नमो- नीकु मिलन से उठा तूफान अभी थमा नहीं
भारत का " सेकुलर गठबंधन" इस समय बड़े उत्तर चढ़ाव के दौर से गुजर रहा है।उत्तरप्रदेश विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की भारी विजय के बाद से ही सेकुलर गठबंधन की सांस फूलती नज़र आ रही है। अब बिहार में जो हुआ उससे तो रही सही आस भी जाती रही। लालू यादव- नीतीश कुमार के अलग होने या नमो नीतीश के मिलन के बाद से सेकुलर गठबंधन या विपाक्षी एकता ही बात फकत ठगी का जुमला लगने लगी। सेकुलरीटी का जो फंडा था वह कुछ समय पहले तक भ्रष्टाचार लांछित , मुस्लिम - यादव या मुस्लिम - दलित वोट बैंक के लिए गुत्थम - गुत्था या आज़ाद कश्मीर। का गुप् चुप समर्थन करने वाले या अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के झंडाबरदार नेताओं के लिए हाथ मिलाने का एक मंच था। वे इसकी तरफ खिंचे चले आते थे लेकिन इसमें टिका रहना कठिन था। यह केवल सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी का काम करता था। जब नीतीश ने लालू से दागा करने की सोची उसी क्षण भारतीय राजनीति में भारी परिवर्तन की शुरुआत हुई। विपक्ष द्वारा जोड़ तोड़ के आरोप लगाने की जगह बन गयी। हालांकि विपक्ष ने तो ई वी एम मशीन में भी घपले आरोप लगाया था। वैसे राजनीतिज्ञों में हारने का औचित्य बताने या उसके कारण बताने की विचित्र प्रतिभा होती है लेकिन इस बार वह गोटी भी गयी। अब विपक्ष किस तरह से या कहें किस मुंह से भा ज पा को सांप्रदायिक या जोड़ तोड़ करने वाला बतायेगा। नरेंद्र मोदी और अमित शाह में विपक्ष को औचक में दबोच लेने की अद्भुत प्रतिभा है। गोआ से बिहार तक इसकी मिसालें भिखरी पड़ीं हैं। अब विपक्ष नीतीश को कुर्सी कुमार कह रहा है पर उसके पहले उसे भीतर झांकना होगा कि इस तरह के बवंडर के कारण क्या हैं? मोदी के खिलाफ यह बिहार फार्मूला कैसे पिट गया। महागठबंधन क्यों नाकामयाब हो गया?
यह बड़ा विचित्र लगता है कि खानदान परास्त कोंग्रेस उस हालात को ताड़ने में कामयाब नही हो सका जिसे सब लोग पहले ही भांप जाते हैं। ऐसे में अगर राहुल गांधी उस पार्टी के नेता हैं तो नरेंद्र मोदी को जरा भी शंकित होने की ज़रूरत नहीं है। जहां तक भारत की जनता की बात है तो वह एक ऐसे लोकतंत्र में रहने को अभिशप्त है जिसमें विपक्ष बेअसर है। यह लोकतंत्र में बहुत बड़ा अपशकुन है कि विपक्ष केवल कानूनी या नैतिक आधार पर ही इस्तीफा देता है। कोई भी अक्षमता के आधार पर इस्तीफा नही देता। क्या यह राहुल मुक्त कोंग्रेस का वक्त नहीं है। सर्वेक्षण करें कि राहुल गंदर्शी को कितने लोग प्रधान मंत्री के रूप में वोट देना चाहेंगे तो आपको जावेआब मिल जाएगा।
यह बहुत गाम्भीर स्थिति है कि हमारे देश ऐसा सत्ताधारी दल है जिसने चुनाव में भारी विजय पाई है फिर भी इधर उधर हाथ मार रही है। दूसरी तरफ विपक्ष अपनी अपनी डफली बजा रहा और सबको यह मुगालता है कि वह भा ज पा को पराजित कर देगी या उसके दांत खट्टे कर देगी। नीतीश को अवसरवादी या भा ज पा को सम्प्रदायवादी कहने से राहुल नेता नहीं बन जाएंगे। " मुझे पता था कि ये होने वाला है " इसासे पार्टिकर्मियों में आत्मविश्वास नहीं पनपेगा।
लालू एक सनकी बाप हैं। उन्हें यह भ्रम है कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी औलाद को उनके " कर्मो" की सज़ा मिलेगी। वे चारा घोटाले में फंस कर पटना रांची के बीच दौड़ रहे हैं। उन्हें मालूम है कि मामला उनके हाथ से फिसल रहा है। वे खुद या अन्य नेता भी जानते हैं कि करप्शन उस हिम खंड की तरह होता जो ऊपर तोड़ा सा दिखता है और अंदर टाइटेनिक को डूबा देता है।
सपा के मुलायम सिंह यादव भी अच्छी स्थितिमें नहीं हैं। ममता बनर्जी भी भाजपा के पोशीदा हमलों से परेशान हैं। अब दोस्त से दुश्मन और फिर दुश्मन से दोस्त बन नीतीश मोदी के लिए एक ऐसा मोहरा हैं जो काम से कम करप्शन को मात देने के काम आएगा। भ ज पा की नज़र बिहार से आगे है। उसके रथ को रोकना कठिन है। हैमल में जो घटना क्रम हुए जिसके कारण तेजस्वी को हटाना पड़ा यह अरविंद केजरीवाल को हटाने के काम भी आएगा। नीतीश कुमार जिन्होंने करप्शन के आरोप से लांछित अपने डेप्युटी सी एम को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया और नहीं देने की सूरत में खुद इस्तीफा दे दिया, ये भा ज पा के लिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले नए योद्धा के रूप में उभरेंगे। जो दिख रहा है भविष्य उससे बहुत व्यापक है और जिस झंझावात ने सेकुलर के जहाज को डूबा दिया वह झंझा अभी भी कायम है।