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Sunday, January 19, 2020

केवल भारत में ही ऐसा नहीं है

केवल भारत में ही ऐसा नहीं है 

भारत में इन दिनों नागरिकता संशोधन कानून और उसी तरह की कई और बातों को लेकर देशभर के कई हिस्सों में व्यापक प्रदर्शन हो रहे हैं ,धरने दिए जा रहे हैं महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल हैं । लेकिन यह केवल भारत की ही बात नहीं है। यह इस वर्ष एक फिनोमिना बन गया है जिस पर समाज वैज्ञानिक अध्ययन की भारी जरूरत है।
    जरा गौर करें , पिछले चंद महीनों में दुनिया के कई देश जैसे अल्जीरिया, कोलंबिया, चेक रिपब्लिक ,सूडान ,लेबनान, फ्रांस ,स्पेन, हांगकांग , इक्वाडोर , इराक, ईरान तथा कई अन्य देश हैं जहां लाखों की संख्या में जनता सड़कों पर उतरी और शासन को घुटने पर खड़ा कर दिया । कई देशों के शासनाध्यक्षों को पद त्यागना पड़ा। कुछ देशों में नए चुनावों की घोषणा हुई कहीं  नए संविधान तैयार करने के लिए जनमत संग्रह का ऐलान किया गया । कुल मिलाकर देखने में यह आया है कि कई बार या कई मामलों में सरकार को पीछे हटना पड़ा है और आंदोलनकारियों की मांगों को स्वीकार करना पड़ा है। लेकिन ऐसे विरोध प्रदर्शनों का जो कई महीनों से देशव्यापी स्तर पर चल रहे हैं उन्हें कई स्थानों पर सरकार ने कुचलने की भी कोशिश की। बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए ,घायल हो गए ,जेल चले गए लेकिन प्रदर्शन नहीं रुके। सरकार को प्रदर्शनकारियों की बात माननी पड़ी। ज्यादातर देशों में उनकी मांगे थी सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक और लोक जन कल्याण कारी राज्य की स्थापना । उनका दौर 2019 की शुरुआत में अल्जीरिया में तानाशाही खत्म करने की मांग के साथ शुरू हुई। अल्जीरिया में दो दशक से अब्देलअजीज बोतैफ़्लिका शासन पर काबिज थे और उन्होंने पांचवीं बार राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की । बस अल्जीरिया में विरोध शुरू हो गया और यह विरोध सुलगता हुआ    देशभर में फैल गया।   इस  विरोध ने प्रचंड ज्वाला में बदल गया। लगभग तीन लाख लोग सड़कों पर उतर लियाआए या विरोध 3 महीने के अंत में अब्देलअजीज को इस्तीफ पड़ा। वहां अंतरिम सरकार की घोषणा हुई और उसी कथा चुनाव कराने की भी घोषणा हुई राष्ट्रपति के इस्तीफे से यह मांग शुरू हुई थी और धीरे-धीरे या बढ़ती गई आंदोलनकारियों का कहना है कि राष्ट्रपति का इस्तीफा तो महज एक छोटी सी मांग थी जिसमें जीत हासिल  हो गई यह अभी बहुत छोटी सी जीत थी ।अल्जीरिया के लोगों का कहना है कि अभी  शासन तंत्र को पूरी तरह लोकतांत्रिक बनाना होगा वे इसी पर डटे हुए हैं। अल्जीरिया में संघर्ष की शुरुआत एकाधिकारवादी शासन के खिलाफ थी वहीं अक्टूबर में  सेंटियागो में मेट्रो के किराया वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ और यह देखते देखते जीने के बुनियादी सामानों की कीमतों में वृद्धि , समानता और निजी करण के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन में बदल गया। अक्टूबर के अंत में लाखों लोग सड़क पर उतर आए। राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग शुरू हो गई। 26 अक्टूबर को सुरक्षा बलों की गोलियों से 19 आदमी भून दिए गए, लगभग  हजार लोग घायल हुए और लगभग इतने ही लोगों को गिरफ्तार किया गया। लोगों के विरोध को देखते हुए राष्ट्रपति किन्नेरा को अपने आठ एवं मंत्रियों को हटाना पड़ा और वहां की संसद को नए संविधान के निर्माण के लिए जनमत संग्रह की घोषणा करनी पड़ी । इस जनमत संग्रह के लिए इस वर्ष अप्रैल में तय किया गया है।
      वेनेजुएला और बोलीविया में भी आंदोलन शुरू हुए और राष्ट्रपति को पद त्यागना पड़ा। 21 नवंबर 2019 को कोलंबिया में राष्ट्रपति युवान को पद छोड़ना पड़ा। यह प्रदर्शन देशव्यापी था। पिछले साल इराक में भी  आंदोलन हुए और इसमें 300 लोग मारे गए। 1 अक्टूबर से 26 अक्टूबर के बीच एक भी ऐसा दिन नहीं रहा जब इराक के राष्ट्रपति  के खिलाफ प्रदर्शन नहीं हुए। प्रदर्शनकारियों ने अभाव और और बेरोजगारी जैसे मुद्दों के खिलाफ प्रदर्शन किया।
     लेबनान में एक नए किस्म  का जन आक्रोश दिखाई पड़ा। लंबे समय से धार्मिक तथा अन्य आधारों पर जनता के बीच बनी खाई को पाटते हुए हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए। इसकी शुरुआत इंटरनेट वॉइस कॉल की फीस में वृद्धि को लेकर हुई थी।  देखते ही देखते देशव्यापी आंदोलन बन गया । अंत में प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। इक्वाडोर में भी ईंधन सब्सिडी और अन्य जन कल्याणकारी योजनाओं में कटौती के खिलाफ प्रदर्शन हुए और अंत में सब्सिडी में कटौती वापस लेनी पड़ी। 2018 में येलो वेस्ट आंदोलन आरंभ हुआ। फ्रांस को बड़े आंदोलनों और प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा आंदोलन कई दिनों तक जारी रहा और अंत में राष्ट्रपति मैक्रोन को आंदोलनकारियों की बात माननी पड़ी। इस बीच प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों में टकराव की कई घटनाएं हुई। बुनियादी लोकतांत्रिक मौलिक अधिकारों को लेकर हांगकांग में शुरू हुए। विरोध थम नहीं रहे हैं । 16 जून को यहां आंदोलन शुरू हुआ था। करीब दो लाख लोग सड़कों पर उतर गए थे। विश्वविद्यालय और अन्य शिक्षा संस्थान संघर्षों के केंद्र बन गए । सड़कों पर सुरक्षाबलों और प्रदर्शनकारियों के बीच टकराव आम बात हो गई। 2019 के जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलता रहा। फ्रांस से लेकर स्पेन तक और यूरोप के अधिकांश देशों में वैश्विक तापमान में वृद्धि को रोकने के प्रति सरकारों की अनिच्छा के प्रति व्यापक गुस्सा देखा गया।
         साल खत्म होते-होते भारत में भी बड़े पैमाने पर जनता सीएए, आर सी के खिलाफ सड़कों पर उतर आई। 10 साल पहले अरब स्प्रिंग के नाम से जो आंदोलन शुरू हुआ था वह 2019 के विरोध प्रदर्शन तक चालू रहा। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह थी की इसका कोई नेतृत्व नहीं कर रहा था। स्पष्ट रूप से कोई स्थापित राजनीतिक दल या नेता इसका नेतृत्व नहीं कर रहा था, बल्कि इनके प्रति एक व्यापक मोहभंग दिखाई पड़ रहा था। जनता की सामूहिक पहल  मुख्य थी।  आज भी परंपरागत स्थापित विपक्षी राजनीतिक दल या नेता इसमें नेतृत्व नहीं कर रहा है। इन विरोध प्रदर्शनों में देशव्यापी स्तर पर प्रदर्शनकारियों को जोड़ने वाली योजना बनाने का सबसे बड़ा उपकरण ऑनलाइन और ऑफलाइन सोशल मीडिया रहा है। भारत में भी जो प्रदर्शन चल रहे हैं उन्हें भी यह प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं।


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