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Tuesday, January 28, 2020

जरा अपने बच्चों के बारे में भी सोचें

जरा अपने बच्चों के बारे में भी सोचें 

भारत में सीएए और एनआरसी को लेकर प्रचंड बवाल है। पूरा भारत अशांत है। ऐसे में एक सवाल है कि जिस देश में इस तरह के मामूली हालात पर इतना उपद्रव हो सकता है बसें जलाई जा सकती हैं ,धरने दिए जा सकते हैं वहां कोई कैसे निवेश करेगा? लोग सरकार को दोषी बता रहे हैं कि निवेश नहीं हो रहा है। अर्थव्यवस्था बिगड़ती जा रही है। बेरोजगारी बढ़ रही है। जरा गौर करें की आखिर ऐसे मुल्क में कोई क्यों पूंजी लगाएगा जहां पूंजी की हिफाजत ना हो? जहां बात बात में बर्बादी हो जाए ,जहां किसी भी मामूली बात पर बंद- धरने - हड़ताल इत्यादि हो जाएं। जो लोग इस तरह के काम में शामिल हैं या जो इसका समर्थन कर रहे हैं वह जरा सोचें तो कि क्या भविष्य का भारत कटोरा थमा हुआ भारत होगा? लेकिन, उनकी कोशिश तो इसी दिशा में ले जाने की है। सरकार क्या कर सकती है। सरकार सिर्फ व्यवस्था बना सकती हैं लेकिन उस व्यवस्था को मानने और उस व्यवस्था के अनुरूप चलने में जनता की सबसे बड़ी भूमिका होती है।
      अब देखिए नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सारे देश में विरोध चल रहा है। शाहीन बाग से कोलकाता के पार्क सर्कस तक किसने यह करंट लगाया है। इससे जहां अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंच रहा है वहीं डर का भी एक माहौल पैदा ले रहा है। कभी किसी ने सोचा है 2 मिनट शांत बैठ कर कि इस डर के माहौल का असर क्या होगा? शायद नहीं। अगर सोचा होता तो यह स्थिति पैदा ही नहीं लेती।
      कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सरकार ही अर्थव्यवस्था में सुधार करने में नाकामयाब  रही और इस नाकामयाबी के कारण व्यवसायिक समाज में डर पैदा हो गया।  उससे नुकसान होने लगा। लेकिन यह तो रातोंरात  नहीं हुआ। सरकार ने सुधारने की कोशिश की या नहीं की इस प्रश्न पर विचार करने से पहले यह सोचना जरूरी है कि क्या यह समस्याएं पहले नहीं थीं? क्या कृषि क्षेत्र की समस्याएं पहले नहीं थीं? हां , सरकार के कुछ कदमों से कई समस्याओं का इजाफा हुआ है। जैसे, बैंक के एनपीए बढ़े हैं इसके लिए कुछ कदम तो उठाए गए हैं लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ने जिन उपायों को बताया है उसे पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका। इसका भी एक कारण है। सरकार की जिम्मेदारी आर्थिक से ज्यादा सामाजिक है और जबकि रिजर्व बैंक का दृष्टिकोण सदा आर्थिक होता है। आर्थिक कदमों का सामाजिक प्रभाव की गणना किए बगैर सरकार अगर कदम उठाती है तो उसका असर उलटा भी पड़ सकता है। अब उदाहरण के लिए देखें, अपनी सीमित आय में किसी को कुछ पैसे बचाने हैं। जाहिर है उसे खर्च कम करने होंगे और बचाये जाने वाले खर्चों में खाने के खर्चे भी शामिल होंगे। खाने में उचित खुराक नहीं लेने से पोषण की समस्या बढ़ेगी  और उसके बाद बीमारियां बढ़ेंगी।  फिर, उपचार के लिए कर्ज लेने होंगे और इसका नतीजा होगा की भविष्य पर असर पड़ेगा। जब कुपोषण की समस्या बढ़ेगी और उसका विस्तार होगा तो सबसे ज्यादा आलोचना सरकार की होगी। क्योंकि सामाजिक खुशहाली की जिम्मेदारी सरकार की है। लेकिन रिजर्व बैंक के साथ यह संकट नहीं है। अब देखिए जो लोग कहते हैं कि बैंकों के एनपीए बढ़ेंगे अगर कंपनियां दिए हुए कर्ज़ों को लौटा नहीं सकेंगी तो उसका असर बैंक कर्मचारियों पर पड़ेगा। क्योंकि, कर्ज देने वाले बैंक  के खिलाफ रिजर्व बैंक और सीवीसी की जांच शुरू होगी और कहीं न कहीं दोष पाए जाने पर उस कर्मचारी की सेवाएं तक खत्म हो सकती हैं। बेकारी बढ़नी शुरू हो जाएगी। दूसरी तरफ, जिन लोगों ने कर्ज लिया है अब लौटा नहीं पा रहे हैं वह अपने कामकाज बंद करके दूसरे देश में जाकर बैठ जाते हैं और फिर उस काम में लगे लोगों के साथ समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं। कहां से पैसे आए? इसका एक बड़ा दिलचस्प उदाहरण है। सरकार पर दबाव पड़ रहा है कि वह टैक्स कम करे। सरकार टैक्स कम करती है तो खर्चों की आपूर्ति के लिए उसे बाहर से कर्ज लेना पड़ेगा और उस कर्ज को चुकाने के लिए फिर उसे सरकारी कंपनियों का विनिवेश करना होगा यानी  दोबारा संकट। पिछले साल के बजट पर गौर करें सरकार ने जो बजट प्रस्ताव दिए उन्हें थोड़े दिनों के बाद पूरी तरह बदल दिया गया। ऐसे में जिसके पास निवेश करने की क्षमता भी है वह यह सोचकर निवेश करने से झिझक रहा है । ऐसे में व्यापार और अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है और सरकार ने जो कदम उठाया है उस समस्या का हल नहीं होता है। अब इन सभी समस्याओं का सामना करती अर्थव्यवस्था पर नागरिकता संशोधन कानून का असर क्या पड़ेगा। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी का कहना है अधिनायकवाद और आर्थिक समृद्धि के बीच किसी तरह का रिश्ता नहीं है। लेकिन, सवाल है कि आखिर इस तरह का माहौल अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाता है या नहीं ।
        यह तो सर्वविदित है कि लंबे समय तक चलने वाले विरोध प्रदर्शन का उस देश और उस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। क्योंकि, इससे निवेश का माहौल खराब हो जाता है। भारत में अभी गनीमत है कि स्थिति इतनी नहीं बिगड़ी है लेकिन तब भी सामाजिक अशांति और हिंसा ग्रस्त माहौल का असर तो होता ही है। सीरिया, लेबनान, अल्जीरिया और अन्य अरब देशों की अर्थव्यवस्था को देखकर आसानी से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान इसका एक उदाहरण है। वहां का जीडीपी लगातार घट रहा है। इसका कारण है कि विकास के मदों से धन की कटौती करके आंतरिक सुरक्षा और फौज पर ज्यादा खर्च करने पड़ते हैं को ज्यादा कर देना पड़ता है और कर्ज हर सरकार के वक्त तरक्की की राह में बाधक होता है। ऐसे में विदेशी तो क्या घरेलू निवेशक भी पूंजी नहीं लगाना चाहते।
     ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरी है सरकार का प्रदर्शनकारियों से संवाद शुरू करना। लेकिन किससे किससे किया जाए। जैसी कि खबर मिल रही है इस प्रदर्शन की डोर कई गुप्त हाथ खींच रहे हैं और उन गुप्त हाथों की पड़ताल तथा उनकी कलाई पकड़ना संभव नहीं है।  जब तक इसका समाधान नहीं होता किसी का भला नहीं होगा। जो लोग इस प्रदर्शन में शामिल हैं वह यह नहीं समझ रहे कि हमारा भविष्य कैसा होगा और अपने बच्चों के लिए कौन सा भारत बना रहे हैं? जरा सोचिए।


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