भारत में लोकतंत्र का भविष्य
वर्जिनिया वूल्फ ने लिखा है कि दिसंबर 1910 में मानव स्वभाव में परिवर्तन आ गया। मानवीय संबंध बदल गए। धर्म, आचरण राजनीति और साहित्य में बदलाव आ गया। इस आधुनिकता का मूल 19 वीं सदी की प्राविधिकी में तेजी से हुए बदलाव में था। फ्रायड ,मार्कस , डार्विन और नीत्शे जैसे विचारकों विचारों ने उन्नीसवीं सदी में वैचारिक तौर पर सब को प्रभावित करने लगे। तकनीक बदलने लगी। अब अगर कहा जाए कि इस कथन के एक सदी के बाद के पहले दशक के बीतते ही 2014 से 2019 के बीच भारत में मानवीय चरित्र बदल गया है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस अवधि में स्मार्टफोन की संख्या 10 करोड़ से 40 करोड़ हो गई है। जिस तरह वर्जिनिया वूल्फ और उनके समकालीन लेखकों ने यह बताने की कोशिश की है कि किस तरह औद्योगिकरण ,सामूहिक लोकतंत्र, टेलीग्राम, टेलीफोन, जैसी तकनीक के अभूतपूर्व प्रसार ने मानवीय संबंधों को परिवर्तित कर दिया उसी तरह भारत में स्मार्टफोन ने आदमी के निजी और सार्वजनिक जीवन में परिवर्तन ला दिया है। लाखों नौजवानों और गरीब भारतीयों के लिए इस औजार ने पहली बार कैमरा ,कंप्यूटर, टेलिविजन ,म्यूजिक प्लेयर ,वीडियो गेम ,ई रीडर और इंटरनेट का एक साथ अनुभव कराया है । स्मार्ट फोन ने कई तकनीको बहुत कम समय में एक साथ जमा कर दिया। इस तरह की तकनीकों के अलग-अलग अविष्कार में पश्चिम को काफी समय और धन लगाना पड़ा था। उदाहरण के लिए प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत से लेकर फोटोग्राफी ,रेडियो टीवी पर्सनल कंप्यूटर मॉडेम इत्यादि के विकास में कितना वक्त लगा था। पश्चिम में इस तकनीकी विकास में सामाजिक और राजनीतिक क्रांति भी जुड़ी थी। उदाहरण के लिए प्रिंटिंग प्रेस ने पहली बार आसानी से दुनिया को किताबे मुहैया कराई और पढ़ने पढ़ाने का एक नया वर्ग तैयार हो गया।
आज भारत में वर्ग शक्ति के मामले में भारी बदलाव आया है। स्मार्टफोन के जरिए कोई भी आदमी अपने विचार जाहिर कर सकता है और उसे दूर दूर तक भेज सकता है।
यह संप्रेषण परंपरागत राजनीतिक प्रतिनिधियों तथा मीडिया के विचारकों को नजरअंदाज कर या कभी-कभी उन्हें चुनौती देकर अपना पृथक स्वरूप ग्रहण करने लगता है। इस नए स्वरूप का असर होता हुआ भी दिखता है। यह अनुभव विश्वसनीय भी लगता है। तीव्र संचार दुनिया भर में लोकतंत्र तथा आजादी को प्रोत्साहित करते हैं । झूठे समाचार व्हाट्सएप , फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रसारित होते हैं ।भारत में इसी के कारण मॉब लिंचिंग की घटना है देखी जाती है। अब इससे भारत के चुनाव को प्रभावित किए जाने का खतरा पैदा हो रहा है, यह ठीक वैसे ही है जैसे पिछले साल ब्रजिल के चुनाव में हुआ था । स्मार्ट फोन धारक स्थाई रूप से सूचनाओं से जुड़े हैं। यह सूचनाएं गलत भी हो सकती हैं लेकिन इनका भी असर देखा जाता है। इसका मुख्य कारण है लोगों में सही और गलत को समझ पाने की क्षमता का अभाव । जब सरकारी शिक्षा व्यवस्था अपर्याप्त हो और निजी शिक्षा व्यवस्था अधिकांशत ठगी हो तथा छोटी नौकरियों के लिए भी भयानक प्रतियोगिताएं हैं तो क्या क्रांति के लिए स्थितियां में तैयार हो गई हैं। जी नहीं ,वह स्थिति अभी नहीं आई है।क्योंकि इन दिनों विमर्श के बदले अधिकांश लोग स्मार्टफोन के स्क्रीन से जुड़े हुए रहते हैं। लोकप्रिय राजनीतिज्ञ सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं लेकिन इसका असर तभी पड़ता है जब सूचनाएं मनोरंजन तथा प्रचार के साथ ही साथ बॉलीवुड के वीडियो से जुड़ी हों या कहें यह सब उनमें गुंथा हो और सब कुछ एक ही साथ हो एक ही परदे पर हो। कभी के बहुत सक्रिय लोग इन दिनों निष्क्रिय उपभोक्ता में बदलते जा रहे हैं। उनकी चेतना का स्तर घटता जा रहा है । वोटिंग मशीन का बटन ठीक उसी तरह और राजनीतिक उत्साह से दबाया जाता है जिस तरह फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर के आइकन को क्लिक किया जाता है। स्मार्टफोन के कारण आरंभ हुआ सोशियोपेथिक आचरण उस समय और प्रोत्साहित होता है जब वह कहीं दिखता नहीं है। भारत कुल मिलाकर एक अपरिवर्तनवादी समाज है लेकिन साथ ही इस देश में झूठे समाचारों और कामुक तस्वीरों की लत और आकर्षण बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत बड़े संकट का लक्षण है क्योंकि एक आदमी लिखे हुए वाक्यों से परदे की ओर बढ़ रहा है या महत्वपूर्ण वैचारिक स्तर से निष्क्रिय खपत तथा लेखन से छवि बनाने की ओर कदम बढ़ा रहा है ।लोकतंत्र का सामाजिक अनुबंध उसके लोगों में सच्चाई के प्रति दृष्टिकोण क्या है इस पर निर्भर करता है। लेकिन तब क्या हो जब सोचे समझे और व्यवस्थित ढंग से तैयार की गई छवियां सच्चाई के नए विकल्प के रूप में उपस्थित हो रही हों? पश्चिम के पढ़े लिखे और धर्मनिरपेक्ष समाज के साथ भी यही समस्या है ,लेकिन आंशिक तौर पर पढ़े लिखे और अत्यंत धार्मिक समाज में इसपर विचार करना ज्यादा जरूरी है। क्यों फिर ऐसे समाज में मिथक और चमत्कार का माननीय कल्पनाओं पर ज्यादा प्रभाव होता है।
पश्चिम में ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब धमकी या रहस्य की काल्पनिक छवि प्रसारित की जाती है तो लेखन से उसका विरोध होता है और उसे वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित किये जाने की चुनौती दी जाती है। कई मौकों पर धर्म की सत्ता को ललकार भी दिया जाता है।
लेकिन भारत में ऐसा बहुत कम देखा जाता है । खास करके पिछले कुछ सालों में तो गति प्रतिगामी हो गई है। गढ़े हुए रहस्य फेसबुक, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया अन्य प्लेटफार्म से प्रसारित किए जाते हैं । इससे वैचारिक विमर्श की संभावनाएं समाप्त हो रही हैं। जो लोकतंत्र की बुनियाद के लिए जरूरी है। एक काल्पनिक विडंबना करोड़ों लोगों चमत्कारिक पौराणिक युग की ओर ले जा रही है और इस का जरिया है स्मार्टफोन । इसका ताजा उदाहरण है एक दक्षिण पंथी पार्टी की एक साध्वी उम्मीदवार यह कहती है कि उस के श्राप से मुंबई के पुलिस अधिकारी की मृत्यु हो गई और लोग उसकी वास्तविकता नहीं ऐसा होने और नहीं होने पर बहस करने लग जाते हैं । क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि हम रहस्य और चमत्कार की ओर बढ़ रहे हैं हमारी तार्किकता समाप्त हो रही है बौद्धिकता कुंद होती जा रही है । फंतासी की ओर बढ़ते समुदाय के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि चुनाव में कौन जीता कौन हारा। स्मार्टफोन बड़े ही नाटकीय अंदाज में भारत में मानवीय चरित्र को पुनः नियोजित कर रहा है और यह देश के भंगुर लोकतंत्र तथा सिविल सोसायटी को कितना प्रभावित करेगा इसकी गणना नहीं की जा सकती।
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