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Sunday, April 7, 2019

तबादले की सियासत

तबादले की सियासत

पश्चिम बंगाल के कई पुलिस अधिकारियों के तबादले चुनाव आयोग ने कर दिए हैं। खासकर कोलकाता पुलिस के कमिश्नर अनुज शर्मा और विधाननगर पुलिस के कमिश्नर ज्ञानवंत सिंह तथा बीरभूम और डायमंड हार्बर के पुलिस अधीक्षकों के तबादले को लेकर पश्चिम बंगाल का राजनीतिक माहौल गरमा चुका है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि चुनाव आयोग द्वारा अफसरों के तबादले की क्रिया मनमानी भरी  और अत्यंत अभिप्रेरित है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि यह मानने के कई पुख्ता कारण है कि यह तबादले केंद्र में सत्तारूढ़ सरकार के इशारे पर किए गए हैं। मुख्यमंत्री ने इस आशय का पत्र  भी चुनाव आयोग को भेजा है और कहा है कि वह अपने फैसले पर पुनर्विचार करे। अपने पत्र में ममता बनर्जी ने यह भी कहा है कि भाजपा नेताओं ने प्रेस बयान जारी कर कहा था कि बंगाल में अभी और अधिकारियों के तबादले किए जाएंगे । उन्होंने कोलकाता और विधाननगर के नए पुलिस कमिश्नर की क्षमता को कम आंकते हुए कहा कि क्षेत्र और क्षेत्र के लोगों के बारे में उन्हें  बहुत कम जानकारी है इसलिए राज्य में किसी भी प्रकार की कानून व्यवस्था की समस्या की जिम्मेदारी क्या  चुनाव आयोग स्वीकार करेगा? उन्होंने कहा कि कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है और फिर भी उनकी सरकार से किसी तरह का परामर्श नहीं किया गया।
       उधर भाजपा के  कई नेता  यह कह रहे हैं  कि ऐसे कई मौकों पर देखा गया है कि चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने चुनाव आयोग की तीखी आलोचना की है। इस बार भी उन्होंने कहा है कि यह भाजपा के इशारे पर हुआ है। लेकिन उनकी बातों के विपरीत , हाल में जब यह निर्णय  किया गया कि बंगाल में चुनाव केंद्रीय बालों की देखरेख में होगा तो  ममता बनर्जी ने अपने भाषणों इसका स्वागत किया और कहा  कि "मुझे उम्मीद है केंद्रीय बल राज्य पुलिस के साथ मिलकर काम  करेंगे।" ममता जी ने अपने कई भाषणों में कहा है कि अगर भाजपा दुबारा सत्ता में आ गई तो आम जनता अपनी आजादी खो देगी यह  संविधान में बदलाव करेगी।
           यह पहला अवसर नहीं है जब चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल सरकार के प्रति कदम उठाए हैं। इसके पहले भी मई 2016 चुनाव आयोग ने बंगाल सरकार निर्देश दिया था कि वह आश्वस्त करे कि आईपीएस अधिकारी भारतीय घोष चुनाव खत्म होने तक अपने कार्यस्थल से इधर उधर ना जाएं । इसके पूर्व 2016 के अप्रैल में विधानसभा चुनाव के पहले चुनाव आयोग ने राजीव कुमार का तबादला कर दिया था। मार्च 2016 में चुनाव आयोग में हुगली के जिलाधीश संजय बंसल , बर्दवान के पुलिस अधीक्षक कुणाल अग्रवाल, मालदह के पुलिस अधीक्षक प्रसून बंदोपाध्याय, नदिया के पुलिस अधीक्षक भास्कर मुखर्जी तथा दक्षिण दिनाजपुर के पुलिस अधीक्षक अर्णव घोष एवं अन्य 37 पुलिस अधिकारियों का तबादला किया था। इसके भी पहले अप्रैल 2014 में लोकसभा चुनाव के पूर्व भारती घोष को पश्चिम मेदिनीपुर जिले से हटा दिया गया था। चुनाव आयोग का ताजा निर्णय उस समय घोषित हुआ जब राज्य के विपक्षी दलों के कई नेताओं ने आशंका जाहिर की कि इन अधिकारियों की देखरेख  में  शायद ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो सकें।
      ममता बनर्जी का आरोप कि पुलिस अधिकारियों के तबादले भाजपा के इशारे पर किए गए हैं संभवत गलत नहीं लगता है। क्योंकि बंगाल के भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने शनिवार को मुख्यमंत्री का उपहास करते हुए कहा था कि "यह तो अभी शुरुआत है कई और अधिकारियों के तबादले होंगे। मुख्यमंत्री क्यों इतने नाराज हो रहे हैं यह तबादले इसलिए किए जा रहे हैं कि वह चुनाव में पुलिस का उपयोग करना चाहती हैं । उन्होंने आरोप लगाया की पश्चिम बंगाल में कई पुलिस अधिकारी तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की तरफ आचरण करते हैं।" अब यहां एक सवाल उठता है चुनाव आयोग ने बंगाल के पुलिस अफसरों पर जो कार्रवाई की उस कार्रवाई का आधार क्या था और अगर किसी किस्म की सूचना ही उसका आधार थी क्यों नहीं उन नेताओं पर कार्रवाई की जाती है जो लोग खुल्लम खुल्ला ऐसी बातें कहते हैं जो चुनाव आयोग द्वारा आदर्श आचार संहिता के बिल्कुल विपरीत है।  उनके लिए तो रिपोर्ट मांगी जाती है और भी कई तरह की कार्रवाई होती है । जबकि उनके बयान सार्वजनिक रूप से सुने गए हैं ,उन्हें टेलीविजन कैमरों में फिल्माया गया है और उसके बाद डिजिटल मीडिया में भी चलाया गया है। क्यों नहीं उन पर कार्रवाई होती है?  यह केवल पहली बार नहीं हो रहा है हर बार होता है। शायद चुनाव आयोग इन सब बातों को संभवत जानता ही नहीं है या जानबूझकर नजर अंदाज करता है।
             वैसे देश के पहले चुनाव में भी बाहुबल से उसे प्रभावित करने की कोशिश की गई थी और इसके सबूत भी हैं। आधुनिक भारत में चुनाव  में बाहुबल का उपयोग बिना पुलिस बल कि मदद के नहीं हो सकता। लेकिन प्रश्न उठता है कि इन सब संभावनाओं पर पहले क्यों नहीं विचार कर लिया जाता।इस तरह की कार्रवाई का एक और भाव हो सकता है यह कि जानबूझकर राजनीति के लिहाज से होती है। इसका उद्देश्य सरकार राज्य सरकारों को नैतिक रूप से थोड़ा नीचा दिखाना है। इसका असर विपक्षी वोट  पर खुद को बलशाली साबित करने वाला होता है और पुलिस बल को नीचा दिखाने वाला। जहां तक पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान केंद्रीय बलों के उपयोग का सवाल है तो क्या केंद्रीय बलों की शक्ति इतनी नहीं होती कि वह स्थानीय पुलिस को नाजायज करने से रोक सके। इससे स्पष्ट जाहिर होता है की इस तरह के हथकंडे आमतौर पर नैतिक आघात पहुंचाने के लिए अपनाए जाते हैं।

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