CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Monday, April 15, 2019

हमारा लोकतंत्र और महिलाओं की हैसियत

हमारा लोकतंत्र और महिलाओं की हैसियत

हमारे देश में महिलाओं को वोट देने का पुरुषों  के बराबर हक है लेकिन नीति निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं की हैसियत क्या है? यह एक बड़ा अजीब विरोधाभास है कि घर हो या बाहर ,चाहे वह संसद हो या कार्यक्षेत्र सब जगह हमारे देश में लैंगिक असमानता की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हुई हैं। बेशक सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने न केवल अपनी उपस्थिति का एहसास कराया है बल्कि बदलाव में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।  चुनाव में लगातार महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है और इस भागीदारी की वजह सरकार में बैठे लोगों द्वारा बनाई गई नीतियों में बदलाव भी आया है ।  महिलाओं ने स्वेच्छा से कदम उठाया है इसे निशब्द क्रांति भी कह सकते हैं। लेकिन इस क्रांति से इस देश में महिलाओं की राजनीतिक हैसियत नहीं बढ़ सकी। आंकड़ों के अनुसार देश के पहले मतदान 1950 के दशक में महिलाओं की मतदान में भागीदारी केवल 38.8 प्रतिशत थी। 60 के दशक में यह 60% हो गई यानी  महिलाओं की भागीदारी में  21 .2% वृद्धि हुई जबकि पुरुषों से भागीदारी केवल 4% बढ़ी। यह भागीदारी लगातार बढ़ती गई। 2004 के आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी में केवल 8.4 प्रतिशत अंतर रह गया और 2014 में यह अंतर सिर्फ 1.8% रह गया। यानी 2014 के मतदान में महिलाओं और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर थी। यही नहीं 2014 में एक नया रिकॉर्ड भी बना कि अरुणाचल, बिहार, मणिपुर ,तमिलनाडु, गोवा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड ,उड़ीसा और पंजाब ऐसे राज्य थे जहां मतदान में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी।
         यहां एक शाश्वत प्रश्न आता है कि इन सब के बावजूद हमारे देश में राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी कम क्यों है? विशेषज्ञ बताते हैं इसकी एक वजह हमारे देश में खराब लैंगिक का अनुपात है।  2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाएं हैं और इस कमी के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओं का पंजीकरण भी कम होता है।  अभी मतदान में महिलाओं की संख्या ना सिर्फ तेजी से बढ़ रही है बल्कि धीरे-धीरे पुरुषों के बराबर होती जा रही है। इस वृद्धि और मतदान में इतना बड़ा हस्तक्षेप करने वाली एक जनसंख्या को राजनीतिक पार्टियां कभी भी वोट बैंक या नीति निर्धारक के रूप में नहीं देखतीं। वोट बैंक नहीं बन पातीं इसलिए उनका कोई समूह अपने हितों को ध्यान में रखकर मतदान नहीं करता।   वे  ज्यादा संगठित नहीं हैं। दूसरी बात महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता थोड़ी कम है और स्वतंत्र सोच का अभाव  है। राजनीतिक पार्टियां इस मनोविज्ञान का फायदा उठाती हैं और उन्हें यह लगता है कि पुरुषों को प्रभावित कर लो तो महिलाओं के वोट खुद ब खुद आ जाएंगे। इसलिए वे अलग से ऐसी कोई तैयारी नहीं करते जिससे यह लगे कि महिलाओं को प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। यद्यपि हालात धीरे-धीरे बदल रहे हैं। बिहार में महिलाओं की मांग पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शराबबंदी जैसा कदम उठाया। समाज वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर सही नेता मिले और सही मसले उठाए जाएं तो महिलाएं वोट बैंक के रूप में बदल सकती हैं। परंतु आज एक सशक्त दूरदर्शी नेताओं का भारी अभाव है और ना ही सही मुद्दे हैं। बेशक महिलाओं के लिए आरक्षण के बाद स्थानीय निकायों में महिलाओं की मौजूदगी बढ़ी है और इसके चलते उनकी राजनीतिक ताकत भी बढ़ी है लेकिन संसद और विधानसभाओं में उनकी संख्या अभी भी कम है । आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी में महिलाओं  का अनुपात 48.1% है जबकि वर्तमान लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व केवल 12.1% है। जिस देश में पुरुषों और महिलाओं के बीच आबादी के घनत्व में 2% से भी कम अंतर है वहीं लोकसभा में प्रतिनिधित्व में चौगुना के आसपास अंतर है। वर्तमान लोकसभा चुनाव में भी इससे बेहतर स्थिति नहीं दिखती। इससे स्पष्ट होता है की बड़ी राजनीतिक पार्टियों में भी महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल करने के लिए बहुत  ज्यादा प्रयास नहीं किया है। दुखद स्थिति तो यह है कि हमारे देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री स्तर तक भी महिलाएं पहुंची हैं लेकिन उन्होंने महिलाओं के भीतर नेतृत्व को विकसित करने का कोई प्रयास नहीं किया । ममता बनर्जी ,जयललिता और मायावती निसंदेह प्रधानमंत्री बनकर कर दिल्ली जाने के प्रयास में हैं, लेकिन महिलाओं की नेता के रूप में इनसे क्या उम्मीद है? ममता बनर्जी की कुछ परियोजनाओं को  अगर छोड़ दें को बाकी महिला नेताओं को महिला केंद्रित नीतियां बनाने और महिलाओं को आगे लाने की कोशिश करते नहीं देखा गया। तमाम पार्टियां महिलाओं को लुभाने की कोशिश तो जरूर करती हैं लेकिन वह यथास्थिति बनाए रखते हुए अपना चुनावी लक्ष्य साधने की ओर ज्यादा ध्यान देती हैं। चाहे वह बिहार में ग्रेजुएट हुई लड़कियों को 25हजार रुपए देने या साइकिल देने योजना हो या फिर कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार की शादी भाग्य योजना हो। इससे यथास्थिति में कोई परिवर्तन होते नहीं देखा गया है। केंद्र में सत्तारूढ भाजपा सरकार को भी तीन तलाक के माध्यम से मुस्लिम वोट बैंक के भीतर से महिला वोट बैंक तोड़ने की कोशिश करते  देखा गया है और यही नहीं उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद उनके नेताओं ने यह बारंबार कहा कि मुस्लिम महिलाओं  ने वोट दिया है।  उज्जवला योजना हो या ई हाट हो सब में महिलाओं को सतही मदद करती नजर आती है सरकार। महिलाओं को इस स्तर पर ताकतवर नहीं बनाया जा रहा है कि वह अपने मसलों पर स्वयं निर्णय ले सकें।
          बंगाल में तृणमूल ने 41% महिलाओं को चुनाव में उम्मीदवार बनाया है इससे एक उम्मीद बनती है। ऐसी ही उम्मीद आरक्षण विधेयक से भी की जा सकती है। अगर यह सब होता है तो उनका असर जरूर दिखाई पड़ेगा। इस बार के मतदान में भी 18 साल की लड़कियों की बड़ी संख्या मतदाताओं के रूप में दिखेगी । हो सकता है यह लड़कियां अपने उम्र के लड़कों से ज्यादा शिक्षित हों। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2016 में लड़कों का स्कूल में नामांकन 74.59 प्रतिशत था जबकि लड़कियों में यह अनुपात 75.8% था । अभी हाल में एक सर्वे के मुताबिक 68% लड़कियों ने कहा है कि महिलाओं को राजनीति में पुरुषों की बराबरी की भूमिका निभानी चाहिए।
           यहां एक सवाल है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को कैसे देखा जाए। क्या इसे आम नागरिकों की भागीदारी के रूप में देखा गया है,यह महिलाओं की भागीदारी मानी जाए । "द सोशियोलॉजिस्ट " पत्रिका में  प्रकाशित शमीक  रवि  के शोध के मुताबिक  "दुनिया भर में महिलाएं  बदलाव को चुनती हैं,  जबकि पुरुष यथा स्थिति को बढ़ावा देते हैं।" भारत में भी महिलाएं बदलाव के एजेंट के रूप में भूमिका निभा रही हैं। वह बिजली ,पानी और सुरक्षा जैसे मसलों पर ज्यादा बात करती हैं और इन्हीं मुद्दों पर वोट भी देती हैं। एक सर्वे के मुताबिक महिलाएं पुरुषों की तुलना में इस बात पर बहुत कम ध्यान देती हैं कि कोई प्रत्याशी किस पार्टी का है । वे प्रत्याशी के पहले रिकॉर्ड को देख कर फैसला करती हैं। इससे साबित होता है कि महिलाओं को निर्णय लेने की भूमिका में शामिल होना जरूरी है।  अगर वह एक मतदाता के रूप में अलग सोचती   हैं तो फैसलों में भी उनकी मानसिकता पुरुषों से अलग होगी हो सकती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, नारी कल्याण और बाल कल्याण जैसे मसलों पर वे ज्यादा उदारवादी ढंग से सोचेंगी। इसलिए नीति निर्माण में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाना समाज के विकास के लिए भी जरूरी है।

0 comments: