CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Friday, April 12, 2019

सन्मार्ग : चैत्रे नावमिके तिथौ

सन्मार्ग : चैत्रे नावमिके तिथौ

आज रामनवमी है भगवान श्री राम के जन्म का दिन और सन्मार्ग की स्थापना का शुभ दिन। बड़ा अजीब अवसर है आज का । अब से 9 दिन पहले यानी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को नए संवत्सर की शुरुआत हुई थी। इसी दिन शकों को  पराजित कर विक्रम संवत की शुरुआत की गई । महाराजा विक्रमादित्य  सिंहासन आरोहण किया  और उन्होंने बौद्धिक विजय  की घोषणा करते हुए प्रकृति का सूक्ष्मतम अवलोकन किया।  सूरज ,चांद एवं पूरे सौरमंडल की व्यवस्था के रहस्य को समझा।  मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की कई पीढ़ियों ने इसे महसूस किया और प्रकृति का रहस्य-परिवर्तन विक्रमसम्वत में ही झलकने लगे! अब देखिए प्रकृति के इस उत्सव को बसन्त के नाम से ही जाना जाता है। इसी नव संवत्सर के नौवें दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्म हुआ।  आदिकवि महर्षि वाल्मीकि भाव विभोर होकर गा उठे
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षट् समत्ययु:।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ।।
राम दिव्य शिशु के रूप में जन्मे।  उस तेजस्वी शिशु का तेज आज भी दीपित है। इसी आस्था की रौशनी में  वसुधा का समग्र असह्य विलीन हो जाता है । इसी रहस्य को महाकवि कालिदास ने भी अकेलेपन के अनुभवों में पाया होगा। अभी रामजन्म के दृश्य को महसूस करिए महाकवि कालिदास के साथ-
अथाग्रमहिषी राज्ञ: प्रसूति समये सती।
 पुत्रं तपोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधि:।।
इसी तेज के एहसास ने मनीषियों को आज से 74 वर्ष पहले सन्मार्ग की स्थापना करने को प्रेरित किया ।
वाराणसी से कोलकाता तक गंगा की यात्रा, राम धुन और उसके समानांतर सन्मार्ग। इसका  खुद में बहुत पौराणिक अर्थ और बिंब है। कोलकाता से आगे जाकर सगर पुत्रों का उद्धार करती हुई गंगा सागर में समा जाती है। कह सकते हैं कि भगवान शिव की जटा से मुक्त होकर पावन सलिला गंगा कोलकाता से आगे बढ़ते ही अपना उद्देश्य पूरा कर लेती है । उसी तरह शिव की नगरी वाराणसी से कोलकाता आए सन्मार्ग का अपना एक उद्देश्य है । यहां सवाल है कि रामनवमी के दिन ही क्यों? रामनवमी में राम का नाम जुड़ा है। "राम" रसायन है। एक बार विख्यात मानस मर्मज्ञ डॉक्टर कामिल बुल्के ने बताया था कि राम का "र" अग्नि वाचक है "अ" बीज मंत्र है और "म" ज्ञान है। यह मंत्र पाप को जलाता है और पुण्य को सुरक्षित रखता है । ज्ञान प्रदान करता है। वह ज्ञान जो आज के समाचारों के घटाटोप को भेदकर कर सच की ज्योति दिखाता है। सच को सुरक्षित रखने का हुनर बताता है और तब सत्य की ओर कदम बढ़ाने के लिए शिक्षित करता है।
यहां जरूरी है कि इस दिन हम थोड़ा ठहर कर अतीत का विहंगावलोकन करें और और इस तथ्य की पड़ताल करने की कोशिश करें कि जिन लक्ष्यों को लेकर सन्मार्ग की स्थापना हुई थी उसे किस हद तक हासिल किया जा सका है। उस समय किए गए हमारे फैसले कितने पूरे हो सके हैं । आज के बदलते वक्त में जब झूठ और उत्तेजना का साम्राज्य चारों तरफ है तो हमें इस बात की चिंता है कि क्या आरंभिक काल में हमारे मनीषियों ने जो फैसले किये थे वह सही और तर्कसंगत थे क्या? क्या हम आज की रोशनी में उन फैसलों को बदलकर एक नई दिशा तय कर सकते हैं । यहां यह जरूरी नहीं है कि हम अपने कर्म में कितने कामयाब हो सके बल्कि यह नितांत आवश्यक है जानना कि वे कर्म कितने सच और शुचिता पूर्ण हैं। सन्मार्ग की स्थापना उस काल में हुई जब हमारा समाज आंदोलन के उत्कर्ष पर था और उसका लक्ष्य थी स्वाधीनता। सन्मार्ग की स्थापना जिन मनीषियों ने की उन्होंने लक्ष्य भी तय किया कि वे चिंतन, कर्म और व्यवस्था को उन्हीं मर्यादाओं से जोड़ेंगे जो 200 वर्षों की अंग्रेजी शासन व्यवस्था में दूषित हो चुकी थी। हमारे स्वतंत्र कर्म और चिंतन को जिन वर्जनाओं ने  200 वर्षों तक रोके रखा उन्हें भंग कर एक सांस्कृतिक वातावरण को तैयार करना ।
चिंतन कर्म और व्यवस्था मानव जीवन के 3 पहलू हैं जिन्हें शुचिता की सीमा में आबद्ध करना  जरूरी है । यह भौतिकता का मूलभूत तत्व है। यही 'सत" है । यही "सत" सच्चिदानंद का सृजन करता है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। 
ईसभजनु सारथी सुजाना । बिरति धर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा । बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।।
अगम अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
' कवच अभेद्य बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।' 
लेकिन स्वतंत्रता के बाद हमारी  लोकतांत्रिक संस्थाओं , व्यवस्था  और शिक्षण प्रणाली ने हमारी अध्यात्मिक आस्था और व्यवहारिक कार्यप्रणाली को प्रदूषित कर दिया। यह स्वयं में एक भयदायक दुर्घटना ही नहीं थी बल्कि हमारे सामने एक भारी चुनौती भी थी। वह चुनौती  जो एक सवाल से शुरू होती है कि क्या एक भारतीय होने के नाते हमें अपने देश से कोई लगाव रह गया है। बार - बार सोचते हैं तो  उत्तर एक ही मिलता है -नहीं । क्योंकि हम अब तक  पश्चिम की बौद्धिक गुलामी से मुक्त होने का साहस नहीं कर पाए और ना ही सोचने समझने के चिंतन के अपने औजार विकसित कर पाये। हमारे भीतर एक भारी अभाव पैदा हो गया है और उसे छुपाने के लिए हम आडंबर का रास्ता अपनाते हैं । आज हमारा देश दो तटों के बीच में झूल रहा है। एक तरफ प्रकृति का विनाश और दूसरे छोर पर हमारी स्मृतियां हैं और इन्हें बचाना हमारी चुनौती है। सन्मार्ग की स्थापना करने वाले हमारे मनीषियों ने यही लक्ष्य निश्चित किया। सनमार्ग आज भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कटिबद्ध है । तो सवाल उठता है कि हमने उस लक्ष्य को कहां तक प्राप्त किया है। यहां यह बता देना जरूरी है इस किस्म की प्रतिज्ञा या इस प्रकार के लक्ष्य सभ्यता के  भाव बोध के भीतर ही पूरे किए जा सकते हैं । भारत की भौगोलिक एकता का एक ही सूत्र है , वह है संस्कृतियों और धर्म संप्रदाय को प्रेरित करने वाले देश के सभ्यता बोध को बचाने के लिए देशवासियों में एक जज्बा कायम कर दें। यही आज हमारा लक्ष्य है।
हम यह गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम अपने लाखों पाठकों के भीतर सभ्यता बोध की इस ज्योति को जलाने में बहुत हद तक कामयाब हो गए हैं। जब सन्मार्ग ने पहला सूर्योदय देखा था तो हालात ऐसे नहीं थे। लेकिन हमारे मनीषियों को  भरोसा था  नमोस्तु रामाय..... जैसे मंत्र पर। क्योंकि मंत्र किसी को पुकारने के लिए नहीं अकेले  संधान के लिए निकल पड़ने की प्रेरणा देता है। यहां गौर करने की बात है कि लक्ष्य हमारा साधन है साध्य नहीं। साधन अगर शुचितापूर्ण हो और वह उपलब्ध हो जाए तो साध्य खुद सध जाते हैं। आज हवा में एक अजीब सी चेतावनी और आने वाली आंधी की भनक सुनाई दे रही है। यही हालात उस समय भी थे। आज झूठ को विश्वसनीय   बनाने के लिए उसमें सत्य का कुछ अंश मिलाया जा रहा है और हमारी परंपरागत धार्मिक भावनाओं का शोषण किया जा रहा है। देश के आम आदमी को धर्म से उन्मूलित  कर सांप्रदायिक बनाया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में सच क्या है यह बताने के लिए सन्मार्ग की स्थापना हुई थी। वह आज भी उसी उद्देश्य पर कायम है आप पूछ सकते हैं की आज जबकि सूचना क्रांति के संजाल में सूचना का हर कतरा तैरता हुआ ऊपर आ जाता है ऐसे में सन्मार्ग का क्या उद्देश्य रह गया। लेकिन जिसे हम आज सूचना का संजाल समझ रहे हैं वह दरअसल सूचना के आधुनिक स्वरूप का मायावी धुंध है। सन्मार्ग की स्थापना हुई थी तो हम हमारा समाज आशंका के घने कोहरे में खड़ा था आज समाज सूचना के गहरे धुंध में खड़ा है। सच उस दिन भी ओट में था आज भी नजरों से ओझल है। इसलिए हमारा मानना है कि खबरें अनेक सच्चाई एक
      74 वर्ष पहले जो दीपशिखा प्रज्वलित हुई थी आज भी प्रकाशित है । क्योंकि हमारे सुधि पाठक, विज्ञापनदाता और हितैषी अनवरत अपना स्नेह प्रदान कर रहे हैं । हम इस दीपक को प्रकाशमान रखने के लिए उनके अत्यंत आभारी हैं।
   सखा धर्म मय अस रथ जाके। 
जीतन कहँ ना कतहुं रिपु ताके।।

0 comments: