खेल चालू है
अब भाजपा ने कांग्रेस को मैदान से बाहर कर दिया है। अब कांग्रेस ने मुकाबले के लिए महागठबंधन की तैयारी शुरू कर दी है।भाजपा की अति विराट आकार के सामने कांग्रेस की यह तैयारी कुछ वैसे लग रही है जैसे कबीर कह रहे हों " जो घर जारे अपना , चले हमारे साथ।" भारतीय राजनीति अपने पुराने खेल - चुनाव- के लिए कमर कस रही है। एक वो दिन भी थे जब कांग्रेस एक विशाल संगठन था और उसे पराजित करने के लिये सभी विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश हुआ करती थी।राम मनोहर लोहिया ने कांग्रेसवाद का विरोध को एक नए राजनीतिक आदर्श का रूप दे दिया था।यह व्यूह रचना पहली बार 1967 के चुनाव में सफल होती दिखी।इसके बाद विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए जय प्रकाश नारायण मैदान में उतरे और उन्होंने 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी को पराजित कर दिया। इस नए व्यूह का नाम जनता पार्टी था। परंतु यह ज्यादा दिन नही टिकी, कुछ ही महीनों में यह साझे की हांड़ी चौराहे पर फूट गई।जिन दलों को मिला कर जनता पार्टी बनी थी वे सारे दल अलग हो गए और जनता शब्द को लेकर नए दल बना लिए गए, मसलन भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (एस) , जनता दल ( यू) इत्यादि। कांग्रेस वाद का विरोध कोई स्थायी समरनीति नहीं बन सकी लेकिन कोशिशें चलटी रहीं। यू पी ए को धूल चटाने के लिए 2009 में सबसे बड़ा गठबंधन गढ़ा गया।उन दिनों भाजपा अछूत थी लिहाज़ा बाकी दलों ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा बना लिया। हालांकि यह मोर्चा भी कारगर नहीं हुआ और यू पी ए को पहले से ज्यादा वोट मिले। विस्का कारण बिल्कुल साधारण था वह की इस नए मोर्चे का कोई कार्यक्रम या आदर्श था ही नहीं।यह राजनीतिज्ञों को अच्छा लग सकता है पर मत दाताओं को कैसे प्रभावित करता। उस समय कांग्रेस के पास एक कार्यक्रम था , वह था विकास। इसके विरोध में कुछ था ही नहीं।
अब जरा काल के चक्र को आगे बढ़ाएं। समय के इस मोड़ पर कांग्रेस की जगह भाजपा खड़ी दिख रही है। अब फिर भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने लगा है। अलबत्ता इस मोर्चे में एन डी ए के घटक दल नहीं हैं। इस मोर्चे में भी वही गड़बड़ी है। इसमें भी भाजपा विरोध छोड़ कर कोई सुसंगति नही है। यही नहीं भाजपा विरोध भी मुस्लिम वोट के लिए है। इस मामले में बिहार चुनाव का उदाहरण दिया जा रहा है। परंतु, बिहार में काल, स्थान और पात्र भिन्न थे। लेकिन इसबार सभी बिहार को ही दोहराने का सपना देख रहे हैं,काल, स्थान और पात्र पर गौर नहीं कर रहे हैं। यह बहुत कठिन होगा। यू पी में बिहार की चाल पिट गई।क्या यह फिर सफल हो सकती है? चुनाव में अभी दो वर्ष बाकी है। अभी सामने राष्ट्र पति चुनाव है।इसके लिए उम्मीदवार कौन होगा? गठबंधन में तो कोई सहमति दिख नहीं रही है। वे प्रणब मुखर्जी को फिर खड़ा करना चाह रहे हैं। इसपर कोई बहस नही है कि वे कैसे हैं पर बहस इस बात पर है कि इस नाम के किसी समुचित विकल्प पर सहमति क्यों नहीं है? भाजपा वाद के विरोध के लिए नए और ठोस तर्क गढ़ने होंगे।नए नारे तैयार करने होंगे।
भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी का स्वरूप लेने की बढ़ रही है। जैसा कभी कांग्रेस हुआ करती थी। यह बात कोई भी अमित शाह के भाषणों से इसकी झलक मिलती है।भाजपा इसमें सफल हो जाएगी क्योकि सभी दल वैचारिक रूप में समान हैं। राजनीतिक बहसबाजी और फब्तियाना जुमलेबाजी को छोड़ दें तो लगभग सभी दलों की सोच खासकर सत्ता को लेकर समान है। ना कोई मज़बूत वाम दल है और ना दक्षिण पंथी हैं। भाजपा भी मुस्लिम वोटरों को जोड़ना सीख जाएगी। बस 2019 का इंतज़ार करें।
Monday, May 1, 2017
खेल चालू है
Posted by pandeyhariram at 9:11 PM
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