राजनीतिक आदर्श और ग्लैमर की दुनिया
इन दिनों सिनेमाई चरित्रों का राजनीतिक चरित्रों में बदलना परंपरा बन रही है। ऐसा नहीं था कि पहले भी ये चरित्र सियासत में नहीं आते थे। भारत में एमजी रामचंद्रन और एनटी रामा राव का उदाहरण सबके सामने है। हॉलीवुड के अभिनेता और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रिगन ने एक सवाल पूछा था "एक एक्टर क्या जानता है?" उनके दो बार राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद खुद इसका उत्तर मिल गया था। अमरीकी अभिनेता रीगन ने शीत युद्ध के जमाने में यह प्रमाणित किया की अभिनेता भी चुनाव जीतने का हुनर जानते हैं। उन्होंने यह बिम्बित किया कि अमरीका को, वहां की जनता को "एविल अंपायर" की मुश्कें कसने के लिए "कैप्टन अमरीका" की जरूरत है। सिनेमा एक फंतासी है और उसे आवाज, प्रकाश, बिंबो और तस्वीरों के माध्यम से हकीकत की तरह पेश किया जाता है। पश्चिम में हॉलीवुड ग्लैमर के इस मिथक को राजनीतिक संभावनाओं के रूप में पेश करता हैं ।आज भारतीय नेताओं के लिए फिल्मी सितारे कमजोरी बन गए हैं। रीगन के साथ इसके पथ भी बदल गए। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया की अन्य फिल्मी सितारों की सहायक भूमिका के बगैर वे शीर्ष का सफर तय कर सकते हैं।
भारत में भी यही बात है। हर राजनीतिक दल किसी न किसी वर्तमान या पूर्व सिनेमाई कलाकार को अपने साथ लेने के प्रयास में है ताकि उसका मतदाता वर्ग उसके साथ जुड़ सकें। नेताओं का सिनेमाई कलाकारों के साथ सेल्फी लेकर उसे सोशल मीडिया पर डालना आज एक चलन सा बन गया है। अभी हाल में बॉलीवुड के एक बड़े अभिनेता ने चुनाव की तारीख से ठीक पहले एक नेता का इंटरव्यू लिया और उसकी जमकर चर्चा हुई। इन दिनों बॉलीवुड के सितारे खुद चुनाव लड़ रहे हैं या चुनाव प्रचार में जुटे हैं । उन्होंने कई नेताओं की छवि धूमिल कर दी है। इस समय लगभग दो दर्जन मशहूर या कम नामी अभिनेता अभिनेत्रियों की फौज चुनाव मैदान में है। भाजपा में सबसे ज्यादा फिल्मी उम्मीदवार हैं। यह नौजवान तथा नए मतदाताओं के पीछे लगे हैं। हालांकि यह खुद नौजवान नहीं हैं। अब देखिए, सनी देओल 62 वर्ष के हैं और उन्होंने अपने पिता धर्मेंद्र के राजनीतिक रास्ते पर चलना शुरू किया है। इस ताजा स्थिति से एक सवाल उठता है कि क्या हमारे राजनीतिक नेता मतदाताओं से अपना संपर्क बनाने के लिए या कहें बढ़ाने के लिए ग्लैमर की दुनिया पर निर्भर कर रहे हैं ? आमतौर पर चुनाव में आदर्श, विचार और संकल्प का संघर्ष होता है। अब अभिनेता अपने प्लॉट से संकल्पबद्ध होते हैं इसलिए यह माना जा रहा है कि उनकी यह आदत राजनीतिक दलों से संकल्पबद्ध होने में मददगार होगी। उनके बहुत समर्थक नहीं हैं लेकिन उनके फैन बहुत ज्यादा हैं। अब हमारे नेता उन्हें सामने रख रहे हैं ताकि वे उनके ब्रांड वैल्यू को कैश करा सकें और सम्मोहन पैदा कर सकें। अब देखिए ना शत्रुघ्न सिन्हा, मनोज तिवारी, नुसरत जहां, उर्मिला मातोंडकर, किरण खेर, प्रकाश राज ,कमल हासन, जयाप्रदा इत्यादि सब में एक बात समान है। सब मध्यम दर्जे के शहर से आकर शोहरत की ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने इनमें एक नया गुण खोजा है। जो सब में समान है वह कि इन्हें कभी भी किसी खास जाति समुदाय या फिर धर्म को सामने रखकर कुछ करते नहीं देखा गया। भाजपा यह समझती है कि बीते दिनों की सुपरस्टार जयाप्रदा को आजम खान के खिलाफ खड़ा कर उत्तर भारत के मुस्लिमों, हिंदुओं तथा पिछड़ी जातियों को आकर्षित किया जा सकता है। उनका मसाला चमत्कार है ना कि उनकी वैचारिक पहचान। दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को लखनऊ से गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुकाबले के लिए खड़ा किया है। इसलिए नहीं कि वह बहुत बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं बल्कि इसलिए कि वह एक बड़े अभिनेता की पत्नी हैं।
भाजपा के पूर्व बड़बोले नेता शत्रुघ्न सिन्हा इस समय कांग्रेस के टिकट पर पटना से चुनाव लड़ रहे हैं। जाहिर है हेमा मालिनी और मुनमुन सेन आम राजनीतिक नेताओं से ज्यादा भीड़ इकट्ठा कर सकती हैं। बेशक ग्लैमर का पुट राजनीति गाली गलौज थोड़ी राहत पहुंचाएगा और लोगों का मनोरंजन करेगा। यह तय है कि ये सितारे वह भाषा नहीं बोल सकते जो आज के राजनीतिक नेता बोल रहे हैं। वे अपने व्यक्तित्व के स्तर पर वोट मांगते हैं ना की वैचारिक स्तर पर।
फिल्मों के प्रभाव का निर्धारण भारतीय राजनीति में कोई नया फिनोमिना नहीं है । भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पृथ्वीराज कपूर को राज्य सभा में भेजा था। उसके बाद से सभी प्रधानमंत्रियों ने ऐसा ही किया है। सक्रिय राजनीति में या गंभीर राजनीति में फिल्मी अभिनेताओं का पदार्पण दक्षिण भारत से उस समय शुरू हुआ जब दक्षिण भारतीय फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर, निदेशक ,हीरो और हीरोइनों ने वर्ग और जाति के आधार पर अपनी पार्टियां गठित की। यह परिपाटी तमिलनाडु में अन्नादुरई ने शुरू की। उसके बाद एमजी रामचंद्रन ,करुणानिधि, जयललिता और रामा राव ने इसी नक्शे कदम पर चलना शुरू किया। दक्षिण भारत में फिल्मी सितारों के लिए कांग्रेस सबसे बड़ा खलनायक थी। जिसने क्षत्रिय और साम्प्रदायिक हस्तियों को आगे बढ़ने से रोका था। फिल्मी सितारों के राजनीति में आने से कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी और अंतत वहां वर्चस्वहीन हो गई। बॉलीवुड ने राष्ट्रीय पार्टियों को सितारों से भर दिया है। हिंदी सिनेमा ने उत्तर भारतीय राजनीति पर एक तरह से हमला कर दिया है। यह नई बात नहीं है। 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अपने मित्र अमिताभ बच्चन को इलाहाबाद से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया था और अमिताभ ने एच एन बहुगुणा को रिकॉर्ड मतों से हराया था। 1991 में राजेश खन्ना ने लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता के छक्के छुड़ा दिए थे। आडवाणी जी जीते थे लेकिन फकत 1502 मतों से। उसके बाद से चुनाव में फिल्मी हस्तियों की मांग बढ़ने लगी। कांग्रेस ने सुनील दत्त ,गोविंदा, राज बब्बर इत्यादि को टिकट दिया। भाजपा ने विनोद खन्ना ,धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा को खड़ा किया। 2014 में विभिन्न दलों की ओर से 19 फिल्मी सितारे मैदान में थे जिनमें 9 भाजपा की ओर से थे और सात ने चुनाव जीता था। चुनाव में खड़े राज बब्बर, नगमा, जावेद जाफरी, गुल पनाग इत्यादि पराजित हो गए बंगाल में टीएमसी की ओर से लड़ने वाली मुनमुन सेन विजई हुई। सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बॉलीवुड से विशेष रिश्ता है। पिछले साल उन्होंने प्रियंका चोपड़ा, सलमान खान, कमल हासन और आमिर खान को स्वच्छ भारत पहल से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया था। शेक्सपियर का कहना था कि "पूरी दुनिया एक स्टेज है और हम केवल उसके अभिनेता।" आज राजनीतिक मंच पर अभिनेता ही दिखाई पड़ रहे हैं और मोदी जी के कट्टर राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करते सुने जा रहे हैं। भीड़ खींचने की उनकी खूबी ने सार्थक राजनीति के अर्थ को छोटा कर दिया है। ग्लैमर का आधिक्य बड़े से बड़े नेता को छोटा कर देगा।यह हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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