CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, January 7, 2020

अब खतरा शिक्षा को है

अब खतरा शिक्षा को है 

रविवार की रात कुछ असामाजिक तत्त्वों द्वारा नकाब बांधकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में हिंसा को अंजाम दिया जाना एक ऐसी घटना है जिसका राजनीतिक पक्ष चाहे जो हो लेकिन हमारे भविष्य के लिए शिक्षा को खतरा पहुंचाने वाला भी है। यह रोजाना विश्वविद्यालय उसके कर्मचारियों और प्रोफेसरों पर हमले को चाहे जिस राजनीतिक चश्मे से देखें लेकिन उसका असर देश के नौजवान पीढ़ी पर जरूर पड़ेगा। यह जो कुछ भी हुआ वह एक दिन में नहीं हुआ है। जब से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय व्यवस्था विरोध का परिसर बना तब से यह कोशिशें रही हैं। उसे राष्ट्र विरोधी घोषित किया जा रहा है और इसलिए उसे दंडित किया जाना चाहिए,  ऐसी हवा बह रही है। भाजपा इन सब कार्यों के लिए टुकड़े-टुकड़े गैंग और शहरी नक्सल  जिम्मेदार बता रही है। जबकि विपक्ष का कहना है कि यह सब सत्तारूढ़ दल के संगठन द्वारा किया जा रहा है। लगातार तू तू मैं मैं हो रही है । लेकिन इससे देश के विश्वविद्यालयों में शिक्षा का वातावरण बहुत तेजी से खराब हो रहा है:
इस बरस हमने जमीनों में धुंआ बोया है
फल नहीं आएंगे अब शाखों पर बम आएंगे

खबरें बताती है की लगभग 30 नकाबपोश लाठी डंडे लेकर रविवार की शाम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय  परिसर में  घुस आए। उन्होंने तोड़फोड़ की तथा छात्रों को पीटा। कई घंटे तक चले इस तोड़फोड़ में छात्राओं के साथ भी मारपीट की गई । छात्राओं का आरोप है गेट पर मौजूद पुलिस मदद मांगने के बावजूद अंदर नहीं आई।  पुलिस ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। जबकि पुलिस का कहना है कि इस मामले में वह वाइस चांसलर से अनुमति मिलने का इंतजार कर रही थी। इसलिए परिसर में  नहीं आ रही थी। हालांकि, पुलिस का यह जवाब भी माकूल नहीं था, क्योंकि ,जामिया मिलिया में सीएए के  विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ने छात्रों को लाठियों से पीटा और कई छात्रों पर तोड़फोड़ के आरोप भी लगे। पुलिस का कहना है इस घटना पर प्राथमिकी दर्ज कर ली गई है और जांच चल रही है।
     इस मामले पर कई पुलिस अधिकारियों की राय कुछ अलग है। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह का मानना है कि यदि परिसर में पुलिस घुस जाती तब भी उसकी आलोचना होती। बिना अनुमति के वह कैसे भीतर आई? आपातकाल की एक बात याद आती है कि जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर छात्रों के आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस ने विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों में घुसकर कार्रवाई की थी और इसके बाद इसका भयानक परिणाम हुआ था। इसके बाद सरकारी आदेश हो गया था किT रिप्लेस प्राचार्य या कुलपति के अनुमति के बगैर परिसर में नहीं प्रवेश कर सकती है और अगर परिसर में प्रवेश करना बहुत आवश्यक हुआ तो पुलिस का इक्का-दुक्का अधिकारी भी बावर्दी भीतर नहीं जा सकता। उसे नागरिक लिबासों में ही भीतर जाना होगा। जेएनयू की इस घटना में भी लगभग यही समीकरण काम कर रहा है। प्रश्न यह है कि विश्वविद्यालय  प्रशासन ने कितने बजे पुलिस को बुलाया, पुलिस कब पहुंची।  छात्र संघ का कोई पदाधिकारी अगर पुलिस को भीतर बुलाता है तो पुलिस नहीं आ सकती। क्योंकि इसके बाद सवाल उठेंगे कि बिना बुलाए पुलिस अंदर क्यों आई? हालांकि इस थ्योरी में एक दोष है कि अगर पुलिस घटनास्थल पर खास करके विश्वविद्यालय परिसर में इसी तरह अनुमति का इंतजार करती रही तो बहुत कुछ हो सकता है। इस परंपरा को तोड़ना होगा। क्योंकि, आजकल के हमलावर खासकर के नौजवान लड़के पिस्तौल, छुरी लेकर ,बम लेकर परिसर में घुसते हैं ।  अगर पुलिस  को सूचना प्राप्त होती है तो उसे कैंपस में जाकर तुरंत घटना को रोकना चाहिए। वाइस चांसलर की अनुमति का इंतजार नहीं करना चाहिए। लेकिन इस स्थिति को हमारे समाज को भी स्वीकार करना होगा। समाज और मीडिया अपने हिसाब से चीजों को देखती है । जहां सुलभ है या उनका नजरिया मिलता है वहां तो वह कह देते हैं कि पुलिस को अंदर जाना चाहिए और जहां उनका नजरिया नहीं मिलता है वह इसका विरोध करते हैं। इस नजरिए को बदलना होगा क्योंकि आजकल लगभग हर बड़े विश्वविद्यालय के परिसर में हिंसक घटनाएं हो रही हैं। जेएनयू से जादवपुर तक हाल के दिनों में हुई हिंसक घटनाओं को देखा जा सकता है। अगर पुलिस हर बात पर अनुमति मांगती रही तो हो सकता है परिसर के भीतर कुछ छात्रों की हत्या भी हो जाए। यहां एक सवाल उठता है कि क्या पुलिस के क्या सूत्रों के पास ऐसी घटनाओं की जानकारी नहीं थी और अगर थी तो उस पर एक्शन क्यों नहीं लिया गया। इससे पुलिस पर से भरोसा घटता है।
      दूसरी तरफ विश्वविद्यालय परिसर में हुई घटना को लेकर छात्र संघ के पदाधिकारी और सदस्य एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। ऐसी स्थिति किसी भी पुलिस के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। दिल्ली की इन घटनाओं को अगर उदाहरण स्वरुप लें तो ऐसा लगता है यह पुलिस ने अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई। दिल्ली की एक अदालत के में घुसकर कर पुलिस ने वकीलों से मारपीटJ की जामिया मिलिया में सीए ए का विरोध करने वाले छात्रों को परिसर में घुसकर पुलिस ने पीटा और जेएनयू में आंख के सामने छात्र  पिटते रहे पुलिस से मदद की गुहार लगाकर रहे लेकिन प्लेस परिसर में नहीं आई। दिल्ली पुलिस लीडरशिप में यह एक भयानक चूक है। या, प्रशिक्षण में मौजूदगी में और इंटेलिजेंस में कचू ही न कही है या फिर तीनों जगह है इस घटना के लगभग 24 घंटे से ज्यादा हो गए लेकिन अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हो सकी। घायल छात्रों को ट्रामा सेंटर पहुंचाया गया।पुलिस का कहना है कि इस घटना की क्राइम ब्रांच जांच करेगी और सारे सीसीटीवी फुटेज इकट्ठे किए जा रहे हैं। जांच शुरू कर दी गई है हालांकि कई भूतपूर्व पुलिस अधिकारियों का मानना है कि हमारे देश   में पुलिस स्वतंत्र नहीं है। जो भी सरकार सत्ता में होती है उसका असर उस पर होता है। इस सियासत को चाहे आप जिस नजरिए से देखें
      उसको मजहब कहो या सियासत कहो
       खुदकुशी का हुनर तुम सिखा तो चले

ऐसा चाहे जो कुछ भी हो लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कि जिस उद्देश्य के लिए किसी विश्वविद्यालय की स्थापना होती है वह उद्देश्य पूरा होता  नजर नहीं आ रहा है। किसी भी विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य वहां पढ़ाई होती है अभी जो कुछ भी हुआ उसमें चाहे जो समीकरण काम करता हो लेकिन सबसे ज्यादा आघात शिक्षा को लगा है। यह एक अजीब नियति है हमारे छात्रों नौजवान छात्र ऐसी उत्तेजित स्थितियों में कूद पड़ते हैं और फिर सियासत के औजार बन जाते हैं। इन आंदोलनों में भी वही हो रहा है:
     जिस तरह चाहो बजाओ तुम हमें
      हम नहीं हैं आदमी ,हम झुनझुने हैं


0 comments: