधानमंत्री ने कहा हमने वही किया है जो महात्मा गांधी ने दशकों पहले कहा था। क्या हम इन शरणार्थियों को मरने के लिए वापस भेज दें? क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है? क्या उन्हें भारत का नागरिक बनाया जाना चाहिए या नहीं? प्रधानमंत्री ने कहा की सीएए को लेकर जो विवाद उठा है उससे दुनिया ने देखा है कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ कितना अत्याचार हो रहा है। अब हमारी इस पहल से पाकिस्तान को दुनिया के सामने जवाब देना होगा कि उसके देश में अल्पसंख्यकों के साथ क्या हो रहा है?
       अब से 22 दिन पहले 22 दिसंबर 2019 को रामलीला मैदान में सीएए का विरोध करने वालों पर प्रधानमंत्री ने कहा इसे लेकर विपक्ष अफवाहें फैला रहा है। यह किसी  की नागरिकता  छीनने के लिए नहीं है बल्कि देने के लिए है । यह पहला वाकया था जब प्रधानमंत्री ने इन विरोध प्रदर्शनों पर चुप्पी तोड़ी थी और इस वाकए के ठीक 22 दिन के बाद प्रधानमंत्री ने सीएए का बचाव लगभग इसी सुर में किया। उन्होंने इस बार भी विपक्ष पर हमने बोले। लेकिन बड़ी अजीब बात है कि प्रधानमंत्री ने जब पाकिस्तान पर निशाना साधा तो वह बांग्लादेश और अफगानिस्तान पर चुप्पी साध गए। उनका कोई जिक्र नहीं किया।
    इतनी अपील और बयानों के बाद भी विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है। सरकार जनता को संतुष्ट क्यों नहीं कर पा रही है? विरोध , रूसो के मुताबिक, लोकतंत्र की खूबसूरती है। आप जिस विचार को मानते हैं उस पर शत प्रतिशत लोग सहमत हो जाएं ऐसा लोकतंत्र में संभव नहीं है। यह  लोकतंत्र की खूबसूरती है उसमें असहमतियों को जगह दी जाती है। प्रधानमंत्री की चिंता हिंसक घटनाओं को लेकर है। विपक्ष को भी जनता ने ही चुनकर भेजा है। उसका काम है कि देश के खिलाफ अगर सरकार कुछ करती है तो उसका विरोध करें। प्रधानमंत्री के रुख से कितने लोग सहमत या असहमत हैं इसका एक छोटा सा उदाहरण विश्वविद्यालयों से समझा जा सकता है। देश में सरकारी और डीम्ड विश्वविद्यालयों की कुल संख्या 900 है। लेकिन यह विरोध सिर्फ पांच या छः विश्वविद्यालयों में हो रहा है उसमें भी बड़ी संख्या में छात्र ऐसे हैं जो उनके साथ नहीं हैं। इन विरोध प्रदर्शनों में प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक विरोधी भी हैं। शनिवार को कांग्रेस कार्यकारिणी का एक संकल्प पत्र भी आया था जिसमें स्पष्ट कहा गया था कि वह इसका विरोध करेगी। वामपंथी दल पहले से ही विरोध कर रहे हैं। लेकिन, जामिया मिलिया और जेएनयू में जो विरोध हुआ जिस तरह की हिंसक घटनाएं हुई उसने विरोध प्रदर्शनों को और हवा दे दी और मामला सीएएए से आगे बढ़ गया है। इसमें सबसे जरूरी है कि प्रधानमंत्री छात्रों से बातें करें ।सरकार छात्रों से बातें करे। प्रधानमंत्री इस मामले पर केवल पाकिस्तान पर उंगली उठाते हैं। उन्होंने कभी नहीं कहा कि जामिया की लाइब्रेरी में घुसकर लड़कियों को क्यों पीटा गया? जेएनयू में एक लड़की का सिर क्यों फोड़ा गया? जरा गौर करें, क्या दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर कर्नाटक, बंगलुरु ,लंदन और न्यूयॉर्क में होने वाले  विरोध प्रदर्शन राजनीतिक पार्टियों से प्रेरित हैं, शायद नहीं। जो लोग विरोध कर रहे हैं ऐसा नहीं कि वह सत्तारूढ़ पार्टी और उसकी विचारधारा की भी समर्थक हों, लेकिन विपक्षी दलों के प्रदर्शनकारियों की बात बनेगी नहीं। अगर आज यह पार्टियां कह दें कि वे सरकार का समर्थन करती हैं तो कल से प्रदर्शन समाप्त हो जाएंगे ऐसा नहीं है। विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को भरोसा है कि यह विपक्षी पार्टियां उनका साथ देंगी ,लेकिन वह कितना लड़ेंगे यह स्पष्ट नहीं है। यहां एक बात और है कि राजनीतिक पार्टियों की उतनी भागीदारी नहीं है जितनी प्रधानमंत्री जी और उनके मंत्री बढ़ा चढ़ाकर बोल रहे हैं । प्रधानमंत्री जी ने अपने कोलकाता दौरे में सिर्फ सीएए पर बोला। उन्होंने छात्रों पर कुछ नहीं बोला, जेएनयू के बारे में कुछ नहीं बोला। वह सिर्फ राजनीतिक पार्टियों पर उंगली उठा रहे हैं। सीएए और जेएनयू को लेकर फिल्मी हस्तियां भी विरोध कर रही हैं। यह विरोध प्रदर्शन उदार, आधुनिक चेतना वाले लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। इससे मोदी सरकार को डर हो गया है तभी टुकड़े-टुकड़े गैंग और अर्बन नक्सल जैसे शब्द लेकर आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रामलीला मैदान में कहा था एनआरसी पर अभी तक मंत्रिमंडल में कोई बातचीत नहीं हुई है। गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा था कि फिलहाल एनआरसी नहीं लाया जा रहा है। लेकिन वे लगातार कहते आए हैं कि पहले सीएए आएगा फिर एनआरसी । प्रधानमंत्री या सरकार यह स्पष्ट भी कर देती है कि एनआरसी नहीं लाया जाएगा  तो क्या यह प्रदर्शन समाप्त हो जाएंगे। क्योंकि यहां बात कुछ लाने की नहीं है बल्कि नीयत की हो रही है अगर वह घोषणा कर भी देते हैं कि एनआरसी नहीं लाया जाएगा तो प्रदर्शनकारी कहेंगे हमें इस पर विश्वास नहीं है सरकार झूठ भी बोल सकती है। पिछले छह-सात महीने के घटनाक्रम को देखें। तीन तलाक कानून , धारा 370, सुप्रीम कोर्ट का अयोध्या पर फैसला कहीं किसी ने विरोध नहीं किया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सब उसका समर्थन कर रहे हैं। इस पर एक उलझन पैदा हो गई है। यह कानून भारतीय मुसलमानों के खिलाफ है। अब इंतजार किया जाना चाहिए कि सरकार अगर एनआरसी लाती है उसका तरीका क्या होगा? इसके बाद अगर कोई आपत्ति हो तो विरोध प्रदर्शन करना चाहिए। शायद ऐसा नहीं है। क्योंकि, सरकार यदि इस मसले पर विचार साफ भी कर दे शायद प्रदर्शन  नहीं रुकेगा। क्योंकि इन प्रदर्शनों को पीछे से महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे हवा दे रहे हैं। भारत जैसे संस्कृति उन्मुख देश में यह कोई नई बात नहीं है। यहां जब भी आंदोलन हुए हैं तो संस्कृति और जातियों को आगे रखा गया है, और सारी बातें उनकी आड़ में हुई है । चाहे वह नानक का सिख आंदोलन हो या  शिवाजी का मराठा आंदोलन हो या गांधी का नमक सत्याग्रह अथवा सत्ता की दौड़ में लक्ष्य तक पहुंचने की हड़बड़ी में भारत का विभाजन हर आंदोलन में कुछ ना कुछ अवांतर तथ्य होता है जो किसी दूसरे मसले की पृष्ठभूमि में खड़ा होता है। यहां भी सीएए के विरोध में कई अन्य सामाजिक आर्थिक कारण हैं। सरकार को उसके प्रति जनता को विश्वास में लेना चाहिए।


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