बालाकोट को कारगिल -2 बना रहे हैं
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव में खुद को प्रधान सेवक बताया था। 2019 आते-आते वे प्रधान सेवक से खुद प्रधान सेनापति बन गए और उन्होंने राष्ट्रीयता का कवच धारण कर लिया । दुश्मन के घर में घुसकर मारने की चेतावनी दे रहे हैं और खुल्लम खुल्ला कह रहे हैं कि चाहे वे जहां छुपे हैं उन्हें मारे बिना नहीं छोड़ेंगे। वे अपने विरोधियों को चाहे वह कांग्रेस हो या गांधी परिवार या ममता बनर्जी सबको पाकिस्तान का तरफदार और आतंकवादियों का हमदर्द बता रहे हैं। यही नहीं पहली बार वोट डालने वाले नौजवानों को या कहें किशोरों से मोदी जी अपील कर रहे हैं कि वे अपने वोट पुलवामा के शहीदों समर्पित कर दें। यह एक तरह से देश के वीर जवानों के नाम वोट डालने का इशारा है। वे चुनाव सभाओं में कहते हैं की मोदी ही देशद्रोहियों से देश को बचा सकते हैं। 31 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्धा में कहा कि "राहुल गांधी बहुसंख्यकों के दबदबे वाली सीट से भागकर वायनाड जैसी जगह में पनाह ली है, जो अल्पसंख्यक बहुल है।" वे इशारा कर रहे हैं कि राहुल गांधी ने अल्पसंख्यकों से जुड़कर ईशनिंदा का अपराध किया है। उनका इशारा है कि अगर कोई नेता अल्पसंख्यकों की मदद से जीतता है तो वह अच्छा हिंदू नेता हो ही नहीं सकता है। बड़ा अजीब लगता है यह सोच कर क्या हम 1909 में जी रहे हैं ? जब यह नारा दिया गया था कि हिंदुओं को हिंदू नेता ही चुनना चाहिए और मुसलमानों को मुस्लिम। इसका नतीजा हुआ कि 1947 में हमें बंटवारे का दर्द सहना पड़ा।
यही नहीं पार्टी के अध्यक्ष और एक तरह से मोदी जी की छाया के रूप में विख्यात अमित शाह भी राहुल गांधी पर पाकिस्तान से चुनाव लड़ने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि वायनाड में आईयूएमएल के कार्यकर्ता हरे झंडे लेकर प्रचार कर रहे थे। यह उनकी पार्टी के झंडे का रंग है। यही नहीं, वे चुनाव में वादा कर रहे हैं कि अगर उनकी सरकार आई तो वह हिंदुओं और बौद्धों को छोड़कर सभी घुसपैठियों को निकाल बाहर करेगी । योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया "उनके अली हमारे बजरंगबली" और इस चुनाव को उन्हीं का संघर्ष बताया। भाजपा के संकल्प पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं। बालाकोट का हवाई हमला तथा उड़ी आतंकवादी हमले उनके प्रतीक चिन्ह हैं और देश को विभाजित होने से रोकना उनका मिशन है । पार्टी ने संकल्प पत्र में कश्मीर से धारा 35 ए को खत्म करने का वादा किया है। एक नजर में देखने में यह राष्ट्रवाद लगता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी है और कई असफलताओं पर या सरकार के उदासीन रिकार्डो पर पर्दा डालने की कोशिश है।
भक्तों की टोलियां इसे कारगिल- 2 की रणनीति बता रही हैं और यह स्पष्ट करने की कोशिश कर रही हैं 1999 के कारगिल युद्ध के पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। उसी तरह बालाकोट के बाद मोदी जी की लोकप्रियता बढ़ गई है। उनका मानना है कि जिस तरह बाजपेई जी जीते थे उसी तरह मोदी भी जीत जाएंगे। वे पाकिस्तान , डर, हिंदुत्व और विपक्ष के डरपोक नेताओं का हौवा दिखाकर चुनाव जीतना चाहते हैं। बहुत ही अच्छा गेम प्लान है। इसे विजय का फार्मूला मान लिया गया है। लेकिन अगर इस स्थिति के मद्देनजर भारतीय समाज का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें ऐसा लगता है कि ऐसा सोचने वाले अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए हैं। जो लोग यह बताते हैं की 1999 में कारगिल- 2 के कारण बाजपेई जी जीते थे वे गुमराह कर रहे हैं। बाजपेई जी के जीतने के चार कारण थे। पहला 13 महीने के बाद सरकार के गिरने की घटना से जबरदस्त सहानुभूति मिली थी। लोगों के मन में यह बात थी कि बाजपेई ने परमाणु परीक्षण किया था और अमरीकी पाबंदियों का मुकाबला किया था इसलिए वे मजबूत नेता हैं। दूसरा कारण था , देश 10 साल में 6 प्रधानमंत्री देखकर ऊब चुका था और लोग स्थिरता चाहते थे। तीसरा कारण था कि बाजपेई जी बड़े दिल के नेता थे और गठबंधन को साथ लेकर चलना जानते थे और चौथा कारण कांग्रेस की पॉलिसी में भारी भूल थी खास करके पंचमढ़ी बैठक के बाद ।जब उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। वह फैसला वह गलत था।
अगर ठंडे दिमाग से देखें तो कारगिल विजय का श्रेय बाजपेई जी को देना भ्रामक था। उनकी विजय के दूसरे कारण थे लेकिन मोदी जी और उनके साथी शायद यह नहीं देख पा रहे हैं और वह सारे तीर पाकिस्तान तथा बालाकोट को निशाना बनाकर चला रहे हैं। यह एक सूत्रीय विमर्श है और डर है कि कहीं निशाना गलत ना हो जाए। पर अभी तो यह उम्मीद की जा सकती है कि इसका असर हो रहा है। लोग या कहें मतदाता किस ढंग से सोचते हैं यह जान पाना बड़ा मुश्किल है। इसलिए परिणामों का इंतजार लाजिमी है। उसके पहले किसी तरह का कोई विचार बनाना निहायत गलत और जल्दबाजी है।
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