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Wednesday, January 22, 2020

दविंदर सिंह का पकड़ा जाना

दविंदर सिंह का पकड़ा जाना 

जम्मू कश्मीर के  डी एस पी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी साफ बताती है कि हमारे सुरक्षा कवच में कहीं न कहीं बहुत बड़ी दरार है। दविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद जो बातें हो रही हैं वही बातें हैं हर बार किसी न किसी घर के भेदिए की गिरफ्तारी के बाद उठती है। हममें से बहुतों को याद होगा कि जब मुंबई ब्लास्ट के बाद एक कस्टम अधिकारी को गिरफ्तार किया गया तो इसी किस्म के सवाल उठ रहे थे कि क्या सरकार सो रही थी या हमारी खुफिया गिरी बेकार थी? ऐसे और भी कई बिंदु हैं जो हमें खोखले दिखाई पड़ रहे हैं। कई लोग ऐसे हैं जो धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को घुन की तरह खाए जा रहे हैं। जब तक इस तरह का दूसरा कोई हादसा नहीं होता है तब तक इसी तरह के सवाल उठते रहेंगे और अखबारों में छपते रहेंगे।
    जरूरी है कि इन पर गंभीरता से सोचा जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सिस्टम को यह प्रवृत्ति ठीक लगती है। इसीलिए यह चल रहा है। दविंदर सिंह का मामला शर्मिंदा करने वाला है। क्योंकि, उसे श्रीनगर एयरपोर्ट पर अपहरण विरोधी दस्ते में तैनात किया गया था । यह बहुत ही संवेदनशील है और इसके कार्य बहुत ही खतरनाक हैं। सबसे बड़ी बात है कि दविंदर सिंह का रिकॉर्ड कोई साफ सुथरा नहीं था फिर भी उसे वहां क्यों तैनात किया गया? संसद पर हमले के जुर्म में फांसी पर चढ़ा दिये गये अफजल गुरु ने दविंदर पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। अफजल ने अपने वकील के माध्यम से दविंदर पर आरोप लगाया कि उसने उसे गैर कानूनी ढंग से गिरफ्तार किया और भयंकर प्रताड़ना दी। अफजल ने शिकायत की थी दविंदर सिंह ने उसे एक आतंकी को संसद तक ले जाने और   उसे छिपाए रखने के लिए मजबूर किया था। इसके पहले भी सिंह पर अधिकारों के दुरुपयोग और जबरन वसूली के आरोप थे।
क्या खुफियागिरी के साधारण सिद्धांत के अनुसार उसकी निगरानी होती थी? अगर होती थी फिर ऐसा क्यों हुआ? प्रति गुप्तचरी के लिये जिम्मेदार वह कौन लोग थे जो दविंदर सिंह पर नजर रखे हुए थे? क्योंकि खुफियागिरि का यह बहुत ही बुनियादी सिद्धांत है कि हर संवेदनशील पद पर तैनात अधिकारी की निगेहबानी हो।
     यहां ध्यान देने की बात है कि आतंकवाद और अलगाववाद से प्रभावित क्षेत्र का अपने एक विशेष चरित्र होता है। उनका लोकतंत्र बंदूकों से चलता है और वह लोग बंदूकों से ही खुश रहते हैं। सिंह तो उस लंबी श्रृंखला में एक छोटी सी कड़ी था। अगर इस बात का अध्ययन किया जाए कि जो लोग बंदूकों के बल पर भारत को तोड़ना चाहते हैं कमजोर करना चाहते हैं उनसे हमारे सुरक्षा सैनिक कैसे निपटते हैं? इसमें यह जानना सबसे महत्वपूर्ण है कि जंगे मैदान में जब हमारा दुश्मन हमारे खून का प्यासा है तो हमें कुछ सतर्क रहना ही चाहिए । तब भी हमारे जवानों को तथा अधिकारियों को जो बेशक गुप्तचर हैं उन्हें भी कुछ आजादी मिलनी चाहिए। जंगलों में, सीमावर्ती क्षेत्रों में लंबे-लंबे मोर्चे और उन मोर्चों पर खुफिया गिरी करना तथा वहां मुखबिर तैयार करना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। क्योंकि मुखबिरी हमेशा जानलेवा होती है तब भी लोग इसमें शामिल होते हैं। पैदल चलकर मीलों की दूरी तय करनी होती है तब कहीं जाकर एक छोटी सी खबर मिलती है जो हमारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण होती है और अगर उस खबर पर भी धन से समझौता कर दिया जाए तो फिर कैसे होगी देश की रक्षा? जिन्होंने खुफिया गिरी में तैनात जांबाजों को बहुत करीब से देखा है और उन्हें समझा है। वह ऐसी जिंदगी जीते हैं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि कोई ना कोई वजह से खुफिया विभाग का अफसर इन देश विरोधी तथा समाज विरोधी तत्वों से मिला होता है। इसकी शिना
ख्त करना और इस बात की पड़ताल करना कितना कठिन है कि उन्हीं के बीच उन्हीं का एक साथी लक्ष्य से भटक कर आतंकवादियों कट्टर अलगाववादियों या देश विरोधियों से जा मिला है, और ना केवल देश की सुरक्षा से समझौता कर रहा है बल्कि अपने साथियों की जिंदगी को भी दांव पर लगा रखा है। अगर कहीं सीमावर्ती क्षेत्र में किसी चौकी पर विस्फोट होता है या धुआंधार फायरिंग होती है तो मरने वालों में शामिल फौजियों की तो गिनती होती है किंतु यह खुफिया अधिकारी कहीं नहीं गिने जाते । सब कुछ शांत हो जाता है। इनमें से कई लोगों को गैर कानूनी ढंग से विदेशों  में भेजा जाता है और अगर उस अधिकारी पर लगा खुफिया लेबल उतर जाता है तो हमारी सरकार भी उसे अपना मानने से इनकार कर देती है। दवेंदर सिंह के ही मामले को देखें हमारे राजनीतिक नेता हिंदू -मुस्लिम ,हिंदुस्तान पाकिस्तान के जुमलों में जुटे हुए हैं वह इस आदमी के प्रति कहीं गंभीर नहीं दिखाई पड़ रहे हैं ।    खास करके ऐसा आदमी जिस पर कई तरह के संवेदनशील आरोप लगे हुए वे यह नहीं सोच पाते एक बहादुर सिपाही जब पथभ्रष्ट हो जाता है तो क्या होता है ? यह केवल एक आदमी की बात नहीं है बल्कि संपूर्ण तंत्र की बात है। हमारा प्रशासन जो ब्रिटिश अफसरशाही नींव पर खड़ा हुआ है वह इस बात को क्यों नहीं समझ पाता की संवेदनशील पदों पर तैनात अफसर की मजबूरियां उसका मानसिक झुकाव उसका मानव तंत्र और उसकी सामाजिक सोच क्या है। वह किन विचारों से निर्देशित तथा संचालित होता है। इसमें कुछ लोग धन तथा अन्य बातों को जोड़कर देखते हैं लेकिन ऐसा सदा नहीं होता । सबसे महत्वपूर्ण है प्रतिबद्धता और विचारों का झुकाव तथा विचारों के प्रति आस्था। हमारे प्रशासन में बैठे लोग जो इसके लिए जिम्मेदार हैं उन पर भी सवाल उठाया जाना जरूरी है कि आखिर उनका एक मातहत क्यों ऐसी गतिविधियों में जा फंसा और वह सोए रहे। ऐसी लापरवाही य देश के लिए न केवल महंगी पड़ सकती है बल्कि हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी खतरनाक है। कोई जरूरी नहीं है पूरे तंत्र में एक ही दवेंदर हो कई हो सकते हैं। उनकी पड़ताल बहुत जरूरी है वरना हमारी सुरक्षा खतरे में है।


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