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Friday, January 31, 2020

आज केंद्रीय बजट

आज केंद्रीय बजट 

नागरिकता के कानूनों और अर्थव्यवस्था की सुस्ती के बीच आज हमारा केंद्रीय बजट पेश होगा। जब देश का पहला बजट पेश हुआ था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने  कहा था कि बजट देश के विकास का दर्शन है। यह केवल लेखा-जोखा नहीं बल्कि वित्तीय क्षेत्र के नियमों और सुधारों की  टैक्स पॉलिसीज से जुड़े सुधार और पूंजी प्रवाह के संदर्भ में भारत के खुलेपन का इजहार भी है।
      आज जो बजट पेश होने वाला है उसकी सबसे बड़ी मुश्किल है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पास बहुत सीमित विकल्प हैं। वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था की हालत की चिंता करनी है और मुद्रास्फीति के विकास ,निवेश, रोजगार ,भुगतान संतुलन इत्यादि संकट का भी सामना करना है। इसके अलावा वित्त मंत्री को सार्वजनिक कर्ज के बोझ को अव्यावहारिक स्तर पर ले जाए बिना मांग बढ़ाने की मुश्किल को खत्म करने वाले राजकोषीय घाटा पहले से ही बढ़ा हुआ है। यदि विकास दर सरकार द्वारा लिए गए कर्ज  से नीचे चली जाती है तो सार्वजनिक खर्च की मात्रा ऐसी हो जाएगी जिसे ढूंढना मुश्किल है। वर्तमान में जीडीपी विकास दर 7.5% रहने की संभावना है। 10 वर्षीय बांड पर 6.6 प्रतिशत रिटर्न मिल सकता है इसलिए अभी  इतना है कि  उसे ढोया जा सकता है
        इन दिनों बजट से जुड़े बहस का एक मुख्य मसला है बजट का स्वरूप कैसा होना चाहिए। उसे विस्तार वादी होना चाहिए अथवा नहीं। अधिकांश लोग यह कहते पाए गए हैं कि सकल घरेलू उत्पाद के विकास में गिरावट हुई है और मौद्रिक नीति की अपनी सीमाएं हैं । पर उन्हें चिंता इस बात की है कि अधिक   सार्वजनिक कर्ज ऐसा हो जाएगा जिसका वहन करना मुश्किल है । इसके बाद कर्ज के मुकाबले जीडीपी का अनुपात विस्फोटक स्तर तक पहुंच सकता है। यह चिंता अथवा यह कथन बहुत अनुचित नहीं है। अगर राजकोषीय घाटा बढ़ता है तो ब्याज दरों के बढ़ने का खतरा हो जाता है। यदि ब्याज दर जीडीपी विकास की दर से  ऊपर जाता है तो सार्वजनिक कर्ज की स्थिति को दर्शाने वाला जीडीपी तथा सार्वजनिक खर्च के अनुपात का समीकरण  असंतुलित हो जाता है और बढ़ने लगता है।
          अब ऐसी स्थिति में केवल मांग को बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प दिखता है। इसके लिए मौद्रिक नीतियां एकमात्र औजार हैं । बजट निर्माताओं के हाथ में। लेकिन वर्तमान स्थिति में यह कोई सरल नहीं है । हालांकि, अर्थशास्त्र का मानना है कि खाद्य पदार्थों और उसे भी खासकर सब्जियों की महंगाई के Fकारण बड़ी बनी जय मुद्रास्फीति स्थाई नहीं है लंबीअवधि के नहीं है बल्कि अल्पकालिक है। परंतु रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति   में ढिलाई बरतने के लिए साथ ही अधिक विस्तारवाद पर कोई चर्चा करने से पहले हमें मौद्रिक नीति का प्रभावी संचरण सुनिश्चित करने के उपाय करने होंगे । बैंकिंग और बॉन्ड मार्केट में सुधारों समेत इन सुधारों पर काफी समय से विचार किया जा रहा है लेकिन इस दिशा में कदम बढ़ाने के पहले वित्त मंत्री को इस कानून बदलने होंगे।
           जीडीपी विकास में धीमा पन ,कर संग्रह में कमी, विनिवेश में कमी और जीएसटी की समस्याओं के कारण राजकोषीय पहल कदमी के विकल्प बहुत कम हैं।  अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश पर सरकारी खर्च बढ़ाना उचित रहेगा लेकिन सीतारमण को ऐसा करने के लिए कुछ नए तरीके ढूंढने होंगे। ताकि राजकोषीय घाटे बहुत बढ़ ना  जाएं। इसके साथ ही बाजार का भरोसा फिर से हासिल करने के लिए उन्हें सरकारी घाटे और कर्ज को लेकर पारदर्शी होना होगा । अकाउंटेंट जनरल महालेखा परीक्षक के अनुसार पिछले वर्ष राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा बजट प्रबंधन अधिनियम के  निर्धारित लक्ष्य से अधिक था, संभवत जीडीपी के 2 प्रतिशत अंक अधिक था। वैसे तो राजकोषीय विस्तार अर्थव्यवस्था में सुस्ती के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए पर उन आंकड़ों के आधार पर चर्चा बेकार है जिन पर लोग यकीन ही नहीं  करते। इसलिए वित्त मंत्री के सामने पहली चुनौती है कि  बजट में  इन अंको को कम करना और लोगों को यकीन दिलाना कि उन्होंने राजकोषीय अनुशासन अपनाने के लिए यह सब किया है । क्योंकि वह इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। अब सवाल उठता है कि क्या वित्त मंत्री राजकोषीय घाटे में बहुत ज्यादा विस्तार किए बिना मांग बढ़ाने के लिए कदम उठा सकते हैं । यह सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है। लेकिन, टैक्स और नियामक प्रक्रियाओं को आसान बना कर पहला कदम उठाया जा सकता है। जिससे कि निजी निवेश हतोत्साहित हुआ है निवेशकों में उत्साह को कम करने वाले टैक्स अधिकारियों की बढ़ी हुई ताकत में से कुछ पर पुनर्विचार किया जा सकता है । यह महत्वपूर्ण है कि टैक्स दरों में किसी तरह की वृद्धि का प्रस्ताव नहीं किया जाए। क्योंकि, इससे अनिश्चितता बढ़ती है। टैक्स आधार कम होता है। विकास दर नीचे जाता है। टैक्स की दरों को बढ़ाकर और टैक्स अधिकारियों को अधिक ताकत देकर राजस्व बढ़ाने की रणनीतियां सफल हो जाती हैं। इसके विपरीत की रणनीति से निवेशकों के विश्वास को आघात लगता है और जीडीपी घटती है। वास्तव में यह कम टैक्स दर और टैक्स अधिकारियों के अधिकारों में कटौती की वैकल्पिक रणनीति अपनाने का वक्त है।


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