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Thursday, January 31, 2019

राहुल गांधी वादा निभाएंगे कैसे ?

राहुल गांधी वादा निभाएंगे कैसे ?

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में अपने भाषण के दौरान कह दिया कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आई तो वह न्यूनतम आय योजना आरंभ करेगी। उन्होंने कहा कि देश के हर गरीब को सरकार न्यूनतम आमदनी की गारंटी देगी। इसका मतलब है कि सभी गरीबों के बैंक के अकाउंट में न्यूनतम आमदनी आ जाएगी। लेकिन ,प्रश्न है कि सरकार इतने पैसे लाएगी कहां से?
     कुछ अर्थशास्त्रियों  का कहना है कि सरकार यदि सब्सिडी बंद कर दे तो यह आराम से हो सकता है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हर नागरिक को एक मासिक रकम दे दी जाएगी जिससे उसकी न्यूनतम जरूरतें पूरी हो सके और वह भूखा नहीं मरेगा । विपक्ष चाहे  जो कहे लेकिन की घोषणा नई नहीं है ।2016- 17 के आर्थिक सर्वेक्षण में इसका जिक्र है ।सर्वेक्षण में इसे यूनिवर्सल बेसिक इनकम कहा गया है। कुछ साल पहले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना(मनरेगा ) शुरू की गई। इसका उद्देश्य यही था कि गरीब किसानों को एक तय आमदनी साल में सरकार गारंटी के रूप में दे दे। तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 22% गरीब हैं। यानी, लगभग 30 करोड़ लोग गरीब कहे जाएंगे । अगर इन्हें तीन हजार रुपये प्रतिमाह दिए जाएं तो करीब एक सौ लाख करोड़ खर्च आएगा। 
     ज्यादातर अर्थशास्त्री मानते हैं की यह उसी तरह का  वादा है जैसा मोदी जी ने पंद्रह- पंद्रह  लाख रुपयों का किया था । कांग्रेस के नेता पी चिदंबरम ने एक टेलिविजन इंटरव्यू में राहुल गंदी के वादे पर जो कहा वह बहुत सटीक नहीं था। सोशल मीडिया में इस लेकर काफी बहस चल रही है ।  जाएगा कि राहुल जो कहते हैं वह करते हैं।
      चलिए मान लेते हैं कि राहुल गांधी निम्नतम आय की गारंटी देने के मामले में गंभीर हैं।  इसमें एक सवाल उठता है कि यह किसे मिलेगा? गरीब की खोज कैसे होगी? क्या जो बीपीएल कार्डधारक धारक है उन्हें मिलेगा? विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार 2011 में 27 करोड़ 60 लाख बीपीएल कार्ड धारी थे । बीपीएल कार्ड धारियों को चिन्हित करने की संशोधित प्रक्रिया के बाद 2015 में या संख्या घटकर 17 करोड़ 20 लाख हो गई। अगर पी चिदंबरम की ही बात मान लें कि देश में 20% गरीब हैं इसका मतलब हुआ कि लगभग 25 करोड़ लोग गरीब हैं। तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट के मुताबिक एक आदमी को गरीबी से बाहर निकलने के लिए ₹7620 प्रतिमाह जरूरी है और यह राशि कई साल पहले तय की गई थी। महंगाई बढ़ने से यह राशि लगभग 10 हजार  प्रतिमाह हो गई है । 25 करोड़ लोगों के लिए 10हजार रुपये प्रति माह देने का मतलब है कि इसपर करीब है 2.5 लाख करोड़ रुपए खर्च आएंगे। 2018 -19 का हमारा सकल घरेलू उत्पाद (वर्तमान मूल्य पर ) 188 लाख करोड़ रुपए हैं। न्यूनतम आय गारंटी की उपरोक्त राशि हमारे सकल घरेलू उत्पाद से 1.3% ज्यादा हो जाएगी। दूसरी बात है कि इसकी अवधि। ढाई लाख करोड़ 1 वर्ष में साध्य नहीं है। अगर इसे 5 वर्ष की अवधि में किस्तों में बांट दिया जाए तो संभव हो सकता है। जैसे एक वर्ष में 5 करोड़ लोगों को इसका भुगतान हो तब कहीं जाकर 5 वर्ष में कुछ हो सकता है। क्योंकि, यदि देश का सकल घरेलू उत्पाद हर वर्ष 10% भी बड़े तो 2024 में भारत का जीडीपी करीब 300 लाख करोड़ हो जाएगा, इससे इस योजना को संभव बनाया जा सकता है और ढाई लाख करोड़ रुपयों को दिया जा सकता है। कुछ अर्थशास्त्री यह मानते  हैं इससे बहुत कुछ नहीं बदलेगा। क्योंकि इस अवधि में महंगाई भी बढ़ेगी और इसके अनुपात में न्यूनतम आय  नहीं बढ़ाई जा सकती । इसलिए एक अवधि के बाद यह बेकार हो जाएगी । यही नहीं ,शहरी मध्यवर्ग के गरीब लोग इस योजना के दायरे में नहीं आएंगे और इस योजना के बाद खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि उन लोगों को परेशानी में डाल देगी ।  इसके बाद शहरी क्षेत्रों से आंदोलन शुरू होगा कि इस योजना को वापस ले लिया जाए या उन्हें भी इस योजना का लाभ मिले। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि मनरेगा बंद कर देने से इस योजना को थोड़ी मदद मिलेगी। मनरेगा यूपीए के जमाने की योजना है और वह इसे तमगे की तरह प्रयोग करता है। लेकिन मनरेगा भी नाकामयाब हो गई । यही हाल खाद्य सुरक्षा का भी हुआ।
     राहुल गांधी के प्रस्ताव  के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह नहीं कि न्यूनतम आय योजना बिल्कुल पहुंच से बाहर है बल्कि इसके लिए कई सब्सिडीज को बंद करना पड़ेगा। क्या यह संभव है ? उदाहरण के तौर पर राहुल गांधी केंद्रीय कृषि ऋण माफी योजना की मांग कर रहे हैं और जब तक ऐसा नहीं होगा वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैन से सोने नहीं देंगे। 2008 में केंद्रीय कृषि ऋण माफी योजना के तहत साठ हजार करोड़ दिए जाने की घोषणा की गई थी और अब अगर ऐसा होता है तो यह राशि बढ़कर 1.5 लाख करोड़ हो जाएगी।  अगर इसे लागू किया जाता है तो गरीबों के लिए न्यूनतम आय योजना को लागू करना संभव नहीं हो पाएगा।
       कुछ अवास्तविक राजनीतिक वायदे भी  करने होते हैं। उदाहरण के लिए कुछ समय पहले  जब तेल की कीमतें तेजी से बढ़ रही थीं तो  पी चिदम्बरम वादा किया की पेट्रोल की कीमत 25 रुपये प्रति लीटर की दर से कम की जाएगी । आंकड़े बताते हैं कि यदि टैक्स में एक रुपया कम किया जाए तो कुल 13 हजार करोड़ का घाटा लगेगा। अब आप कल्पना कर सकते हैं कि 25 रुपए प्रति लीटर की कटौती के बाद क्या होगा। अगर ऐसा कर दिया जाता है तो कई योजनाएं धरी रह जाएंगी । यहां तक कि अगर कटौती केवल डीजल और पेट्रोल तक ही सीमित रहती  है तब भी डेढ़ लाख करोड़ की हानि होगी जो मौद्रिक रूप से गैर जिम्मेदार है । 
यही नहीं , कांग्रेस ने आरंभिक दिनों में गरीबी हटाओ का नारा लगाया था और गरीबों के बल पर कांग्रेस की सरकार इतने दिनों तक कायम रही। अब राहुल गांधी एक नया नारा दे रहे हैं। चुनाव के नजरिए से इसे बहुत महत्वपूर्ण समझा जा रहा है।  यह समय बताएगा कि इसका कितना लाभ मिला। दूसरी तरफ, भाजपा अंतरिम बजट पेश करने जा रही है और इस बात की पूरी संभावना है कि राहुल की इस घोषणा को देखते हुए वह भी  बजट में कुछ ऐसा करेगी कि इसकी काट हो सके।
     नरेंद्र मोदी ने 15 -15 लाख रुपए जमा कराने का वादा किया था और अब उनका मजाक उड़ाया जाता है कल राहुल गांधी का भी यही हश्र हो सकता है।

Wednesday, January 30, 2019

बंगाल में भाजपा की मुश्किलें 

बंगाल में भाजपा की मुश्किलें 

बंगाल में भाजपा की राजनीतिक यात्राओं को हाईकोर्ट द्वारा मंजूरी दिए जाने को भारतीय जनता पार्टी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की व्यक्तिगत पराजय के रूप में प्रचारित कर रही है।शायद भाजपा को इस हकीकत का गुमान नहीं है कि बंगाल की राजनीतिक नैरेटिव या विमर्श  को प्रचार नहीं तय किया करते और ना ही इस तरह की यात्राएं। भारत में राजनीतिक सोच को आरम्भ से अबतक दिशा देने वाला एक विशेष वर्ग है। वह वर्ग सक्रिय रूप में कहीं दिखता नहीं है लेकिन विचार वही बनाता है।वह वर्ग कोलकाता का बंगाली एलीट क्लास है। बंगला और अंग्रेजी बोलने वाला यह क्लास राज्य में राजनीति के खेल को बनाता बिगाड़ता है। इस क्लास में बंगला मूल के अंग्रेजी और बांग्ला के जहीन कवि, लेखक, चित्रकार, फिल्मकार,नाटककार और बुद्धिजीवी शामिल हैं। ये लोग सामाजिक सांस्कृतिक उदारवाद, मानवाधिकार, धार्मिक-लैंगिक समानता ,सांविधानिक मान्यताओं, कारोबारी आजादी और असरदार कल्याणकारी योजनाओं के हिमायती हैं। इस वर्ग की ताकत को भाजपा कम कर के आंक  रही है। बंगाल के मतदाता इसी क्लास के विचारों पर यकीन  करते आये हैं। भाजपा चंद हिंदीभाषी लोगों और फ्लोटिंग पॉलिटिशियन्स को जमा कर यह जंग जीतना चाहती है।  बेशक यह क्लास अंग्रेजी और साधु बंगला में लिखता है पर  बंगाल तथा बंगला भाषा तथा बंगालियों का भक्त है। 1971 में तत्कालीन  पूर्वी पाकिस्तान में भाषा को लेकर उपजे विवाद ने एक देश बनवा दिया। इस क्लास में भाजपा के उभार को हिंदी पट्टी के वर्चस्व के रूप में देखा जा रहा है। इन्हें एक छोटा समुदाय मानकर इसकी ताकत को झुठलाना सही नहीं होगा। उसकी आलोचनाओं और ताकत में दम होता है। इसी वर्ग ने वामपंथ के बंधे बंधाये ढर्रे का विरोध करना आरंभ किया और सरकार गिर गयी। मुख्य मंत्री ममता बनर्जी कवि हैं , चित्रकार हैं और इसी कारण वे इस वर्ग की ताकत को समझती हैं। भाजपा इसकी ताकत को अनदेखा कर रही है और बाहरी शक्ति के रूप में बंगाल में पैर जमाने का प्रयास करती हुई दिख रही है। यह उसके लिए हानिकारक है।
   दूसरी बात कि भाजपा के नेताओं के समक्ष भारी भाषा समस्या है। पिछले दिनों मई और जुलाई में क्रमशः शांति निकेतन और मेदिनीपुर में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने बंगला में दो दो वाक्य बोले। ये बहुत साधारण वाक्य थे और भाजपा यह समझने लगी है कि इससे वह भाषा का पुल बना लेगी। भाजपा के पास ऐसा कोई बड़ा नेता नहीं है जो स्थानीय बंगला में  भाषण दे सके और जनता को प्रेरित कर सके। दिलीप घोष , मुकुल राय और बाबुल सुप्रियो में वह बात नहीं है। मुकुल राय संगठन के आदमी हैं और बाबुल सुप्रियो अभी जान नेता नहीं हो सके हैं। यह एक बहुत बड़ा मामला है । ममता जी भाषा का हथियार इस्तेमाल भा ज पा को हाशिये पर लाने की कोशिश में हैं। दूसरी बात कि एन आर सी को बंगाली विरोधी के रूप में पेश किया जा रहा है।
  2016 के विधान सभा चुनाव में भाजपा चौथे स्थान पर थी। लेकिन मई में पंचायत चुनाव में उसे दूसरा स्थान हासिल हुआ, विधान सभा उप चुनाव में भी यह दूसरे स्थान पर थी। यह नवापारा विधान सभा, उलुबेड़िया लोकसभा उपचुनाव में भी दूसरे स्थान पर थी। असम में एन  आर सी लागू कर उसने असमिया बोध तो जगा दिया लेकिन बंगाल वह उल्टा असर करेगा। बंगाली एलीट वर्ग इसे बंगाली विरोधी कह रहा है और टी एम सी को बंगला संस्कृति तथा बंगाली स्वभाव का रक्षक मानती है। यहां यह विचार चल रहा है कि एन आर सी हिन्दू मुलिम का मसला नहीं है जैसा कि प्रचारित किया जा रहा है बल्कि यह बंगला भाषियों से जुड़ा मसला है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे बंगाली गौरव से जोड़ दिया है। एक बार उन्होंने उसी संदर्भ में अपने भाषण में भी कहा था कि " बंगला बोलना कोई अपराध नहीं है। यह दुनिया की पांचवीं सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। भाजपा को बंगाल से क्या समस्या है? क्या वह बंगालियों की प्रतिभा और संस्कृति से आतंकित है? " भा ज पा के बड़े नेताओं ने इसी के लिए यात्रा की योजना बनाई। भाजपा  और संघ ने बंगाल के लिए  हिंदी में पोस्टर छपवाना काम कर दिया है। भाजपा कि योजना     यहां हिन्दू बंगालियों को लुभाने की है पर शायद वह नही जानती कि बंगाल में धार्मिक परंपरा और वैसी नहीं है जैसी हिंदी पट्टी में है। बंगाल की समृद्ध धार्मिक परंपराएं दुर्गा पूजा, काली पूजा और ईद के चारों तरफ घूमती हैं। बंगाल की राजनीतिक परंपरा धर्म निरपेक्ष है।
बेशक अदालत से तो भाजपा ने यात्राओं की जंग जीत ली लेकिन समाज मेष आज बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा और डर है कि कहीं हिंदू धर्म विक्रम के चक्कर में सामाजिक विद्वेष न बढ़ जाए । प्रशासन को इसके लिए तैयार रहना पड़ेगा साथ ही बंगाल के समाज को सचेत रहना पड़ेगा।

Tuesday, January 29, 2019

कोशिशें गांधी को इनकार करने की

कोशिशें गांधी को इनकार करने की

विख्यात इतिहासकार डॉ. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक पोलिटिकल पार्टीज इन इंडिया में गांधी जी की हत्या का जिक्र करते हुए मैल्कम डार्लिंग की डायरी का हवाला देते  हुए लिखा है कि गांधी जी की शहादत ने भारत को बचा लिया। मैल्कम भारतीय सिविल सेवा के अफसर थे, रिटायर जिंदगी गुजार रहे थे । मैल्कम ने 31 जनवरी 1948 को लिखा कि " कल गांधी की हत्या हो गयी ... अब यह कहना बड़ा कठिन है कि क्या होगा , लेकिन यह कुछ ऐसा ही हुआ है जैसे किसी जहाज की पेंदी में  छेद हो गया हो। फिर से बिखराव अपरिहार्य महसूस होता है, और अब भारत में बचे 4 करोड़ मुसलमानों का क्या होगा ?" मैल्कम बड़े ही संवेदनशील अफसर थे और भारतीय अपेक्षाओं के प्रति उनकी बहुत सहानुभूति थी। बटवारे के वक्त वे पंजाब में तैनात थे और बतवारे के भय ने उन्हें अपने विचारों पर दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया । मैल्कम की तरह कई अन्य पश्चिमी विचारकों ने भी यही सोचा था कि भारत 18 वीं शताब्दी में लौट रहा है जब पूरा देश रजवाड़ों में विभाजित था। सब ने यही सोचा कि भारत में हिंदुओं और मुस्लिमों में भारी खून- खराबा होगा क्योंकि अब शांति का मसीहा नहीं रहा।
      लेकिन , ऐसा नहीं हुआ और गांधी की मौत का जो सबसे पहला लाभ हुआ वह था भारत के दो दिग्गज नेता जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल में सुलह हो गयी। नए भारत में नेहरू प्रधानमंत्री तथा समवर्ती विदेश मंत्री एवं पटेल उप प्रधानमंत्री और समवर्ती गृह मंत्री तथा रजवाड़ों के मंत्री थे। गांधी की मृत्यु के पहले नेहरू और पटेल में बेहद असहमति थी। दोनों एक दूसरे के साथ काम करने  को तैयार नहीं थे और  इस्तीफा देने ही वाले थे। 30 जनवरी को प्रार्थना सभा में जाने के पहले गांधी ने उनसे लंबी वार्ता की। गांधी की हत्या ने इन दोनों नेताओं को अपना मतभेद समाप्त कर देने के लिए बाध्य कर दिया। 
   नेहरू ने पटेल को लिखा, " बापू की मृत्यु के बाद हर चीज बदल गयी और हमें ज्यादा कठिन दुनिया से मुखातिब होना पड़ेगा। अब पुराने विवाद समाप्त हो गए हैं और मुझे लगता है कि जितना हो सके मिलजुल कर काम करना समय की मांग है।" पटेल ने भी जवाब में लिखा कि " हम आपकी बात से सहमत हैं , उनकी मौत ने सबकुछ बदल दिया और अब इस दुखद समय में देश के लिए मिलजुल कर काम करना होगा।" इस बीच नेहरू और पटेल दोनों आकाशवाणी गए और पटेल ने देशवासियों से अपील की कि " बदले की भावना को भूल जाएं और महात्मा जी के बताए गए प्रेम और अहिंसा की राह पर चलें। हमने उनके जीवनकाल में उनकी राह का अनुकरण नहीं किया अब उनकी मृत्यु के बाद तो उस राह पर चलें।" नेहरू ने अपने प्रसारण में कहा कि " हमें साम्प्रदायिकता के उस जहर का मुकाबला करना होगा जीने हमारे वक्त के महा पुरुष को मार डाला।" इस संदेश का भारी असर हुआ। गांधी की हत्या के बाद हिंसा थम गई। हिन्दू डारे हुए थे , मुस्लिमों ने भी हमले बंद  कर दिए। गांधी की मृत्यु के बाद नेताओं को महसूस हुआ कि जल्दी ही एक लोकतांत्रिक संविधान , स्वतंत्र विदेश नीति और आर्थिक नीतियों  की जरूरत है।   अगर पटेल और नेहरू अलग हो जाते आज जो भारत का स्वरूप है वह नहीं रहता।
    अब जरा सोचें कि 1948 से 2018 के बीच कितना बदला हमारे देश में! आज अवांतर सत्य(पोस्ट ट्रुथ) का बोलबाला हो रहा है। लोकतंत्र के मुखौटे में अधिनायकवादी शासन का प्रयास चल रहा है। असहिष्णुता का प्रसार हो रहा है। समय के मोड़ पर हमें यह सोचना जरूरी है कि गांधी कितने प्रासंगिक हैं? कुछ लोग गांधी आज भी भारत के बटवारे का दोषी मानते हैं और उनके दोष को प्रमाणित करने के लिए  तरह-तरह के तर्क दिए जाते हैं। लेकिन, 1934 के बाद के हालातों का अगर समाज वैज्ञानिक अध्ययन करें तो पाएंगे कि बटवारे के लिए देसी मुसलमान जितने दोषी थे कट्टरपंथी हिन्दू भी उतने ही दोषी थे। जितनी मुसलमानों की भावना दोषी थी उतनी हिंदुत्व की तीखी प्रतिक्रिया भी दोषी थी। वह कौन सी धारा थी कि " सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा " लिखने वाले  शायर ने  पाकिस्तान की अवधारणा पेश की। दूसरी तरफ प्रांतीय हिन्दू महासभा द्वारा प्रकाशित स्वातंत्र्य वीर सावरकर (खंड 6, पृष्ठ 296) में लिखा गया कि  1937 में हिन्दू महासभा के खुले अधिवेशन में वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षयीय भाषण में कहा -" भारत को अब एकरूप और समशील राष्ट्र नहीं कहा जा सकता है, यहां अब दो राष्ट्र हैं , हिन्दू और मुसलमान।"
कहने का अर्थ है कि गांधी दोषी नहीं थे उन्हें इनकार करने की कोशिशें हो रहीं हैं। गांधी के बारे में बस इतना ही कहना है कि सात दशक से ज्यादा की इस अवधि में भी गांधी खबरों का हिस्सा रहते हैं। बेशक इतिहास उनके साथ अच्छा सलूक नहीं कर रहा है।

Monday, January 28, 2019

प्रियंका का बहुत असर नहीं पड़ेगा

प्रियंका का बहुत असर नहीं पड़ेगा

प्रियंका गांधी को राजनीति की धारा में औपचारिक रूप से लाने की घोषणा और उत्तर प्रदेश के महासचिव के रूप में उनकी तैनाती वंशानुगत राजनीति को हवा देने वालों की एक नई कोशिश है और साथ ही औसत भारतीय मतदाताओं को भरमाने का एक तरीका भी। कांग्रेस को यह विचार त्याग देना चाहिए कि गांधी नेहरू परिवार के किसी एक नए आदमी को सियासत में लाने से वर्तमान संकट समाप्त हो जाएगा। प्रियंका गांधी को लाया जाना एक तरह से यह बताने की कोशिश है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सियासत में नई हवा की तरह है। यह तो सर्वज्ञात है कि प्रियंका गांधी कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी की बहन हैं और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी तथा पूर्वर्ती अध्यक्ष स्वर्गीय राजीव गांधी की पुत्री हैं। वे कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पौत्री हैं। इन का आना कांग्रेस और मीडिया के कुछ भाग में एक लहर की तरह महसूस किया जा रहा है । अभी तक तो ऐसा होता रहा है कि हर 5 साल में चुनाव के वक्त प्रियंका गांधी दिखाई पड़ती थीं और अपने भाई तथा मां के लिए प्रचार करती थीं। अब औपचारिक रूप से राजनीति में उतरी हैं। प्रियंका गांधी की नियुक्ति से चंद दिन पहले  वरिष्ठ कांग्रेसी नेता कपिल सिब्बल ने लंदन में एक जलसे में भाग लिया था । उस जलसे में एक स्वयंभू साइबर विशेषज्ञ सैयद शुजा ने दावा किया कि भाजपा ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन(ई वी एम) में गड़बड़ कर या कहें हैकिंग कर पिछला चुनाव जीता था। इस बात को "ईवीएम हैकिंग" के नाम से प्रचारित किया गया। इस प्रचार में  मीडिया भी शामिल हुई । यहां तक कि उसके लिए आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में "फॉरेन प्रेस एसोसिएशन, लंदन" के सदस्य भी शामिल हुए थे। यह संस्था दुनिया की सबसे पुरानी विदेशी पत्रकारों की संस्था है जो हर साल अट्ठारह सौ से ज्यादा पत्रकारों को अधिमान्यता प्रदान करती है।  उस प्रेस कॉन्फ्रेंस को सैयद शुजा ने स्काइप के माध्यम से संबोधित किया था और उस दौरान जो बातें कही गयीं उनमें कहीं भी सबूत नहीं था। यह भी कहा गया है कि कपिल सिब्बल वहां व्यक्तिगत तौर पर गए थे। क्या विडंबना है कि  इसके पहले कपिल सिब्बल 2018 में पूर्व प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के महाभियोग के समय दिखाई पड़े थे। 
  कांग्रेस की इन कोशिशों से ऐसा लगता है कि वह लोकतंत्र के हर पहलू पर लगातार आघात कर रही है लेकिन वह आघात लौट कर कांग्रेस पर ही पड़ रहा है। प्रियंका गांधी की नियुक्ति इस  नजरिए से भी देखी जा सकती है कि ईवीएम हैकिंग की खबर के पिट जाने के बाद हुई क्षति की पूर्ति की यह कोशिश है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव के दौरान ईवीएम की हैकिंग का आरोप एक तरह से भारतीय निर्वाचन आयोग पर अंतरराष्ट्रीय मंच से प्रत्यक्ष हमला था । निर्वाचन आयोग लगातार कहता रहा है कि ईवीएम मशीन की हैकिंग नहीं हो सकती है और उसने दिल्ली पुलिस के पास शुजा के खिलाफ एफ आई आर भी दर्ज कराया है। ईवीएम मशीन उत्पादक इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन आफ इंडिया लिमिटेड ने स्पष्ट किया है सैयद शुजा ने कभी भी वहां काम नहीं किया है ।  यही नहीं जब फॉरेन प्रेस एसोसिएशन ने शुजा के दावे से खुद को अलग कर लिया तो कांग्रेस को भारी आघात लगा। अब पार्टी ने ईवीएम मशीन की हैकिंग वाले मामले से लोगों का ध्यान हटाने के लिए प्रियंका गांधी को सामने ला दिया।
      ऐसा लगता है कि कांग्रेस समझती है कि औसत मतदाता वर्ग यह बात नहीं समझता है। प्रियंका गांधी के आने से वह पुरानी बातों को भूल जाएगा। ईवीएम के हैकिंग की गलत खबर के बाद यह घोषणा और उसी समय  मायावती और अखिलेश यादव के साथ हाथ मिलाने के संदेश को कुछ इस तरह पेश किया गया है कि राजनीति में भारी बदलाव आ जाएगा।   ऐसा नहीं हो पाएगा प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश में  भाजपा को बहुत ज्यादा हानि नहीं पहुंचा पाएंगी लेकिन मायावती और अखिलेश यादव का कुछ न कुछ जरूर बिगड़ जाएगा। प्रियंका गांधी का यह मसला अगर संक्षेप में कहें अब्राहम लिंकन के शब्दों में "आपको खुद बड़ा बनना पड़ेगा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके दादा कितने बड़े थे।" समस्या है कि कांग्रेस के लोग इस बात को नहीं देख रहे हैं  और उतावले हुए जा रहे हैं।

Sunday, January 27, 2019

लोकतंत्र में अधिकारों की व्याख्या पर भी ध्यान दें 

लोकतंत्र में अधिकारों की व्याख्या पर भी ध्यान दें 

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गणतंत्र दिवस के अपने भाषण में कहा कि   चुनाव सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं है, यह हमारे ज्ञान और हमारी क्रिया के लिए है  सामूहिक आह्वान है। यह  हमारे समानअधिकारवादी समाज की उम्मीदों और लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता का नवीकरण है। चुनाव  लोकतांत्रिक भारत के लोगों की  सामूहिक इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है।  ऐसे में मतदान  एक पवित्र कार्य बन जाता है।  राष्ट्रपति ने आगे कहा,  महात्मा गांधी के सबक हमारे लोकतंत्र के लिए एक कीर्तिमान हैं। महात्मा गांधी ने  वंचित समाज को उनकी स्थिति से मुक्त कराया। राष्ट्रपति ने कहा , किसी दूसरे नागरिक की गरिमा और निजी  भावना का उपहास किये बिना , किसी के नजरिये से या इतिहास की किसी घटना के बारे में हैम असहमत हो सकते है , ऐसे उदारतापूर्ण व्यवहार को ही भाईचारा कहते हैं। उन्होंने कहा , हमारा समाज केवल एक बुनियादी कानून ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव का दस्तावेज भी है। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन को खुशहाल बनाना ही हमारे लोकतंत्र की सफलता की कसौटी है। गरीबी के अभिशाप को कम से कम समय में जड़ से मिटा देना हमारा पुनीत कर्तव्य है। यह कर्तव्य पूरा करके ही हम संतोष का अनुभव कर सकते हैं।
   थोड़ा पीछे चलते हैं और देखते हैं कि भारत प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पहले भाषण में क्या क्या कहा था। उन्होंने कहा था , " हमारे गणराज्य का उद्देश्य इसके नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समता प्राप्त करना तथा इस विशाल देश की सीमाओं में निवास करने वाले लोगों में भ्रातृ भाव बढ़ाना है, जो विभिन्न धर्मों को मानते हैं , अनेक भाषाएं बोलते हैं और अपने विभिन्न रीति रिवाजों का पालन करते हैं। 
राष्ट्रपति कोविंद  का  भाषण अत्यंत सारगर्भित है।  लेकिन हमारी सरकार क्या कर रही है? जब नागरिकों उम्मीदों की बात आती है तो सरकार व्यक्तिगत आजादी को ताकतवर बनाने से चूक  जाती है। इस विडंबना के दो कारण हैं-  एक तो हमारा  लोकतंत्र या कहें  जनता की ताकत और दूसरा सरकार द्वारा ताकत में कटौती के प्रयास। इन दोनों विडंबनाओं को इन दिनों घट रही घटनाओं के आलोक में देखा जा सकता है। नए वर्ष की शुरुआत दो विभिन्न वैधानिक तंत्रों के आरंभ किये जाने से हुई। सरकार जिन विचारों को पसंद नहीं करती उनके शमन के लिए  उन तंत्रों का उपयोग  किया जा रहा है। जे एन यू के एक छात्र पर और एक बुद्धिजीवी पर देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया गया । ये लोग बिना किसी क़ानूनी मदद के जेलों में पड़े हैं। यही नहीं मणिपुर के एक पत्रकार को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत जेल भेज दिया गया। 
      अब यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न है  कि लोकतांत्रिक उद्देश्य  का दमन करने वाली सरकार की ताकतों को स्वीकार करते हुए लोकतांत्रिक उत्साह कैसे अभिव्यक्त कर सकते  हैं? इस बनात पर कोई संदेह नहीं कि भारत मतदान के माध्यम से जनता के दावों और राजनीतिक स्पर्धाओं के मामले में एक जीवंत लोकतंत्र है। लेकिन जीवंतता के बावजूद जब अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में  कानून के शासन की बात आती है तो हमारा कीर्तिमान बहुत उम्दा नहीं है।  2014 के आसपास लोकनीति द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार व्यक्तिगत आज़ादी के मामले लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं है। चुनाव की तुलना और अमीर गरीब के बीच के घटते फासले की जब बात हुई तो केवल 18 प्रतिशत लोगों ने राय दी कि अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। इसी तरह राजनीतिक तौर पर एकजुट होने के मामले में 17 प्रतिशत लोगों की राय थी कि यह जरूरी है । जब लोकतंत्र की बात आती है तो शासन और कल्याण उस पर भारी पड़ता है। समाज में उदारवादी नियमों को लागू करने में लोगों की अनिक्षा के संदर्भ में सरकार और राजनीतिक नेताओं पर अतिरिक्त भार है। लेकिन हमारे राजनीतिक नेता इस जिम्मेदारी को पूरा करने में असफल हैं।
  राष्ट्रपति के भाषण में गांधी जी के सबक की चर्चा हुई पर इस बात पर कुछ नहीं कहा जा सका कि अधिकारों की गांधी की व्याख्या से सरकारों ने क्या सीखा? यहां  बात केवल वर्तमान सरकार की ही नहीं है बल्कि इस लोकतंत्र की अबतक की सभी सरकारों ने किसी ना किसी तरह से नागरिकों के अधिकारों में कटौती किया है।

Friday, January 25, 2019

आओ विचारें मिल कर...

आओ विचारें मिल कर...

आज हमारा 69 वां गणतंत्र दिवस है। यद्यपि किसी देश के इतिहास में 69 वर्ष बहुत ज्यादा नहीं होते लेकिन इतने कम भी नहीं होते कि अतीत से आती हुई वक्त की पगडंडियों पर वर्तमान की पग ध्वनि ना सुनी जा सके। ध्वनि साफ सुनाई पड़ रही है । आज जिस बात पर सबसे ज्यादा बात हो रही है वह है राष्ट्रीयता और राष्ट्र प्रेम। हम भारतीय हैं और भारतीयता की अपनी पहचान को इस बहस में भूलते जा रहे हैं । हमारे लिए जानना जरूरी है आज की भारतीयता की पहचान के मायने क्या हैं? भारतीयों के लिए भारतीयता क्या है? अक्सर कहा जाता है लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता तथा अनेकता में एकता भारतीयता की पहचान की सीमा रेखा है।  इन दिनों इनके अर्थ गुम होते से दिख रहे हैं ,क्योंकि इन शब्दों के पीछे जो वास्तविक इरादा था वह खत्म होता जा रहा है। सलमान रशदी ने अपनी किताब " मिडनाइट चिल्ड्रन " में लिखा है कि "भारत एक सपना था और हम सब सपना देखने के लिए तैयार हो गए। " लेकिन सवाल है कि क्या सब के सब सपना देखने को तैयार हो गए। सपने का मतलब है क्या अभी भी कुछ है और क्या जो सपना देखा गया वह बदल गया है? क्या एक ध्रुवीय विश्व में गुटनिरपेक्षता कोई अर्थ रखती है? संविधान में समाजवाद की बात करना क्या बुद्धिमानी है? यहां तक की हमारी सरकार है जो संविधान की शपथ लेती हैं वह क्या सही है ? खासकर ऐसे मौके में जब अर्थव्यवस्था दूसरी राह अपना रही है। जब हिंदुत्व का उन्माद बढ़ता जा रहा है वैसे में क्या धर्मनिरपेक्षता सही है?क्या 69 वें साल के पायदान पर खड़े होकर आज के दिन यह सवाल पूछना प्रासंगिक है?
      अभी हाल में सभी भारतीय राजनीतिक दलों के नेतृत्व के एक सर्वे में बड़ा ही चिंताजनक तथ्य उभर कर आया कि देश में अभी कोई ऐसा राजनीतिज्ञ नहीं है जो चिंतनशील हो और अपनी चिंता धारा के माध्यम से कोई नई दृष्टि का प्रतिपादन कर सके। सोचना भी बड़ा मुश्किल हो गया है कि कोई एक विचार जो एकदम नया हो  उस पर अतीत की छाप नहीं हो जो भारत को नैतिक रूप से दूसरे सतह तक पहुंचा दे। भारत बेहद गतिशील है लेकिन इसकी सियासत बहुत गतिहीन है।

फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में
      गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर ने 1921 में लिखा था कि "भारत का विचार उसके अपने लोगों को एक दूसरे से अलग करने की तीव्र चेतना के विपरीत है।" 19वीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट्रीयता का विचार उत्पन्न हुआ था और इसके बाद पाकिस्तान और इसराइल समेत कई देशों की राष्ट्रीयता उसे प्रभावित हुई । वह विचार था "एक  क्षेत्र में लोगों को एक बंद कर दिया जाए जहां उनकी भाषा एक हो और उनके दुश्मन की एक ही हों।" इसके बाद टैगोर और गांधी तथा भारतीय संविधान की राष्ट्रीयता एक सीमा के भीतर के क्षेत्र के अंतर्गत निवासियों के लिए हो गयी लेकिन भाषा और धर्म एक नहीं हुए और ना ही दुश्मन एक। उदाहरण के लिए देखें भारत का करेंसी नोट, जिसमें एक तरफ महात्मा गांधी की तस्वीर है और दूसरी तरफ भारतीय संसद का चित्र। नोट के किनारे 17 भाषाओं और लिपियों  में नोट का मूल्य लिखा हुआ है। हम कह सकते हैं कि भारत का एक नोट हमारी रोजाना की जिंदगी का एक प्रतिबिंब है। हम कभी भी इस दृष्टिकोण से नोट को नहीं देखते और ना ही ऐसा सोचते हैं। इस नोट को देख कर  कुछ ऐसा विचार उत्पन्न होता है कि हम सब एक हैं और जहां एक तरफ धर्म है दूसरी तरफ परमाणु बम भी।
       भारत का आदर्श  बहुलतावादी है।  उसके रास्ते में दो चुनौतियां हैं ,वह है हिंदू कट्टरवाद और क्षेत्रीय अलगाववाद। यह हमारे देश में आरंभ से ही कायम है। हाल में इसमें तीन और चुनौतियां जुड़ गईं वह हैं  असमानता ,भ्रष्टाचार और पर्यावरण प्रदूषण। देश में आमदनी, दौलत और यहां तक कि उपभोग में भारी असमानता पैदा हो रही है । इसके चलते बहुत से लोग अच्छी शिक्षा, अच्छे रोजगार और अच्छी स्वास्थ्य सेवा से वंचित रह जाते हैं।
वह मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
पर दुख देख दयालुता से ,द्रवित होते थे सदा
विभिन्न  विचार जाति, धर्म, क्षेत्र और लिंग के समानांतर चलते हैं। भारत के आदर्श पर आस्था बनाए रखने के लिए जरूरी है कि देश में ऐसे ईमानदार और सक्रिय राजनीतिज्ञ तैयार हों जो हर उकसावे के बावजूद जनता में लोकतंत्र और विविधता को कायम रखें । हमारे देश का मुकद्दर निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा लिखा जाता है लेकिन चुनाव काले धन जातिवाद और संप्रदायवाद के बल पर जीते जाते हैं। राजनीति में भ्रष्टाचार और संप्रदायवाद के कीड़े पड़ चुके हैं और उसने समग्र "रियल पॉलिटिक" की काया में इतने घाव पैदा कर दिए हैं कि लगता है उन घावों का इलाज शायद ही हो सके और इस कारण हमारे देश के लोकतंत्र का अजीब स्वरूप दिखने लगा है । आज के दिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या हमारा लोकतंत्र और उसके सपने वही हैं जो हमारे पूर्वजो ने देखा था, जैसे भविष्य की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।
हम कौन थे, क्या हो गए हैं ,और क्या होंगे अभी
आओ विचारें  आज मिलकर, ये समस्याएं सभी

Thursday, January 24, 2019

यह कौन सी हवा चल पड़ी है हमारे मुल्क में

यह कौन सी हवा चल पड़ी है हमारे मुल्क में

पिछले कुछ महीनों से एक अजीब सा वैचारिक जुर्म हमारे देश में होते देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर किसी खबर को बताने के लिए ऐसे - ऐसे शब्दों का प्रयोग ,ऐसे-ऐसे मुहावरों का प्रयोग चल रहा है और  बातों को बताने के ऐसे-ऐसे तरीके जिन्हें सुनकर हैरत होती है। कुछ चुनिंदा शब्दों का इस्तेमाल तो सामान्य है ,जैसे कांग्रेसी दलाल या भाजपाई भक्त इत्यादि। इन संज्ञाओं का चयन कुछ ऐसा है कि जिसे हमारे देश की वाक परंपरा अनुमति नहीं देती । ऐसी टिप्पणियां जिनकी कोई गहन आलोचना नहीं करता । उन तर्कों की अयोग्यता की ओर कोई इशारा नहीं होता और ना ही उनकी काट पेश की जाती है । सारी प्रक्रिया है एक ऐसे जंग की तरह है जिसमे विपक्षी को पूरी तरह कुचल डालने की जिद्द दिखाई पड़ती है। जॉर्ज ऑरवेल का बड़ा मशहूर उपन्यास है- '1984'। इस उपन्यास में सत्ता की कहानी है। इसका नायक एक ऐसा तानाशाह है जो हर चीज को अपने कब्जे में रखना चाहता है, चाहे वह अतीत की समझ हो या आज की हकीकत। उसके खिलाफ सोचना भी गलत है। कुछ ऐसा लगता है कि आज अज्ञानता ही शक्ति है और आजादी किसी चीज की नहीं है। एक तरह की जंग की शुरुआत हो चुकी है। पूरा देश दो खेमे में बंट गया है। एक नारे लगाता है "मोदी दोबारा आएंगे" दूसरा शोर मचाता है "मोदी को रोकना होगा।" दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन क्या यह सच है? ऑरवेल के उपन्यास की रोशनी में देखें । जो लोग मोदी को रोकना चाहते हैं या मोदी विरोधी हैं उनके बारे में खुद मोदी जी या उनके नेता क्या कहते हैं? उनका कहना है जिन लोगों को हमने लूटने से रोका और उन पर शिकंजा कसा वे सब के सब एक हो गए हैं। मोदी को वापस लाने वाले लोगों के प्रति वे धन्यवाद देते हैं। मोदी को रोकने वाले मुहिम में ऐसे-ऐसे लोग जुड़े हैं जो  कभी एनडीए के साथ भी रहे हैं, जैसे शरद यादव चंद्रबाबू नायडू। इस मुहिम में वे पार्टियां भी शामिल हैं जो कभी भाजपा के साथ रही हैं। अब जो लोग मोदी को लाना चाहते हैं वह इन दिनों पार्टी के वफादार ना होकर मोदी से वफादारी की होड़ में लगे हैं। वे भाजपा का झंडा लिए लड़ पड़ते हैं। भाजपा का होर्डिंग लगाने के लिए दूसरों से भिड़ जाते हैं । लेकिन उनके शरीर पर जो टी-शर्ट होती है उस पर "मोदी अगेन" लिखा रहता है। उनकी आत्मा यह मंजूर नहीं करती कि वह दूसरा टी शर्ट पहनें, जिसमें लिखा हो "बीजेपी अगेन।"  अब प्रश्न उठता है कि क्या यह टीशर्ट आडवाणी जी को पहनाया जायेगा या मुरली मनोहर जोशी जी को पहनाया जाएगा या इसी किस्म के नारे में छपी हुई साड़ी सुषमा जी और स्मृति जी पहनेंगीं। यही नहीं आर एस एस का कोई बड़ा नेता क्या ऐसा कोई लिबास पहनेगा।  शायद नहीं। यह मुहिम जो लोग चला रहे हैं उनके साथ भी सभी लोग नहीं हैं। यह स्थिति जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास के बिग ब्रदर की तरह है जहां उसी की बात चलेगी वही सर्वोच्च है। दूसरे अगर उसके विरोध में सोचते हैं तो गलत हैं।
        मोदी को लाने और रोकने के इस अभियान पर जरा गौर करना जरूरी है। क्योंकि मोदी को लाने के अभियान में सिर्फ नरेंद्र मोदी केंद्र में हैं लेकिन इसका मतलब सिर्फ नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि पूरी बीजेपी है। लेकिन सिर्फ मोदी का ही नाम क्यों आ रहा है? अगर चुनाव के बाद हालात बदलते हैं और कोई दूसरा नेता मोदी जी की जगह पार्टी से पेश किया जाता है तो क्या उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा?  यह मुहिम बताती है कि बिग ब्रदर की तरह मोदी जी के अलावा  कोई नहीं है। वह विवशता  बनते जा रहे हैं।    लोकतांत्रिक देश में इस तरह व्यक्ति केंद्रित विवशता क्यों ? क्या यह तानाशाही की ओर बढ़ता कदम नहीं है? याद करें 1975 में इसी तरह एक तानाशाह का उदय हुआ था उसका क्या हश्र हुआ? यह तो ठीक उसी तरह हो गया जैसे क्रिकेट के मैदान में कोई बड़ा खिलाड़ी है किसी बड़ी कंपनी का शर्ट पहन लेता है। इस पर हर क्रिकेट प्रेमी का दिल कचोटता है। इश्तेहार बनते खिलाड़ियों का  धीरे-धीरे इतना अवमूल्यन हो गया कि अब खुलेआम उनकी बिक्री होती है। क्या आगे चलकर हमारे राजनीतिज्ञों यही हश्र होगा? क्योंकि मनोविज्ञान धीरे धीरे उसी तरफ इशारा कर रहा है। जिस तरह क्रिकेट में पैसे लेकर खेलने वाले खिलाड़ियों को देश से जोड़ दिया जाता है और उनकी हार और जीत पर लोग दुखी हो जाते हैं या खुशी से उछल पड़ते हैं क्या हमारी राजनीति में इस तरह के अवसर नहीं दिखाई पड़े रहे हैं?
      इसलिए दोनों स्थितियां चाहे मोदी विरोधी हो या मोदी समर्थक दोनों भाजपा विरोधी हैं। यह दोनों हालात विपरीत होते हुए भी एक दूसरे के मददगार हैं। यह बीजेपी को हानि पहुंचा सकते हैं। इन सब के बावजूद जो सबसे बड़ी बात है वह कि यह जो हवा हमारे मुल्क में चल चुकी है वह हमारी वैचारिक ता को हमारी सियासी समझ को कहां ले जाएगी क्या धीरे-धीरे हमारे विचार हमारे समय हमारी समझ कुंद हो जाएगी और एक राष्ट्र के रूप में हम एक नेता के पिछलग्गू हो जाएंगे।
      

Wednesday, January 23, 2019

ऐसे तो मुकाबला नहीं कर पाएंगे

ऐसे तो मुकाबला नहीं कर पाएंगे

जिन लोगों ने पिछले पखवाड़े खत्म हुई संसद की कार्यवाही देखी होगी तो उन्होंने राफेल सौदे पर हुई बहस को जरूर देखा होगा और उसमें विपक्ष के प्रहार को अवश्य नोटिस किया होगा  विपक्ष ने सत्ता दल पर इस तरह प्रहार  किया जैसे संसद में आतिशबाजी चल रही हो । वित्त मंत्री अरुण जेटली, रक्षा मंत्री  निर्मला सीतारमण और भाजपा के अन्य नेताओं  ने इसका जमकर विरोध किया।  यह पहला मौका था जब भाजपा राहुल गांधी द्वारा किए गए हमले का जवाब उसी तर्ज में दे रही थी।  कई मौकों पर तो भाजपा को चुप  देखा गया। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और कोई भी बड़ा नेता राहुल गांधी के खिलाफ कुछ नहीं बोल सके और अगर बोले भी तो गंभीर आरोपों का बड़ा कमजोर विरोध था। यह भाजपा को बहुत महंगा पड़ा है। इसके कारण भाजपा ने हिंदी भाषी क्षेत्र के तीन प्रांत गवां दिए। इन राज्यों में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा का जवाबी हमला बिल्कुल शून्य था। वह राजनीतिक चौसर पर राहुल का मुकाबला नहीं कर सकी। राहुल आरोप के पत्ते फेंकते रहे यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भी यह सब चलता रहा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भाजपा ने पूरी ताकत से जवाब देना शुरू किया।  अगर इसने जिस तर्ज में लोकसभा- राज्यसभा में राफेल सौदे पर विरोध किया था अगर वही कायम रहा तो 2019 के लोकसभा चुनाव में थोड़ा लाभ मिल सकता है अन्यथा, डर है कि इसका हश्र वही होगा जो 3 राज्यों में हुआ है । राहुल धीरे - धीरे हमले की प्रचंडता बढ़ाते जा रहे हैं। गुजरात में 2017 में विधानसभा चुनाव के समय शुरू हुआ यह धीमा हमला इन दिनों काफी जोरदार हो गया है । अब वे मोदी जी से सीधा सवाल पूछते हैं कि क्या सौदेबाजी में किसी व्यवसाई के साथ पक्षपात किया गया है?  यह हमला दिनों दिन तीखा होता जा रहा है । उन्होंने पिछले साल संसद के बजट सत्र में उसे उठाया था उसके बाद कर्नाटक चुनाव में आजमाया गया अब तो राहुल नाम ले लेकर आरोप लगाते हैं।  आज जुमला चल निकला है कि "चौकीदार चोर है।" पहले तो भाजपा शायद यह सोचती थी कि राहुल के आरोप बेकार चले जाएंगे और उनकी संभावनाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, मसलन पिछले साल संसद में जब राहुल ने मोदी को गले लगाया और सदस्यों को आंख मारी और राफेल सौदे पर भाजपा को धकियाते नजर आए।  ना प्रधानमंत्री और ना कोई वरिष्ठ नेता इस पर उनका मुकाबला करने के लिए खड़े हुए ।
        राहुल गांधी ने आरोप लगाया कि फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रोन ने उनसे कहा था कि 36 राफेल लड़ाकू जेट विमान खरीदने में  गोपनीयता की कोई शर्त नहीं थी। उनके बयान के कुछ घंटों के बाद ही फ्रांसीसी सरकार का बयान आया जिसमें राहुल गांधी के बयान का विरोध था और कहा गया था कि समझौते में गोपनीयता की शर्त थी।  इसके बाद भी प्रधानमंत्री या भाजपा के अन्य नेता संसद में राहुल का मुकाबला करने को खड़े नहीं हुए। राहुल को बहाना मिल गया कि मोदी जी के पास इतना दम नहीं है कि उनसे बात कर सकें यहां तक कि  आंखें मिला सकें। नतीजा यह हुआ कि हाल के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान राहुल गांधी मोदी जी पर खुल्लम-खुल्ला हमला करते रहे। लेकिन न मोदी जी और न अमित शाह इसका मुकाबला कर सके या जोरदार विरोध कर सके। भाजपा के बड़े नेता केवल यह बताते रहे कि भाजपा में कौन-कौन सा काम किया। वे यह भी बताते रहे 2022 क्या-क्या किया जाएगा। लेकिन राहुल का जवाब देने से बचते रहे। यह कमजोरी लोगों के दिमाग में संशय पैदा करने लगी। लोग सोचने लगे, राहुल कहीं सही तो नहीं है और भाजपा कुछ छिपा रही है, इसीलिए चुप है।  यही कारण है कि उसे 3 राज्यों में पराजय मिली खासकर है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां 15 सालों से भाजपा शासन में थी।
          इससे सबक सीख कर लगता है कि पार्टी ने अपनी रणनीति को संशोधित किया और उसका नतीजा संसद के शीत सत्र में दिखाई पड़ा। जब राहुल प्रधानमंत्री पर हमले कर रहे थे तो वित्त मंत्री अरुण जेटली  जवाब देने के लिए खड़े हुए। उन्होंने कहा कि" राहुल झूठ बोलते हैं, बार-बार झूठ बोलते हैं दिन में 5 बार झूठ बोलते हैं। वह दस्तावेजों को दिखाने में डरते हैं। जिस तरह से वह झूठ बोलते हैं उसकी मिसाल नहीं है।" उन्होंने कहा कि, "कुछ लोग होते हैं जो सच को पसंद ही नहीं करते। "
        अरुण जेटली ने जो कहा वह उन्हें मानसून अधिवेशन में कहना चाहिए था लेकिन वह शीतकालीन अधिवेशन में कह रहे थे। जेटली ने कहा कि "राहुल गांधी ने मानसून सत्र में कहा था कि" फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ उनकी बातचीत हुई है। बाद में उसका खंडन आ गया।" उन्होंने कहा कि "राहुल किंडर गार्डन के छात्र की तरह हैं। यहां तक नहीं जानते के युद्धक विमान होता क्या है।" वित्त मंत्री ने राहुल गांधी और उनके परिवार पर व्यक्तिगत हमले भी किए। जब वे भाषण दे रहे थे तो सत्ता पक्ष की ओर से नारे लग रहे थे "गांधी परिवार चोर है ,मां-बेटे चोर हैं।" जेटली, मोदी, शाह और भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता यह मान सकते हैं कि राहुल गांधी का परिवार एक षड्यंत्र रच रहा है और राहुल गांधी हो सकता है झूठ बोल रहे हैं।  तब भी भाजपा राहुल गांधी का मुकाबला करने में वह बुरी तरह नाकाम रही है। अगर वह ऐसा अभी भी कर  है और राहुल को "पप्पू" मानकर चुप रहती है तो लोकसभा चुनाव का हश्र भी 3 राज्यों के चुनाव की तरह हो सकता है। इस बात की आशंका है। इसलिए, भाजपा को उसी तरह का विरोध करना चाहिए जिस तरह इसने संसद के शीतकालीन सत्र में किया था या कह सकते हैं उससे भी ज्यादा। भारत एक ऐसा देश है जहां गप्प बहुत तेजी से फैलता है और अचानक चर्चा का विषय बनते हुए लोगों का विचार बन जाता है। भाजपा को ऐसी स्थिति होने पैदा होने से पहले सतर्क हो जाना पड़ेगा।

Tuesday, January 22, 2019

गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई

गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई

दावोस  में विश्व आर्थिक सम्मेलन के परिप्रेक्ष्य में ऑक्सफैम द्वारा जारी वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है की दुनिया के 26 अरबपतियों की दौलत दुनिया के 380 करोड़ निर्धनतम लोगों की कुल संपत्ति के बराबर है। यह संख्या दुनिया के आधे सबसे गरीब लोगों की है । नवंबर 2018 में जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान दुनिया में अमीर और अमीर हुए हैं और गरीब और गरीब। रिपोर्ट में कहा गया है कि यह बढ़ती हुई खाई गरीबी से लड़ने में दिक्कत पैदा कर रही है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि अगर इन अमीरों पर उनकी दौलत का 1% वेल्थ टैक्स लगा दिया जाए तो उससे 418 अरब डॉलर की आमदनी हो सकती है। यह राशि स्कूल नहीं जाने वाले सभी बच्चों को शिक्षित करने और दुनिया के तीस लाख लोगों को मौत के मुंह से बचाने योग्य स्वास्थ्य सुविधाएं दी जा सकती हैं। रिपोर्ट में कहा गया है दुनिया के 500 अरबपतियों की दौलत ढाई  अरब डॉलर रोज हिसाब से बढ़ी है। एक तरफ दुनिया के अमीरों की दौलत में 12% वृद्धि हुई है तो दूसरी तरफ दुनिया की आबादी में गरीब लोगों की संपत्ति में 11% की गिरावट आई है। नतीजा यह हुआ के  दुनिया के आधे गरीबों की कुल दौलत के बराबर संपत्ति रखने वाले लोगों की संख्या 2017 में 43 थी जो पिछले साल घटकर 26 हो गई। अमीरों की दौलत कितनी तेजी से बढ़ रही है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2016 में इनकी संख्या 61 थी। यानी, 61 सबसे अमीर लोगों की कुल दौलत दुनिया की आधी आबादी के दौलत से ज्यादा थी और दो ही वर्ष में 26 लोगों की कुल दौलत दुनिया के आधे गरीब से गरीब लोगों कुल संपत्ति के बराबर हो गई। दिलचस्प बात यह है कि आर्थिक अराजकता के 10 वर्ष के बाद अरबपतियों की संख्या दुगनी हो गई । यही नहीं 2017 और 18 के बीच हर दो दिनों में एक व्यक्ति अरबपति बनता था। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति जेफ बेजोस की दौलत बढ़कर 112 अरब डालर हो गयी। इसका 1% इथोपिया के कुल स्वास्थ्य बजट के बराबर है । इथोपिया की आबादी साढे दस करोड़ है। ब्रिटेन में अगर  वेट को जोड़ दिया जाए  तो वहां के 10% सबसे गरीब लोग अपने देश के 10% सबसे अमीर लोगों से ज्यादा टैक्स देते हैं । गरीब लोग जहां 49% टैक्स देते हैं उनके मुकाबले अमीर 34% टैक्स देते हैं। ऑक्सफैम के निदेशक मैथ्यू स्पेंसर के अनुसार सकल विश्व में गरीबी घटी है लेकिन अमीरी और गरीबी के बीच की दूरी विकास को बाधित कर रही है।
      जिस तरह से हमारी अर्थव्यवस्थाएं संगठित हैं इसका मतलब है दौलत बढ़ रही है और नाजायज रूप में कुछ सुविधा प्राप्त लोगों के बीच जमा हो रही है। यह दुखी करने वाला तथ्य है । महिलाएं मातृत्व की देखरेख में कमी के कारण मर रहीं हैं ,बच्चों को शिक्षा नहीं मिल रही है। शिक्षा के अभाव में बच्चे गरीबी की राह पर चल पड़ते हैं । किसी को भी नहीं पढ़ पाने के कारण या फिर गरीब के किसी बच्चे को नीचे नजर से नहीं देखा जाना चाहिए। बेशक दुनिया में इतनी दौलत है कि सब को अच्छा जीवन मिल सके लेकिन ऐसा होता नहीं है। इसके लिए सरकारों को व्यवस्था करनी चाहिए कि अमीरों की दौलत और उनके व्यवसाय से हासिल टैक्स का सही उपयोग हो सके, ताकि लोगों का जीवन खुशहाल हो सके और गरीबी के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सके। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई सरकारें सार्वजनिक सुविधाओं में कम निवेश कर जीवन को और कठिन बना रही हैं। इसमें बताया गया है कि 10,000 लोग हर दिन इलाज के बगैर मर जाते हैं। करीब 26 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं केवल इसलिए कि उनके माता-पिता स्कूल की फीस ,कपड़े और किताबें नहीं खरीद सकते । 
       सरकार को अमीरों से प्राप्त टैक्स का सार्वजनिक उपयोग करना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता है। सर्वाधिक  अमीर व्यक्ति पर टैक्स कम  लगता है । एक फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने कहा था कि वैश्विक स्तर पर वेल्थ टैक्स लगना चाहिए और बढ़ती गैर बराबरी को रोकना चाहिए। पीकेटी इन हाल में विश्व असमानता रिपोर्ट जारी की है जिसमें दिखाया गया है कि 1980  से 2016 के बीच दुनिया के 50% गरीबों को संपत्ति में प्रति डालर के हिसाब से महज 12 सेंट प्राप्त हुआ है जबकि 1% अमीरों को प्रति डॉलर 27 सेंट प्राप्त हुआ है। ऑक्सफैम ने कहा है कि विकसित देश अपने देश में  असमानता को खत्म करने में नाकामयाबी के अलावा विदेशों में भी जो मदद का वादा किया उसे भी पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इससे गरीबी और बढ़ती जा रही है । विगत 40 वर्षों में चीन के तीव्र विकास ने अति निर्धनता को खत्म करने में अच्छी भूमिका निभाई। बैंकों के आंकड़े बताते हैं कि 2013 से वहां गरीबी आधी हो गई जबकि अफ्रीका के सहारा क्षेत्र में गरीबी बढ़ती जा रही है।
        जहां तक भारत का सवाल है यहां भी गरीबी बढ़ती जा रही है और अमीरी भी उसी तेजी से बढ़ रही है। वेल्थ इनिक्वालिटी -क्लास एंड कास्ट इन इंडिया 1961  - 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 10% अमीरों की दौलत इस अवधि में 55% बढ़ी है । अमीरों और गरीबों के बीच की बढ़ती दूरी जब तक कम नहीं होगी तब तक विकास की बातें सिर्फ किताबी रहेंगी और सब कुछ राजनीतिक छल माना जाएगा।

नेताजी: गाथा एक कर्मवीर की

नेताजी: गाथा एक कर्मवीर की

सुभाष चंद्र बोस के परिवारजनों के साहसी प्रयासों के बाद अंततः यह साबित हो गया कि वे 1949 के बाद भी जीवित थे। लेकिन टेलीविजन चैनलों पर दो एक बार यह बात बताए जाने के बाद सब चुप हो गए। हो सकता है कि जो लोग  इस सच को जनता के सामने नहीं लाना चाहते थे  या नापसंद करते थे । उनके   दबाव के कारण ऐसा हुआ हो। अब तक यह भी पता नहीं चला है कौन किन लोगों ने इसे रुकवाया? क्या इसे सरकार ने रुकवाया या फिर स्थानीय या राज्य सरकार में से किसी ने या फिर किसी कॉरपोरेट विज्ञापनदाता ने या कोई ऐसा फाइनेंसियल पार्टनर दुबई या मॉरीशस से डोर खींच रहा हो। किसने इसे रुकवाया?  इसका प्रसारण सुभाष चंद्र बोस के लापता होने और उनकी मृत्यु की पूरी गाथा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस हकीकत को दबाने से किसको लाभ है? सन्मार्ग का विश्लेषण है कि वह विमान दुर्घटना में नहीं मरे थे। क्योंकि जब उन्होंने अंडमान को छोड़ा उस दिन किसी भी विमान दुर्घटना की कोई खबर कहीं नहीं है खासतौर पर बर्मा के ऊपर। इसका मतलब है कि उनके जीवित होने की खबर के सामने आने 66 साल के बीच की सभी सरकारों ने जानबूझकर हकीकत को दबाया। जबकि, सुभाष बाबू के परिवार वालों ने यह बार-बार देश को बताया वे जीवित हैं और भारत आना चाहते हैं। सुभाष चंद्र बोस से संबंधित कुछ फाइलें भी सामने आई लेकिन उससे कुछ हुआ नहीं। 
      सन्मार्ग इनकी सच्चाई की तलाश करने वालों और पाठकों के सामने कुछ सवाल रखना चाहता है। मसलन, सुभाष बाबू की पुत्री 72 वर्षीय अनिता बोस बार-बार  भारतीयों से कहा वे उनके जीवन या उनकी मृत्यु से ज्यादा चिंतित अपने से हैं। उन्होंने कहा कि सुभाष बाबू की मौत से ज्यादा उनकी जिंदगी से सीखा जा सकता है। इन प्रश्नों का उत्तर यह बताएगा कि सरकारें क्या कुछ छिपा रही हैं। वे भारत को और उसकी संस्कृति को आजाद कराना चाहते थे। वह तो आज भी गुलाम है। वे इस हकीकत को जानते थे। क्या देश में कोई भी सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी के बारे में नहीं जानता है। क्या उस समय के भारत के शासक इस हकीकत को नहीं जानते थे, क्या नेहरू या लौह पुरुष पटेल जानते थे, क्या कथित देशभक्त या राष्ट्रवादी इससे अवगत हैं ? अगर हैं तो उनकी चुप्पी के पीछे क्या कारण है?
चलें मान लेते हैं कि वह 1949 में काल कलवित हो गए थे। फिर भी वे 1945 से 1949 तक कहां रहे ? क्या बर्मा में या ब्रिटिश जेलों में या फिर भारतीय जेलों में? क्या वे भारत में मरे तो उनकी अंत्येष्टि किसने की और अगर भारत के बाहर उनकी मृत्यु हुई तो उन्हें कहां दफनाया गया? क्या ब्रिटिश सरकार या वहां की खुफिया एजेंसियां इस हकीकत को जानती थीं?  द्वितीय विश्व युद्ध के समय समस्त संचार तंत्र ब्रिटिश नियंत्रण में थे। अगर, ब्रिटिश शासन इस सच को जानता था और भारतीय नेताओं को इस ने मिला कर रखा तो क्या 1990 तक सभी नेता और खुफिया एजेंसियां हर आयोग को इस बारे में क्यों गुमराह करती  रहीं ? सुभाष बाबू की 1945 में एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई और उन्हें जापान में दफनाया गया। किसने यह सूचना सभी आयोगों को दी? क्यों आयोगों के गठन पर जनता का करोड़ों रुपया बर्बाद हुआ या फिर आयोगों का दिखावा कर हमारे राजनीतिज्ञों सारे रुपए हजम कर लिए। किसने किस को सूचित किया। भारत ने कभी भी उस जापानी डॉक्टर की रिपोर्ट पर विचार नहीं किया, जिसने कहा था कि जो शव सामने है वह सुभाष बाबू का नहीं है। यह खबर भारत के देशभक्तों के बीच क्यों नहीं आई और अगर आई तो उन्होंने इस उलझन को सुलझाने की कोशिश क्यों नहीं की? भारत ने अनिता बोस के उस दावे को क्यों नजरअंदाज कर दिया जिसमें वह बार-बार कहती रहीं कि 1949 तक सुभाष बाबू से बातचीत होती रही है। क्या कारण है इसके पीछे क्यों एक देशभक्त नेता के बारे में हमारे नेताओं ने सूचना छुपाई। अगर नेताजी का स्वर्गवास 1949 में हुआ तो क्यों उनकी बेटी अपने पिता की लाश को ही सही वापस मांगने के लिए बार-बार भारत और जर्मनी की सरकार के दरवाजे खटखटाती रही? क्या यह व्यर्थ बात है या सचमुच कुछ जानती थी।
     अगर यह मान लिया जाए कि बोस ने अंडमान या नागालैंड से उड़ान भरी थी।  वह यकीनन सैनिक विमान होगा। उस समय अंडमान ,नगालैंड और बर्मा के बीच कोई भी विमान भेदी तोप नहीं था।  यह क्षेत्र सुभाष बाबू के नियंत्रण में था। उनका गंतव्य अगर जापान था तो वे अंडमान से जापान के ऊपर उड़ रहे थे । अगर नगालैंड से बर्मा के बाहर जा रहे थे तो वह  चीन के ऊपर से उड़ रहा था। फिर क्या हुआ क्यों उनका विमान बर्मा आ गया? क्या विमान को उड़ा दिया गया था या उसे जबरदस्ती उतारा गया? क्या विमान के मलबे की जांच हुई या होमी भाभा की विमान की तरह  उसकी तरफ से आंख मूंद लिया गया। विमान को उड़ाने या उसे जबरदस्ती  उतारने की क्षमता किसमें थी। 1945 में कोई भी एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइल नहीं थी बस विमान भेदी तोप थे जिनकी मार 3000 मीटर तक थी। ब्रिटिश सरकार पास तो आज भी ऐसे बमबाज विमान नहीं हैं जो प्रशांत महासागर और हिंद महासागर को पार कर विमान उड़ा दें। तो क्या 1945 में वे वैसा कर सकते थे? उस समय ब्रिटिश वायु सेना की क्षमता बहुत घट गई थी। उसके पास उस समय महज 3 ऐसे विमान थे जो दूर तक उड़ान भर सकें। सुभाष बाबू मित्सुबिसी विमान से आए थे जो तीस हजार फुट की ऊंचाई तक जाता था और विमान भेदी तोपों की मार से बाहर रहता था। क्या अनुभवी जापानी पायलटों ने सुभाष बाबू के उड़ान पथ की रिपोर्ट नहीं दी। सुभाष बाबू जापान में उतर जाते तो वे गांधी के साथ मिल सकते थे और कांग्रेस का सारा समीकरण उलट देते तथा खुद वास्तविक नेता बन जाते। स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से बातचीत करते।  वस्तुतः गांधी ऐसा नहीं चाहते थे अगर ऐसा हुआ होता तो भारत विभाजित नहीं होता।
      मान लेते हैं कि विमान को बर्मा के ऊपर मार गिराया गया ।  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बर्मा अंग्रेजों के कब्जे में था तो फिर अंग्रेजों ने अमेरिकियों और जापानियों को क्यों यह समझाया और उनका शव जापान ले जाने दिया । उस समय अमेरिका के कब्जे में  केवल फिलिपिंस हवाई अड्डा था और वहां से वह प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के ऊपर का क्षेत्र नियंत्रित करता था। उस समय इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा आजाद देश नहीं थे। जो देश थे वे जापान के साथ थे।  चीन के पास कोई अच्छा हवाई अड्डा भी नहीं था और ना ही बर्मा के पास और ना थाईलैंड के पास, तो अंडमान से जापान जाने के लिए एकमात्र रास्ता था फिलिपिंस होकर। अब सवाल उठता है कि क्या अमेरिकियों ने सुभाष बाबू का जहाज जबरदस्ती उतारा ? क्योंकि वे एक जापानी फौजी विमान में जा रहे थे। अगर ऐसा हुआ भी हो तो उन्हें अच्छी तरह मालूम था सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी) के कमांडर इन चीफ थे ,और जापान के साथ थे। जिनेवा समझौते के मुताबिक उन्हें युद्ध बंदी का दर्जा दिया जा सकता था। सुभाष बाबू ने भारतीय लोकतंत्र की स्थापना की और उसे कई देशों ने मंजूरी दी।  अमेरिका इसे जानता था। पूरी दुनिया जान गई कि भारत अस्तित्व में आ गया है तो कैसे उसके कमांडर इन चीफ को हिरासत में रखा जा सकता था।  अगर वे जीवित थे तो इस सच को क्यों छुपाया गया? किसके कारण छुपाया गया? अगर जापानी चाहते तो उन्हें बर्मा से ले जा सकते थे। जरूर किसी की राजनीतिक आकांक्षा को सुभाष बाबू से खतरा था और उसने अंग्रेजों से सांठगांठ कर इसे स्थाई रूप से समाप्त कर दिया या फिर अंग्रेज यह सोचते थे कि उनके रिहा होने से भारत के विभाजन और आजादी का नाटक नहीं चलेगा। इसलिए उन्होंने इस सच को छिपाया। चलिए मान लेते हैं  बाद में ही उनकी मृत्यु हुई तो कैसे हुई-  क्या उन्हें मीठा जहर दिया गया या दिल का दौरा पड़ा या फिर उसी तरह से जैसे चर्चील ने गांधी को समाप्त किया।
        माउंटबेटन के दबाब से ब्रिटिश फौज ने अमेरिकियों से सांठगांठ की और उन पर दबाव डाला की बोस के विमान को उतार लिया जाए और जब तक भारत विभाजन ना हो जाए तब तक उन्हें हिरासत में रखा जाय।  इससे भारत के अलावा कई पक्षों के जियोपोलिटिकल हितों को लाभ मिलता है। जब अमेरिकियों ने सुभाष बाबू को हिरासत में रखने से मना कर दिया तो अंग्रेजों ने रूसियों को भरमाया कि सुभाष बाबू कम्युनिस्ट  विरोधी हैं इसलिए उन्हें वे ले जाएं। उन्होंने रूसियों से यह भी वादा किया कि कश्मीर भारत के साथ मिल जाएगा और रूस का भारत से सड़क के रास्ते संपर्क हो जाएगा। इस सौदेबाजी के बाद अंग्रेजों ने ईरानी लड़ाकों को पश्तो जनजाति के छद्म में कश्मीर में घुसा दिया और वहां स्थापित कर दिया  जहां से रूस रास्ता निकालना चाहता था। ब्रिटिश हुकूमत ने  यह सारा दोष नेहरू के मत्थे मढ़ दिया । नतीजा देख कर रूसी हैरान रह गए। उन्होंने इसका बदला आइरिश रिपब्लिकन आर्मी को उच्चस्तरीय विस्फोटक देकर लिया। इन विस्फोटकों से आई आर ए के लड़ाकों ने माउंटबेटन और उसके पूरे परिवार को उड़ा दिया । क्या भारत ऐसा कर सकता है? क्या भारत इस तरह का बदला ले सकता है? अगर बोस को भारत लाया गया होता हमारी सीमा थाईलैंड से लेकर ईरान तक होती। एक सुभाष बाबू को रास्ते से हटाने से इस क्षेत्र में कई देश बन गये जो ब्रिटिश हितों की रक्षा करते हैं।
           सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी या आजाद हिंद फौज की स्थापना की।  जापान ने इसे समर्थन दिया। यह "भारत सरकार" की फौज थी इसका मुख्यालय सिंगापुर में था। जिस दिन आजाद हिंद फौज की स्थापना हुई उसी दिन भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला रखी गई । सुभाष चंद्र बोस इसके सुप्रीम कमांडर थे। अगर भारत इतिहास को संशोधित करना चाहता है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि  सुभाष चंद्र बोस भारतीय लोकतंत्र के पहले राष्ट्रपति थे। यही कारण था की बोस ने कभी भी निर्वासन में सरकार का गठन नहीं किया बल्कि सीना तान कर सिंगापुर और वर्मा तथा भारत के कई भागों को अपने कब्जे में लिया,  सरकार की स्थापना की नई करेंसी जारी की ।
       यह माउंटबेटन के लिए भयानक पराजय की तरह था।  जब उन्हें भारत का वायसराय बनाया गया एक तरह से उन्होंने सुभाष बाबू पर मनोवैज्ञानिक विजय हासिल की तथा बर्मा को भारत से विभाजित कर दिया। वह भारत का पहला विभाजन था ब्रिटिश चाहते थे कि जब तक उनकी विभाजन की योजना और कश्मीर को काटे जाने का षड्यंत्र पूरा  ना हो जाए तब तक सुभाष बाबू जेल में रहें।  जब सब कुछ हो गया तो सुभाष बाबू को मृत घोषित कर दिया गया और वह गुमनामी की जिंदगी जीते रहे।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के संपूर्ण विवरण को खोज पाने में नाकामी यह बताती है कि हम में भारत और भारतीयों के प्रति क्या हो रहा है इसे लेकर कोई भी दिलचस्पी नहीं है। जरा गौर करें , आज तक लगभग 35 सौ भारतीय जिनमें कई राष्ट्रपति थे, प्रधानमंत्री थे, राजा थे, वैज्ञानिक थे, ट्रेड यूनियन के नेता थे ,मुख्यमंत्री थे, केंद्रीय मंत्री थे, खुफिया विभागों के प्रमुख थे और गंभीर तथा वफादार पुलिस ऑफिसर थे सब के सब या तो विमान दुर्घटना में या हृदय गति रुकने से अथवा रहस्यमय आत्महत्या से मारे गए।  इनकी बाद में कोई जांच नहीं हुई । हम सुस्त ही नहीं लापरवाह भी हैं । यह सच है कि ये लोग जो मारे गए इन की औलाद ने भी सच जानने का प्रयास नहीं किया और अगर किया भी तो सरकारों ने साथ नहीं दिया । हमारी जो सबसे बड़ी जांच एजेंसी है उसके पास हेलीकॉप्टर या विमान दुर्घटनाओं की जांच करने की विशेषज्ञता नहीं है और उसे डीजीसीए पर निर्भर होना पड़ता है। भारत में बहुत कम ऐसा हुआ है कि विमान या हेलीकाप्टर दुर्घटनाओं में ब्लैक बॉक्स  की जांच हुई ताकि हम विभिन्न बिंदुओं को मिलाकर सच का संधान कर सकें सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के कारणों की जांच होती लेकिन राजनीतिक नेताओं ने उसे दबा दिया। जो हमारी देशभक्त सरकार  है क्या वह इस पर विचार करेगी और इस परेशानी से उलझेगी।

Monday, January 21, 2019

विपक्षी दलों का सम्मेलन

विपक्षी दलों का सम्मेलन

भारत में चुनावी विजय अक्सर जनता के विचारों और उनके बीच चल रही चर्चा का संक्षेपण है। 2014 में विचार और समाज में चल रही बातों ने भाजपा का साथ दिया और नतीजा सबके सामने था। अब हम 2019 के  आम चुनाव के लिए कदम आगे बढ़ा रहे हैं। यद्यपि सरकार ने कई मामलों में थोड़ा बहुत अच्छा किया है लेकिन इसने जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप काम नहीं किया और इन्हीं अपेक्षाओं का इस्तेमाल विपक्षी दल चुनाव में करते हैं । शनिवार को कोलकाता में विपक्षी दलों की विशाल रैली हुई और इस रैली में उन्होंने अपने इरादे का बयान किया। इस रैली में राहुल गांधी और मायावती ने हिस्सा नहीं लिया था। यह बताता है कि अभी भी विपक्षी दलों में एक दरार है । इस सम्मेलन का मुख्य मुद्दा था कि भाजपा कहां-कहां नाकामयाब रही इसे रेखांकित किया जाय और उन रेखांकित नाकामयाबियों को जनता के समक्ष पेश किया जाए। साथ ही, यह भी तय किया जाय कि इस विपक्षी गठबंधन का नेता कौन होगा । यह स्पष्ट है कि कोई भी पार्टी अकेले पूरे देश में भाजपा को पराजित नहीं कर सकती और अपने बल पर सरकार नहीं बना सकती। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि इस विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व कौन करेगा? हालांकि, विपक्षियों का मानना है कि इस मसले को  चुनाव के बाद तय कर लेंगे लेकिन एक चीज स्पष्ट है जिसे विपक्षी नेताओं ने शनिवार के सम्मेलन में बार बार दोहराया  कि नेता के लिए 3 उम्मीदवार हैं । यह तो स्पष्ट है कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को चाहती है कि वे प्रधानमंत्री बनें, बसपा चाहती है कि मायावती बनें  तीसरी हैं बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो सबसे प्रबल हैं और योग्यतम हैं। यद्यपि किसी ने भी दावा नहीं पेश किया लेकिन जिस तरह यह लोग सीटों के बंटवारे को लेकर बात कर रहे थे उससे लगा कि चुनाव के बाद की स्थिति पर नजर रखकर बातचीत हो रही है।
      पिछले हफ्ते मायावती ने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में गठबंधन में शामिल करने से गुरेज  किया इसके पहले कांग्रेस ने राजस्थान ,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सपा और बसपा के साथ सीटों का बंटवारा करने से इनकार कर दिया था। पश्चिम बंगाल में भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस के साथ कुछ ऐसा ही किया था। विपक्षी सम्मेलन  के पीछे भी सुश्री ममता बनर्जी का इरादा अपनी नेतृत्व क्षमता और अपनी प्रबलता का प्रदर्शन था । इसमें राहुल गांधी या सोनिया गांधी नहीं आए। उन्होंने अभिषेक सिंघवी तथा मल्लिकार्जुन खड़गे भेजा था और समर्थन का एक पत्र भेजा था। ममता बनर्जी ने भी कांग्रेस को व्यक्तिगत रूप से आमंत्रण भेजा था लेकिन जानबूझकर उन्होंने इस पर ज्यादा कुछ नहीं कहा। उनके दिमाग में था कि मायावती प्रधानमंत्री बनना चाहती हैं और यही कारण है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के साथ तालमेल नहीं किया। इस रैली में शामिल नहीं हो कर मायावती ने यह संदेश दे दिया। वे अपनी आकांक्षाओं को समाप्त नहीं करना चाहतीं।
       चुनाव के बाद का दृश्य अभी से दिख रहा है। वह तीन पार्टियों के गठबंधन के रूप में दिख रहा है। ममता बनर्जी और मायावती का यह मानना है अगर विपक्षी दल एक हो जाएं तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों से ज्यादा सीट हासिल हो सकती है और तब कांग्रेस को मजबूर किया जा सकता है कि वह विपक्षी दलों के गठबंधन को समर्थन दे। सुश्री ममता बनर्जी ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ,आंध्र प्रदेश के नेता जगन रेड्डी और उड़ीसा के नवीन पटनायक के लिए दरवाजा खोल दिया है। यह सब कांग्रेस के विरोधी हैं।
      उधर मायावती को यह उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश में वह बहुत ज्यादा सीट जीत लेंगी और इस बल पर विपक्षी दलों की अगुवा हो जाएंगी यह एक तरह से अगली सरकार का नेतृत्व करने के बराबर होगा। अब ये नेता अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं को एक व्यापक हित की तरह देख रहे हैं। विपक्षी दलों की प्राथमिकता भाजपा को पराजित करना है और इसके लिए अधिकांश सीटों पर एक ही उम्मीदवार भाजपा के खिलाफ खड़ा करना होगा, वरना काफी महंगा पड़ेगा। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बेहद प्रबल हैं और यहां शायद ही बीजेपी को कुछ हासिल हो सके। देशभर में उनका प्रभाव जरूर है पर  प्रबलता उतनी नहीं है जितनी बंगाल में है । लेकिन तब भी ममता जी देश में एक प्रबल विपक्षी नेता के रूप में उभर कर सामने आएंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। विपक्षी दलों द्वारा अगर उन्हें सामने रखकर ठीक से कदम बढ़ाया जाए तो सफलता की बहुत ज्यादा उम्मीद की जा सकती है।

Sunday, January 20, 2019

चुनाव यानी खुली जंग

चुनाव यानी खुली जंग

कहते हैं कि सियासत में एक हफ्ता बहुत होता है लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि हफ्ते के भीतर हफ्ता समाया हुआ है।  अगर आप याद करें कि पिछले हफ्ते क्या हुआ तो शायद याद नहीं कर पाएंगे। हफ्ते भर में इतना कुछ हो गया रहता है कि वह याददाश्त की सीमा से बाहर होता है। बड़ी अजीब स्थिति है लगता है बहुत कुछ घटने वाला है, कोई डायनामाइट फटने वाला है। हवा में धुआं और बारूद की गंध घुली हुई सी महसूस हो रही है। ऐसे हालात 2014 में भी नहीं हुए थे। बेशक दांव बहुत ऊंचे हैं ,लेकिन जो हो रहा है उससे  भी ज्यादा है। पहली बार ऐसा लग रहा है कि दोनों पक्ष ऐसी तैयारी में है कि "अभी नहीं तो कभी नहीं।" भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव को पानीपत की तीसरी जंग कहा है। रामलीला मैदान में उन्होंने अपने भाषण में कहा कि 2019 भाजपा के लिए निर्णायक युद्ध होगा। उन्होंने मराठाओं का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि मराठा 131 युद्ध जीत गए लेकिन पानीपत में हार गए और यही कारण है कि 200 बरस तक उन्हें गुलामी भुगतनी पड़ी। कांग्रेस ने इतना कुछ नहीं कहा है लेकिन उसे मालूम है कि एक और पराजय पूरे खानदान को मैदान से बाहर कर देगी। मायावती की तरह क्षेत्रीय नेता जानते हैं की 2019 उनके लिए बहुत बड़ी बात है। अगर भाजपा बहुमत के साथ चली आती है तो उनकी तरह की कई पार्टियों को अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाएगा। मैदान में जमे रहने के लिए जरूरी है कुछ करना होगा और भाजपा को रोकना होगा। यही कारण है कि वह हर चीज दांव पर लगा रहे हैं। यहां तक कि अपने शत्रुओं से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। यह टिके रहने का एक तरीका है।
         उधर दूसरी तरफ, हाशिए पर एक और बात या एक और घटना घट रही है। 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत प्रशंसक थे और वे सोशल मीडिया पर बुरी तरह सक्रिय थे। इस बार कांग्रेस ने उसी तरह का तरीका खोज लिया है। कांग्रेस ने भी भाजपा के आईटी सेल की तरह एक सेल बना लिया है। कांग्रेस सदस्य बुद्धिजीवियों पेशेवरों और मीडिया के साथ हाथ मिलाकर चलती रही है और वह इस बार भी नई नई तरह की बातें नए-नए बोल  नए-नए नारे  लेकर मैदान में आ रही है। इसका ताजा उदाहरण है सीबीआई बनाम सीबीआई का ड्रामा। इससे पढ़े लिखे लोगों के बीच में गंभीर संशय उत्पन्न हो रहा है। यह उनके लिए तो अच्छा है जो पार्टी के आदर्शों और सिद्धांतों पर आस्था रखते हैं लेकिन जो लोग बुद्धिजीवी हैं वह गंभीर चिंता में हैं कि क्या इस तरह के एजेंडा का समर्थन किया जाए। यही नहीं, जनता के बीच भाषण के लिए यह बड़ा बढ़िया मुद्दा है। वह कहते हैं की मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है लेकिन यहां तो मोहब्बत कहीं दिखाई नहीं दे रही है। दोनों तरफ से मोर्चे बंध गए हैं । लेकिन अभी बहुत कुछ सोचना अच्छा नहीं होगा। क्योंकि ,यह कैसी समस्या है जो केवल भारत में ही नहीं है यह पूरी दुनिया में कायम है। यह अमरीका के चुनाव में भी हुआ था और उसके वायरस भारत में भी आ गये। वैसे भी भारतीय बहुत ज्यादा बातूनी और तर्कपसंद होते हैं। नतीजा यह होता है एक तरफ तो हम तरह-तरह की बातें लोगों से करते हैं और दूसरी तरफ झूठे  समाचारों की व्याख्या में लग जाते हैं। यह दोनों हालात मिलकर एक घातक मसाला पैदा करते हैं , बिल्कुल बारूद की तरह ।  जब देश का चिंतनशील समाज इससे जुड़ जाता है तो यह और खतरनाक हो जाता है।  इन दिनों कुछ ऐसा ही दिख रहा है। इसलिए डर है कि दिनों दिन स्थितियां बिगड़ती जायेंगी। गंभीरता से सोचने से एक निराशाजनक तस्वीर उभरती है। कुछ बहुत अशुभ  जो हमारे देश में होने वाला है। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि यह लोकतंत्र के नए अवतार का हिस्सा हो। कुछ भी कहना मुश्किल है।  अगर काले बादल छाए हों तो उसमें रोशनी की तलाश बहुत कठिन होती है। जब वास्तविकता समझ में नहीं आती और जो सच बोलने के लिए मशहूर हैं वह भी समझौता करते नजर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में जनता को बोलना पड़ता है। उसे खड़ा होना पड़ेगा जैसा सीबीआई के संबंध में न्यायमूर्ति ए के सीकरी के मामले में हुआ। उनके अवकाश प्राप्त वरिष्ठ साथी न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू नए सच की दरियाफ़्त की और सब कुछ सामने रखा पर जस्टिस सिकरी का इंकार बड़ा चिंतनीय था । 
         यह विश्वास करना वास्तविक नहीं होगा कि हम फिर उसी पुराने भिन्नता वादी व्यवस्था में चले जाएंगे। यह तू तू ,मैं मैं और घूमती आवाज रुकेगी। क्योंकि इस पूरी व्यवस्था में एक अजीब सा ठहराव दिख रहा है। लोग राजनीति से ऊब गए से लगते हैं आत्म संशोधन के लिए उन्हें फिर मुख्यधारा में लाना होगा । जब चुनाव खत्म होंगे तो हम  सब एक नई व्यवस्था का सूत्रपात करेंगे ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी को सांस लेने के लिए ताजा हवा मिल सके। उनके मन में स्वस्थ विचार पनप सकें वरना हम इतिहास के अपराधी हो जाएंगे।

Friday, January 18, 2019

पस्त होता हौसला

पस्त होता हौसला

2014 में जब मोदी जी ने रामलीला मैदान में लोगों को संबोधित किया था तो उन्होंने कहा था "शासकों को 60 साल दिए आपने, अब सेवकों को 60 महीने दीजिए।" उसी जगह पर भाजपा राष्ट्रीय सम्मेलन को संबोधित करते हुए मोदी जी 2019 के लिए कुछ नए बोलों की तलाश करते हुए पाए गए। पिछले हफ्ते संपन्न हुए भारतीय जनता पार्टी के दो दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन में लोकसभा चुनाव के पहले बड़े-बड़े पार्टी नेताओं ने भाग लिया। कई नेताओं ने तो उस सम्मेलन के ऐसे चित्र छोड़े हैं जो शायद इतिहास बन जाएं। मसलन, मोदी और आडवाणी अगल-बगल बैठे उदास दिख रहे थे। शिवराज सिंह चौहान आडवाणी जी के चरण छू रहे थे। सभी भाजपा नेता खड़े होकर वंदे मातरम गा रहे थे उनमें शबाना रहमान भी थीं केवल एक मुसलमान जो मंच  से गा रही थीं। इसमें जो सबसे मर्मस्पर्शी दृश्य था वह था मोदी के हाथ में एक कमल और चिंतन की मुद्रा में डूबा उनका चेहरा । इस कमल को दिल्ली भाजपा के नेता मनोज तिवारी ने भेंट की थी। यह एक बिंब की तरह था । कमल के कुछ दल कमजोर पड़ कर झूल रहे थे और चिंतित से मोदी उसे देख रहे थे तथा उन्हें कुछ इस तरह से सजाने की कोशिश रहे थे ताकि वे पूरी तरह खिले नजर आएं। जब अमित शाह का भाषण शुरू हुआ वे चिंतन की उस मुद्रा से लौट आये ।  अमित शाह भाजपा के लोकसभा चुनाव का रोडमैप बता रहे थे । शाह ने अपने 67 मिनट के भाषण में मोदी जी का नाम 67 बार लिया और इससे बाकी वक्ताओं के लिए एक नजीर तय हो गई । पार्टी के इस सम्मेलन में कई नेता और प्रतिनिधि विचलित दिखाई पड़े । क्योंकि इसमें मोदी "नाम कीर्तन" के अलावा कुछ था ही नहीं ।  इससे दो बहुत सशक्त संदेश जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं में गए।
      राजस्थान ,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव हारने के बाद पार्टी का हौसला पस्त होता दिख रहा है। पार्टी के बड़े नेताओं ने भी अपने भाषण में इसका उल्लेख किया लेकिन उन्होंने ना इस पर कोई बहस की और ना ही इसके कारणों को बताने की चेष्टा की। इसका उल्लेख पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव में बहुत चलताऊ ढंग से किया गया था। कहा गया था कि "विभिन्न राज्यों  के विधानसभा चुनाव के बारे में हमारे अंदर मिली जुली प्रतिक्रिया प्रतिक्रियाएं हैं। भाजपा शासित सभी  राज्यों ने विकास और प्रशासन का अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है । हमें इससे सीखना चाहिए । यह निश्चय ही पार्टी के नेताओं कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा स्रोत बनेगा और वह नई ऊर्जा के साथ लोकसभा चुनाव में काम कर सकेंगे।" सम्मेलन के महज 4 महीने पहले इसी अमित शाह ने घोषणा की थी पार्टी 50 वर्षों तक सत्ता में रहेगी और वही अमित शाह पिछले हफ्ते के शुक्रवार को यह कहते हुए सुने गये कि " 2019 के लोकसभा चुनाव पानीपत की तीसरी लड़ाई की तरह है जिसमे मराठों की पराजय ने 200 बरस तक गुलाम बना दिया।" क्या सचमुच अमित शाह ऐसा सोचते हैं कि चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस ब्रिटिश बन जाएगी और भाजपा गुलाम। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि "लोकसभा चुनाव का नतीजा सदियों तक प्रभावित करेगा।" जरा वाक्यों के पीछे की मनोदशा को देखें । जिस पार्टी का देश के 16 राज्यों में शासन है वह इस तरह सोच रही है और वह भी तब जबकि कुछ हफ्ते पहले पार्टी अपने को अपराजेय मानती थी। अचानक ऐसा क्यों सोचने लगी? विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा कुछ भ्रमित से दिख रही है। खासकर प्राथमिकताओं के बारे में उसमें भ्रम दिख रहा है। वह नहीं सोच पा रही है कि पूर्व की ब्राह्मण- बनिया पार्टी क्या अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के कुछ हिस्से को शामिल करले। कहीं सवर्ण नाराज ना हो जाएं  इसी उद्देश्य से पार्टी ने सामान्य वर्ग के लोगों के लिए 10%  रिजर्वेशन की व्यवस्था की । क्योंकि ,जिन तीन राज्यों में भाजपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा है वहां कहते हैं सवर्णों ने इस पार्टी के प्रति उदासीनता बरती थी। हालांकि ,उनका गुस्सा बहुत ही सीमित दायरे में था। उदाहरण के लिए राजस्थान में वसुंधरा राजे के प्रति क्रोध था । मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को लेकर गुस्सा था। अब भाजपा को चौहान के बाद सत्ता में आए कमलनाथ से कुछ सीखना चाहिए । कमलनाथ में हाल में कहा था कि वे विवादों से घबराते नहीं क्योंकि यह सब "एक्सपायरी डेट" के हैं।
          ऐसे समय में जब पार्टी खुद भ्रमित हो और मोदी अपना असर खोती जा रही हो तो बड़ा अजीब लगने लगता है। मोदी जी के बॉडी लैंग्वेज को ध्यान से देखिए वह थके - थके से लग रहे हैं। ऐसा लग रहा है अपने कंधे पर पार्टी के सारे बोझ उठाए -उठाए वह थक से गए हैं और राष्ट्रीय सम्मेलन में कुछ कह नहीं पा रहे हैं ,महज इतना कि" एक हवा फैलती है मोदी आएगा सब ठीक हो जाएगा ।सब जीत जाएंगे सुनकर अच्छा लगता है।" विपक्षियों के प्रति मोदी जी का वह मजाकिया लहजा राजनीतिक विद्वेष बनता जा रहा है। 5 वर्ष पहले इसी रामलीला मैदान में मोदी जी के भाषण का जादू चलता था। वह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे । वे कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा करते थे कि "कांग्रेस ने राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नहीं पेश किया है। जब हार निश्चित है कौन सी मां अपने बेटे को कटने के लिए युद्ध में भेज देगी।" उनकी बात सुनकर उपस्थित  जन समुदाय की तालियां गूंज उठती थी। वे कांग्रेस पर तीखा प्रहार करते हुए कहते थे कि " उनकी सोच है कि भारत मधुमक्खी का एक छत्ता है ,मेरी सोच है कि भारत हमारी माता है। उनके लिए गरीबी मन की अवस्था है, हमारे लिए दरिद्र नारायण  हैं । वे कहते हैं कि हम जब तक गरीबों की बात नहीं करें मजा नहीं आता, हमें गरीबों की सोच कर नींद नहीं आती।" लोग उनके भाषणों को पसंद करते थे। उनके व्यंग्य को, उनके हास्य पर तालियां बजती थी। बुलेट ट्रेन ,नदियों को आपस में जोड़ा जाना, नौकरियां इत्यादि से जुड़ी बातें लोगों को रोमांचित कर देती थीं। अब उसी स्थल पर 5 बरस के बाद उन्होंने दुबारा नेहरू गांधी परिवार पर तीखे व्यंग नहीं किए। उनकी बातें राजनीतिक लग रही थीं।
          2019 के लिए जो मुख्य विषय वस्तु होगी वह होगी "उनका भ्रष्टाचार और मेरी निर्दोषिता।" मोदी जी अपने सरकार की उपलब्धियां एक एक करके गिना रहे थे और उन बातों से गुरेज  कर रहे थे जिनसे 2014 में तालियां बजती थीं। नौकरियां ,विदेशों में जमा कालाधन, जिसका दस- पंद्रह प्रतिशत मतदाताओं के खाते में जमा कराया जाएगा, बुलेट ट्रेन, स्मार्ट शहर और इसी तरह की अन्य बातें। राम लीला मैदान में पार्टी सम्मेलन में जो मोदी दिख रहे थे वह यकीनन 2014 वाले नहीं थे। उनका हौसला पस्त होता हुआ दिख रहा था।

Thursday, January 17, 2019

अभी भी पिंजरे का पंछी ही है सीबीआई

अभी भी पिंजरे का पंछी ही है सीबीआई

देश का शासन हिल गया है। संविधान के नए संशोधन से लोकतांत्रिक ढांचा बदल गया।  जिस तरह संसद के दोनों सदनों में कुछ ही घंटों की बहस के बाद संविधान में इतना महत्वपूर्ण संशोधन कर दिया गया उससे लगता है कि संविधान संसद में खिलौना बन गया है।  इस की रोशनी में अगर देखें तो सीबीआई का झंझट बहुत ज्यादा शर्मसार कर रहा है। 1946 के बाद से देश की सर्वोच्च जांच संस्था सीबीआई बदनामी का सबब बन गई है। सीबीआई के नाम सुनते ही अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता था। लोग आज इस पर खिल खिला रहे हैं। कानून यह कहता है कि हर संस्थान की साख और उसके अधिकार की सीमा बरकरार रहनी चाहिए। संस्थाओं की चाहे वह छोटी हो या बड़ी संसद से लेकर निम्नतम स्तर की ,कह सकते हैं , पंचायत स्तर की, किसी भी संस्था में नैतिकता ही संविधान की नैतिकता है और उसके साख ही संविधान की साख है। अगर ऐसा नहीं होता है तो वह संस्था और उसके अधिकार सरकार के पिंजरे का पंछी बनकर रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट के किसी जज ने सीबीआई के बारे में सही कहा था कि यह पिंजरे का तोता है।
      23 अक्टूबर 2018 की  भयानक रात के बाद आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक के पद से हटा दिया गया और नागेश्वर राव को अंतरिम अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। वर्मा के खिलाफ एक शिकायत केंद्रीय सतर्कता आयोग को सरकार ने 31 अगस्त को ही भेज दी थी। अब सवाल उठता है कि अगस्त से अक्टूबर तक का इंतजार क्यों हुआ? इस बीच एजेंसी के विशेष निर्देशक राकेश अस्थाना के खिलाफ भी आपराधिक मामला था  कथित रूप से वह भी चालू कर दिया गया। अस्थाना के खिलाफ जो लोग जांच कर रहे थे उनका तबादला कर दिया गया। यह सब देख कर क्या लगता है कि सरकार निष्पक्ष थी? इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों  की  पीठ ने वर्मा को पुनः पदस्थापित कर दिया। वे 31 जनवरी को रिटायर करने वाले थे। लेकिन अदालत ने भी जो प्रतिबंध लगाया उसे ऐसा लगता है कि उसे भी वर्मा पर पूरा भरोसा नहीं था। अदालत ने दो बंदिशें  लागू कर दी थीं। पहला, वर्मा को यद्यपि निदेशक के पद पर फिर से बहाल कर दिया गया है लेकिन वह कोई बड़ा नीतिगत फैसला नहीं कर सकते, और दूसरा , विशेष नियुक्ति समिति 7 दिन के भीतर वर्मा के बारे में फैसला करेगी। विशेष नियुक्ति समिति( एस ए सी) में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के नामजद न्यायाधीश होते हैं।  इसे निलंबन और स्थानांतरण का अधिकार है। वर्मा के खिलाफ जो आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था वह बंद लिफाफे में था। ऐसे मामलों में सामान्य आदेश दो ही तरह के होते हैं या तो मामले को दरकिनार कर दिया जाता है या फिर उसे अधिकारियों पर छोड़ दिया जाता है। इस मामले में एक दिन में कमेटी बन गई । इसमें प्रधानमंत्री खुद थे ,विपक्ष की ओर से मलिकार्जुन खड़गे थे और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से न्यायमूर्ति ए .के. सिकरी थे । वर्मा को अग्निशमन, होमगार्ड्स और सिविल डिफेंस का महानिदेशक बनाकर भेजा जा रहा था। क्योंकि स्थानांतरण सदा अधिकारियों के हाथ में होता है। उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। लेकिन उसके लिए भी कारण बताना होता है। यह कानूनी समाधान कौन मुहैया कराएगा? इसमें कोई शक नहीं है कि यह स्थानांतरण एक तरह से पद से बर्खास्त किया जाना ही है। अब सवाल उठता है कि क्या वर्मा की बात सुनी जानी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी के लिए सात दिन का वक्त दिया था लेकिन जल्दी बाजी में निर्णय का कोई आदेश नहीं दिया था। इतनी जल्दी बाजी क्या थी ? वर्मा की मुश्कें  पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा कसी जा चुकी थी।  यकीनन, वर्मा ने अंतरिम निदेशक द्वारा किए गए तबादलों को रद्द कर दिया।  इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्या समस्या थी? यहां विशेष नियुक्ति समिति (एस ए सी) की कार्रवाई बहुत ज्यादा साफ-सुथरी नहीं लग रही है। 2018 में वर्मा के खिलाफ जो सीवीसी की जांच थी उसके लिए पूर्व न्यायाधीश ए के पटनायक को सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया था। पटनायक ने कथित रूप से कहा कि विशेष नियुक्ति समिति कि ( एस ए सी) कार्रवाई बहुत जल्दबाजी  में हुई है। पटनायक ने कहा कि "वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत नहीं थे, अच्छा होता कि कोर्ट ने उस बंद लिफाफे को खोला होता और उस आधार  पर मामला शुरू होता।"
         इन वास्तविकताओं के पश्चात वर्मा ने इस्तीफा दे दिया। वे इस बात से क्षुब्ध थे कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। वर्मा को होमगार्ड्स में भेजा जाना एक तरह उनका अपमान था। नागेश्वर राव को उनकी जगह फिर से तत्काल बुला लिया गया। इस बीच दिल्ली हाईकोर्ट ने विशेष निदेशक अस्थाना के मामले को रद्द करने से इंकार कर दिया। अब हो सकता है कि जांच का उन्हें लाभ मिले क्योंकि जो लोग भी जांच करेंगे वह पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होंगे। अब यह देखिए कि गलती क्या हुई? 2018 के अक्टूबर में वर्मा को रातों-रात हटाया जाना एक षड्यंत्र था । सुप्रीम कोर्ट ने सही कहा था कि यह कानून में गलत नजीर होगी ।  उन्हें फिर से पद पर बहाल करने के बाद भी उनके अधिकारों को छीन लेना और विशेष नियुक्ति समिति (एस ए सी) की पेशकश करना दोनों बिल्कुल सही नहीं है। एस ए सी  ने जिन प्रक्रियाओं को अपनाया वह कानूनी रूप में अत्यंत चतुर कदम था लेकिन जल्दबाजी भरा था। अदालत में इसको लेकर बहुत गुस्सा दिखा और कमेटी में उतनी ही जल्दबाजी दिखी। वास्तविक अराजकता तो मोदी सरकार ने शुरू की। वर्मा को निदेशक पद पर नियुक्त करने के बाद अस्थाना को विशेष निदेशक बनाने की क्या जरूरत थी? दोनों लगभग एक ही स्तर के पद हैं।  यहां स्पष्ट रूप से निहित राजनीतिक स्वार्थ दिख रहा है। सरकार के इस कदम से तो यही लगता है कि सीबीआई अभी भी सरकारी पिंजरे का पंछी ही है। वह मुक्त गगन में आजाद नहीं उड़ सकता है।

Wednesday, January 16, 2019

कानून तो बन गया पर विपक्ष का रुख आत्मघाती

कानून तो बन गया पर विपक्ष का रुख आत्मघाती

संसद में  एक सौ तीन वें   संविधान संशोधन विधेयक के पारित हो जाने पर सवर्णों को 10% आरक्षण देने का कानून बन गया।  उस पर राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई और  अधिसूचना भी जारी हो गयी।  अब इसके तहत आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों और अल्पसंख्यकों के कुछ हिस्से को शिक्षा और रोजगार में आरक्षण मिलेगा । 8 जनवरी को यह बिल लोकसभा में कुछ ही घंटों की बहस के बाद पारित हुआ। इसमें 326 सदस्यों ने वोट डाले जिसने तीन ही विपक्ष में थे। दूसरे दिन राज्यसभा में भी  165 सदस्यों ने इसके पक्ष में वोट दिया और 7 विपक्ष में । लेकिन संसद के दोनों सदनों में विपक्ष का रुख देखकर ऐसा लगता था कि यह बिल पास नहीं हो पाएगा । लेकिन हां -हां ,ना- ना के बाद बिल पास हो गया। अब यहां प्रश्न उठता है कि क्या विपक्ष का यह रुख उसके लिए आगे चलकर घातक नहीं होगा? विपक्ष के बड़े-बड़े नेताओं ने इतनी बड़ी -बड़ी बातें कहीं कि सुनने वाला हैरान रह गया। जैसे कपिल सिब्बल ने कहा कि "आप 130 करोड़ की आबादी के देश में सिर्फ 4500 लोगों के फायदे के लिए विधेयक लाए हैं और वह भी बिना किसी आंकड़े के। मालूम है ,मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने में 10 साल लगे थे। " रामगोपाल यादव ने तो उसे सीधा 2019 के चुनाव को लक्ष्य में रख कर लाया गया विधेयक बताया । इसी तरह सतीश चंद्र मिश्रा ,डेरेक ओ ब्रायन, कनिमोई , प्रफुल पटेल आदि नेताओं ने भी लंबे-लंबे भाषण दिए । अगर चालू भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि इन्होंने सरकार को जमकर धोया । ऐसा लगता था कि जब मत विभाजन होगा तो सरकार बुरी तरह हार जाएगी और विधेयक निरस्त हो जाएगा। लेकिन कुछ नेताओं को छोड़कर विपक्ष के सभी नेताओं ने दुम दबा लिया और विधायक भारी मतों से पारित हो गया । यहां तक कि राज्यसभा में भी जहां सरकारी पक्ष का बहुमत नहीं है वहां भी विधेयक दो तिहाई बहुमत से अधिक से पास हुआ। 
       पूरा देश राजनीति के तमाशे को देख कर रात के तीसरे पहर में हैरान था। सब को बराबरी का अधिकार देने वाले इस देश में सिर्फ कुछ ही घंटों में लोकतांत्रिक ढांचा बदल गया । जनता अवाक है। सांसदों को जनता की भावना का ध्यान रखना चाहिए था। जनता के बीच यह बात जा रही है कि यह विधेयक एक तरह से टेस्ट केस है। आगे चलकर देश को जातियों में बांटा जाएगा उसके बाद आर्थिक आरक्षण लग जाएगा। यह आर एस एस की चाल है । एक लंबी अवधि की योजना है। संविधान के जिन निर्माताओं ने जातिगत आरक्षण दिया था वे चाहते थे इसे स्थाई तौर पर नहीं रखा जाए लेकिन राजनीति ने पहली वोट के लोभ में इसे स्थाई कर दिया अब उसमें भी बदलाव किया जा रहा है। यही नहीं ,कुछ लोग यह मानते हैं कि 8 लाख रुपया साल की आमदनी का का मतलब 2100 रुपए रोज। जिस देश में 32 रुपए रोज गरीबी की रेखा है वहां 2100 रुपये रोज का क्या अर्थ होगा इसका अंदाजा सब कोई लगा सकता है। देश की 95% आबादी इसके दायरे में आ जाएगी। उधर जो 5 प्रतिशत लोग बचे हैं उन्हें लग रहा है उन्हें कुछ नहीं मिल रहा है। अगर इनमें से बेहद अमीर लोगों को हटा भी दें तो लगभग 5 करोड़ लोग मध्यम वर्ग के ऐसे हैं जिन्हें इस का आघात महसूस हो रहा है और एक भावना पनप रही है कि जिस देश में प्रतिभा की कद्र ना हो वहां क्यों रह जाए। बहस के दौरान  ना- ना कहकर हां कहने वाले नेता न जाने किस सोच से ऐसा कर गए । लेकिन ,शायद वह फायदे में नहीं रहेंगे और सारे विरोध के बावजूद मोदी मैदान मार ले जायेंगे। वह इसका विरोध कर मोदी की चाल को रोक सकते थे। लेकिन  इतनी दूर कि शायद सोच नहीं पाए या हो सकता है उनके मन में कोई नई रणनीति हो। यह तो चुनाव ही बताएगा । उनका यह कदम जनता को आत्मघाती महसूस हो रहा है।

Tuesday, January 15, 2019

खतरे भी हैं गठबंधन के

खतरे भी हैं गठबंधन के

हमारे देश में चुनाव की खबर इस समय चर्चा का विषय है और इस चर्चा के दौरान महागठबंधन पर जरूर बात होती है । यद्यपि राजनीतिक पंडित  गठबंधन की संभाव्यता पर बहुत लंबी बहस कर चुके हैं लेकिन उन्होंने यह नहीं परखा है कि यह कितना जरूरी है। दरअसल किसी भी पार्टी को गठबंधन में शामिल होने के तीन कारण हो सकते हैं। इनमें पहला और सब से साधारण कारण है कि वह पार्टी अपना मत आधार खोने के डर से गठबंधन में मिलती है।  आरंभ में हो सकता है कि परिणाम पक्ष में आएं लेकिन बाद में इससे पार्टी का कद छोटा होता जाता है। क्योंकि गठबंधन के अन्य घटक दल अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उसके कद को चुनौती देने लगते हैं। यह संजोग ही कहेंगे कि जिन मतदाताओं का मोहभंग हो चुका है वह गठबंधन में एक उचित विकल्प देखने लगते हैं। जो बहुत कट्टर या कहें बहुत पक्के मतदाता है उन्हें भी लगता है कि इसमें उनके आदर्श की या विचारों की भविष्य में पूर्ति हो सकती है। इसका सबसे बेहतर उदाहरण कांग्रेस का तमिलनाडु में  द्रमुक के साथ और उत्तर प्रदेश में  बसपा के साथ गठबंधन था । जहां से बाद में वह एक तरह से समाप्त हो गई और दोनों क्षेत्रीय दल वहां स्थापित हो गए। यही नहीं शिवसेना और भाजपा का गठबंधन भी इसका उदाहरण है । अपने प्रभाव क्षेत्र में  शिवसेना ने भाजपा के विकास को रोक दिया।
      गठबंधन का दूसरा कारण होता है  सत्ता में आने की हड़बड़ी। अगर कोई छोटी पार्टी जिसमें उसे अपने अस्तित्व को खतरा देने लगता  है तो वह किसी मजबूत दल के साथ हाथ मिलाकर सत्ता में आ जाता है, ताकि खुद को स्थापित कर सके । ऐसे गठबंधन में वह छोटा दल बड़े दल की कृपा पर निर्भर रहता है। यही कारण है कि बिहार में जदयू और राजद के साथ गठबंधन कर कांग्रेस ने  अपना बंटाधार कर लिया। उत्तर प्रदेश में जहां भाजपा से अपना दल नामक एक बहुत ही मामूली राजनीतिक पार्टी का गठबंधन है वह इसी तरह की पीड़ा से ग्रस्त है । यही नहीं ,अगर गठबंधन करने वाली पार्टी प्रभावशाली है तो वह इसके माध्यम से अपना विरोधी उत्पन्न करती है।
          एक बहुत पुरानी कहावत है कि अवसर की कमी इंसान की क्षमता को समाप्त कर देती है । इसी तरह गठबंधन में पार्टी की क्षमता समाप्त हो जाती है। अगर गठबंधन करने वाली बड़ी पार्टी में क्षमता है ,उसके पास संगठित काडर आधार है तो वह गठबंधन के बाद अपने को स्थापित करने का मौका गंवा देती है। उड़ीसा में इसका उदाहरण स्पष्ट दिखता है । जहां पुराना गठबंधन घटक भाजपा बीजू जनता दल के लिए समस्या बन चुका है। कई बार  व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण विद्रोह की  आशंकाएं भी होती हैं। जनता पार्टी इसका उदाहरण है। वह चरण सिंह की महत्वाकांक्षाओं के कारण टूट गई। इसी तरह बिहार में भी हुआ। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनने की गरज में गठबंधन से अलग होकर भाजपा से जा मिले।
             बेशक पार्टियां वोट पाने के लिए गठबंधन में शामिल होती हैं लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता है। वास्तविकता तो यह है कई बार नतीजे विपरीत भी आ जाते हैं। खासकर  ऐसी स्थिति में जब गठबंधन का दूसरा घटक दल समान उद्देश्य का ना हो। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह और मुलायम सिंह का गठबंधन सबको याद होगा । इसकी कीमत पराजय के रूप में मुलायम सिंह को चुकानी पड़ी थी। क्योंकि कल्याण सिंह मुस्लिम विरोधी थे। यही हाल बंगाल में कांग्रेस और माकपा गठबंधन का हुआ। वहां भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा । क्योंकि दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं था। अतीत में दोनों पार्टियां हैं एक दूसरे की विरोधी थी और कई बार तो उन्हें टकराव भी हो चुका था। तेलंगाना में कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी के गठबंधन का यही हश्र हुआ ।  तेलुगू देशम पार्टी की छवि तेलंगाना विरोधी थी।
         तीसरी शर्त होती है गठबंधन की कि किसी बड़ी पार्टी के विकास को रोकने के उद्देश्य से कई पार्टियां एकजुट हो जाती हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण शर्त है । क्योंकि इस समय जो राजनीतिक हालात हैं उसमें यही शर्त लागू होती है।  जब एक ऐसे विरोधी से गठबंधन जीत जाता है तो उस पर अपने वायदे पूरे करने के लिए दबाव पड़ने लगते हैं।  अगर ऐसा नहीं होता है तो जनता का मोह भंग हो जाता है उसके प्रति  जनता फिर उससे पल्ला झाड़ लेती है । इस तरह की स्थिति का सबसे बड़ा उदाहरण इंदिरा गांधी का सत्ता में लौट आना है। जनता पार्टी कुछ नहीं कर सकी।
        आज की स्थिति में अगर विपक्षी दलों का महागठबंधन बनता भी है और वह भाजपा को पराजित भी कर देते हैं तब भी इस पर अपने वायदे पूरे करने के लिए बहुत ज्यादा दबाव पड़ेगा और अगर गठबंधन के राजनीतिक ए अपने बड़ी-बड़ी  बातें नहीं पूरी कर पाए तो जनता फिर भाजपा की ओर देखने लगेगी। इसलिए कहा जा सकता है गठबंधन न केवल अवांछित है बल्कि उचित भी नहीं है।

Monday, January 14, 2019

राहुल गांधी से बहस के लिए क्यों नहीं तैयार हुए मोदी जी

राहुल गांधी से बहस के लिए क्यों नहीं तैयार हुए मोदी जी

पिछले हफ्ते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राफेल सौदे पर खुली बहस की चुनौती दी । इसके पहले उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि वह एक विस्तृत संयुक्त बहस के लिए भी तैयार हैं।  मोदी जी ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की। एक टेलीविजन चैनल में इस विषय पर एक बहस का आयोजन किया और भाजपा के प्रवक्ता से पूछा गया कि मोदी जी आखिर क्यों नहीं तैयार हैं? उसका कोई जवाब नहीं था। पाठकों को याद होगा कि 2013 में मोदी जी तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसी तरह बहस की चुनौती दिया करते थे। अपनी भाषण कला से अत्यंत आश्वस्त नरेंद्र मोदी को यह विश्वास था कि वे मनमोहन सिंह को उखाड़ देंगे। 2014 में ऐसे तमाम मत मिले थे जिनको यकीन था कि मोदी जी का यह विश्वास बिल्कुल सही है। अचानक चुनाव प्रचार के दौरान यह एक अत्यंत आदर्श प्रचार का तरीका बन गया। हमारे देश के चुनाव में किसी भी प्रार्थी की योग्यता और साख इस बात पर निर्भर होती है कि टेलीविजन के मतदान में किसे कितना प्वाइंट मिला है । अंग्रेजी बोलने वाला शहरी मध्यवर्गीय समुदाय इस तरीके को आदर्श मानने लगा है और उन्हें भरोसा हो गया था कि मोदी - सिंह का जो शो होगा उससे मोदी जी को बहुत ज्यादा टीआरपी मिलेगी ।  बहस के मामले में एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मिनटों में धराशाई हो जाएंगे । यह शो कुछ ऐसा ही होगा जैसा डब्लू डब्लू ई की कुश्ती का शो होता है।  धीमे-धीमे बोलने वाले मनमोहन सिंह के सामने माइक पर गरजने वाले मोदी को खड़ा कर दिया जाता तो यह तय था कि मतदाताओं की पसंद मोदी होते।  बहस नहीं हुई । परंतु मोदी जी के चुनाव अभियान का बंदोबस्त करने वालों ने टीवी पर दोनों के भाषणों से टुकड़े इस तरह दिखाने शुरू कर दिए जैसे बहस हो रही हो। इसमें मनमोहन सिंह का भाषण 15 अगस्त 2013  को लाल किले की प्राचीर से किया गया संबोधन था। टीवी के कुछ एंकरों ने निष्कर्ष भी दे दिए कि मनमोहन सिंह बड़े अजीब लग रहे थे और अटक अटक कर बोल रहे थे। इससे मोदी  बहादुर और बेहतरीन भाषण करने वाले एक ऐसे नेता के रूप में उभर कर आए जो सामने वाले को मिनटों में मटिया मेट  कर दे। देश के मध्य वर्ग के मन में यह बात बैठ गई कि मोदी शेर हैं और सिंह मेमना । कॉरपोरेट सेक्टर के एक्सक्यूटिव के मन में यह बात बैठ गयी कि मोदी अत्यंत साहसी सीईओ हैं जो देश को अमरीका की ऊंचाई तक ले जायेंगे तथा सुरक्षा परिषद में गरजेंगे  और भारत की छवि सुपर पावर की हो जाएगी। पिछले वर्ष तक यह विचार कायम रहा।  2014- 15 में अगर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज हो गई होती तो हमारे देश के भोले भाले मध्य वर्ग को और प्रभावित कर दिया होता लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है । मध्यवर्ग  उनकी छवि का खोखला पन महसूस करने लग गया है। वाजपेई - आडवाणी काल में भी बाजपेई जी को मुखौटा कहा जाता था और आडवाणी जी को चेहरा । अब मोदी जी के जमाने में यह बदल कर  आदमी हो गया और उनकी छवि उनका होलोग्राम हो गई है। दोनों इस डिजिटल भारत में लेजर से चमकते हैं । यह खोखलापन खुद मोदी जी को और उनके चुनाव प्रबंधकों को महसूस होने लगा है और यही कारण है उन्होंने राहुल गांधी की चुनौती नहीं स्वीकार की । मीडिया ने तो राहुल गांधी की छवि पप्पू की तरह बना दी थी। उनको इस तरह वर्णित किया गया था मानो एक जोकर हैं। अचानक जोकर ने पलट कर हमला किया और लोगों को बचने का अवकाश नहीं मिला ।
       अमरीकी राष्ट्रपति स्टाइल की बहस हमेशा से भद्दी होती रही है। यहां तक कि अमरीका में भी इसे नहीं पसंद करते हैं लेकिन यह मतदाताओं की धारणाओं को कहीं न कहीं स्पर्श करती है । अतएव  जब राहुल गांधी ने मोदी जी को चुनौती दी तो जो अमरीकी सोच वाला वर्ग भारत में था और जो एन आर आई थे वह सब चुप हो गए और सोचने लगे अगर मोदी जवाब नहीं दे पाए तो क्या होगा ? क्या मोदी जी की टीआरपी गिर जाएगी ? यदि राहुल गांधी की रेटिंग बढ़ जाती है तो इसका मतलब होगा चुनाव के पहले ही चुनाव हार जाना। इसलिए अच्छा होगा कि मोदी जी को बढ़ावा देने वाले  को इंटरव्यू दे दिया जाए। जिसने मोदी जी का इंटरव्यू किया उसने राहुल का क्यों नहीं किया या मनमोहन सिंह का क्यों नहीं किया ?  अचानक उसे सभी निजी चैनलों ने  ऊंची कीमत देकर  दिखाया क्यों नहीं? कोई स्वतंत्र एजेंसी को यह इंटरव्यू क्यों नहीं दिया गया । अमरीका के राष्ट्रपति स्टाइल की बहस व्यर्थ होती है । मोदी पर आरोप लग सकते थे कि वह अमरिकी राष्ट्रपति की तरह शासन चला रहे हैं। लेकिन वे राहुल से बहस के लिए तैयार नहीं हुए।
        अब महत्वपूर्ण प्रश्न है 2019 में क्या होगा? क्या मोदी दोबारा बहुमत पाएंगे? हो सकता है उनका वोट प्रतिशत घट जाए। अगर बहुमत नहीं पाते हैं तो क्या चुनाव के पहले या बाद में विपक्ष एकजुट हो पाएगा? क्या मोदी जी को बहुदलीय सरकार बनाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा और क्या वह सरकार चला पाएंगे?  भाजपा और संघ के छोटे कार्यकर्ता मोदीजी से ऊब चुके हैं लेकिन क्या वे सचमुच मोदीजी के विरुद्ध वोट डाल सकेंगे? यह कुछ सवाल हैं जिसका कोई जवाब नहीं देता नाही इस पर कोई जनमत संग्रह होता है। सही चुनाव यह प्रदर्शित करेगा कि राजनीति की दुनिया में हमारे नेता कहां हैं। इसके बाद मीडिया और राजनीतिक पंडित यह बताने लगेंगे कि वह किस तरह सही हुए या चुपचाप चुनाव के परिणाम का विश्लेषण करते पाए जाएंगे और इसके बाद धरती का सबसे बड़ा राजनीतिक शो खत्म हो जाएगा।

फिंगरप्रिंट की जालसाजी से सीमावर्ती क्षेत्रों में फल फूल रहै हैं आतंकवाद के अड्डे 

फिंगरप्रिंट की जालसाजी से सीमावर्ती क्षेत्रों में फल फूल रहै हैं आतंकवाद के अड्डे 


हरिराम पाण्डेय

कोलकाता : अब तक तो सुना जाता था कि कुछ राज्यों के कई जिलों में जीवित लोग मृत घोषित कर दिए गए हैं। लेकिन अब इसका उल्टा हो रहा है। कई जगहों पर मृत लोग  सरकारी रिकार्ड में जीवित हैं।  यह सब चल रहा है फिंगरप्रिंट की जालसाजी से। अब तक फिंगरप्रिंट को सबसे विश्वसनीय सबूत माना जाता था अपराध विज्ञान की प्रयोगशाला से कोर्ट कचहरी और बैंकों तक में फिंगरप्रिंट के माध्यम से ही सारे कारोबार होते थे। यहां तक कि उसकी विश्वसनीयता के कारण ही कई जगहों पर फिंगरप्रिंट के माध्यम से काम करने वालों की हाजिरी बनती है। लेकिन अब जबकि फिंगरप्रिंट की जालसाजी हो रही है सबसे ज्यादा खतरा सीमावर्ती जिलों में पनपते आतंकवाद से हो रहा है। किसी भी मृत व्यक्ति या जीवित व्यक्ति की उंगली की छाप लेकर उसकी नकल बना ली जा रही है।  उसका इस्तेमाल किया जा रहा है। अगर कोई पकड़ा जाता है या तो वह मृत घोषित हो चुका रहता है या कहीं दूसरी जगह का आदमी पाया जाता है। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सीमांत क्षेत्रों में या गोरखधंधा बहुत जम कर चल रहा है। यहां तक कि उंगलियों की छाप से निर्धारित किए जाने वाले वोटर कार्ड भी अब सही नहीं रहे और यह छाप बनवाना इतना आसान हो गया है कोई भी कभी भी जाकर बनवा सकता है।  सन्मार्ग की खोज  के बाद पता चला कि उत्तर बिहार के सिवान से लेकर गोरखपुर तक और उधर नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में फिंगरप्रिंट बनाने के कई गृह उद्योग चल रहे हैं। नेपाल से आए लोग जिनमें पाकिस्तान से नेपाल के रास्ते या बांग्लादेश से नेपाल के रास्ते आए आतंकी भी शामिल हैं वह किसी भी मृत व्यक्ति का फिंगरप्रिंट बनवाकर और उसके माध्यम से भारतीय कागजात हासिल कर लेते हैं।  बैंकों में अकाउंट खुल जाता है और उसके बाद वह राष्ट्र विरोधी धंधे में लग जाते हैं। खबर तो यहां तक है की लोकसभा चुनाव में नकली फिंगर प्रिंट के आधार पर बड़ी संख्या में लोग वोट देने की तैयारी में हैं। अब यह मतदान कैसा होगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा । नेपाल से भारत में आकर और  किसी भारतीय  का फिंगरप्रिंट हासिल कर उसकी नकल बनवाकर और उंगलियों में पहन कर वह अपने को भारतीय प्रमाणित करने लगता है। 
कैसे बनते हैं ये फिंगर प्रिंट
फिंगरप्रिंट बनाने वाले किसी भी गरीब मरणासन्न व्यक्ति की छाप ले लेते हैं। यह छाप वाल पुट्टी या आर्टिफिशल क्ले की चकती पर ले लेते हैं और  उसके वोटर कार्ड इत्यादि मामूली रकम देकर खरीद लेते हैं। उंगलियों की छाप की नकल बना लिया जाता है। सारी चीज हिफाजत से रखी जाती है। अब जो मृत व्यक्ति की छाप चाहता है उसे ऊंची कीमत पर बेचा जाता है। एक उंगली की छाप की नकल हज़ार रुपये में मिलती है। 
जीवित लोगों की छाप बनाने का तरीका दूसरा है। किसी भी चिकनी सतह पर उंगलियों की छाप बहुत जल्दी आ जाती है । अब जिसकी उंगली की छाप लेनी है उसे एकदम नए चकाचक चिकनी सतह वाले कांच के गिलास में कोई पेय, मसलन चाय दी जाती है। वह गिलास को पकड़ता है और गिलास में उसकी उंगलियों की छाप आ जाते हैं। इसके बाद बहुत सफाई से उंगलियों की छाप का मोल्ड बना दिया जाता है और फिर उस पर जिलेटिन पाउडर का घोल ढाल कर उसकी नकल बना ली जाती है और जब वह जम जाता  है तो उसे सफाई से काटकर उंगलियों में पहना दिया जाता है। इसमें घंटे भर का समय लगता है। यह तरीका इतना कारगर होता जा रहा है कि जहां उंगलियों की छाप से हाजिरी बनती थी वहां अब रेटिना को पढ़ने वाले यंत्र लगाए जा रहे हैं । 
यही नहीं जब सन्मार्ग में नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा  बल के अफसरों से इस संबंध में जानकारी चाही तो वे  सन्न रह गए । उन्हें अभी तक इस गोरखधंधे का पता नहीं था।
   इस धंधे से जुड़े लोगों के अनुसार इसमें लगभग रोज  400 से 500 उंगलियों की छाप बनती है । एक उंगली की छाप के लिए महज ₹250 लगते हैं और अगर पांच उंगलियों की छाप बनानी है तो ₹1000 में बन जाती है। । यह लगभग 20 से 25 बार प्रयोग में लाई जा सकती है। यह इतनी सफाई से बनाई जाती है कि उंगलियों की छाप के विशेषज्ञ भी  धोखा खा जाएंगे।
सूत्रों के मुताबिक इसका उपयोग बैंक धोखाधड़ी से लेकर मतदान केंद्र तक में आराम से होता है। आतंकवादी इसका उपयोग भारतीय कागजात तैयार करवाने में करते हैं।  इसके माध्यम से ही तैयार कागजों के कारण भारत नेपाल सीमा पर भिखनाथोरी के दोनों तरफ चितवन नेशनल पार्क से लेकर वाल्मीकि टाइगर रिजर्व तक ऐसे कई छोटे-छोटे गांव है जहां कि लोग अपनी उंगलियों के निशान बनवाकर भारत और नेपाल दोनों मुल्कों की राष्ट्रीयता का मजा ले रहे हैं। इसके लिए पहले उन इलाकों में लोगों की तलाश की जाती है जो अपनी उंगलियों की छाप बेच सकें।   उसकी नकल बनवाकर कुछ लोग भारतीय और नेपाली  राष्ट्रीयता के  अलग - अलग  कागजात तैयार करवा लेते हैं। क्योंकि   कागजात नकली है और अगर दुर्भाग्यवश उंगलियों की छाप के आधार पर किसी अपराध में उनकी शिनाख्त होने लगती है तो वह तत्काल छाप बदल देते हैं।  सब कुछ धरा रह जाता है ।खबर है कि बांग्लादेश में चुनाव के बाद यह नकली फिंगरप्रिंट की मांग बहुत ज्यादा बढ़ गई है।  संदेह किया जाता है कि इसके माध्यम से जालसाजी कर भारत में प्रवेश करने की तैयारी चल रही है। यही नहीं फिंगरप्रिंट बनाने  वाले गिरोहों के करीबी सूत्रों  के अनुसार असम में  एन आर सी के कागजात की जो पड़ताल चल रही है उसमें भी शायद इसका उपयोग हो रहा है। हालांकि इस उपयोग के बारे में अभी तक कोई विश्वसनीय सूचना नहीं है।

Sunday, January 13, 2019

समरसता खिचड़ी ये क्या है प्रभु !

समरसता खिचड़ी ये क्या है प्रभु !

अपने देश में एक अजीब गोरख धंधा चल रहा है । कभी कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगता था, हाल तक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर भी इस तरह के आरोप लगे। उसके बाद देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के वारिस राहुल गांधी जनेऊ धारी ब्राह्मण बन कर मंदिर - मंदिर घूमने लगे और "राष्ट्रभक्त " भारतीय जनता पार्टी मंदिर और विकास का मसला छोड़कर अब अचानक समरसता के मसले से जुड़ गई है और अब वह समरसता खिचड़ी बनाने लगी है। पिछले रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि वे दलितों से जुड़ें। दलितों से जुड़ने का सबसे अभिनव तरीका निकाला गया कि  उनके साथ बैठकर खिचड़ी खाई जाए । पार्टी भक्त नेता इस मुहिम में जुड़ गए और गांव गांव से चावल दाल मांगकर खिचड़ी बनाने का अभियान चालू हुआ । यह महा नाटक की तरह लग रहा है । पार्टी के इस अभियान से दलित नेता भी असंतुष्ट हैं । उत्तर पश्चिम दिल्ली के भाजपा सांसद और वरिष्ठ नेता उदित राज के अनुसार "पहले तो वे दलितों के घर जाते हैं थोड़ा बहुत खाना खाते हैं और उसके बाद बाहर निकल कर मिनिरल वॉटर और बाहर का खाना मंगवा कर खाते हैं यह दलितों के लिए और अपमानजनक है। "पाठकों को याद होगा कुछ दिन पहले राहुल गांधी ने भी इस तरह का कुछ प्रयोग किया था और ना केवल भाजपा ने उसकी बुरी तरह खिल्ली उड़ाई थी बल्कि यह अभियान पिट गया था।  अब भाजपा ने इसे शुरू किया है और पार्टी के दलित नेताओं के अनुसार इससे भारी नुकसान हो सकता है। गत जनवरी 2009 में राहुल गांधी ने  तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव डेविड मिलिबैंड के साथ अमेठी में एक दलित के घर में रात गुजारी थी और भाजपा ने यह कह कर उसकी खिल्ली उड़ाई थी कि यह "दरिद्र पर्यटन या पॉवर्टी टूरिज्म" है । अब दलित वोट बैंक के लिए भाजपा ने यही नीति अपनाई है। आंकड़े बताते हैं कि 2014 के आम चुनाव में पार्टी को दलितों का भारी समर्थन प्राप्त हुआ था। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भी पार्टी को दलितों के वोट मिले थे । लेकिन हाल के चुनावों में दलितों ने भाजपा से पल्ला झाड़ लिया, क्योंकि भाजपा शासित कई राज्यों से दलितों पर भारी अत्याचार की खबरें आईं। अब इसी क्षति की पूर्ति के लिए पार्टी ने यह सब आरंभ किया है । यही नहीं , अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित कानून पर 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भाजपा को और भी किनारे कर दिया। पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है और दावा भी किया है कि अगर अदालत में पूर्ववर्ती फैसले को जारी रखा तो वह कानून में संशोधन करेगी।  इससे दलित आश्वस्त नहीं हुए और 2 अप्रैल को राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई। जिसमें 12 लोग मारे गए । उत्तर प्रदेश में पांच दलित भाजपा सांसदों  ने खुल कर कहा कि मोदी सरकार ने दलित  समुदाय के लिए कुछ नहीं किया है। इस असंतोष से भाजपा को भय है कि वह दलित वोट खो देगी। इसीलिए यह महा नाटक आरंभ हुआ है। यह नाटक दरअसल पांच अप्रैल को उस समय आरंभ हुआ जब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह उड़ीसा के बोलांगीर में एक दलित के घर में भोजन करने गए। जब शाह भोजन कर रहे थे तो घर के बाहर गांव वाले  विरोधी नारे लगा रहे थे। 30 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के मंत्री सुरेश रैना अलीगढ़ जिले के एक दलित के घर में रात में चले गए। वहां बाहर से उनके लिए भोजन और मिनरल वाटर मनाया गया और वह खाना मंत्री महोदय ने उस दलित परिवार के साथ खाया। गृह स्वामी रजनीश कुमार ने कहां "उन्हें  कुछ मालूम नहीं था । सब कुछ पूर्व नियोजित था खाना बाहर से लाया गया और उनके परिवार को कहा गया उनके साथ बैठकर भोजन करें।'1 मई को उत्तर प्रदेश के एक और मंत्री राजेंद्र प्रताप सिंह ने एक दलित के घर में खाना खाकर  भगवान राम से अपनी तुलना की और कहा "राम और शबरी संवाद रामायण में है आज आज जब ज्ञान जी की मां ने मुझे रोटी परोसी तो उन्होंने कहा मेरा उधार हो गया ।" राजेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि" मैं क्षत्रिय हूं और धर्म की रक्षा करना मेरे रक्त में है। उन्हें लगता है कि उन्होंने अनमोल चीज दे दी है जिसे वह खरीद नहीं सकते।" दूसरी तरफ भाजपा के वरिष्ठ नेता और मंत्री उमा भारती ने राजेंद्र प्रताप के इस कथन का खंडन किया। उन्होंने कहा कि "मैं इस बात पर भरोसा नहीं करती कि दलित के  घर में जाकर भोजन किया जाए बल्कि होना यह चाहिए कि दलित को अपने घर में बुलाकर खाना परोसा जाए।" गत 6 जनवरी को रामलीला मैदान में भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने अपनी घोषणा में कई बार संशोधन किया "पहले उन्होंने कहा कि खिचड़ी बांटी जाएगी फिर उन्होंने कहा खिचड़ी परोसी जाएगी फिर उन्होंने अपने सुरीले अंदाज में भाजपा के नारे को गाकर सुनाया उसके बाद फिर कहा कि जब खिचड़ी परोसी जाएगी तो हम भी यहां उपस्थित लोगों के साथ बैठकर खाएंगे।"
       यह बात समझ में नहीं आती कि भाजपा- कांग्रेस जैसी पार्टी केवल इस भोजन राजनीति में क्यों जुटी हैं ? बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ऐसा क्यों नहीं करती?  वही लोग जो दलितों को नीच समझते हैं वह इस में भाग ले रहे हैं । यहां दावा है कि भारतीय राजनीति के शीर्ष नेताओं  को किसी दलित भोजन के बारे में जानकारी नहीं होगी। दलितों के लगातार दमन के फलस्वरूप उनका खानपान भी समाप्त हो गया।   इस भोजन सियासत से कुछ नहीं होने वाला क्योंकि खिचड़ी चमचों से खाई और खिलाई जाएगी। इस पर गंभीरता से विचार करने पर पता चलेगा खिचड़ी में जो दाल है उसमें कुछ काला जरूर है।

Friday, January 11, 2019

भाजपा की मुश्किल बढ़ी

भाजपा की मुश्किल बढ़ी

5 विधानसभा चुनाव के नतीजों ने 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा को सतर्क कर दिया है। विधानसभा चुनाव में पराजय को देखते हुए भाजपा और नरेंद्र मोदी सरकार ने ग्रामीण- सामाजिक इंजीनियरिंग पर ध्यान देना शुरू कर दिया है और दोबारा सबका साथ सबका विकास का नारा देना शुरू कर दिया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कई बार कहा है कि भाजपा ने देश के 22 करोड़ परिवारों का भरोसा जीता है यह भरोसा नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित विभिन्न योजनाओं के कारण उत्पन्न हुआ था।  उम्मीद है कि अब यह भरोसा 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति को बदल दे, और पार्टी को 2014 से ज्यादा सीटें मिले। मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ और राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में मतों के तौर तरीकों को देख कर   ऐसा लगता है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में भाजपा की स्थिति कमजोर हो गई है। अब सत्तारूढ़ दल के लिए यह जरूरी है कि वह ग्रामीण मतदाताओं के लिए नई योजनाएं आरंभ करे या पुरानी योजनाओं का दायरा बढ़ाए। हिंदी भाषी क्षेत्रों के 3 राज्यों में चुनाव हुए और कांग्रेस ने किसान के कर्ज की बात उठाई तथा कर्ज माफी का आश्वासन दे दिया। चुनाव के तुरंत बाद कांग्रेस की सरकारों ने अपना वादा भी पूरा कर दिया और किसानों के कर्ज माफ किए। इस कदम से मोदी सरकार पर बहुत दबाव पड़ रहा है और यह समझा जा रहा है कि जल्दी ही मोदी सरकार कोई बड़ी कर्ज माफी योजना की घोषणा करेगी ताकि देश के 26.3 करोड़ किसानों को राहत मिल सके । चर्चा है कि 2019 के पहले मोदी सरकार चार लाख करोड़ के ऋण माफी की योजना पर काम कर रही है। जहां यह जिक्र कर देना प्रासंगिक होगा कि 2009 के आम चुनाव कि ठीक पहले तत्कालीन यूपीए सरकार ने 72 हजार करोड़ कृषि ऋण माफी की योजना घोषित की थी और इसका उसे बहुत लाभ मिला था। कांग्रेस ने चुनाव जीत लिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले ही कहा है कि मध्यम और कम आय वर्ग के लोगों को जीएसटी में भारी छूट मिलेगी । सरकार इसके तहत लगभग 99% वस्तुओं को लाना चाहती है और उन पर 18% से कम जीएसटी लगाने की योजना बन रही है। इससे 99% वस्तु की कीमत कम हो जाएगी और आम आदमी पर से दबाव घटेगा। जीएसटी काउंसिल की मीटिंग पिछले 22 दिसंबर को हुई थी और 23 वस्तुओं पर से जीएसटी घटाकर 12% कर दिया गया था कई में तो जीएसटी 5% कर दिया गया। इसके कारण कई वस्तुएं जैसे टेलीविजन, कंप्यूटर और मोटर गाड़ी के पुर्जे सस्ते हो गए और जिन वस्तुओं पर 5% जीएसटी लगता था उस पर से इसे हटा दिया गया । यही नहीं हो सकता है नरेंद्र मोदी सरकार सभी राशन कार्ड धारकों के लिए उज्जवला योजना लागू कर दे। इसके तहत गैस के कनेक्शन मुफ्त मिलेंगे । यह योजना 2016 में आरंभ की गई थी और गरीबी रेखा से नीचे की ग्रामीण महिलाओं को गैस कनेक्शन दिए गए थे। बाद में इसका दायरा बढ़ाकर इसके तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को भी शामिल कर दिया गया। अब सभी गरीबों को यह कनेक्शन दिया जाएगा अभी अभी यह सब केवल गरीबों के लिए है। इस योजना के तहत सरकार गैस विक्रेताओं को प्रति कनेक्शन 16 सौ रुपए की सब्सिडी देती है ताकि वह गरीबों को मुफ्त गैस कनेक्शन दे सके। इस सब्सिडी में सिलेंडर की सिक्योरिटी फीस और इंस्टॉलेशन चार्ज शामिल होता है। प्रधानमंत्री मंत्री उज्जवला योजना 1 मई 2016 को आरंभ हुई थी और इसके तहत 3 वर्षों में 5 करोड़ लोगों को मुफ्त कनेक्शन दिए जा चुके हैं। इसका लक्ष्य 5 वर्षों में आठ करोड़ किया जाना है और नई योजना के तहत इस से एक करोड़ लोग और लाभान्वित होंगे। यही नहीं सरकार ने पेंशन की राशि में भी वृद्धि की है। राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत मूल वेतन के 14% पेंशन कर दिया गया है जो पहले 10% था । इसमें कर्मचारी का अवदान पहले की तरह 10% ही रहेगा। इससे उन करोड़ों लोगों को लाभ होगा जो पेंशन पर जीते हैं। सरकार निजी क्षेत्र के कर्मचारियों को भी लाभ देने की योजना बना रही है । यह लाभ चुनाव के पहले ही घोषित कर दिए जाएंगे इसके तहत ग्रेच्युटी की सीमा 5 साल से घटाकर 3 साल की जानी है। मजदूर यूनियन इसके लिए लंबी अवधि से मांग कर रहे हैं । सरकार केंद्र सरकार में अनुबंध पर काम करने वाले कर्मचारियों की ग्रेच्युटी सीमा भी घटाने पर विचार कर रही है अगर यह मंजूर हो जाता है तो इससे लाखों कर्मचारियों को लाभ होगा खास करके उन्हें जो 5 साल की से पहले नौकरी छोड़ देते हैं।
           मोदी का सबसे बड़ा संकट है कि किसे आगे बढ़ाया जाए- हिंदुत्व या विकास। भाजपा में पार्टी के भीतर इस पर गंभीर बहस चल रही है और यह तय नहीं हो पा रहा है कि लोकसभा चुनाव में क्या नारे दिए जाएं। पार्टी इस गुत्थी को सुलझाने में लगी है। खास करके, विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद है ज्यादा कठिन हो गई है।  मोदी की छवि थोड़ी धुंधली होने लगी है।राजनीतिक विश्लेषकों ने फतवा दिया कि सरकार हिंदुत्व के एजेंडा को लागू करने में लगी है और विकास को नजरअंदाज कर रही है। हाल के चुनावों ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि हिंदुत्व कार्ड की एक सीमा है। मध्य प्रदेश ,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हिंदुओं की बहुत बड़ी आबादी है लेकिन भाजपा और संघ ने जो हिंदुत्व का नारा दिया वह लगता है काम नहीं कर पाया। इस पराजय से सबक लेकर मोदी सरकार अपना रुख बदलने की कोशिश में है और एक बार फिर वह विकास का मसला सामने पेश कर उसे आगे बढ़ाएगी।

Thursday, January 10, 2019

गरीबों के लिए क्या है हुजूर ?

गरीबों के लिए क्या है हुजूर ?

इन दिनों सोशल मीडिया में मोदी जी के कुछ चित्र और कुछ टेंपलेट्स वायरल हो रहे हैं। उनमें मोदी जी को विश्व नेताओं के साथ दिखाया गया है । ब्रिटेन में एक सम्मेलन में उन्हें अध्यक्षता करते हुए दिखाया गया है। टेंपलेट्स में यह बताया गया है कि मोदी जी ने विजय माल्या को धर दबोचा, पाकिस्तान की कमर तोड़ दी ,चीन का घमंड चकनाचूर कर दिया वगैरह। लेकिन यह कहीं नहीं दिखता है कि भारतीय गरीबों के लिए उन्होंने क्या किया? उनके लिए क्या समाधान है उनके पास? लोगों में राय है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा आर्थिक मसलों के कारण हार गई । उन आर्थिक मसलों में किसानों का असंतोष और बेरोजगारी महत्वपूर्ण थे । बेशक यह महत्वपूर्ण है । क्योंकि देश के नौजवानों को अगर नौकरी मिल जाए तो खेती पर से दबाव हट जाए और  थोड़ी सी राहत सबको मिले हमारे ।देश में नौकरी के दो ही संगठित क्षेत्र हैं। दफ्तर और मिल - कारखाने। मिल -कारखानों में तो नौकरी मिलने से रही । वह धीरे- धीरे बंद हो रहे हैं । जैसे कलकत्ता की जूट मिलें लगभग बंद होने की कगार पर हैं और उन में काम करने वाले सैकड़ों या कहें हजारों मजदूर सड़कों पर आ गए हैं। उनमें से कुछ तो भीख मांग कर काम चला रहे हैं और कुछ अपने गांव लौट गए हैं। इससे खेतों पर दबाव बढ़ गया है। जहां तक ऑफिसों का सवाल है वहां तो अंग्रेजी बोलने वालों का राज है। जो हिंदी बोलता है उसे चपरासी तक की नौकरी नहीं मिलती। अंग्रेजी बोलना इस समय श्रेष्ठता की पहचान है और लोग अंग्रेजी बोल कर चाहे वह 90% गलत ही क्यों न हो अपना वर्चस्व प्रदर्शित करते हैं। रोजगार या नौकरी की तलाश में गांव छोड़कर शहर जाने वाला ही यह महसूस कर सकता है कि वहां जीवन कितना कठिन है। गांव छोड़कर शहर आने वाले लोगों में अधिकतर कम पढ़े लिखे या फिर अनपढ़ होते हैं। उन्हें केवल मजदूरी का काम मिलता  है। इसमें भी अच्छी मजदूरी वाला काम  जैसे राजमिस्त्री, फिटर, इलेक्ट्रिशियन इत्यादि का काम हुनरमंद या अनुभवी लोग ले जाते हैं। केवल मामूली तनख्वाह पर  सीमेंट -बालू ढोने वाले काम ही मिलते हैं या फिर दरबान इत्यादि का काम मिलता है। पेट की आग बुझाने के लिए पुरुष इन कामों को पकड़ लेते हैं और उनके साथ गई महिलाएं घरों में चौका- बर्तन करने लगती हैं। कई पुरुष एक कमरे में रह लेते हैं। बस का भाड़ा नहीं दे पाने या खर्च बचाने की गरज से पैदल काम पर जाते हैं । गांव में उनकी राह देख रहे परिवार को पैसे भेजने के लिए अपने ऊपर कम से कम खर्च करते हैं और कुपोषण का शिकार होकर बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं । किसी भी पुराने औद्योगिक शहर से अगर आप बाहर की तरफ यात्रा करें तो टीन और एस्बेस्टस की झुग्गियों वाले मकान कतार में दिख जाएंगे और उनमें जीवन जीने वाले लोग हमारे आपके बीच के ही हैं।  उनकी जिंदगी इतनी कठोर और दर्दनाक है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कर्ज लेकर गांव की गिरवी जमीन छुड़ाने और फिर कर्ज लेकर शहर में झुग्गी खरीदने की किस्तों में जिंदगी तमाम हो जाती है । बहुत कम भाग्यशाली लोग होते हैं जो अपना पेट काटकर अपने बच्चों को शिक्षित कर हुनर मंद बनाकर थोड़ा ऊंचा रोजगार हासिल करने लायक बनाते हैं। क्योंकि वे बच्चे किसी एलीट स्कूल में नहीं पढ़े इसलिए अंग्रेजी नहीं बोल सकते और इससे उन में निराशा भरने लगती है। वे अक्सर अपने मालिकों की दया पर निर्भर करते हैं। उन्हें कोई सुरक्षा हासिल नहीं है। सरकार ने जो न्यूनतम वेतन तय किया है वह तो हमेशा सपना ही रहता है। उनका जीवन एक तरह  से बदहाल  और प्राय छोटा होता है। इसलिए सब सरकारी नौकरियों की ओर देखते हैं। लेकिन सरकारी नौकरियां कहां मिलती हैं। जिसको मिलती है वह खुशकिस्मत है जिसे नहीं मिलती वह अपने को कोसता हुआ निराशा में जीवन जीता रहता है ।
सोचा था उनके देश में महंगी है जिंदगी
पर जिंदगी का भाव वहां और भी खराब है
भारत संविधान के मुताबिक एक कल्याणकारी राज्य है लेकिन इन दिनों सरकार अनुबंध पर काम लेने लगी है। वह अनुबंध पर कर्मचारियों को रख लेती है और वर्षों तक वे कर्मचारी अस्थाई बने रहते है। उन्हें अपने साथ काम करने वाले स्थाई कर्मचारियों को देख कर भारी निराशा होती है यह कड़वी सच्चाई है।
जिंदगानी का कोई मकसद नहीं है 
एक भी कद आज आदम कद नहीं है
हमारे लोकतंत्र की यह विडंबना है और नेताओं ने इस मनोविज्ञान को समझ लिया है। वह इस हालात को बदलने का वादा करते हैं उस वादे के चक्कर में फंसकर आदमी उस नेता को वोट देता है । परंतु होता है ऐसा कहां ? अगर कभी मौका मिला भी नौकरियों में आरक्षण है। खास करके जाति के आधार पर या फिर उस आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन होता है। लोग उसमें शामिल होते हैं इस उम्मीद में कुछ तो बदल जाएगा । लेकिन कुछ नहीं होता। कोई पार्टी कर्जे माफ करने की बात करती है और वोट बटोर कर ले जाती है। खेती फायदेमंद रह नहीं गई और जो फसल हुई है उसकी  अच्छी कीमत की कोई गारंटी नहीं है।  नौजवान नौकरियों के लिए संघर्ष करते रहते हैं यह संघर्ष भीतर और बाहर दोनों तरफ चलता है । यह एक तरह का शहर के भीतर शहर है। शहर के बाहर वाला शहर तो सपनों का संसार है । शहर के भीतर वाले शहर में जाकर हमारे नौजवान क्या कर सकते हैं?
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है
सामूहिक पहचान जीवन को ज्यादा मानीखेज बनाती है। एक निरर्थक जीवन किसी तरह सार्थक दिखने लगता है और यही कारण है नौजवान राजनीति की दुनिया है दाखिल होते हैं। वे यह नहीं समझ पाते यह राजनीतिज्ञ  मवेशियों के उन व्यापारियों की तरह हैं जो मवेशियों की टोह  में लगे रहते हैं। क्योंकि इसे धार्मिक मंजूरी मिली हुई है और जिन मवेशियों को पकड़ा है उससे पैसे भी बनते हैं। सुविधा भी पैदा होती है तथा उसे पीटकर मन का भड़ास निकालने का सुकून मिलता है।  राजनीति में हमारे नौजवानों के साथ यही होता है। लेकिन उन्हें मिलता क्या है। फकत एक पहचान।  एक झंडे के नीचे खड़े रहने का सामूहिक सुख इसके अलावा यह राजनीतिज्ञ हमारे नौजवानों को क्या दे पाते हैं । नौजवान इसे नहीं समझते। दुख उठाकर ,गले फाड़ कर, काम छोड़ कर झंडा लिए पीछे -पीछे घूमते हैं।राजनीतिज्ञ उन्हें जोड़े रखते हैं क्योंकि उनके बल पर वोट हासिल किया जा सकता है, लोगों को धमकाया जा सकता है और बड़े-बड़े जुलूस निकाले जा सकते हैं। यह स्थिति एक तरह से दर्द निवारक दवा का काम करती है स्थाई उपचार नहीं करती। इससे समाज  धीरे-धीरे निराशा से भरता जाएगा और राजनीतिज्ञों की ताकत बढ़ती जाएगी। चाहे वह राफेल की तू तू मैं मैं हो या 56 इंच का सीना दिखा कर विदेशों में फोटो खिंचवाने का प्रचार हो लेकिन आम जनता को ,भारत के करोड़ों गरीब  लोगों को क्या मिलता है?
आंख पर पट्टी रहे अक्ल पर ताला रहे 
अपने शाहे वक्त का यूं ही मर्तबा आला रहे

यहां तक कि पीने का अच्छा पानी नहीं मिल पाता है हवा जहर भरी हुई है खाने को अन्न नहीं है। क्या एक ऐसे ही देश की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक  रहे माला रहे