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Friday, May 26, 2017

नई शिक्षा का असर

नई शिक्षा का असर
देश में जब कोई नीति बनती है और लंबे समय तक जारी रहती है तो उनका प्रभाव हर गतिविधियों पर पड़ता है चाहे वह सामाजिक परिवर्तन हो शिक्षा ह्यो या विचार हो।लगभसग तीन दशक पहले हमारे देश में उदारवाद आरम्भ हुआ और उसके साथ ही कई परिवर्तन भी आरम्भ हो गए। वे बदलाव ना केवल अर्थ व्यवस्था में हुए बल्कि शिक्षा , सत्ता की आदतें और जनता की सोच में भी होने लगे। एक ज़माने में कहते थे कि ' जब तोप मुकाबिल ह्यो तो अखबार निकालो' , यानी तोप की हैसियत कागज़ के अखबार से छोटी थी । यहां तोप का अर्थ वह हथियार नहीं है बल्कि सत्ता की चरम शक्ति है और उस चरम शक्ति के समक्ष अखबार यानी उस शक्ति की वैधता पर उंगली उठाने वाला तंत्र। यह तंत्र समय के साथ इतना बदला की अब सत्ता पर सवाल उठाने की अखबारों की हिम्मत के क्षरण से  राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक चिंतित हैं और वे अखबारों को सचेत करते दिख रहे हैं कि  ' सत्ता से सदवाल करना उनका हक है और वे हक का प्रयोग करें।' यहां विचारणीय प्रश्न है कि ऐसी स्थिति आई ही क्यों? विख्यात मनोवैज्ञानिक डेविड जानसन का मानना है कि   शिक्षा वैचारिक परिवर्तन का वाहक है कारक है। लेकिन उदारवाद का असर शिक्षा पर भी पड़ा है और आज उदार मूल्यों को ताक़तवर बनाने वाले नौजवान तैयार करने में हमारी शिक्षा व्यवस्था सक्षम नही है। उदार नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने वाले उच्च शिक्षा संस्थान कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। वे आर्थिक उदारता की प्रक्रिया से उद्भूत  सैद्धान्तिक तथा आर्थिक दबावों के आगे झुक जा रहे हैं। इसका मतलब है कि क्या आर्थिक उदारवाद और राजनीतिक उदारवाद में फर्क है तथा नाव उदारवाद से क्या समझा जाना चाहिए? अब यहां राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समझे बिना इस प्रश्न का उत्तर खोज पाना संभव नहीं है।हमारे  देश में 1980 के मध्य से आर्थिक उदारवाद की शुरुआत हुई और बहुत कम लोगों ने सोचा कि इसका शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 1991 में आर्थिक नीतियों की धमाकेदार उपस्थिति हुई। इसके बाद शुरू हुई संरचनागत समन्वय की प्रक्रिया।  शिक्षा की तरफ ध्यान गया ही नही जबकि 1980 के मध्य से 1992 तक शिक्षा को लेकर कई नीतियां बनीं। इस विंदु पर कोई सोच नहीं सकता था कि शिक्षा की गति ऐसी हो  जाएगी कि संविधान ' रेटोरिक ' महसूस होने लगेगा। स्कूली शिक्षा के लिए कई नीतियां बानी पर कारगर नहीं हो सकीं। निजी स्कूल खुलने  लगे जिसमें आर्थिक नजरिये को वरीयता मिलने लगी। शिक्षण के ढांचे पर जो नैतिक सुरक्षात्मक कवच भांग होने लगा। यह कमज़ोरी जब उच्च शिक्षा  में गई तो ज्ञान गौण होने लगा तथा हुनर और कौशल को वरीयता दी जाने लगी। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालर के कुलपति और विख्यात मनोवैज्ञानिक प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने शिक्षा में मानविकी को हतोत्साहित किये जाने पर गंभीर चिंता जाहिर की थी और चेतावनी दी थी कि इसासे सामाजिक विपर्यय हो  सकता है।  प्रो. मिश्र की इसी चेतावनी से उदारता के अनिवार्य अर्थ खुलते हैं। विस्का सही अर्थ साहस और विस्तृत चेतना की रहनुमाई करने वाली आवाज़ है। ऐसी आवाज़ को पैदा करने का जिगर और जज़्बा  तैयार करना है। औपनिवेशिक काल में भी यह सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में कायम रहा और यही कारण है कि आज़ादी की लड़ाई को बल मिला। पर जैसे जैसे चुनावी लोकतंत्र का विकास हुआ राजनीतिक दबाव बढ़ने लगा। नतीज़ा हुआ कि ये संस्थान नौजवानों में  सवाल उठाने की ताकत पैदा करने में कोताही करने लगे। किसी ने कुछ नही कहा। आज तीन दशक के बाद जब हम पूछते हैं कि क्या उदारवाद ने उदारता के नैतिक मूल्यों को विकसित किया है तो उत्तर मिलता है " नहीं । " उल्टे इसने मूल्यों का क्षरण किया है।

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