खतरा बना सोशल मीडिया
20 साल पहले का वह दिन याद करें जब कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने या शहर छोड़ने के बाद हम अपने दोस्तों से अलग होते थे। नौजवान गले मिलते थे और कहते थे,
अब के बिछड़े तो ख्वाबों में मिलेंगे
जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलेंगे
ऐसा लगता था कि अब शायद नहीं मिल पाएंगे तब ना मोबाइल फोन थे और ना ही सोशल मीडिया। अब दुनिया बदल गई। सोशल मीडिया ने देश के कोने-कोने में अपनी जगह बना ली है और बिछड़े हुए लोग आपस में दोस्त बनने लगे हैं। यह बड़ा अच्छा लगता है। ऐसा लगता है कोई क्रांति आ गई है कोई चमत्कार हो गया है। शुरू- शुरू में सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले लोग स्कूल कॉलेज जाने वाले किशोर और नौजवान तथा आईटी कंपनियों में काम करने वाले युवक थे और यह ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के लोग थे या फिर थोड़े से उच्च वर्गीय परिवार के भी। लेकिन अचानक हालात बदल गए। भारत मोबाइल फोन का एक बहुत व्यापक बाजार बन गया और इंटरनेट उपभोक्ता वर्ग विस्तृत हो गया। जैसे इसका विस्तार हुआ इस की बुराइयां सामने आने लगी । जहां सोशल मीडिया एक दूसरे को जोड़ता था अब उन्हें दूर करने लगा। एक ही परिवार के सभी सदस्य अलग-अलग बैठे अपने-अपने फोन में व्यस्त रहते हैं । एक दूसरे से बेखबर। सोशल मीडिया ने हमें भावनात्मक स्तर से काट दिया है। विचारधारा के स्तर से भी परिवार बंट गए हैं। दोस्तों और समुदायों के बीच गहरी खाई पैदा हो गई है। वाल स्ट्रीट की क्रांति और ट्यूनीशिया की अरब क्रांति ने बताया कि सोशल मीडिया की राजनीतिक ताकत क्या है। सोशल मीडिया के जरिए अरब में या कहें मध्य-पूर्व में लोकतंत्र का पथ प्रशस्त हुआ। शुरू में तो ऐसा लगा की किसी आंदोलन को कम कीमत पर तेजी से ज्यादा भागीदारों और कार्यकर्ताओं तक पहुंचा जा सकता है जो आंदोलन को बल दे सकता है। बहस और तर्क के लिए नए-नए प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकता है। लोगों को सच्चाई से अवगत करा सकता है और गलत के खिलाफ खड़े होने के लिए लोगों को एकजुट कर सकता है। 2014 में भारत में आम चुनाव हुए और और हमने सोशल मीडिया ताकत को देखा। अचानक 2016 में अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में रूस की भूमिका पर से जब पर्दा उठा तो लगा यह सोशल मीडिया लोकतंत्र के लिए एक खतरा बन गया है।
रूसी एजेंसियों ने अमरीकी नागरिकों के फेक अकाउंट बनाए और कुछ ऐसी खबरों को फैलाना शुरू किया जो लगते थे कि सच हैं लेकिन खबरें दरअसल गलत थीं। आइरिश शोधकर्ता जॉन नॉटन के अनुसार 2016 के बाद सोशल मीडिया चुनाव को प्रभावित करने वाला औजार ही नहीं रहा बल्कि वह एक ऐसी जमीन में बदल गया जिस पर हमारी पूरी चुनावी संस्कृति खड़ी है। जिसकी गलियां हमारे रोजाना के विमर्श तय करती हैं और ऐसे भी विमर्श जिन के दुरुपयोग की सीमा नहीं रहती है । हालात इतने खराब हो गए हैं कि हमें कभी भी किसी भी वैचारिक हमले का शिकार होना पड़ेगा और हम अपने आदर्श और अपने विचारों को बदलने के लिए बाध्य हो जाएंगे। सोशल मीडिया आने वाले दिनों में हमारे मन पर हमारी किशोर पीढ़ी दिलोदिमाग पर ऐसे भ्रमित और दूषित विचार छोड़ जाएगा कि वह तय नहीं कर पाएगी कि सही क्या है और गलत क्या है । सच क्या है और सच के आसपास क्या है।
इन दिनों हमारा भारत दो हिस्सों में बंट गया प्रतीत हो रहा है । एक हिस्सा नरेंद्र मोदी के समर्थकों का है दूसरा विरोधियों का। यह विभाजन इतना बढ़ गया है कि लोगों के बीच तनाव के बाद अब नफरत फैलने लगी है। दोस्ती टूटने लगी है। लोग विचारों को लेकर अतिवाद के दायरे में प्रवेश करने लगे हैं।
प्यू रिसर्च संस्था की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे देश में तेजी से ध्रुवीकरण हुआ है। सोशल मीडिया के विशेषज्ञ रॉबर्ट कोजिनेट्स मुताबिक सोशल मीडिया लोगों के जुनून को भड़काता है और उन्हें अतिवादी बनाता है। हमारे देश में सोशल मीडिया का प्रयोग जितनी तेजी से बढ़ रहा है लोगों में वैचारिक अतिवाद भी बढ़ता जा रहा है । विमर्श की भाषा बदलती जा रही है।साथ ही देश में लोकवादी ताकतों का उभार बढ़ रहा है। यह हमारे देश में नहीं यह पूरी दुनिया में हो रहा है। एक ऐसी राजनीति की शुरुआत हो रही है जो भय और तनाव पर फल-फूल रही है। इसके लिए जनता को दो भागों में बांटना जरूरी होता है। सोशल मीडिया पर किसी भी खबर को बिना उसकी विश्वसनीयता तय किए फैलाया जा सकता है। यह स्पष्ट देखने को मिल रहा है कि इस प्लेटफार्म पर अक्सर तर्क और तथ्यों की बात नहीं होती बल्कि भावनात्मकता के जरिए लोगों को भड़काया जाता है, उन्हें गुमराह किया जाता है।
अंततोगत्वा यह हमें तय करना होगा कि हमें किस राजनीतिक पार्टी के साथ चलना है और अपने से अलग विचारधारा वाले दोस्तों को साथ रहना है या उनसे रिश्ते तोड़ देने हैं। क्या हमें सवाल पूछने की भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाए रखना है या उन्हें नष्ट कर देना है।
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