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Monday, May 22, 2017

केवल गुस्सा ही काफी नहीं है

केवल गुस्सा ही काफी नहीं है 
दिल्ली में दिसंबर 2012 में निर्भया कांड के बाद पूरा देश गुस्से से उबाल पड़ा था। आंदोलन इतना व्यापक हुआ कि सरकारें हिल गईं। उस कांड के दोषियों को सजा को लेकर इन दिनों देश ने बहस छिड़ी हुई है। उस कांड को लेकर देश भर में इतना जबरदस्त गुस्सा था कि सरकार महिलाओं के प्रति अपराध कानून की अवज्ञान करने वाले किशोरों के खिलाफ सख्त कानून बनाने के लिए बाध्य हो गई। लेकिन कानून या दोषियों को सजा को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे सुनने -समाझने के बाद केवल खिन्नता ही मन में आएगी। अभी हाल में रोहतक में एक लड़की से बलात्कार और उसके बाद उसकी हत्या की खबर सुनने को मिली। इस खबर को सुनने के बाद तो यही प्रतीत होता है कि मानवीय क्रूरता और बर्बरता कितनी गिर सकती है इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। अभी कुछ दिन पहले खबर मिली कि दिल्ली में दो वर्षीय एक बच्ची से पड़ोसी ने बलात्कार कर दिया। यह घटना तब घटी जब उस बच्ची के मां- बाप बाज़ार गए थे और बच्ची घर से बाहर खेल रही थी। बच्ची को गम्भीर स्थिति में अस्पताल में दाखिल कराया गया। कुछ दिन  पहले की  घटना है कि बैंगलोर में पांच वर्षीय एक बच्ची अचानक गायब हो गई। बाद में एक पड़ोसी अंकल के बिस्तर के नीचे से उस मानसून बच्ची लाश मिली। बंगाल के मालदह में 10 वर्ष की बच्ची से एक क्लब में सामूहिक बलात्कार कर उसे मार डाला गया।महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 14 वर्ष की एक किशोरी से सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई।यह देश भर में घटी घटनाओं में से कुछ ही हैं। जब राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो ( एन सी आर बी ) कुल घटनाओं को एकत्र कर उनकी समीक्षा जारी करता है तो देश भर में टी वी पर बहसों और सेमिनार्स की बाढ़ आ जाती है। यह महत्वपूर्ण है और ज़रूरी भी।लेकिन बर्बरता की इस कड़ी को भंग करने के लिए और भी कुछ किये जाने की ज़रूरत है। हमारे समाज की बच्चियों का शोषण होता है और यह जान लेना ज़रूरी है कि एक बच्ची के साथ भी अगर ऐसा होता है तो यह सम्पूर्ण मानवता का अपमान है। हम एक ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जहां केवल गुस्सा ही पर्याप्त नही है । 
  अब सवाल उठता है कि हम क्या कर सकते हैं? दिसंबर 2012 के बलात्कारियों को फांसी हो जाएगी।लेकिन यह तो साफ है कि ऐसी सजा से बलात्कारियों के मन में जो दर और निषेधात्मक भावना पनपनी चाहिए वह नहीं  हो पा रहा है।  कानून का दर्शन अपराध मिटाना है अपराधी को नहीं। सजाओं का उद्देश्य अपराधियों के मन में डर पैदा करना है ताकि वे अपराध की ओर प्रवृत्त ना हो सकें। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। यह भी तय है कि मीडिया में जो मनोवैज्ञानिक विश्लेषण आते हैं उनका कोई असर नहीं हो रहा है। देश का कोई हिस्सा इस आतांकि से अछूता नही है। कुछ अपराधी अनपढ़ होते हैं तो कुछ पढ़े लिखे होते हैं। अपराधियों बहुत से संबंधी होते हैं और परिचित भी। कई बार तो ऐसा होता है कि पुलिस भी पीड़िता को ही उत्पीड़ित करती है। अभी कुछ दिनों पहले की ही घटना है हरियाणा के कैथल में एक पीड़िता से पुरुष पुलिस कर्मी पूछताछ कर रहा था और बड़े अश्लील ढंग से उसकी देह को छू रहे थे। हर साल ऐसी घटनाएं होती हैं। इसलिए पुलिस में भी तत्काल सुधार ज़रूरी है। इसके लिए सरकार पर दबाव दिया जाना चाहिए ताकि वह ज़बानी जमा खर्च  बंद करे।  इसीके साथ न्यायपालिका में भी सुधार ज़रूरी है। एक एक मामले के निपटान में वर्षों लग जाते हैं और ऐसे हज़ारों मामले लटके पड़े हैं। अपराध बढ़ते जा रहे हैं। यह एक नैतिक प्रश्न है जिसका उत्तर सरल नहीं है।हमें अपनी बच्चियों की हिफाज़त खुद करनी होगी।

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