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Thursday, May 4, 2017

कश्मीर का हल राइफल नहीं दोस्ती का हाथ है

कश्मीर का हल राइफल नहीं दोस्ती का हाथ है 
कश्मीर की हालत रोज बिगड़ती जा रही है और वैसे  ही तनावपूर्ण होते जा रहे हैं भा ज पा और कश्मीर की स्थानीय पार्टी पी डी पी के रिश्ते। इसी तनाव भरे माहौल में मोदी- महबूबा की बैठक भी हुई जिसमें कुछ खास तय नही हुआ और महसूस हुआ कि गठबंधन टूटेगा नहीं। साथ ही यह भी महसूस हुआ कि केंद्र उर राज्य की सरकारें कश्मीर की हालत सुधारने में दिलचस्पी नही ले रहीं हैं। जहां तक कश्मीर  का सवाल है वह ऐसे ही रहेगा क्योकि सरकार को इसे सुधारने में दिलचस्पी है ही नहीं।वहां होने वाली जनहानि के बारे में दिल्ली दरबार बचकाना दलील देता है। जहां तक राज्य सरकार की बात है तो वह अपना असर खो चुकी है और फकत गठबंधन को कायम रखने तथा गद्दी पर बने रहने की कोशिश में है। अतएव कश्मीर के भविष्य की चिंता किसी को नहीं है। अगर 2016 के आखिरी चंद महीनों में कश्मीर की हालत बेहद गंभीर थी तो इन दिनों अत्यंत जटिल है। हिंसक प्रदर्शन थमे नहीं हैं और ना घाटी है मारने तथा घायल होने वालों की तादाद। दिल्ली या श्रीनगर में लगता है कि कोई जानता ही नहीं  कि समस्या क्या है? बस केवल एक ही कोसाहिश है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना रहे। आज कश्मीर में विदेशी आतंति उतनी मुश्किलें पैदा नहीं कर रहे हैं जितनी कि देशी उग्रपंथी।ऐसा नही लगता कि उनका पाकिस्तान के लश्कर ए तैयबा या हिजबुल मिजाहिदीं से सीधा संपर्क है अलबत्ता यह जरूर लगता है कि इन्हें लोकल हिजबुल मुजाहिदीन से ताल्लुक है। ये लोग कौन हैं सरकार में ना कोई जानता है ना जानने की कोशिश कर रहा है। पाकिस्तान ने हाथ नहीं खींचे हैं वह इन्हें भड़काने में लगा है। यहां नया खतरा भिन्न स्रोत से उत्पन्न हो रहा है। मौजूदा विपदा को समाझने के लिए विदेशी उकसावे  को नही समाझ्ने और पाकिस्तान की भूमिका को रेखांकित करना अपर्याप्त है। धन जन की हानि रोकने के लिए फौज को संयम बरतने की सलाह देना कोई अक्लमंदी नहीं है। कश्मीरी युवकों को दोष देने से कहीं बड़ा और गम्भीर मामला है यह। यहां कुछ अलग ही हो रहा है और इसके लिए कुछ नया करने की ज़रूरत है। पूरे आंदोलन के स्वरूप का अध्ययन करें तो महसूस होगा कि इसका कोई एक नेता नहीं है। यह जिस तरह बढ़ रहा है कि डर है कि यह " इस्रायली इन्तिफदा" में ना बदल जाय। यह खास किस्म का आंदोलन है जिसमें कोई एक नेता नही छोटा और सब नेता होने का दावा करते हैं। यह बहुत खतरनाक है और देशी तथा विदेशी दोनों के लिए जोखिम है। यह शहादत के जुनून में ना बदल जय इसके पहले इसे रोकना होगा। यहां मूल प्रश्न है कि क्या भारत हक़ीक़त का मुकाबला करना चाहता है। पहले  जो लोग आंदोलन के लिए  जिम्मेदार थे वे अभी भी सक्रिय हैं , लेकिन हमें यह भी मानना होगा कि हालात बदल रहे हैं , आतंकवाद एक नई शक्ल में उभर रहा है। इनमीं बड़ी संख्या उन लोगों की है जो कश्मीर में भारत की उम्मीद थे। 2008 से कश्मीर में अशांति की कई लहरें उठीं खासकर 2008-10 के बीच कई बार हिंसा के ज्वार आये, लेकिन इसमें अगुआ वे थे जो पाकिस्तान से ट्रेंड होकर आए थे। 2016 से इसमें बदलाव आयाऔर जो अगुआ थे। वे किसी संगठन से नहीं जुड़े थे। सबसे बड़ा खतरा है कि यहां आतंकवाद को सामाजिक मान्यता मिल गयी है। यासीन मलिक , उमर   फारूक और जिलानी जैसे पुरसने अलगाववादी नेता हाशिये पर चले गए हैं। यहां संकेत  साफ हैं कि बल पूर्वक शांति स्थापित नही हो सकती। सरकार प्रचार युद्ध में हार रही है और असंबद्ध आतंकियों तथा पाकिस्तान के खुफिया तंत्रों के लिए यही तो प्राणवायु है।इसके लिए राज्य सरकार को दोषी ठहराना सही नही है और साथ इस बिगड़ी स्थिति का लाभ उठाने से पाकिस्तान को रखना भी मुमकिन नहीं है।इसीलिए अमरीका ने भी कश्मीर के संदर्भ में अमरीका को रोकने का प्रयास छोड़ दिया है।अमरीका के लिए अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान महत्वपूर्ण है उसी तरह कश्मीर  के मामले में भारत के लिए हुर्रियत  महत्वपूर्ण था पर अब साख खो चुका है। कश्मीर फिलहाल खुफिया एजेंसियों, पुलिस और सेना के हवाले है। यह कोई विकल्प नहीं है।
अब सवाल उठता है कि यहां से किधर बढ़ा जाय? सबसे पहले यह सोचें कि लोग प्राण का भय त्याग कर वहीं क्यों एकत्र हो रहे हैं जहां  वास्तविक मुकाबला चल रहा है । सबसे पहले 1960 में कश्मीर में लागू संविधान में संशोधन का प्रयास हो जिससे यह भरोसा होगा कि उनकी स्वायत्तता कायम है। इसके बाद सभी पक्षों से खुली और भावुक अपील हो। यहां हथियारों की नीति छोड़ कर दोस्ती का हाथ बढ़ाना ज़रूरी है।

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