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Friday, January 17, 2020

मन में कोई चोर छुपा है क्या?

मन में कोई चोर छुपा है क्या?

इन दिनों एक कविता बहुत वायरल हो रही है उसका शीर्षक है "हम कागज नहीं दिखाएंगे।" दरअसल इस कविता को नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी ए ए) का विरोध करने वाले लोगों "पंचलाइन" बन गई है। इसमें यह दिखाने के प्रयास है कि भारत अविभाजित है, सी ए ए को लागू करने वाले इसे बांटना चाहते हैं। " जहां राम प्रसाद बिस्मिल है उस माटी को कैसे बांटोगे।" लेकिन इसी के उलट एक और कविता वायरल हो रही है फेसबुक और अन्य सोशल मीडिया पर कि " क्या मन में कोई चोर छुपा है, इसलिए कागज नहीं दिखाओगे ।" खैर, सीएएए के संदर्भ में यह देखने दिखाने की बात अलग है। अब तो भारत की राजनीतिक पार्टियां और नरेंद्र मोदी की सरकार खुद सूचना साझा करने कि अपनी कानूनी तथा नैतिक प्रतिबद्धताओं से पिछड़ती जा रही है। भारत में चुनाव के दौरान खर्च एक बड़ी समस्या है ,क्योंकि उस खर्च के लिए पैसे कहां से आए , उनका स्रोत कहां है, यह पूरी तरह पारदर्शी नहीं है। विख्यात पत्रकार पौल क्रूगमैन न्यूयॉर्क टाइम्स में  लिखा था कि "भारतीय चुनाव पूरी तरह से काले धन पर ही निर्भर है। राजनीतिक दल चाहे वह कोई भी हो इससे बचने या पूरी सूचना नहीं मुहैया कराने का कहीं न कहीं से उपाय खोजे ले रहे हैं और नए-नए उपाय खुलते जा रहे हैं। " 2017 में  राजनीतिक दलों को धन कहां से मिला इस बारे में आम नागरिक को या तो बिल्कुल जानकारी नहीं थी या थी बहुत मामूली थी। हमारे देश का जो जनप्रतिनिधि कानून है उसके मुताबिक किसी भी राजनीतिक दल को ₹20,000 से अधिक मिले चंदे के स्रोत के बारे में जानकारी देना जरूरी है। बहुत से दल ऐसे हैं जो जरूरी कानून को नजरअंदाज कर जाते हैं । उन्होंने इसके लिए एक शॉर्टकट तलाश लिया है कि जो धन मिला वह 20,000 से कम था। उदाहरण के लिए बसपा के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक पार्टी ने 13 वर्षों में ₹20,000 से ज्यादा का चंदा ही नहीं लिया। यद्यपि अन्य बड़े दल की जानकारी मिल जाती है और इसी कारण पता चला कि 2017- 18 में दो प्रमुख दलों को सर्वाधिक चंदा "प्रूडेंट इलेक्टरल ट्रस्ट " ने दिया था। इस ट्रस्ट में भारती इंटरप्राइजेज सहित कई कंपनियां शामिल हैं। याद होगा कि  2017 का बजट स्वर्गीय अरुण जेटली ने पेश किया था और इसी बजट से चुनावी बांड की शुरुआत हुई थी। चुनावी बांड के बाद मोदी सरकार ने राजनीतिक दलों पर वित्तीय जवाबदेही के भार को काफी कम कर दिया। एसबीआई की 29 शाखाओं में से किसी से यह बांड खरीदे जा सकते हैं और इन्हें पूरी तरह गोपनीय रखा जाता है। जनता इनके बारे में केवल यही जानती है कि किस पार्टी को कितनी राशि प्राप्त हुई । जनता को यह जानने का कोई अधिकार नहीं है कि राजनीतिक दलों को इतने रुपए कौन दे रहा है। साथ ही साथ चुनावी बांड के जरिए राजनीतिक दलों को मिल रहे धन की मात्रा रोज बढ़ती जा रही है। पार्टियों को मिलने इस धन का अनुपात 2017 -18 और 2018 -19 के मध्य भाजपा को बांड से प्राप्त राशि तीन गुनी हो गई। कांग्रेसी भी  पीछे नहीं रही । इसे प्राप्त चंदे का स्रोत 2.5 प्रतिशत से बढ़कर 40% हो गया। राजनीतिक दल अपनी आमदनी बढ़ाते जा रहे हैं और छानबीन या जांच के दायरे से बाहर निकलते जा रहे हैं। उन्हें यह सुविधा प्राप्त है कि वे प्राप्त धन का कागज नहीं दिखाएंगे।
       सूचना के अधिकार के तहत जब एक करोड़ से अधिक की राशि के चुनावी बांड खरीदने वालों के नाम मांगे गए तो एसबीआई की चिन्हित 23 शाखाओं से जवाब हासिल हुए कि यह सूचना सार्वजनिक नहीं की जा सकती, क्योंकि यह परस्पर विश्वास से जुड़ी है और सूचना के अधिकार से जुड़े कानूनों में इस का कोई प्रावधान नहीं है। यानी, एक तरह से यह सूचना हासिल करने के जनता के अधिकार का उल्लंघन है। सरकार या अधिकारियों में इस विषय के सार्वजनिक व्यापक हितों पर ध्यान नहीं दिया है । अब जिन व्यवसायिक कंपनियों ने अपने व्यवसाय के हितों के लिए राजनीतिक दलों को एक तरह से खरीदा है या तकनीकी तौर पर कहें  अनुगृहीत किया है अब उनके बारे में जनता को कोई जानकारी नहीं मिलेगी । अब  जनता के लिए सरल नहीं रह गया कि निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए किसका हित सर्वोपरि है, आम जनता का या उन व्यवसायिक घरानों का जिन्होंने उन्हें भारी चंदे दिए । इस स्थिति से एक गंभीर कन्फ्यूजन पैदा होगा।  टकराहट शुरू होगी समाज में विवाद बढ़ेगा। राज्यसभा के सदस्यों के लिए भी कुछ कानून है कि वह अपने धन के स्रोत की जानकारी दें। लेकिन, ऐसा नहीं होता। सांसदों के लिए बनाई गई है व्यवस्था आदर्श नहीं है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि भगोड़े शराब व्यापारी   किंगफिशर एयरलाइंस का मालिक विजय माल्या नागरिक उड्डयन से जुड़ी संसदीय समिति का सदस्य स्वयं इसका गवाह है। इससे सरकार के प्रति आम जनता में एक खास किस्म का दुराव होता जा रहा है। गौर करें, यह केवल भाजपा सरकार से नहीं है किसी भी सरकार से है। राजनीतिज्ञों को आम जनता धन के मामले में ईमानदार नहीं समझती है। उन्हें जनसेवक की सुविधाएं प्राप्त हैं लेकिन जनसेवा के मामले में उन पर भरोसा करना मुश्किल है क्योंकि एक कहावत है हमारे देश में जो राजनीति करते हैं इससे ज्यादा दौलत कमाते हैं। उन्हें अपने आय के स्रोत को छिपाने की सुविधाएं हासिल हैं । उन्हें अपनी आमदनी के  कागज नहीं  दिखाने पड़ते हैं और न पड़ेंगे। वे कागज नहीं दिखाएंगे और जब कागज नहीं दिखाएंगे तो यहां वही बात आती है:
    मन में कोई चोर छुपा है,
   क्यों कागज नहीं दिखाओगे


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