इन दिनों नागरिकता को लेकर कई आंदोलन चल रहे हैं। उसमें छात्रों की भूमिका स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। मंगलवार को कोलकाता विश्वविद्यालय में राज्यपाल को नहीं प्रवेश करने दिया गया। उनका कार्यक्रम रोक दिया गया। यही हालत दिल्ली, बनारस, अलीगढ़ में भी सुनने को मिलती है। छात्रों के आंदोलन से हालात असंतुलित हो रहे हैं विभिन्न आंदोलनों में छात्रों को जोड़ना और सरकार के खिलाफ उनके उपयोग की घटनाएं कोई नई नहीं है। लगभग आधी सदी पहले 1970 में गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुआ था। आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय छात्र के तौर पर उस आंदोलन में शामिल हुए थे। इसके बाद 1974 में जयप्रकाश नारायण का आंदोलन हुआ। जिसमें छात्र शक्ति ने जमकर भाग लिया अब सीएए के विरोध में बात उठ गई । शुरू के दिनों को छोड़ दें तो यह आंदोलन लगभग शांतिपूर्ण है। लेकिन खतरे दिखाई पड़ रहे हैं कि इसे यानी इस आंदोलन को गैरकानूनी बना दिया जाए। इसके बरक्स गांधी शहीद दिवस के अवसर पर यह याद करना जरूरी है कि गांधी बेशक राष्ट्रपिता नहीं रहे हों या कहें इन दिनों उनको ऐसा मानने से इनकार किया जा रहा है , लेकिन गांधी कायम हैं। यकीनन, अहिंसक नागरिक आंदोलन के अगुआ तो वह रहे ही हैं। आज जो लोग सीएए- एनआरसी का विरोध कर रहे हैं उन पर जिहादी ,राष्ट्र विरोधी, पाकिस्तान समर्थक इत्यादि का ठप्पा लग रहा है। शाहीन बाग से पार्क सर्कस तक के प्रदर्शनकारियों पर आरोप है कि उन्होंने यातायात को बाधा पहुंचाई और लोगों को आवागमन दिक्कतों से मुकाबिल होना पड़ा। यहां प्रदर्शनकारी राजनीतिज्ञों की आर्थिक मदद से मैदान में डटे हैं।
अब से कुछ हफ्ते पहले तक जो लोग गांधी जी की बात करते थे और और बीते 2 अक्टूबर को गांधी जन्मदिन मना चुके थे वे अब गांधी के आलोचक बने हुए हैं । जितने भी लोग आलोचक हैं उनमें से कोई भी पीछे लौटकर गांधी के काल में पहुंचकर उस समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण नहीं करते। सब आज के दिन के आईने में गांधी को देखना चाहते हैं। लेकिन, यह तो सच है कि गांधी हमारे अवचेतन में कहीं न कहीं मौजूद हैं और वहां से वह लगातार दस्तक देते रहते हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक के विचारक गुंटर ग्रास के अनुसार "गांधी एक ऐसे व्यक्ति थे , बेशक दुनिया उनके अस्तित्व को खारिज कर दे लेकिन उन्हें चिंतन से या दर्शन से बाहर नहीं निकाला जा सकता । " बेशक कुछ वर्षों से गांधी को खारिज करने का अभियान चला हुआ है। कभी उनके विरोध में हमसे अलग कर दूसरे बिंबों के साथ जोड़ दिया जाता है, मनोवैज्ञानिक तौर पर यह बिंब जुड़ी हुई यादों को संजो कर आते हैं और हम उन्हीं बिंबों के माध्यम से उस व्यक्ति को पहचानते हैं, जिससे वह जुड़ा हुआ है। आहिस्ता- आहिस्ता बिंबों को या तो नजरअंदाज किया जा रहा है अथवा खारिज। एक जमाने में बच्चों को "ग" से गणेश पढ़ाया जाता था और वह बच्चा गणेश के चित्र को देखते ही "ग" को याद कर लेता था। आहिस्ता - आहिस्ता सेकुलरवादियों ने " ग से गमला पढ़ाना शुरू किया और अब बच्चे ग से गमला पढ़ते हैं लेकिन गणेश के 'ग' को भूलना मुश्किल है। गणेश का अस्तित्व आज भी है। उसी तरह आप चाहे बिंबों को कितना भी खारिज कर दें जो बिम्ब दर्शन में समा गए, विचारों में समा गए उन्हें खारिज नहीं कर सकते।
यही कारण है अब उनको छोड़ उनके व्यक्तित्व को एक दूसरे नजरिए से देखा जा रहा है। लेकिन यहां भी गांधी हैं। अब जरा मॉब लिंचिंग के दौर को देखें । 13 जनवरी 1897 की डरबन की घटना बहुतों की याद होगी। जब लगभग 600 मजबूत फौजियों के साथ अंग्रेजों ने गांधी पर हमला कर दिया। जमकर पीटा गया उन्होंने बड़ी मुश्किल से रुस्तम जी फारसी के घर में शरण ली। अंग्रेजों ने भीड़ को पुलिस की वर्दी पहना कर घर पर हमला करवा दिया। किसी तरह गांधी बच गए। 22 वर्षों के बाद 10 अप्रैल 1919 भारत में यह बात पता चली और गांधी को गिरफ्तार कर लिया गया। जब गिरफ्तारी हो रही थी अहमदाबाद शहर में दंगा भड़क गया और कई अंग्रेज घायल हुए। अगर इस घटना का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो निष्कर्ष निकलेगा की हिंसा का संबंध किसी जाति विशेष से नहीं होता। 8 सितंबर 1920 को गांधी ने यंग इंडिया में दिखाता लोकशाही बनाम भीड़शाही आज भारत में लगभग यही स्थिति है । हालात अभी भी नहीं बदले। भीड़ को प्रशिक्षित करना सबसे सरल काम है। क्योंकि ,कभी भीड़ विचारशील नहीं होती और वह आवेश के अतिरेक में कुछ भी कर बैठती है
आज हमारी सबसे बड़ी दिक्कत है कि समाज में सामाजिक और राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया धीमी हो गई है। राजनीतिक वर्ग चाहे वह सत्तारूढ़ हो अथवा विपक्ष संवाद से अलग रहना चाहता है या तो उसके संवाद योग्य कुछ है ही नहीं। यही कारण है कि राजनीतिज्ञ अपनी बात मनवाने के लिए भीड़ का उपयोग करने लगे हैं। आज हम एक विचित्र असंवाद की स्थिति में रह रहे हैं। हमारे नेता चाहे वह सत्तारूढ़ दल के हों या विपक्ष के समझ नहीं पा रहे हैं की भीड़ को नियंत्रित करना केवल पुलिस का काम नहीं है। ऐसी स्थिति उत्पन्न ना होने देना समाजिक और राजनीतिक प्रबंधन का एक सामाजिक उपक्रम है और हम सब उस उपक्रम के पुर्जे हैं। कभी भीड़ की हिंसा की घटनाओं का अगर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें तो प्राप्त होगा कि उसने शामिल लगभग हर आदमी किसी न किसी मानसिक सामाजिक, आर्थिक या पारिवारिक समस्या से ग्रस्त है और उसकी यह प्रवृत्ति एक दिन में नहीं बनी है उसका विकास एक लंबी अवधि में हुआ है जिसमें हमारे मौजूदा राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक वातावरण के साथ साथ कई और कारक शामिल हैं। बोध से ग्रसित लोगों की जमात अपनी तमाम समस्याओं के लिए इसी अन्य को जिम्मेदार मानने की प्रवृत्ति से ग्रस्त है। वह भी अपनी भड़ास निकालने के लिए किसी एक तात्कालिक बहाने की खोज में रहती है। भीड़ को मालूम है कि उसका कोई अपना चेहरा नहीं है और किसी कायरता पूर्ण हिंसा को छिपाने के लिए इससे बेहतर कोई मौका नहीं है।
हिंदू महासभा द्वारा प्रकाशित स्वातंत्र्यवीर सावरकर खंड 6 इस 296 में लिखा गया है कि 1937 में हिंदू महासभा के खुले अधिवेशन में वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि भारत को अब एक समशील राष्ट्र नहीं कहा जा सकता । यहां दो राष्ट्र है हिंदू और मुसलमान । कहने का अर्थ है गांधी दोषी नहीं थे बंटवारे के।उन्हें इंकार करने की कोशिशें हो रही है
आज मानव समाज के तौर पर हम मनुष्यों में क्रोध बढ़ रहा है हालांकि इसके आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं लेकिन दार्शनिकों ने पाया है कि हिंसा चाहे भीड़ की या किसी चरमपंथी संगठन या फिर सेना की हो कहीं न कहीं एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समस्या भी है। इसके निदान के लिए हमें गांधी और टैगोर जैसे लोगों को सुनने और पढ़ने और समझने की जरूरत है।
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