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Sunday, April 21, 2019

नकली उत्सव

नकली उत्सव

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और आज आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है।  इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस महादेश में कभी भी किसी राजनीतिक गठबंधन या राजनीतिक पार्टी ने 50% बहुमत नहीं पाया है। यहां बहुमत का आशय यह है कि 50% मतदाताओं का वोट उसे मिला नहीं मिला है। कई बार तो पूरे देश के मतदाताओं की संख्या के 30% के आधार पर ही सरकारें बनी हैं। हालांकि, लोकतंत्र अवधारणा सिंधु घाटी सभ्यता से ही आरंभ हुई थी तथा यूनान  एवं रोमवासियों ने इसे एक संस्थान का दर्जा दिया।  अब सवाल है कि क्या भारत एक ऐसा  लोकतंत्र होने का दावा कर सकता है जो पश्चिमी देशों में है? क्या सचमुच यहां लोकतंत्र का उत्सव कुछ चुनिंदा लोगों के नियंत्रण से मुक्त है?
          विश्व बैंक की हाल की रपट के मुताबिक देश की 32.7% आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर करती है और 68.7% आबादी $2 प्रतिदिन पर जीवन बसर करती है। जैसा कि आंकड़े बताते हैं 45% बच्चे और 21%  वयस्क कुपोषण के शिकार हैं। यही नहीं जो नए पढ़े लिखे लोग हैं उनमें से बहुत कम लोग  उस शिक्षा का उपयोग करने में कामयाब हैं जिसे उन्होंने पढ़ा है? नव शिक्षित लोग उन रोजगारों के माध्यम से रोजी-रोटी  जुटा रहे हैं जिसके लिए कम पढ़े लिखे लोग पर्याप्त हैं।कुछ लोग जो ज्यादा पढ़े हैं वह भी छोटे-छोटे कामों में लगे हुए या अपने खानदानी पेशे से जुड़े हुए हैं । विकास उपलब्धियां उनके रोजगार को नहीं बदल सकीं और ना ही जीवन शैली को । तो ऐसे लोग दिलो दिमाग से किस तरह लोकतंत्र के इस उत्सव में शामिल हो सकते हैं इसके बावजूद इस वर्ष मतदान के प्रतिशत आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा हैं।
मिलती नहीं कमीज पावों से पेट ढक लेते हैं
कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए 

अक्सर चुनाव बाहुबल तथा धन बल से प्रभावित होते हैं क्योंकि भारत के बहुसंख्यक लोग ताकतवर लोगों पर निर्भर हैं। वह ताकतवर हस्ती चाहे राजनीतिज्ञ हो, अमीर व्यापारी हो या अफसर हो । ऐसे  आम आदमी की जमात कैसे स्वतंत्र तथा निष्पक्ष होकर मतदान कर सकती है।  हम  अक्सर डरे रहते हैं या डरा कर रखा जाता है । विख्यात समाजशास्त्री रजनी कोठारी के मुताबिक देश में जातियों का राजनीतिकरण या राजनीति का जातीय करण बहुत तेजी से हो रहा है। राजनीतिक नेता जाति के आधार पर अपने मतदाताओं को लुभाते हैं । वैसे में विभिन्न जातियों के नेता ताकतवर राजनीतिज्ञों  के साथ कंधा मिलाकर चलने का गौरव हासिल कर लेते हैं और वह फायदा उठाते हैं जो संविधान के दायरे में रहकर नहीं उठाया जा सकता है। उदाहरण के लिए जातीय नेता अपनी जाति के नौजवानों को आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन में कूद जाते हैं । कहा जाता है वे कमजोर है उन्हें आरक्षण दिया जाए।  कमजोर लोगों का यह जत्था ट्रेन में आग लगा देता है, बसों को फूंक देता है, दुकानें जला देता है, सड़क जाम कर देता है फिर भी वह कमजोर है। सभी राजनीतिक दलों का एक ही फॉर्मूला है कि कुछ मुफ्त में दे कर वोट बटोर लें। चाहे वह रोजगार गारंटी योजना हो या आय गारंटी योजना हो सब का गेम प्लान एक ही है। इन दिनों एक नया गेम प्लान आकार ले रहा है वह दूसरों के या प्रतिद्वंदी के चरित्र पर कीचड़ उछाला जाना और उसे बदनाम किया जाना। इसका सबसे ताजा उदाहरण भारत के प्रधान न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप है। यह आरोप सच है या गलत इस पर कोई बहस नहीं है लेकिन इसकी टाइमिंग अपने आप में इसे संदेहास्पद बना दे रही है। आदर्श आचार संहिता चुनाव की तारीख घोषित किए जाने के दिन से ही लागू हो जाती है और परिणाम निकलने तक कायम रहती है ।  पार्टी उसी के अनुसार अपने वायदे करती है । लेकिन जनता को हर बार मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।  आज चुनाव की गति तथा पिछले चुनावों का अनुभव बताते हैं कि वायदे तोड़ने के लिए ही किए जाते हैं।  ऐसा है तो चुनाव लोकतंत्र का उत्सव कैसे हो सकते हैं?
          ताजा चुनाव में जोर आजमाने वाले उम्मीदवारों का इतिहास देखें तो बहुत निराशा होती है। आजादी के पहले जो लोग राजनीति में भाग लेते थे उनका एक जज्बा था देश की सेवा। आजादी के बाद यह जज्बा बदलता गया। अब राजनीति में जाना अपनी महत्वाकांक्षा तथा स्वार्थ को पूरा करने का एक जरिया बन गया है । आजादी के बाद बहुत भयानक मानसिक परिवर्तन हुआ है। देशभक्त स्वार्थी बन गए हैं। वरना हमारे राजनीतिज्ञ कैसे इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं। क्यों हमारे सांसद और विधायक उन लोगों से ज्यादा लोकप्रिय हैं जो इमानदारी और कठोर मेहनत से जीवन यापन करते हैं? क्या औपनिवेशिकरण ने हमारे देश की अधिकांश जनता को लोभी और भ्रष्ट बना दिया?
         आजादी के बाद से विकास का फल प्रभावशाली लोगों ने ही पाया है और इससे समाज में वर्गीय ध्रुवीकरण हुआ है। एक गरीब आदमी अपनी इमानदारी को प्रदर्शित नहीं कर सकता और अगर करता भी है तो वह बात किसी को मालूम नहीं पड़ती। गरीब अक्सर बेईमानी के चंगुल में फंस जाते हैं या कहें फंसा दिए जाते हैं। क्योंकि वह गरीब हैं और बेकार हैं। ऐसे लोग चुनाव के दौरान पैसे के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ जाते हैं और धीरे धीरे राजनीति के अपराधीकरण के तंत्र बन जाते हैं।  चुनाव के दौरान आतंक फैलाने के काम में आते हैं। कहा जाता है कि लोकतंत्र शासन   की एक पद्धति है जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि व्यवस्था को संचालित करते हैं। यह निर्वाचन आम जनता के मतों से होता है लेकिन भारत जैसे देश में जहां धन, शिक्षा, संस्कृति, रस्मो रिवाज और सामाजिक अवसरों में बहुत बड़ा अंतर है वहां लोकतंत्र विकास का सार्थक उत्प्रेरक कैसे बन सकता है? सवाल है भारत जैसे कम विकसित देश में क्या लोकतंत्र अपने सही अर्थों में कायम रह सकता है?
             वर्तमान लोकतंत्र की अवधारणा हमारे देश में नेहरू के इशारे पर पश्चिम से लाकर रोप दी गई। लोकतंत्र के लिए जरूरी है समाज का शिक्षा उन्मुख होना नाकी संस्कृति उन्मुख । हमारा देश संस्कृति उन्मुख रहा है इसलिए आज संस्कृति को ही मुख्य विभाजन कारी औजार के रूप में उपयोग में लाया जा रहा है। बेलगाम भ्रष्टाचार, धन और  सत्ता का असमान बटवारा, दोषपूर्ण प्रशासन प्रणाली ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश में जो लोकतंत्र लागू किया गया है वह हमारे लिए नहीं है। हाल के आतंकवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद ने देश में लोकतंत्र की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। ऐसी स्थिति में हम इस चुनाव को कैसे लोकतंत्र का महा उत्सव कर सकते हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

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