परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ का जाल
सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एडुकेशन का परिणाम रविवार को घोषित हुआ। इस परीक्षा में एक चहेरा को 99.6% अंक प्राप्त हुए हैं। यह एक ऐसा प्राप्तांक है जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती है। लेकिन आज कल की परीक्षाओं में अति उच्च प्राप्तांक आम बात है। इसी को देखते हुए उच्च शिक्षा के लिए नामांकन कट ऑफ भी बहुत ऊंचा हो गया है। कई मशहूर सबस्थानों में तो 90 प्रतिशत से ऊपर कट ऑफ देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन ये अंक लाभ के बदले हानि पहुंचाते हैं। परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ के बीच जो नामांकन प्रक्रिया है वह छात्रों को दृढ़ और आत्म विश्वास पूर्ण बनाने के बजाय उन्हें रैंक हासिल करने वाली मामूली संज्ञा में बदल देती है।ऐसे छात्रों का हजूम देश का बेहतरीन नागरिक या श्रेष्ठ कर्मचारी नही बनसकता बल्कि प्रमाण पत्र लक्सर दौड़ने वाली भीड़ में बदल जाता है। इस बुनियादी या आधार परीक्षा के बाद जब वे छात्र उच्च शिक्षा की प्रतियोगी परिक्षाओं में कट ऑफ को नहीं पर कर सकते तो जिस जिल्लत से उन्हें दो चार होना होता वह केवल वही समझ सकते हैं। एक अध्ययन के अनुसार परीक्षाओं की ढांचागत प्रणाली और छात्रों के आत्म अपमान के बीच संबंध है। छात्र और अभिभावक जहां बेचैन रहते हैं कट ऑफ और रैंकिंग के अपारदर्शी एवं अवैयक्तिक प्रणाली को लेकर वहीं परीक्षा आयोजित करनेवाले नई तकनीक अपना कर ऐंठते रहते हैं। इसबीच जो गुम हो जाता है वह है छात्र का अपना व्यक्तित्व जिसे नामांकन प्रणाली में कायम रहना जरूरी है। बेहतरीन कॉलेज या कोर्स में ज्यादा कट ऑफ ही देखा जाता है छात्र की खूबियां नहीं।
विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा ‘जीवन का अपूर्व अनुभव का स्थाई हिस्सा’ है। उनका कहना था, “शिक्षा छात्रों की संज्ञानात्मक अनभिज्ञता के रोग का उपचार करने वाले तकलीफ़देह अस्पताल की तरह नहीं है, बल्कि यह उनके स्वास्थ्य की एक क्रिया है, उनके मस्तिष्क के चेतना की एक सहज अभिव्यक्ति है।”
भारतीय कालेजों में नियम बनाने वाले प्राधिकरण को दोषी बता कर लोग अपने हाथ झाड़ लेते हैं। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि यह सब केवल टालने वाली बात है।क्योंकि कोई कॉलेजों से यह नसाहीं पूछता की छात्रों को पढ़ाने के कौन से नए उपाय उन्होंने विकसित किये हैं या छात्रों के भीतर छिपे हुए हुनर को खोजने के कौन से तरीके इज़ाद किये हैं। बच्चे रिजल्ट में अपने रैंक्स देखते हैं उन्हें देख कर चिंता बढ़ती है कि ये शिक्षा प्रणाली की कैदी संख्या देख रहे हैं। यह संख्या उनके अंतर्मन पर जीवन भर चिपकी रहेगी। यह उनके आत्म उत्साह को ध्वस्त कर देगी। एक छात्र की प्रतिभा का सही मूल्यांकन इसके विपरीत होता है। एक बानी बनाई परीक्षा प्रणाली के बदले एक ऐसी पद्धति विकसित की जानी चाहिए जो उनकी आवाज़ को सुने, न कि उन्हें आतंकित कर दे जिससे छात्र की प्रतिभा ही कुंठित होजाय। कालेज के तीन साल या पांच साल छात्रों में संतोष नही बेचैनी और हाहाकार भर दे रहे हैं। दुर्भाग्यवश मेरिट की धारणा पूरी तरह रैंक्स से जुड़ी है। भारत में आर्ट्स और साइंस के बीच या आई आई टी और मेडिकल कोर्स के बीच प्रतियोगी परीक्षाओं में दूरी को लगभग स्थायी बना दिया गया है। अब नतीजा यह होता है कि प्रोफेसनल कोर्स पढ़ाने वाले संस्थान मानविकी नहीं पढ़ाते। जबकि , विकसित पश्चिमी देशों में यूनिवर्सिटी का मतलब साइंस और आर्ट्स ही है। अब हाल से अपने देश के पेशेवर कालेज चेतने लगे हैं। पेशेवर कोर्स चलाने वाले और मानविकी पढ़ाने वाले संस्थान भी आपस में ताल मेल बनाने पर विचार करने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। शिक्षा छात्रों को आतंकित करने वाली ना हो बल्कि उन्हें आनंदित करने वाली हो।
शिक्षा दरअसल सोचने की शक्ति और कल्पनाशक्ति का विकास है। यह बेशक वयस्क जीवन के लिए दो महत्वपूर्ण क्षमताएं हैं।इसलिए इनका विकास बचपन से प्रारंभ होना चाहिए। शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों को वास्तविक जीवन की सच्चाइयों, परिस्थितियों और परिवेश के साथ परिचय और समायोजन है।गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि "अवास्तविक शिक्षा ही हमारे लोगों में बौद्धिक बेईमानी, नैतिक पाखंड और मातृभूमि के प्रति अज्ञानता के लिए जिम्मेदार है।इसलिए शिक्षा और हमारी ज़िंदगी के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए।"
Monday, May 29, 2017
परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ का जाल
Posted by pandeyhariram at 7:23 PM
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