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Wednesday, May 17, 2017

बंगाल के हक में आड़े आ रहा केंद्र

बंगाल के हक में आड़े आ रहा केंद्र

चीन के " वन बेल्ट वन रोड " परियोजना पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीर आपत्तियां हैं।वे अच्छी तरह जानते हैं कि इस प्रोजेक्ट से भारत के  पूर्वी राज्यों पश्चिम बंगाल को बहुत  लाभ होगा।
   चीन ने  इस परियोजना से लाभ पाने वाले देशों की  जून में एक उच्च स्तरीय बैठक आयोजित की है। ढांचागत विकास और रफ्तनी लिहाज से इस परियोजना के बाद यूरेशियाई देश आपस में जुड़ जाएंगे और इससे उन सभी देशों को उद्योग व्यापार और वाणिज्य में भारी लाभ होगा जो इसमें शामिल होंगे। चीन ने यूरेशियाई तथा अन्य देशों के शासनाध्यक्षों को इस बैठक के लिए आमंत्रित किया है। काफी कहासुनी के बाद अमरीका ने भी अपनी प्रतिद्वंदिता को तक पर रख कर इसमें शामिल होने का करने किया है। भारत ने इसमें शामिल होना स्वीकार नही किया और ना साफ शब्दों में इनकार किया है। भारत ने चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा पर क्षोभ और सीमा विवाद का बहाना दिखाया है हालांकि विएतनाम जैसे कई देशों के साथ सीमा एवं क्षेत्र गत लंबा विवाद हैं फिर भी वे शामिल हो रहे हैं। मोदी जी की चालाकी यह है कि भारत इस समझौते पर दस्तखत करे या ना करे सड़क के बन जाने के बाद इसासे लाभ होना ही है।
     दूसरी तरफ भारत की आपत्ति के बावजूद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में चीनी निवेश को आमंत्रित करने में बहुत दिलचस्पी दिखाई है। चीन के उद्योग व्यापार के कई संगठनों ने संभावनाओं की तलाश के लिए चीन आने की दावत दी है। हालांकि केंद्र सरकार ने उन्हें इसकी मंजूरी नहीं दी। यह बात मीडिया ने आने के बाद विदेश मंत्रालय को सामने आना पड़ा और खबरों का खंडन करना पड़ा। 
इन खबरों के संदर्भ में यह नोटकाबिल बात है कि अक्साईचिन पर कब्ज़ा और  पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीनी गतिविधियों जैसी आपत्तियों के बावजूद मोदी जी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तब चीन गए थे। उन्होंने किसी सुरक्षात्मक और प्रभुसत्तात्मक मसले की परवाह नहीं की  थी। आज उन्ही नुक्तों के आधार पर ममता जी को रोका जा रहा है। इसासे बंगाल के प्रति दिल्ली की नीयत साफ जाहिर हो जा रही है। ममता जी चाहती हैं कि बंगाल के आर्थिक  विकास और अधिक से अधिक बढ़ाने की ममता जी इच्छुक हैं। लेकिन केवल उन्हें नीचा दिखाने और अपनियो खार निकालने की गरज से केंद्र ने यह कदम उठाया है। यह सारा मामला दिल्ली और कोलकाता के तनाव भरे रिश्ते का बिम्ब है।
जहां तक बंगाल आर्थिक विकास के लिए चीन की ओर हाथ बढ़ा रहा है तो यह कोई नई बात नहीं है। सदियों से ऐसा होता रहा है। इतिहास में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सरहद के आरपार की तिजारत और रिश्तों को हिमालय भी नही रोक सका है। सच तो यह है कि बांग्ला शब्द छापे सबसे पहले चीनी भाषा  में ही देखा गया था। दोनों में संबंध का इतिहास भारत राष्ट्र के निर्माण के बहुत पुराना है। 1368-1644 के बीच मिंग साम्राज्य के समय दोनों  देशों के संबंध सबसे अच्छे थे। वैसे भी यह काल खंड मानवता के इतिहास में सर्वोत्तम काल कहा जाता है। आज दिल्ली और बीजिंग के जियो पोलिटिकल विभेद की तुलना में 14वीं  सदी में बंगाल और चीन के संबंध बहुत अच्छे थे। बंगाल ने 1405 से 1439 के बीच 35 वर्षों में 12 कूटनीतिक मिशन नानजिंग भेजे थे। नानजिंग मिंग साम्राज्य की राजधानी थी। कुछ सौ साल बाद अंग्रेजों ने कोलकाता पर कब्ज़ा किया और इसे ही इंडिया कहने लगे , इसके बाद कई उथल पुथल हुए। जब जौनपुर सल्तनत ने  ने बंगाल पर हमले की धमकी दी तो बंगाल ने चीन से मदद मांगी। चीन ने हो जियांग और एडमिरल झेंग है कि कमान में एक मिशन जौनपुर भेजा। बिना जंग के मामला सुलझ गया। इसमें दिल्ली की कोई भूमिका नही थी।
चीन दुनिया भर में उत्पादन का केंद्र है। हर देश इसासे कुछ न कुछ धंधा  करता है। भारत ने भी पूर्वी क्षेत्र में भाड़ा समानीकरण नीति लागू की। इसके तहत देश भर के कारखानों के लिए पूर्वी भारत से जाने वाले खनिज पर किराये में सब्सिडी मिलती थी। इसासे पूर्वी क्षेत्र को नुकसान होने लगा। पूर्वी क्षेत्र के घाव पर मरहम के लिए "लुक ईस्ट" और " एक्ट ईस्ट" का नारा दिया जाने लगा। लेकिन हक़ीक़त कुछ दूसरी है। अब दिल्ली को यह पसंद आये या नही सच तो यह है कि उद्योग व्यवसाय के क्षेत्र में यह सदी चीन की है। अब सवाल यह है कि क्या दिल्ली बंगाल को उसका हक देगा या नहीं।

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