पुराना साल गुजर गया आज से नया वर्ष शुरू हो रहा है। गुजरे हुए साल में हमारे बीच कई घटनाएं हुईं कुछ अच्छी और कुछ बुरी भी। कुछ ऐसी भी जिसके बारे में सोच कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं मन भर जाता है और कुछ ऐसी भी जो संकेत देता है कि आने वाले दिनों में हमारा दिन कैसा होने वाला है या कैसा होगा। हम वक़्त के इस आने और जाने से खुद को चिपका हुआ सा महसूस करते हैं। सोमवार की रात देश की इतिहास में एक ऐसी रात के रूप में दर्ज होगी जो कई वर्षों तक अपने निशान कायम रखेगी। पहली बार तीनों सेनाओं के एक प्रमुख की नियुक्ति हुई और इस पद पर जनरल बिपिन रावत को प्रतिष्ठित किया गया। अमेरिका ने उन्हें इस पद के लिए बधाई दी है।
हालांकि इस नियुक्ति के साथ यह नहीं बताया गया की जनरल रावत इस पद पर कितने दिनों तक बने रहेंगे। संशोधित सेना कानून के अंतर्गत हुए जो अवधि तय की गई है वह 65 वर्ष की उम्र पूरी होने तक की है। जनरल रावत मंगलवार को 62 वर्ष के हो रहे हैं। जनरल रावत का मुख्य कार्य थल ,सेना वायु सेना और नौसेना के बीच तालमेल बनाकर सेना के लिए खास करके ऑपरेशनल जरूरतों के लिए शीघ्र फैसला करना होगा। जनरल रावत को एनडीए सरकार द्वारा 2016 में नियुक्त किया गया था वे भारतीय थल सेना के 27 वें जनरल हैं और देश के कई बड़े ऑपरेशन की उन्होंने कमान संभाली है। अब वे सैन्य मामलों में सरकार के प्रधान सलाहकार के रूप में काम करेंगे और तीनों सेना के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने का प्रयास करेंगे। जनरल रावत को भारत सरकार का यह तोहफा उनके रिटायर होने से 1 दिन पहले मिला हाल ही में एक ऐतिहासिक निर्णय के तहत भारतीय कैबिनेट ने 4 सितारा जनरल रैंक में एक चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद सृजित किया। भारतीय सेना के उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मनोज मुकुंद नरवणे। नए सेना प्रमुख बनाए गए। वह जनरल बिपिन रावत का स्थान देंगे लेफ्टिनेंट जनरल नरवणे ने भारतीय सेना के उप प्रमुख का सितंबर में ग्रहण किया था इसके पहले वे सेना की पूर्वी कमान के प्रमुख थे। पूर्वी कमान फिर से लगी भारत की 4000 किलोमीटर लंबी सीमा की निगरानी करता है 37 साल के सेवाकाल में जनरल नरवणे ने सेना के कई दायित्व को संभाला है
बांग्लादेश के युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल सैम मानेकशा को सीडीएस बनाना चाहती थीं। लेकिन नौसेना और वायु सेना की तरफ से काफी विरोध हुआ उनका कहना था कि ऐसा करने से नौसेना और वायु सेना का कद घट जाएगा। हालांकि उनके फील्ड मार्शल बनाए जाने पर सहमति हुई और सीडीएस बनाए जाने का यह मामला रुक गया ।तब उन्हें फील्ड मार्शल ही बनाया गया। उनका कार्यकाल 6 महीने बढ़ाया गया। क्योंकि वह जून 1972 में रिटायर होने वाले थे और जनवरी 1973 में यह रैंक उन्हें दी गई।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीडीएस के पद के सृजन की घोषणा इस वर्ष स्वतंत्र दिवस के मौके पर की थी लेकिन इसके बारे में हां हां ना ना चल रही थी। यह उस दिन साफ हो गया जब जनरल रावत ने सी ए ए के खिलाफ प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाले लोगों की सार्वजनिक आलोचना की और इससे विवाद में घिर गए । लेकिन सरकार की तरफ से इसका कोई भी खंडन नहीं आया। हालांकि जनरल रावत की टिप्पणी पर विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पूर्व सैन्य कर्मियों की तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। इस पद का सृजन मोदी सरकार द्वारा सुरक्षा मामलों के बारे में किए गए वायदों को पूरा करने की दिशा में एक है। यह 21वीं सदी में भारत को एक महाशक्ति बनाने की दिशा में उठाया गया कदम भी है ।
Tuesday, December 31, 2019
देश के पहले तीनों सेना के प्रमुख
Posted by pandeyhariram at 6:11 PM 0 comments
Monday, December 30, 2019
ये एक रोज़ हमारा वजूद डस लेगा
आज 2019 खत्म हो गया। चीखते चिल्लाते विरोध करते एक दूसरे के गुण दोष निकालते- निकालते हवा में जहर उगलते- उगलते हमारी उम्र एक साल और कम हो गई। यह वर्ष पूरी दुनिया में विरोध के वर्ष के रूप में दर्ज होगा। चिली से लेकर हांगकांग तक और हांगकांग से भारत तक सब जगह शासन और कथित अन्याय के खिलाफ आंदोलन चलते रहे। भारत में सीए ए और नागरिकता से जुड़े अन्य स्थानीय मुद्दे ज्यादा प्रगल्भ रहे और एक तरह से कहिए सरकार के खिलाफ चलते रहे। यही हाल दुनिया में सभी जगह था। मसायल चाहे दूसरे हों लेकिन हवा में तनी हुई मुट्ठी में गुस्सा और तेवर एक ही था। कह सकते हैं कि यह वर्ष अच्छा नहीं गुजरा। जहां तक भारत का सवाल है उसका यह प्रदर्शन या प्रदर्शनों का यह सिलसिला अत्यंत घरेलू मामला था और इसे दुनिया में भारत की छवि धूमिल करने या वित्तीय वर्ष में हुई उपलब्धियों को गंवाने की वजह नहीं बनने देना चाहिए। अक्सर किसी सरकार की नीतियों के खिलाफ अगर किसी देश में प्रदर्शन होता है तो दूसरे देश उस पर सामान्य से प्रतिक्रिया करते हैं। वह अपने देश के नागरिकों को उस देश में आने जाने से रोक देते हैं, और अगर जाना ही पड़ा तो अतिरिक्त सतर्कता के साथ जाने की सलाह देते हैं। लेकिन भारत में सीएए के विरुद्ध चल रहे व्यापक प्रदर्शनों का उल्लेख करते हुए खुद जापान के प्रधानमंत्री द्वारा गुवाहाटी की यात्रा रद्द करना सामान्य प्रतिक्रिया नहीं है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे की वह यात्रा पूर्वोत्तर राज्यों के आर्थिक विकास में जापान की भागीदारी को एक संस्थागत रूप देने तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की "लुक ईस्ट" नीति की बहुत खास कड़ी थी और साथ ही चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना के खिलाफ कूटनीतिक प्रयास भी था। हालांकि, भारत और जापान शायद ही इसे स्वीकार करें। यही नहीं ,एक और विदेशी मंत्री ने भी अपनी यात्रा रद्द कर दी। वह विदेशी मंत्री थे बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल मोमिन। उन्होंने भी इस यात्रा को रद्द करने का कारण सीएए के विरुद्ध प्रदर्शन ही बताया । यद्यपि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद को अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामले में भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक ही सूची में डालना पसंद नहीं है। इतना ही नहीं अमेरिकी सरकार ब्रिटेन का राष्ट्र मंडल विभाग और कई अन्य देशों के प्रतिनिधि मंडल ने भी अपनी यात्रा रद्द कर दी। अक्सर देखा गया है कि विदेश नीति के निर्माण पर घरेलू नीतियों का बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन बीत रहे वर्ष में मोदी सरकार ने कई ऐसे फैसले किए जिसका असर भारत की विदेश नीति पर भी पड़ा है।
बीत रहे वर्ष के आरंभ में 14 फरवरी को पुलवामा पर आतंकी हमले के जवाब में भारत ने जो सर्जिकल स्ट्राइक किए और पाकिस्तानी ठिकानों को ध्वस्त किया इसके बाद भारत ने कई देशों में अपने राजनयिक भेजे। उन देशों की सरकारों को विश्वास में लिया कि आतंकवाद बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हालांकि भारतीय विदेश नीति के व्यापक उद्देश्य और चीन को सामरिक रूप से संदेश देने को लेकर ज्यादा चर्चा नहीं रही। शायद सोच समझकर ऐसी अस्पष्टता रखी गई। पाकिस्तान तो पहले से ही चीन का पल्लू थामे हुए है और अब अधिकृत कश्मीर में चीन को रास्ता दे कर उसने साल भर हिन्द महासागर तक चीन के आवागमन के लिए रास्ता दे दिया। एक तरह से पाकिस्तान ने चीन के सामरिक एजेंडे के लिए खुद का उपयोग होने दिया। चीन ने पाकिस्तान के दावे के आधार पर ही पीओके को सीमा वार्ताओं से अलग रखने की चाल चली। बालाकोट हमले के जरिए दिए गए संदेश का उचित स्तर पर प्रेषण हो गया। भारत ने यह संदेश दिया कि वह अधिकृत कश्मीर में किसी तरह के सैनिक जमावड़े या ऐसी किसी गतिविधि को बर्दाश्त नहीं करेगा जो उसकी सुरक्षा के लिए खतरा है। धारा 370 को प्रभावी बनाने के लिए सरकार ने कदम उठाए वह भी भारत की विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में बड़ा प्रभावशाली रहा। भारत ने अपने कूटनीतिक कौशल से चीन -पाकिस्तान गठजोड़ के मंसूबों को व्यर्थ कर दिया। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन को पाकिस्तान जैसे नाकाम राष्ट्र के साथ जोड़कर देखा जाने लगा। चीन ने आनन-फानन में भारत के साथ अपना रवैया बदलने की कोशिश शुरू कर दिया।उसने दुनिया को बताया कि दोनों देश परमाणु शक्ति संपन्न हैं और अपनी -अपनी सीमा में रहना चाहते हैं।
यही कारण था कि एक तरफ चीन का अमरीका के साथ व्यापार युद्ध चल रहा था और दूसरी तरफ चीन ने वु हान शिखर सम्मेलन की अगली कड़ी के रूप में चेन्नई में आयोजित शिखर सम्मेलन में भाग लिया। चीन के विदेश मंत्री वांग ने सीमा विवाद सुलझाने के लिए एक रूपरेखा पेश की। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा विदेश नीति के कुशल संचालन मौर्य काल में निर्मित व्यक्तिगत समीकरणों का प्रतिफल है हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय शक्ति समीकरणों में देशों की आर्थिक हैसियत भी महत्वपूर्ण हो गई है। सी ए ए एनआरसी के खिलाफ जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उसका हमारी अर्थव्यवस्था पर बहुत खराब प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि यह विदेशी संस्थागत निवेशकों और शेष विश्व से भारत के संबंधों पर असर डालेगा लेकिन सरकार की कोशिश होनी चाहिए कि यह आंदोलन उसकी उपलब्धियों को गवाने की वजह ना बने। वर्ना,
ये एक रोज़ हमारा वजूद डस लेगा
उगल रहे हैं जो ये ज़हर हम हवाओं में
Posted by pandeyhariram at 7:11 PM 0 comments
Sunday, December 29, 2019
आज भारत बदल चुका है
अब से कोई आधी सदी पहले 1971 में बांग्लादेश युद्ध में भारत की विजय के उल्लास से भारत का हर नागरिक भरा हुआ था। आखिर हो भी क्यों नहीं ,यह स्पष्ट रूप से पाकिस्तान की पराजय थी। पाकिस्तान का बड़बोलापन खत्म हो चुका था। लेकिन, इसकी पृष्ठभूमि में भारत के कई सूचकांक निराशाजनक थे। 2 वर्षों में उसमें घोर निराशा पैदा हो गई थी। आज हमारे देश की लगभग वही स्थिति है। लेकिन आज का भारत बिल्कुल बदल चुका है और मोदी जी को वैसा कुछ नहीं करना पड़ेगा जो इंदिरा जी ने किया था। आज का भारत भयानक बेरोजगारी से जूझ रहा है पिछले 45 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ था और ऐसा लग रहा है कि हम 1974 का आईना देख रहे हैं । लेकिन तब भी इंदिरा जी की लोकप्रियता घटी नहीं थी। क्योंकि लोगों के सामने विकल्प नहीं था। आर्थिक संकेतकों में गिरावट बेकाबू थी लेकिन राष्ट्रवाद चरम पर था। मुद्रास्फीति को छोड़ दें तो सब कुछ 1974 की तरह नजर आ रहा है और महसूस हो रहा है।। तब एक बहुत ही लोकप्रिय नेता शासनारूढ़ थीं, जिसकी पार्टी में और आम जनता में जिसके अंधभक्त समर्थक भी थे। विपक्ष बिखरा हुआ था। भारत विरोधाभास का देश बन गया था। एक ही पीढ़ी में दो विभिन्न विचारधाराएं चल रही थीं। 1971 के आरंभ में गरीबी हटाओ का लोकलुभावन नारा उभरा। साल खत्म होते-होते इंदिरा जी मां दुर्गा बन गयीं। लेकिन उन्होंने चंद कड़वी सच्चाईयों को आंखों से ओझल कर दिया। देश की अर्थव्यवस्था उनके उन्मादी राष्ट्रीयता के बोझ से चरमरा रही थी कोटा परमिट राज की ज्यादतियों के कारण निवेशक मैदान छोड़कर भाग रहे थे। इस स्थिति ने काली अर्थव्यवस्था को जन्म दिया था जो आज तक हमारे लिए एक अभिशाप बनी हुई है। उसके ऊपर से बांग्लादेश युद्ध का खर्च सिर पर आ पड़ा था।
2014 में यही हालात हुए। दुनिया मुट्ठी में करने के जोश में हम यहां गिरे। 1971 में तमाम विपक्ष को धूल चटा कर हासिल हुई इंदिरा जी की शानदार जीत के नशीले जोश में सब कुछ डूबता गया। खाने की चीज लगातार महंगी होती गयीं और हार कर इंदिरा जी ने राष्ट्रवाद का नारा चलाया। 1974 में परमाणु परीक्षण किया लेकिन इसका जोश बहुत दिनों तक नहीं रहा। 1975 के आखिर में देश पर इमरजेंसी ठोक दी गई ।
आज भी हालात लगभग कुछ वैसे ही है यह समाजशास्त्र का सिद्धांत है कि जब बेरोजगारी बढ़ जाती है और अर्थव्यवस्था में लंबे समय तक गतिरोध बना रहता है तो लोगों में आक्रोश बढ़ता है और उस बढ़े हुए आक्रोश को राष्ट्रवाद के जोश से खत्म नहीं किया जा सकता। इतिहास ने बड़ी सफाई से खुद को दोहराना शुरू कर दिया है। आज भी देश को यह यकीन करा दिया गया है कि भारत के वजूद को पाकिस्तान से खतरा है। कहा जा रहा कि जब से पाकिस्तान बना तब से कोई इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। आखिर में नरेंद्र मोदी निर्णायक फौजी कार्रवाई से इस समस्या को निपटाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही दुनियाभर में भारत की प्रतिष्ठा को बढ़ा रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर नागरिक एक बार यकीन करने लगते हैं तो वह दूसरी पारंपरिक राजनीतिक वफादारियों और समीकरणों को भूल जाते हैं। बाकी का काम अपने आप होने लगता है। जैसे फैल रहा कि पाकिस्तान मुस्लिम मुल्क है, जिहाद के नाम पर आतंकवाद फैला रहा है। पाकिस्तानी जिहादी दुनिया के लिए महामारी हैं। यानी इसमें कटाक्ष यह है की भारत को इस्लाम से खतरा है और इससे मुसलमान अछूते नहीं है। इसलिए हिंदुओं को एकजुट होना होगा। चुनावी गतिविधियों में भारत के आचरण का अगर विश्लेषण करें तो पाएंगे की राष्ट्रवाद ,धर्म और जन कल्याण क्या यह मिक्सचर बेहद नशीला होता है और आर्थिक सुस्ती ,बेरोजगारी इत्यादि जैसी समस्याएं इस नशे में डूबी जाती हैं। भारत में राजनीति चूंकि संस्कृति उन्मुख है इसलिए इसे बदलने में वर्षों लग जाते हैं। लेकिन राजनीति के मौसम बदलते रहते हैं। हालांकि अगर बारीकी से देखें तो 2019 में जो चुनाव हुए थे वहीं से मोदी जी की स्थिति बिगड़ने लगी और जिन लोगों ने वोट दिया था उनमें निराशा भरने के लिए राष्ट्रवादी जोश का इंजेक्शन कारगर नहीं हो पा रहा है। अर्थव्यवस्था को थामने की बजाए धारा 370, राम मंदिर, नागरिकता कानून इत्यादि सामने लाए जा रहे हैं ताकि असल मुद्दा ओट में रहे। एनसीआर, एनपीआर ,सीएए का जो घालमेल है वह आम आदमी की समझ में नहीं आ रहा है और देश के एक वर्ग में गुस्सा बढ़ता जा रहा है। लेकिन आज का भारत वह नहीं है जो 1974 में था। आज का भारत वैश्विक दुनिया में जी रहा है। आज के भारत की संघीय शासन व्यवस्था इंदिरा गांधी के जमाने से ज्यादा मजबूत है। मुख्यमंत्रियों पर हुकुम नहीं चलाया जा सकता। बेशक आज नरेंद्र मोदी तत्कालीन इंदिरा गांधी से ज्यादा ताकतवर हैं लेकिन भारत की बहुत बदल चुका है। अब आगे क्या होगा इसकी भविष्यवाणी करना बेहद जटिल ही नहीं पूरी तरह असंभव भी है।
Posted by pandeyhariram at 8:33 PM 0 comments
Friday, December 27, 2019
सीमा रेखा मत लांघिये जनरल साहब!
भारत के सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने गुरुवार को एक सार्वजनिक समारोह में सी ए ए के विरुद्ध आंदोलन पर टिप्पणी की। उनका ऐसा कहना भारतीय संविधान में विहित सीमा रेखा को लांघने की मानिंद है। भारतीय संविधान में सिविलियन और सैनिक दोनों के लिए एक सीमा रेखा बनी हुई है और उस सीमा रेखा को लांघना सिविलियन या उनकी नागरिक उच्चता के विरुद्ध है। हमारे संविधान में व्यवस्था है कि हमारी सेना किसी भी सत्तारूढ़ दल का औजार नहीं है और ना ही जनता के बीच के किसी आंदोलन में हस्तक्षेप करने की अधिकारी है। इसके लिए उसे सरकार से आदेश लेना होता है। बगैर इसके वह अगर कुछ ऐसा करती है तो वह गलत है। भारत की सेना अब तक गैर राजनीतिक रहती आयी है और उसने स्वेच्छा से संयम बरता है। भारत की सेना लोकतंत्र से बिल्कुल पृथक रहती है और यही इसकी प्रतिष्ठा है। सेना का सबसे पहला अभिव्यक्ति पूर्ण उपयोग बांग्लादेश युद्ध के दौरान इंदिरा जी ने किया था। उन्होंने हेनरी किसिंगर को चाय पर बुलाया था और साथ ही जनरल मानेकशॉ को भी पूरी वर्दी में आने का आदेश दिया था इंदिरा जी के साथ बैठे हेनरी किसिंगर जनरल मानेकशॉ को बावर्दी देख कर चौंक गए। इसी के माध्यम से उन्होंने इशारा कर दिया कि अब सेना मोर्चा संभालेगी। लेकिन तब भी जनरल मानेकशॉ ने अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। वे चाहते तो उस समय के वातावरण को देखते हुए बहुत कुछ कह सकते थे। बिपिन रावत एक ऐसे सेना प्रमुख हैं जिन्होंने पहली बार किसी आंदोलन के बारे में सार्वजनिक तौर पर टिप्पणी की है और चेतावनी भी दी है। जबकि सच यह है कि जनरल साहब को कुछ ही दिनों में रिटायर होना है और उन्होंने ऐसे नाजुक मौके पर इतनी बड़ी बात की है। यहां जनरल साहब की बात सत्तारूढ़ दल की ध्वनि प्रतीत होती है और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंताजनक है। कुछ दिन पहले से हमारी सरकार सीएए के विरुद्ध आंदोलन को अपराध मूलक साबित करने में लगी हुई थी। अब एक फौजी उस पर टिप्पणी कर रहा है। जबकि सच यह है कि यह आंदोलन किसी नेता के बगैर चल रहा है। बेशक इस आंदोलन में हिंसक घटनाएं हुई हैं, तोड़फोड़ हुए हैं ,आगजनी हुई है लेकिन स्पष्ट रूप से इसमें कोई नेता नहीं दिखा है। नौजवान अपना असंतोष जाहिर करने के लिए सड़कों पर एकत्र हो गए और उन्होंने पथराव और तोड़फोड़ आरंभ कर दी। जनरल साहब ने इस आंदोलन पर उंगली उठाते हुए नेतृत्व की व्याख्या की। उन्होंने कहा की " नेता वह नहीं जो देश को गलत दिशा में ले जाए। नेता वह है जो लोगों को सही दिशा दिखाए।" यहां एक प्रश्न है क्या जनरल बिपिन रावत यह बता सकते हैं कि इन आंदोलनों का नेता कौन है? अगर कोई नेता है तो सरकार उससे बात क्यों नहीं कर पा रही है। सरकार उनसे बात नहीं कर पा रही है या कहें कि उसमें वार्ता की क्षमता खत्म हो रही है। वह अपनी इस कमजोरी को छुपाने के लिए पुलिस बल का प्रयोग कर रही है और गिरफ्तारियां कर रही हैं । इंटरनेट बंद कर दिए जा रहे हैं , धारा 144 लगा दी जा रही है। उत्तर प्रदेश में इसका प्रभाव सबसे ज्यादा दिख रहा है।
सेना विशेषज्ञ और अवकाश प्राप्त सेना अधिकारियों का मानना है कि इस तरह के खुल्लम खुल्ला बयान कम से कम जनरल रावत के स्तर के अधिकारी को नहीं देना चाहिए था। यह एक राजनीतिक बहस है और यहां तक कि पाकिस्तान में भी ,जो राजनीति में सेना के हस्तक्षेप के लिए बदनाम है वहां भी , ऐसी बहस नहीं सुनी देखी गई है। वायु सेना के अवकाश प्राप्त वाइस मार्शल कपिल काक ने कहा है कि " सेना को किसी सियासत में नहीं पड़ना चाहिए। खास करके भारतीय सेना जो राजनीति विहीन है। सेना के नेतृत्व को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि भारतीय जनता किसी भी संकट में सेना की ओर ही देखती है।" पूर्व नौसेना अध्यक्ष एडमिरल रामदास ने कहा है की हमारे देश में स्पष्ट नियम हैं कि "हम यानी सैनिक देश के लिए काम करते हैं देश की सेवा करते हैं ना कि राजनीति के लिए काम करते हैं। आज जो सुना गया है वह बिल्कुल गलत है ऐसा किसी भी पद पर रहने वाले अधिकारी को नहीं कहना चाहिए।"
विगत साढ़े 5 वर्षों में भारत ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में बड़ा उग्र तेवर अपनाया है और इस क्रम में सेना को भी शामिल कर लिया है। उसे देवता के बराबर का स्थान दे दिया है। समस्त आलोचकों ,विरोधियों और एक बड़ी आबादी को बाहरी दुश्मन खास करके पाकिस्तान समर्थक पहचान से जोड़ दिया गया है । मोदी सरकार और सेना के बीच का अंतर धुंधला होता गया है। खासकर के राष्ट्रीय सुरक्षा की जवाबदेही के मामले में। भारतीय जनता ने सरकार को नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान के विरुद्ध आक्रामक रणनीति अपनाते देखा है। यह एक तरह से सैन्य रणनीति थी । कश्मीर में धारा 370 हटा दिया गया। राज्य का विशेष दर्जा भी खत्म कर दिया गया। इसके बाद वहां एक अनिश्चित सी हालत है जैसे कहीं तालाबंदी हो गई हो। 2016 में भी जन आंदोलन में आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों का निहत्थे लोगों द्वारा विरोध के मामले में देखा गया। सेना आतंकवादियों और नागरिकों में अंतर नहीं कर रही थी। नोटबंदी से लेकर बालाकोट हमले तक में सेना को किसी न किसी रूप में राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल करते पाया गया है। चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा को मसला बनाया गया। यह एक तरह से सेना का बिंब के रूप में प्रयोग किया जाना था। हमारी वायु सेना के बड़े अफसरों ने राफेल जेट विमानों से सौदे का खुलकर समर्थन किया। उनका काम मूल्यांकन करना, तकनीकी पैकेज को देखना, दीर्घकालीन रखरखाव के पैकेज का आकलन करना इत्यादि था ना कि सौदे का समर्थन करना। इससे सेना की निष्पक्षता को लेकर गंभीर संदेह पैदा हो गया। यहां जिज्ञासा होती है कि क्या हमारी सेना का राजनीतिकरण हो गया है? क्या सेना किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक विचारधारा का औजार हो गई है? यह भारत के लिए बेहद राहत की बात है कि इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर अभी भी हमारी फौज और अराजनीतिक नैतिकता से बंधी हुई है। इसके बावजूद राजनीतिक माहौल बदल गया है और कुछ अधिकारी वह बयान दे रहे हैं जो उन्हें नहीं देना चाहिए। ऐसे में भी राजनीतिक किस्म के बयानों के दोषी बड़े अधिकारियों को सावधान नहीं किया गया बल्कि उनका बचाव किया गया। उनकी पीठ ठोकी गई । लेकिन यह भारत के सौभाग्य की बात है। इसके बावजूद हमारी सेना का राजनीतिकरण नहीं हुआ और अपना स्वार्थ साधने में लगी राजनीतिक जमात इसको अंजाम भी नहीं दे सकी । ऐसी स्थिति का बचाव करने से अच्छा है कि हमारे फौजी आत्म निरीक्षण करें ताकि कोई संकट न पैदा हो जाए।
Posted by pandeyhariram at 5:04 PM 0 comments
Thursday, December 26, 2019
भय और क्रोध से लाभ नहीं होने वाला
सी ए ए ,एनपीआर और एनआरसी और न जाने से कई वाकयों पर इन दिनों देश में बहुत सी जगहों पर या फिर कुछ चुनिंदा जगहों पर प्रदर्शन हो रहे हैं या हो चुके हैं। ऐसा लगता है हमारे देश का सामूहिक मनोविज्ञान आंदोलन प्रदर्शनकारी हो गया है। इसमें नौजवानों की संख्या ज्यादा है। वे यही नौजवान है जो जी जान से पढ़ते हैं और फिर डिग्रियां लेकर रोजगार के लिए घूमते हैं। ऐसा लगता है पूरे देश को कुछ मानसिक थेरेपी की जरूरत है। एक वर्ग ऐसा है जो कहता है इस सरकार ने जो कुछ भी कहा किया वह परम सत्य है। दूसरा वर्ग ऐसा है जिसे सरकार के कहने से कुछ लेना-देना नहीं है। वे इसे झूठ मानते हैं या फिर किसी दूसरे लक्ष्य पर निशाना लगाने की तैयारी मानते हैं। सच क्या है?
भारत में जो पहला अखबार निकला था हिकीज गजट उसका आप्त वाक्य था " वी इनफॉर्म, वी एजुकेट एंड वी रिफॉर्म। " अखबारों के बारे में लोगों में एक आस्था पैदा हो गई। वह इसे सत्य के संधान का साधन समझते थे। बाद में सत्ता ने लोगों को किसी न किसी बात से आतंकित कर या कह सकते हैं भयभीत कर अपनी सत्ता को कायम रखने का एजेंडा बनाया। एजेंडा सेटिंग के इस युग में भय के हथियार से झूठ भी सच बनाया जाने लगा। झूठ को सच बनाने का यह हथकंडा हमारे जीवन में सामान्य रूप से चलने लगा। लेकिन बहुत से लोग हैं जो इसे समझ नहीं पाते हैं। उन्हें अपनी चारों तरफ देखने की जरूरत है? लेकिन क्या देखेंगे हमारे राजनीतिज्ञ हमें गलत जानकारियों से भयभीत कर चुनाव जीतते हैं। वे मीडिया के सहयोग से लोगों के दिमाग में बैठे भय को उभार कर उन्हें आतंकित कर देते हैं । भय स्वार्थी तत्वों के लिए सबसे बड़ा हथियार है। वे आम जनता को कुछ भी कर डालने के लिए तैयार करा देते हैं। विख्यात बट्रेंड रसैल ने कहां है कोई आदमी या दार्शनिक कोई समूह या कोई राष्ट्र तब तक मान्यता पूर्ण ढंग से यह समझदारी से नहीं सोच सकता जबतक वह भय से प्रभावित हैं।
इस भय के प्रभाव से उत्पन्न जो सबसे बड़ा भाव होता है वह है गुस्सा। बेशक यह गुस्सा अल्पकालिक होता है। इस गुस्से का प्रवाह और उसका टिकाऊ पन ही बताता है कि वह कितना ज्यादा था यह केवल क्षणिक था या दीर्घकालिक था। इसकी सबसे बड़ी खराबी यह होती है की इस के जरिए स्थाई परिवर्तन नहीं हो सकता। अभी जो हमारे देश के नागरिकों में गुस्सा दिख रहा है वह परिवर्तन कार्य नहीं है 1979 में मंडल आयोग का गठन हुआ था। विश्वनाथ प्रताप सिंह इस सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट 1990 तक लागू करने की बात की थी। लेकिन इसके खिलाफ लोगों में खासकर छात्रों में गुस्सा भड़क उठा और बड़ी संख्या में छात् एक छात्र ने तो आत्मदाह कर लिया उसके बाद सब कुछ शांत हो गया। कोई बदलाव नहीं लागू हुए । 2010 में अरब स्प्रिंग के नाम से आंदोलन आरंभ हुआ और पूरे मुस्लिम राष्ट्र में सरकार विरोधी आंदोलन शुरू हो गए । शुरू में तो यह माना गया था कि से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएंगे और आम जनता की राजनीति में हिस्सेदारी आरंभ हो जाएगी। लेकिन क्या हुआ ? कुछ भी तो नहीं? 2011 में भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत बडा आंदोलन हुआ इसमें समाज के सभी हिस्सों के लोगों ने भाग लिया। इसके जवाब में सरकार ने लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 बनाया। 2012 में निर्भया कांड के बाद भी ऐसे ही कुछ हुआ। कानून भी बन निर्भया कोष भी तैयार किया गया। लेकिन क्या महिलाओं की सुरक्षा हो सकी। महिलाएं अभी भी अरक्षित हैं। इन सभी घटनाओं में क्या समान था ? ध्यान से देखें तो केवल एक बात ! वह था लोगों का गुस्सा और वह गुस्सा भय के कारण उत्पन्न हुआ था।
इस वर्ष देशभर में नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन हुआ। कमोबेश 24 व्यक्ति मारे गए। प्रदर्शन करने वालों की एक ही मांग थी इस अधिनियम को वापस लिया जाए । लेकिन कुछ नहीं हो रहा है। बेशक कानूनी परिवर्तन जरूरी है लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है लोगों के सोच में बदलाव। लोगों के भीतर व्याप्त डर की समाप्ति। इससे जो सबूत मिलते हैं वह है कि प्रदर्शनकारियों को अपने दिमाग में कुछ पहले से रखना होगा । प्रदर्शन का उद्देश्य भय जनित गुस्सा नहीं होना चाहिए बल्कि इसमें स्थाई रूप से एक ऐसा भाव होना चाहिए जिससे मांगो के बारे में सरकार के कदमों पर नजर रखी जा सके और ऐसा भय से उत्पन्न क्रोध से नहीं हो सकता, बल्कि समझदारी और सुनियोजित आंदोलन से हो सकता है। आज जो कुछ भी हुआ वह कल कोई फल देगा इसकी उम्मीद नहीं है। इस आंदोलन से कोई बदलाव आएगा ऐसी कोई उम्मीद नहीं है, फिर भी कुछ न कुछ करना है यह मानकर ही कदम आगे बढ़ाएं।
Posted by pandeyhariram at 6:12 PM 0 comments
Wednesday, December 25, 2019
एनसीआर के बाद अब एनपीआर
गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार की रात एक साक्षात्कार में कहा कि देश में एनपीआर या राष्ट्रीय जनसंख्या नियम लागू किए जा रहा है इसे लेकर भी गंभीर कंफ्यूजन है जनसंख्या रजिस्टर को लागू करने में लगभग 39 सौ करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसके माध्यम से जन्म की तारीख और जन्म की जगह का पता लगाया जाएगा साथ ही आवेदक के माता पिता की जन्म की तारीख और जन्म स्थान के बारे में भी जानकारी ली जाएगी ।यही नहीं इसके माध्यम से आवेदक का परिचय भी जैसे आधार कार्ड आधार नंबर ,पासपोर्ट नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस ,वोटर कार्ड इत्यादि भी एकत्र किये जाएंगे। सरकार की नजर में सामान्य नागरिक वह है जो किसी जगह में 6 महीने से रह रहा है और अगले 6 महीने तक रहने की इच्छा रखता है। आधार कार्ड, पासपोर्ट ,ड्राइविंग लाइसेंस, वोटर कार्ड इत्यादि के विवरण देना स्वैच्छिक है। दोनों जनगणना की रिपोर्ट भी एनपीआर के माध्यम से एकत्र किये जायेगा। इसके लिए ऐप और एक फॉर्म के माध्यम से जानकारी दी जा सकती है।
मंगलवार की रात अमित शाह ने जो कुछ भी बताया उस में जानकारी कम थी और भ्रम ज्यादा फैला है । जैसे उन्होंने कहा कि नागरिकता संशोधन विधेयक यानी सी ए ए को संसद में पास कर दिया है । इसे असंवैधानिक कहना ग़लत है। लेकिन यहां एक प्रश्न है कि ऐसी मिसाल है जब किसी कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और उस पर उसने रोक लगा दिया है। उदाहरण के लिए देखें संविधान में 4 और 5 जोड़ा गया है जिसके मुताबिक संविधान में जिसके मुताबिक संविधान में किसी तरह के संशोधन को किसी भी तरह से कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती और संशोधन के लिए संसद की शक्ति असीमित होगी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन प्रावधानों को असंवैधानिक करार दे दिया। नागरिकता संशोधन कानून को भी कोर्ट में चुनौती दी गई है और 22 जनवरी 2020 को सुनवाई शुरू होगी अब यहां सवाल उठता है कि यह कानून भारतीय नागरिकों के बारे में नहीं है और ना ही भारत के मुसलमानों के बारे में तब इतनी हाय तौबा क्यों? यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि यह कानून सिर्फ 3 देशों के 6 धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता दिए जाने के बारे में है। नोटबंदी की आपाधापी और परेशानी से डरे हुए लोग नागरिकता की जांच को लेकर भी डरे हुए हैं। क्योंकि अगर 10% मामलों में भी गड़बड़ी हो गई तो भारत के 13 करोड़ लोगों कि जिंदगी मुसीबत में पड़ जाएगी।
इस डर के मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में अमित शाह ने एक नई बात कही। नेशनल पापुलेशन रजिस्टर (एनपीआर ) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) में कोई रिश्ता नहीं है। शाह ने कहा एनपीआर में आम आदमी जो सूचना देंगे उनके आधार पर जानकारियां एकत्रित की जाएंगी। सूचना के आधार के लिए कोई दस्तावेज नहीं मांगा जाएगा हालांकि एनपीआर और जनगणना दोनों अलग-अलग व्यवस्था होगी लेकिन यह भी कंफ्यूजन है कि दोनों अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं । शाह ने कहा पूरे भारत में एनआरसी को लागू करने जैसी कोई बात नहीं है। यह बात 2 दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने भी कही थी। इस पर कैबिनेट और संसद में कोई चर्चा नहीं है। हां अमित शाह ने भी वही बात कही की नागरिकता संशोधन कानून के परिप्रेक्ष्य में एनआरसी को लेकर आम जनता को भड़काया जा रहा है। अमित शाह ने स्पष्ट किया कि नागरिकता संशोधन कानून लोगों की नागरिकता लेने की नहीं देने का कानून है।
लेकिन नागरिकता रजिस्टर भी सुरक्षित नहीं है। क्योंकि यह लोगों के ढेर सारे व्यक्तिगत आंकड़े भी जुटा रहा है जिसमें व्यक्तिगत परिचय का डेटाबेस, वोटर कार्ड, पासपोर्ट और जैसा कि अमित शाह ने कहा सबको एक ही कार्ड में डाल दिया जाएगा। उन्होंने रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया एंड सेंसस के नए कार्यालय के उद्घाटन में साफ कहा था कि यह अलग-अलग व्यवस्था बंद करनी होगी। इस तरह का पहला प्रयास यूपीए के जमाने में हुआ था और इसे गृह मंत्री पी चिदंबरम ने 2009 में आरंभ किया था। उस समय इसमें और आधार में कंफ्यूजन हो गया था। बाद में इसे रोक दिया गया।
भारत जैसे विशाल और विविधता पूर्ण देश में इस तरह के प्रयास अक्सर आतंक पैदा करते हैं और उस आतंक का निहित स्वार्थी तत्व लाभ उठाते हैं। देश में लोगों को बरगला कर हिंसा यह तोड़फोड़ की घटनाओं को अंजाम देते हैं। सरकार को चाहिए कि जल्दी से जल्दी इस तरह के भ्रम और अफवाहों का शमन करने वाली जानकारियां लोगों के बीच पहुंचाएं ताकि ऐसा कुछ ना हो वैसे सरकार का यह कहना अपने आप में आप आश्वस्ति पूर्ण है कि इससे किसी की नागरिकता नहीं जाएगी लेकिन साथ ही उसे ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि लोग इसके बाद भ्रम में ना आएं और हिंसक घटनाओं में लिप्त ना हों।
Posted by pandeyhariram at 4:49 PM 0 comments
Tuesday, December 24, 2019
झारखंड ने भाजपा को किया खंड खंड
2016 और 2017 दो ऐसे साल थे जिसने असेतु हिमाचल भाजपा का प्रसार देखा। लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव बीतते- बीतते इस प्रसार में संकुचन होने लगा और पार्टी महाराष्ट्र से लेकर झारखंड तक अपने कई गठबंधन के साथ पराजित हो गई। लेकिन सभी गठबंधन टूटने या नाकाम होने का कोई एक कारण नहीं है या कहें समान कारण नहीं है। सबके अलग-अलग कारण हैं। जैसे झारखंड में पराजय का मुख्य कारण स्थानीय बनाम बाहरी लोग है। झारखंड वस्तुतः ऐसा आदिवासी बहुल क्षेत्र है जहां शिक्षा का प्रसार तो हुआ लेकिन रोजी रोजगार का नहीं हो सका और कोई भी सरकार जो स्थानिक नहीं है वह यहां ज्यादा प्रभाव नहीं डाल सकती। स्थानीय मुद्दों पर राष्ट्रीय भावात्मक मुद्दे असरदार नहीं होते हैं। यही नहीं आदिवासी समाज में व्यक्तिगत छवि बहुत गंभीर असर डालती है। यहां तक कि नकली या कहें मिलावटी घी या शहद बेचने वालों को भी उस समाज में बिरादरी बाहर होते देखा गया है। ऐसे समाज में रघुवर दास की छवि बहुत अच्छी नहीं थी। भाजपा को जिन इलाकों में कम वोट मिले वे ज्यादा आदिवासी बहुल थे, जैसे पलामू ,दक्षिण छोटानागपुर, संथाल परगना ,उत्तर छोटा नागपुर और कोल्हान। यह ऐसे क्षेत्र हैं जहां सबसे ज्यादा आदिवासी हैं और उनकी व्यक्तिगत मान्यताओं को यहां ज्यादा सम्मान दिया जाता है। यही नहीं, आदिवासी समाज में खास करके कोल बहुल समाज में लोकतंत्र दूसरे तरह का होता है। उसमें जो प्रमुख होता है उसकी हैसियत परिवार के प्रमुख की तरह होती है जिसमें प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब आप परिवार की देखरेख करें। अहंकार का इसमें कोई स्थान नहीं होता। जबकि रघुवर दास की छवि एक अहंकारी नेता की हो गई थी जिसके कारण वहां का समाज उनसे नफरत करने लगा था। दूसरी तरफ सरजू राय की छवि एक दोस्त की बन गई थी वह सभी के साथ बराबर सलूक करते थे। ठीक परिवार के मुखिया की मानिंद मोदी और अमित शाह किसी कारणवश समाज के इस सोच को रेखांकित नहीं कर पाए और रघुवर दास की पीठ ठोकते रहे नतीजा यह हुआ कि उनके विरोधी खेमे की नाराजगी बढ़ती गई और भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके अलावा आदिवासियों के लिए जमीन और उस पर हक प्रमुख होता है। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम तथा संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन का झारखंड के आदिवासियों पर बड़ा ही मानसिक प्रभाव पड़ा। एक तरह से वह नाराज हो गए। हालांकि, यह संशोधन अभी कानून नहीं बन सका है लेकिन आदिवासियों में एक खास तरह का भीत भाव भर गया और इससे संपूर्ण समाज में एक विपरीत संदेश गया। भाजपा यह समझा नहीं सकी कि यह संशोधन आदिवासियों के लिए भलाई वाला है। यही नहीं पिछले वर्ष झारखंड की कई जगहों पर मॉब लिंचिंग के जरिये अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया। वहां भूख के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गई। आंकड़ों के मुताबिक विगत 5 वर्षों में 22 लोगों की भूख के कारण मृत्यु हुई है यह लोगों में एक नेगेटिव सेंटीमेंट को तैयार करने में कामयाब हो सका। क्योंकि झारखंड में ईसाइयों को अल्पसंख्यक मानकर उन पर हमले हुए थे । जबकि ईसाई समुदाय वहां के लोगों को पढ़ाने और विकास का अवसर देता है। विपक्ष ने इस स्थिति का फायदा उठाया और भाजपा न जाने किन कारणों से लोगों को अपनी बात नहीं बता सकी। यही नहीं धर्मांतरण को देखकर भाजपा के नेताओं के सार्वजनिक बयान ने भी वहां के लोगों में गुस्सा भर दिया। क्योंकि ईसाई बनने के बाद ही उन्हें पढ़ने लिखने के अवसर प्राप्त होते हैं झारखंड के बेहतरीन स्कूल कॉलेज तथा अस्पताल ईसाइयों के ही हैं और उनमें इमानदार स्पष्ट दिखती है पिछले 5 वर्षों में झारखंड की बेरोजगारी और अफसरशाही के खिलाफ रघुवर दास की नीतियों में आग में घी का काम किया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड में कई सभाएं की लेकिन उनका असर नहीं हुआ, क्योंकि वह धारा 370 राम मंदिर और नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे मुद्दों पर बातें करते हैं स्थानीय मुद्दों को उन्होंने अभी तक प्रचारित नहीं किया जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने स्थानीय मुद्दों को ही अपने प्रचार का मुद्दा बनाया यही नहीं रघुवर दास की बाहर के आदमी की छवि थी और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने झारखंड के स्थानीय समाज के सेंटीमेंट पर प्रहार किया है ।
आंकड़ों को देखें तो भाजपा और आजसू का गठबंधन टूट गया तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठबंधन विजयी हुआ क्योंकि जहां भूख महत्वपूर्ण है वह हमारे काम नहीं आते। झारखंड की स्थिति ऐसी है जमीन के नीचे सारा खनिज दबा हुआ है यानी सोना दबा हुआ है और ऊपर आदिवासियों के गांव हैं। उस खनिज को वह इस्तेमाल नहीं कर सकते और बाहरी लोगों को खासकर बाहरी कंपनियों को खनिज का ठेका दिया जाता है सबकी आंख के सामने से उनकी दौलत राज्य से बाहर जाती है या उनके घर से बाहर जाती है और उस पर उनका कोई वश नहीं है। कभी इसी के कारण वहां असंतोष भड़का और निहित स्वार्थी तत्वों ने उन भोले-भाले आदिवासियों को जोड़कर नक्सली बना लिया । किसी तरह उन्हें मुख्यधारा में लाया गया लेकिन सरकार यह समझ नहीं पाई कि सरकार हर चीज को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखती है । उसे 5 अरब की अर्थव्यवस्था का सृजन करना है जबकि यहां ग्राम केंद्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हेमंत सोरेन की विजय इसी तथ्य की ओर इशारा करती है।
Posted by pandeyhariram at 7:35 PM 0 comments
Monday, December 23, 2019
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सी ए ए पर आश्वासन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सी ए ए पर आश्वासन
हफ्ते भर से चल रहे आंदोलनों के बरअक्स पहली बार रविवार को रामलीला मैदान में जनता के सामने आए और उन्होंने एनआरसी के बारे में सफाई दी। उन्होंने स्पष्ट रूप से देशभर में एनआरसी लागू करने से अपनी सरकार का बचाव किया और कहा कि मुसलमान जो हमारे धरती पुत्र हैं उन्हें सी ए ए अथवा एनआरसी से डरने की कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा कि सरकार ने देशभर में एनआरसी लागू करने की बात ही अभी तक नहीं की है। उन्होंने इस बात से भी इंकार किया कि देश में कोई यातना केंद्र या कह सकते हैं डिटेंशन सेंटर है और उन्होंने कहा कि कांग्रेस और उसके साथी, कुछ पढ़े-लिखे नक्सल और शहरी नक्सल इस किस्म की अफवाह फैला रहे हैं। बड़ी अजीब बात है। कुछ ही दिन पहले झारखंड चुनाव में एक सभा में प्रधानमंत्री ने कहा था कि जो तोड़फोड़ और आगजनी कर रहे हैं उन्हें उनके कपड़ों से ही पहचाना जा सकता है। रविवार को रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री ने कहा यह बड़ा सुकून देता है कि लोग तिरंगा थामे हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि "नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों के हाथ में जब ईट पत्थर देखता हूं तो मुझे बहुत तकलीफ होती है। लेकिन जब उन्हीं में से कुछ के हाथ में तिरंगा देखता हूं तो सुकून भी मिलता है कि चलो तिरंगे को तो थाम लिया। मुझे उम्मीद है अब जब तिरंगा थाम ही लिया है तो लोग हथियार उठाने वालों, पाकिस्तान से प्रायोजित आतंकवादी हमले करने वालों के खिलाफ भी आवाज उठाएंगे। मैं टुकड़े-टुकड़े गैंग से तो विशेषकर कहना चाहता हूं कि जब तिरंगा थाम लिया है तो मुझे उम्मीद है कि आप नक्सली हमलों के खिलाफ भी बोलेंगे। शहरी नक्सलियों के बारे में भी बोलेंगे।"
प्रधानमंत्री के इस भाषण को चाहे जो अर्थ हैं वह अलग है। पक्ष और विपक्ष के लोग इसकी समीक्षा में लगे हैं। कुछ लोगों का जो कहना है वह सरकार ने जो कहा उससे वह अलग हो रही है। क्योंकि वह डर गई है। जबकि सत्ता पक्ष ने इसके समर्थन में हाथ ऊंचे किए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों पक्षों से देश की जनता जुड़ी हुई है और चाहे आप इसे सरकार के खिलाफ उकसाने वाली कार्रवाई कहें या कांग्रेस तथा उसके सहयोगियों की करतूत या शहरी नक्सलियों की कारस्तानी लेकिन इसमें शक नहीं है प्रधानमंत्री का यह भाषण देश की जनता के बीच एक बहुत बड़ी आश्वस्ति के रूप में सामने आया है। लोगों में जो व्यापक भय था उसमें थोड़ी कमी हुई है। लेकिन यहां एक प्रश्न उठता है कि यह जो विरोध हो रहा है उस विरोध में कौन लोग शामिल हैं। क्या भारतीय मध्यवर्ग फिर सामने आ गया और आंदोलन का झंडा उठा लिया है। मध्यवर्ग हमारे देश का वह समुदाय है जो इनकम टैक्स चुकाता है, जो पढ़ लिखकर बेरोजगारी को झेलता है। मध्यवर्ग की खूबी यह है कि जहां भी सत्ता पर बहस होती है वहां इसकी मौजूदगी होती है। जहां भी भ्रष्टाचार पर बात होती है वहां भी इसकी उपस्थिति होती है। लेकिन बमुश्किल यह समुदाय हमारे राजनीतिक नेताओं के मन में कोई ऊंची जगह पाता है। यह गौर करने वाली स्थिति है कि आखिर वह कौन से हालात हैं जिसे महसूस कर मध्यवर्ग सक्रिय होता है । यह सक्रियता तब होती है जब मिडिल क्लास का गुस्सा उबलता है और यह गुस्सा तब उबलता है जब राजनीतिज्ञ या हमारे नेता इन्हें नजरअंदाज करते हैं। इनकी कोई फिक्र नहीं करते हैं। 1970 का जयप्रकाश आंदोलन या कह सकते हैं जेपी आंदोलन ने पूरे देश को झकझोर दिया और ऐसी स्थिति पैदा कर दी की आपात स्थिति लागू करनी पड़ी। उसके एक दशक के बाद बोफोर्स दलाली का मामला आया और विश्वनाथ प्रताप सिंह हीरो बन गए।
मोदी जी के जनता के बीच में आने का मुख्य कारण भी यही है। वह इस स्थिति को समझते हैं कि नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ जो आंदोलन चल रहा है यह कांग्रेस का मामला नहीं है। यह धीरे-धीरे जन आंदोलन का रूप अपना रहा है। प्रधानमंत्री के आश्वासन ने लोगों के गुस्से पर एक खास किस्म का ठंडा लेप लगाया है और यह बेशक देश हित में है और सार्वजनिक हित में है।
Posted by pandeyhariram at 5:59 PM 0 comments
Sunday, December 22, 2019
एन ए ए को लेकर चल रहा आंदोलन
नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर देशभर में आंदोलन चल रहा है। हर छोटे-बड़े शहर में इसके खिलाफ झंडे उठे हुए हैं। लेकिन आंदोलन करने वालों से यह पूछें कि नागरिकता संशोधन कानून है क्या तो उसमें से बहुत बड़ी संख्या में लोग इसके बारे में कुछ नहीं बता सकेंगे। वह सिर्फ आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन क्यों कर रहे हैं इसकी हकीकत उन्हें मालूम नहीं है। बात यहीं तक हो तब भी गनीमत थी। इस आंदोलन में कई बड़े बुद्धिजीवी भी कूद पड़े हैं और उसमें शामिल लोगों को बरगला रहे हैं। कम से कम बुद्धिजीवियों और छात्रों से यह उम्मीद नहीं थी। इसे देखकर ऐसा लगता है कहीं ना कहीं कोई ऐसी शक्ति है जो उन्हें ऐसा करने के लिए उकसा रही है। जब तक उस छुपी हुई ताकत को गिरेबान से नहीं पकड़ लें तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है। लेकिन चरित्र से साफ पता चलता है लोगों के भीतर व्याप्त गलतफहमियों को दूर करने के लिए भारतीय जनता पार्टी या कहें देश के हर आदमी तक स्पष्ट करने की कोशिश में जुट गई है। इतना ही नहीं लगभग 1100 शिक्षाविद ,बुद्धिजीवी और शोधकर्ताओं ने इस अधिनियम के पक्ष में हस्ताक्षरित बयान जारी किया है, ताकि लोगों में गलतफहमी ना हो और सरकारी संपत्ति का नुकसान ना हो। आंदोलन करने वालों को यह कैसे बताया जाए कि जिस सरकारी संपत्ति का नुकसान वे कर रहे हैं और जिसे करने के लिए उत्तेजित भीड़ में शामिल हैं वह संपत्ति उन्हीं के पैसों से बनी है। इस तरह का अंधानुकरण बड़ा अजीब लगता है। हमारे बुद्धिजीवियों ने इसे लोगों को बताने के लिए जो कदम उठाया है वह सचमुच सराहनीय है। दरअसल यह कानून 31 दिसंबर 2014 के पहले भारत आए अफगानिस्तान ,पाकिस्तान और बांग्लादेश में प्रताड़ित और सताए हुए अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के लिए एक फास्ट ट्रैक व्यवस्था है। इसमें भारतीय अल्पसंख्यकों को कहीं भी परेशान करने की कोई बात नहीं है। शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों और शोधार्थियों द्वारा जारी बयान में साफ कहा गया है कि यह कानून पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए अल्पसंख्यक शरणार्थियों के लिए है। नेहरू लियाकत समझौते के बाद से कई राजनीतिक नेता और राजनीतिक दलों ने पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों, खासकर जो दलित हैं उन्हें, को नागरिकता प्रदान किए जाने की मांग की है। लगभग 1100 बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों ने इसके लिए सरकार को बधाई दी है कि इसने बहुत दिनों से विस्मृत अल्पसंख्यकों के लिए कुछ किया। यही नहीं पूर्वोत्तर के राज्यों की भी पीड़ा सुनी गई और उनका निदान किया गया। उनका कहना है कि हमें यह विश्वास है कि यह अधिनियम भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुरूप है इससे ना देश की नागरिकता की शर्तें बाधित होती है और ना ही उनका उल्लंघन होता है। उल्टे विशेष स्थिति में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भाग कर आए लोगों की पीड़ा पर मरहम लगाता है। समर्थन में उतरे बुद्धिजीवियों का कहना है कि वे इस बात से दुखी हैं कि "घबराहट और डर का अफवाह फैला कर देश में जानबूझकर डर और उन्माद का माहौल बनाया जा रहा है। जिसके कारण हिंसा हो रही है।" इन लोगों ने समाज के हर वर्ग से अपील की है कि "वह संयम बरतें और दुष्प्रचार, सांप्रदायिकता और अराजकता को बढ़ावा देने वाले प्रोपेगेंडा में ना फंसे।"
इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी इस कानून के बारे में लोगों के मन में पैदा हुए भ्रम को दूर करने के लिए अगले 10 दिनों में 1000 छोटी बड़ी रैलियां करेगी। भाजपा महासचिव भूपेंद्र यादव के अनुसार नागरिकता संशोधन कानून पर विपक्ष और प्रमुख रूप से कांग्रेस के माध्यम से भ्रम फैलाया है जा रहा है । उन्होंने कहा है कि विपक्ष द्वारा भ्रम और झूठ की राजनीति की जा रही है और यह रैली इसी का जवाब देने के लिए आयोजित की जा रही है। इसके माध्यम से एक विशेष अभियान चलाया जाएगा और तीन करोड़ से ज्यादा परिवारों से संपर्क किया जाएगा भाजपा का एक कदम निश्चित रूप से सकारात्मक परिणाम लाएगा क्योंकि जो लोग भ्रमित हैं जिन्हें मालूम नहीं है के यह कानून क्या है उनके दिमाग में इसकी स्थिति साफ होगी। वैसे आम जनता में खास करके भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय में इसे लेकर भारी चिंता व्याप्त है और उसे दूर करना समाज तथा सियासत का प्रमुख कर्तव्य है।
Posted by pandeyhariram at 5:38 PM 0 comments
Saturday, December 21, 2019
वर्तमान आंदोलन जोखिम भरा है
आज हमारे देश में जो छात्र आंदोलन चल रहे हैं वह कुल मिलाकर संभवत आपात स्थिति के बाद सबसे बड़ा छात्र आंदोलन है और इसका लक्ष्य और उद्देश्य स्पष्ट है कि भारत ऐसा लोकतंत्र नहीं हो सकता जो भेदभाव पर आधारित हो। यहां पहचान के आधार पर किसी को भी अलग नहीं किया जा सकता या उस पर निशाना नहीं साधा जा सकता। किसी भी आंदोलन के स्वरूप की भविष्यवाणी करना जरा कठिन होता है ।आज जो कुछ भी दिख रहा है वह है कि हम भविष्य की पीढ़ी के लिए कमजोर ढांचे वाला संवैधानिक विरासत, कमजोर संस्थान, अनिश्चित आर्थिक भविष्य जहरीले सार्वजनिक विचार तथा संक्षारक राजनीति छोड़ रहे हैं। हम भविष्य को पूरी कीजिए असुरक्षित और कमजोर नेताओं की जमात सौंप कर जा रहे हैं। इसलिए इस आंदोलन को अपने नारे और अपनी शब्दावली शब्दावली खोजनी होगी, अापने नेता ढूंढने होंगे और अपनी रणनीति तैयार करनी होगी ताकि नैतिक और संस्थानि चुनौतियाओं पुनरुद्धार हो सके। लेकिन कुछ संभावित चुनौतियां हैं जो अतीत के अनुभव खासकर के आपात स्थिति के अनुभवों पर आधारित हैं। फिर इस तरह से कहा जा सकता है कि आज जो संघर्ष है वह बहुत सरल नहीं है। क्योंकि यह लोकतंत्र की सुरक्षा और अधिनायकवाद के मुखालफत करता है इसमें सभी तरह की ताकतें जुड़ी हुई हैं। इसमें दो तरह के युद्ध हैं। पहला सरकारी अधिनायकवाद के खिलाफ और दूसरा समाज को विभाजित करने के प्रयास में जुटे संप्रदायवाद के विरुद्ध। यद्यपि दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों प्रक्रिया सरकार की ओर से ही संचालित की जा रही है लेकिन समाज में यह विरुद्ध उद्देश्यों की तरह दिखाई पड़ते हैं। भाजपा ने कई विधेयक पेश किए, तीन तलाक ,धर्म परिवर्तन विरोधी कानून और नागरिकता संशोधन विधेयक इत्यादि। नागरिकता संशोधन विधेयक जब कानून बन गया यह धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनकर हमारे समक्ष आ गया। इस विषय को देखकर ऐसा लगता है की छद्म वेश बनाकर बहुसंख्यक वाद चुपचाप घुस आया है। यह सामरिक और नैतिक चुनौतियां हमारे सामने खड़े करेगा। सामरिक चुनौती यह है कि एक बार फिर इसके माध्यम से बहुसंख्यक वाद की शिनाख्त मजबूत होगी और नैतिक चुनौती होगी कि धर्मनिरपेक्षता को सभी व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और समानता के रूप में प्रस्तुत करने वाले शब्दों का इजाद करना होगा। हमारी राजनीति में ऐसा अक्सर किया है। इसलिए नागरिकता संशोधन कानून से तब तक दो-दो हाथ नहीं किया जा सकता जब तक यह हमें आश्वस्त ना कर दे कि हमारे समाज में विभाजन नहीं होगा। सरकार को या कह सकते हैं सत्ता को इस संघर्ष में लाभ है। इसे दबाने का सरकार के पास अधिकार है और किसी भी प्रकार की हिंसा इस पर असर नहीं डाल सकती। सरकार या सत्ता सबसे पहले बिना सोचे समझे ताकत का उपयोग करेगी और जो वह कर रही है यदि इससे काम चल गया तो यह इसीसे मुक्ति पा लेगी। लेकिन जब इसका विरोध होगा तो सत्ता उस विरोध को दबाने के नाम पर इसका और ज्यादा उपयोग करेगी।
लेकिन सत्ता के समक्ष यह एक कठिन चुनौती है। क्योंकि अगर एक बार इस ताकत का उपयोग कर दिया गया है तो इससे दो तरफा प्रतिक्रियाएं होंगी और दोनों एक साथ होंगी। पहली प्रतिक्रिया होगी कि इस से छात्र आंदोलन भड़क उठेगा लेकिन साथ ही यह अव्यवस्था की परिकल्पना है। यह संप्रदाय वादी समुदाय को भी इस क्षण का उपयोग करने के लिए मजबूर कर देगी। इससे समाज में एक जटिल समस्या उत्पन्न हो रही है कई जगहों पर यह डर के रूप में भी व्याप गया है कि इससे मताधिकार समाप्त हो जाएगा। कोई भी उम्मीद कायम नहीं रह पाएगी। यह आंदोलन संचालन के विभिन्न स्तरों का युद्ध है साथ ही सूचनाओं के स्तरों का भी युद्ध है। क्योंकि आज के समाज में सूचनाओं के हथियार से भी जंग लड़ी जाती है। 70 के दशक में आर्थिक सुस्ती के पर्दे के पीछे अन्य सामाजिक आंदोलन छिपे लग रहे थे जिसमें लोग जुड़ते थे। उदाहरण के लिए श्रमिक आंदोलन यह आंदोलन सत्ता के विरुद्ध था आज भी जो आंदोलन है वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर संप्रदायवाद के विरोध में है और सूचना तंत्र द्वारा संचालित किया जा रहा है इसका असर हम अपने परिवार के भीतर भी देख सकते हैं।
लेकिन हिंसा से भला नहीं हो सकता इसमें भीतर और बाहर जोखिम अंतर्निहित है।
Posted by pandeyhariram at 7:20 PM 0 comments
Wednesday, December 18, 2019
हिंसा के रूप में सुनाई पड़ने लगी है मंदी की दस्तक
क्रिसमस नजदीक है ऐसे में बड़े शहरों में दुकानें सामानों से पट जाती हैं और देर रात तक उनमें खरीदारों का हुजूम दिखाई पड़ता है। दुकानदारों को वक्त नहीं होता कि वह सामान दिखाएं। लेकिन इस वर्ष लोगों के पास इतनी आय या बिक्री शक्ति नहीं है कि विभिन्न उत्पाद खरीदें। ऐसी स्थिति में एकमात्र रास्ता बचता है लोगों के पास पैसा पहुंचाया जाए। लेकिन, सरकार अभी भी ब्याज दर में कटौती कर रही है। वह चाहती है कि रिजर्व बैंक भी ऐसा ही करे। लेकिन चूंकि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति पर ध्यान रखता है इसलिए वह ऐसा नहीं कर पा रहा है।
उपभोक्ता मूल्य सूचकांक देखते हुए यह कहा जा सकता है केंद्रीय बैंक अपनी जगह सही है और सांख्यिकी तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 29 नवंबर 2019 को 2019 20 वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही के लिए जो आंकड़े जारी किए हैं वह भी सही है। उसने दूसरी तिमाही के लिए जीडीपी 35.9 9 लाख करोड़ रुपए की है जोकि 2018 19 की इसी अवधि में 34.43 लाख करोड़ रुपए थी यह 4.5 वृद्धि दर है जो बीते 6 वर्षों में सबसे नीची है इस आंकड़े के बाद चर्चा है क्या देश में जल्दी ही मंदी का संकट आने वाला है इस वर्ष की दूसरी तिमाही में निवेश की दर पिछले वर्ष की इसी अवधि से 1.0% कम रही।
इस आर्थिक सुस्ती के बीच रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा है कि देश में आर्थिक नरमी के लिए केवल वैश्विक कारण पूरी तरह जिम्मेदार नहीं है। उन्होंने कहा कि रिजर्व बैंक आर्थिक नरमी ,मुद्रास्फीति में वृद्धि, बैंक और एनबीएससी की वित्तीय हालात को दुरुस्त करने के लिए जरूरी कदम उठाएगा उनका कहना है कि अर्थव्यवस्था को देखकर सूचनाओं और आंकड़ों पर के आधार पर चर्चा की जरूरत है शक्ति कांत दास के मुताबिक रिजर्व बैंक ने समझ लिया था कि वृद्धि की रफ्तार कम होने वाली है इसलिए उसने सुस्ती होने के पहले ही फरवरी में रेपो दर में कटौती शुरू कर दी । उन्होंने कहा कि सरकार को भी विनिर्माण क्षेत्र पर ध्यान देना चाहिये। उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से बुनियादी ढांचे पर खर्च पर ध्यान देना चाहिए । केंद्र और राज्य सरकारों के लिए बुनियादी ढांचे पर खर्च जरुरी है ।
इसका स्पष्ट अर्थ है की आर्थिक मंदी कायम रहेगी मध्यमवर्ग की आय कम होने से कर्ज बढ़ता जाएगा और सामाजिक तनाव में काफी वृद्धि होगी। अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी ने अपनी पुस्तक पुअर इकोनॉमिक्स में लिखा है कि समाज में खुशहाली के लिए और सामाजिक सौहार्द के लिए आर्थिक गुणक बहुत आवश्यक हैं। अगर अर्थव्यवस्था या कहें आमदनी कम रहेगी तो तनाव बढ़ेगा और तनाव बढ़ेगा उसके अभिव्यक्ति हिंसा के रूप में दिखाई पड़ेगी अभी जो आर्थिक मंदी दिखाई पड़ रही है इस संकट की जड़े काफी पहले से मौजूद हैं। खराब मानसून के अलावा नौकरियों के गंभीर संकट और नोटबंदी जैसे मोदी सरकार के कुछ गलत कदम ने पूरी अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। इसलिए पिछले कुछ वर्षों से बचत कम और घरेलू देनदारियां बढ़ती गईं। व्यक्तिगत बकाया ऋण 2014 से बढ़ रहे हैं जो उस समय जीडीपी का 9% थे और अब मार्च 2019 में बढ़कर जीडीपी का 11. 7% हो गए। यह कर्जे कैसे हैं इनमें लगभग आधे होम लोन हैं शिक्षा और क्रेडिट कार्ड बकाया ऋण भी हैं। दुनिया में जितनी आर्थिक और संसाधनों की असमानता बढ़ी है, उसमें सबसे ऊंचा स्थान भारत का है। विश्व असमानता रिपोर्ट (वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट 2018) के अनुसार, चीन में 1 प्रतिशत संपन्न लोगों के नियंत्रण में 13.19 प्रतिशत संपदा, जर्मनी में 13 प्रतिशत, फ्रांस में 10.8 प्रतिशत और अमेरिका में 15.7 प्रतिशत संपदा थी; जबकि भारत में 1 प्रतिशत लोगों के नियंत्रण में 22 प्रतिशत संपदा जा चुकी है। यह महज आंकड़ों या अर्थशास्त्र का तकनीकी विषय नहीं है; यह आर्थिक असमानता सामाजिक जीवन पर बहुत गहरा असर डालती है।
यह असर जहां उनके जीवन को ख़त्म भी कर रहा है और जीवन भर के लिए उनकी मानसिक और शारीरिक क्षमताएं भी छीन ले रहा है। जब क्षमताएं छीन ली जाती हैं, तब लोग हिंसा के दुश्चक्र में फंस जाते हैं।भारत के विकास के लिए जिस चरित्र और स्वभाव की आर्थिक नीतियों को अपनाया गया था, वास्तव में उनकी मंशा संपदा को कुछ हाथों में ले जाकर केंद्रित कर देने की थी। उन आर्थिक नीतियों की मंशा संसाधनों और अवसरों के समान वितरण की व्यवस्था बनाने की नहीं थी। हमने विकास की जिस तरह की परिभाषा को अपनाया है, उसका स्वाभाविक परिणाम है बेरोजगारी, खाद्य असुरक्षा, स्वास्थ्य का संकट, शिक्षा में गुणवत्ता का ह्रास और बाज़ारीकरण और चरम आर्थिक गरीबी।
जो तबके सबसे पहले इनकी चपेट में आए, वे चुनौतियों का सामना सबसे पहले करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इससे कुल मिलाकर जो तस्वीर बनती है बहुत डरावनी है।
Posted by pandeyhariram at 5:05 PM 0 comments
Tuesday, December 17, 2019
आंदोलन हो पर हिंसा नहीं
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में
वह सब कहते हैं कि अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा
दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे भी लोग बसते हैं जो इन घटनाओं के बारे में जनता को बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें गालियां सुननी पड़ती है ,उन पर तोहमतें लगाई जाती हैं। कुछ लोग हैं जो हर बात के लिए बिना सोचे समझे सरकार को ही दोषी बता देते हैं। हमारा सहारा समय और सारी ऊर्जा इस दोष लगाने और दोष को खारिज करने में खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर पाते। क्या ऐसा नहीं लगता , अब समय आ गया है कि हम थोड़ा रुकें,सोचें और तब बताएं की हकीकत क्या है और इसमें हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए। हम ऐसी जगह पर आकर खड़े हो गए जहां ऐसा लगता है कि किसी को भी समाज की चिंता में बस हम केवल अपने अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने में लगे हैं। हर पक्ष या तो मोदी के गुणगान करने में लगा है या उसे भला बुरा कहने में। हम लगातार मोदी को स्थापित करने या उसे गद्दी पर से हटाने के बारे में ही सोचते और हर घटना को बारूद की तरह इस्तेमाल करने की सोचते हैं। यहां बात राजनीतिज्ञों की नहीं हो रही है और ना उनके झंडाबरदारों की। यहां बात हमारी और आपकी है जो इस गृह युद्ध में शरीक हैं।
इन घटनाओं में सच गुम हो गया सा लगता है।... और खो गए से लगते हैं वे लोग जो इसके चपेट में आकर या तो मर गए या घायल होकर पड़े हुए हैं। गरीब और किसान हाशिए पर चले गए हैं तथा केवल बहस का मसला भर हैं। यह सुनने में बड़ा असंवेदनशील और कठोर लग रहा है लेकिन जरा सोचें तो हम क्या हो गए हैं।
अगर हमें एक संवेदनशील समाज के रूप में कायम रहना है हमें बदलना होगा यह समय आ गया है। अन्यथा मोदी के जाने के बाद भी हम वही रहेंगे जैसा बन चुके हैं ।अपने समाज के बंटवारे को खत्म पूरा समाज राजनीतिक दल बंदियों में विभाजित हो चुका है । करप्ट व्यापारी बैंकों से रुपया लेकर देश छोड़ देते हैं और गरीब किसान महाजन के कर्ज के डर से खुदकुशी कर लेता है। हम रोज ऐसी घटनाओं के बारे में सुनते हैं अब यह हमारे लिए आम बात हो गई है। अब तो ऐसा लगता है अगर किसी दिन इस तरह की घटना नहीं हुई तो हम आश्चर्यचकित हो जाएंगे। कई लोग इसे मामूली बात कहते हैं कई लोग इसे ईर्ष्यावश वायरल की गई कहानी बताते हैं और कुछ लोग इसे मीडिया का प्रचार बताते हैं। कोई भी घटना घटती है तो कुछ लोग इसे किसी खास राजनीतिक पार्टी की करतूत बताते हैं या फिर यह प्रमाणित करने की कोशिश करते हैं। अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक समाज या मुगल राजा या ब्रिटिश राज अथवा कांग्रेस की देन बताते हैं। वह इन घटनाओं को खारिज कर देते हैं नरेंद्र मोदी कीर्तन करने लगते हैं।
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में
वह सब कहते हैं कि अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा
दूसरी तरफ हमारे समाज में ऐसे भी लोग बसते हैं जो इन घटनाओं के बारे में जनता को बताना चाहते हैं लेकिन उन्हें गालियां सुननी पड़ती है ,उन पर तोहमतें लगाई जाती हैं। कुछ लोग हैं जो हर बात के लिए बिना सोचे समझे सरकार को ही दोषी बता देते हैं। हमारा सहारा समय और सारी ऊर्जा इस दोष लगाने और दोष को खारिज करने में खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा हम कुछ नहीं कर पाते। क्या ऐसा नहीं लगता , अब समय आ गया है कि हम थोड़ा रुकें,सोचें और तब बताएं की हकीकत क्या है और इसमें हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए। हम ऐसी जगह पर आकर खड़े हो गए जहां ऐसा लगता है कि किसी को भी समाज की चिंता में बस हम केवल अपने अपने राजनीतिक एजेंडा को पूरा करने में लगे हैं। हर पक्ष या तो मोदी के गुणगान करने में लगा है या उसे भला बुरा कहने में। हम लगातार मोदी को स्थापित करने या उसे गद्दी पर से हटाने के बारे में ही सोचते और हर घटना को बारूद की तरह इस्तेमाल करने की सोचते हैं। यहां बात राजनीतिज्ञों की नहीं हो रही है और ना उनके झंडाबरदारों की। यहां बात हमारी और आपकी है जो इस गृह युद्ध में शरीक हैं।
इन घटनाओं में सच गुम हो गया सा लगता है।... और खो गए से लगते हैं वे लोग जो इसके चपेट में आकर या तो मर गए या घायल होकर पड़े हुए हैं। गरीब और किसान हाशिए पर चले गए हैं तथा केवल बहस का मसला भर हैं। यह सुनने में बड़ा असंवेदनशील और कठोर लग रहा है लेकिन जरा सोचें तो हम क्या हो गए हैं।
अगर हमें एक संवेदनशील समाज के रूप में कायम रहना है हमें बदलना होगा यह समय आ गया है। अन्यथा मोदी के जाने के बाद भी हम वही रहेंगे जैसा बन चुके हैं ।अपने समाज के बंटवारे को खत्म नहीं कर पाएंगे और ना उन चीजों को मिटा पाएंगे जो इन दिनों घटना के रूप में सामने आ रही है तथा हमें एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान से अलग कर रही है। हम एक इंसान के रूप में उस महापंक में फंसे रहेंगे जिसे इस सरकार ने तैयार किया है।
गजब यह है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं
वह सब के सब परेशान हैं वहां पर क्या हुआ होगा
नहीं कर पाएंगे और ना उन चीजों को मिटा पाएंगे जो इन दिनों घटना के रूप में सामने आ रही है तथा हमें एक इंसान के तौर पर दूसरे इंसान से अलग कर रही है। हम एक इंसान के रूप में उस महापंक में फंसे रहेंगे जिसे इस सरकार ने तैयार किया है।
गजब यह है कि अपनी मौत की आहट सुनते नहीं
वह सब के सब परेशान हैं वहां पर क्या हुआ होगा
Posted by pandeyhariram at 7:59 PM 0 comments
ये क्या हो रहा है इस देश में
मैथिलि शरण गुप्त कि एक कविता है कि ,
हम क्या थे क्या हो गए और क्या होंगे कल
आओ विचारें हम सब बैठ कर
आज हमारे देश की हालत कुछ ऐसी ही विचारणीय हो गयी है. बड़ी – बड़ी और जरूरी बातें आंदोलनों और बलवों के शोर में गुम हो जाती हैं. मिसाल के तौर पर देखें कि पिछले हफ्ते भर से बलात्कार , पीड़िता को जलाए जाने, सी ए ए का व्यापक विरोध और समर्थन वैगेरह के शोर में दब गया कि देश कि असली हालत क्या है? प्याज की कीमतें आकाश छू रहीं हैं, दूध की कीमत बढ़ गयी. यह सारी बातें बता रहीं हैं कि जल्दी ही खाने पीने चीजें महंगी होंगीं. इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है. यह सब देख कर लगता है कि कहीं यह सारे काम पूर्व नियोजित या सोच समझ कर तो नहीं किये जा रहे हैं. कुछ दिन पहले इकोनामिस्ट पत्रिका ने लिखा था कि भारत कि विकास दर गिर कर 5 प्रतिशत पर पहुंच गयी है और स्टैण्डर्ड एंड पूअर ने भारत की साख को भी कम कर दिया है. तत्काल सरकार ने इसका खंडन किया और विकास दर को 6 प्रतिशत बताया. हाल में इसमें संशोधन हुआ और इसे 4.5 प्रतिशत बताया गया.उसी तरह राष्ट्र संघ के आंकड़े में बताया गया कि भारत में कुपोषण कि शिकार लोग सबसे ज्यादा हैं. लगभग उसी समय यह भी खबर आई कि देश के अधिकांश शहरों में पीने के लिए साफ़ पानी नहीं है. इसके थोड़े ही दिनों के बाद बलवे आरम्भ हो गए. प्रशासन मौन है. वैसे भी हमारे देश में प्रशासन कि कोई प्रभावशाली भूमिका नहीं है और इसके साथ ही उसे एक सुविधा मिल जाती है कि वह अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ ले या खुद ब खुद उसकी जिम्मेदारिओं का दायरा सिकुड़ जाय. सकल उत्पाद कि दर 4 प्रतिशत हो 3.5 प्रतिशत उससे उन्हें कोई पार्क नहीं पड़ता और ना ही इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि कुपोषण से 300 बच्चे मरते हैं या 3 लाख. जब कहीं कुछ होता है तो आकड़े का खेल शुरू हो जाता है.सत्तर वर्षों से यही चला आ रहा है और अब इसकी अति हो गयी है. मानव कल्याण पर ध्यान किसी का नहीं है और इसलिए सबका ध्यान स्वनिर्मित स्थितियों पर चला जाता है. हकीकत कि ओर से सबका ध्यान हट रहा है. अब जैसे ताजा उदाहरण नए संशोधित नागरिकता कानून का ही लें. चारों तरफ फसाद हो रहे हैं. यक़ीनन कुछ दिन में सब शांत हो जाएगा और लोग अपने कम में जुट जायेंगे, लेकिन इसे सामान्य हालात समझना सही नहीं होगा. साधारणतया सरकार ऐसा ही समझती है. सी ए ए के सन्दर्भ में भारत का समाज कई हिस्सों में बता हुआ है. जैसे,देश का पूर्वोत्तर भाग कई देशों कि सीमाओं से जुड़ता है और यहाँ कई तरह की संस्कृतियां एक साथ बसती हैं. इसमें सभी में अपनी सांस्कृतिक पहचान की अलग-अलग जिजीविषा है और सब उसे कायम रखना चाहते हैं.अब अगर इसमें धार्मिकता या धर्म को मिला दें हालत और कठिन हो जाती है. इसका नतीजा यह होता है कि ये बाहर से आकर बसने वालों का विरोध करते हैं. अब सी ए ए के परिणाम का ये जो आकलन करते हैं वह बेहद खतरनाक है. यही कारन है कि वहाँ विरोध की लपटें उठने लगीं. अब मोदी जी ने उनकी ने उनकी भाषा और संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का आश्वासन दिया लेकिन तबतक काफी देर हो चुकी थी और बात बिगड़ चुकी थी. असम में इस डर की जड़ें अतीत से जुडी हुई हैं.जब 1874 में असम बंगाल से अलग हुआ तब से असम कि बाशिंदों के भीतर यह डर कायम है.
समय समय पर यह डर सिर उठा लेता है. यही नहीं बंगाल कि हालत कुछ दूसरी है. भारत के विभाजन के समय का खून खराबा अभी भी इतिहास के पन्नों से निकल कर लोगों को डराता है. अब नागरिकता संशोधन क़ानून में जब यह कहा गया कि बहार से आये लोगों कि शिनाख्त होगी तो राजनीति के निहित स्वार्थी तत्वों ने इसका दूसरा अर्थ लगाया और उस अर्थ ने सबको डरा दिया. सबके मन में यह बात आई कि जितने अल्पसंख्यक बाशिंदे हैं सब मुस्लिम हैं और सब उसपार से आये हैं. उन्हें निकाला जाएगा. उधर बांग्लादेश में भी इसकी तीखी प्रतिक्रिया है. बंगलादेश की सरकार का कहना है कि अगर वहाँ कोई बंगलादेशी है तो उसे वापस ले लिया जाएगा, लेकिन हमारे नागरिक के अलावा अगर कोई प्रवेश करता है तो उसे वापस भेज दिया जाएगा.
बंगलादेश सरकार के इस रुख से साफ़ पता चलता है कि कानून का कूटनीतिक असर भी पडेगा. जब यह विधेयक पारित हुआ तो और उसके बाद वहाँ हिंसा आरम्भ हो गयी तो बँगला के वदेश मंत्री और जापान के प्रधान मंत्री ने अपनी भारत यात्रा रद्द कर दी. यह भारत पर तीखा प्रहार था.यही नहीं राष्ट्र संघ के मानवाधिकार परिषद् ने इसके विरोध में बयान जारी किया. यदि विदेशी सरकारें और विदेशी निवेशक अब भारत में कुछ करने के पहले सोचती हैं तो यह भारत के लिए हानिकर होगा. मोदी सरकार एक थ्कत्वर भारत का निर्माण करना चाहती है लेकिन यह इस रह का रोड़ा साबित होगा.
Posted by pandeyhariram at 7:56 PM 0 comments
Friday, December 13, 2019
सीएबी को लेकर पूर्वोत्तर में डर
दिसंबर से पहले पखवाड़े का यह वक्त शुरू से भारत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। अब से कोई 72 वर्ष पूर्व जब भारत आजादी के पायदान पर धीरे-धीरे ऊपर की ओर पढ़ रहा था और आजादी की उम्मीद है बहुत तेजी से बढ़ रही थी उसी वक्त हिंदू और मुसलमान के दंगे हुए। विख्यात साहित्यकार मंटो ने भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को खून की लकीर से बांटी गई जमीन की संज्ञा दी थी। लगभग 48 बरस पहले इसी महीने में बांग्लादेश युद्ध के कारण लाखों लोग अपना घर बार छोड़कर भारत आ रहे थे। उस दौरान पाकिस्तानी फौज के जुल्म और बर्बरता की कहानी इतनी भयानक है कि इसे बयान करने में इतिहास को भी शर्म आ जाए। ऐसे बैकड्राप में लगभग इन्हीं महीनों में भारत में इस साल नागरिकता संशोधन विधेयक ने एक बार फिर समाज की सहिष्णुता को उबलने के लिए मजबूर कर दिया है। पिछले कई दिनों से पूर्वोत्तर भारत उबल रहा है । यह उबाल अपने वजूद , अपनी जमीन की अनिश्चयता से जन्मी पीड़ा की अभिव्यक्ति है। इसमें ऐसे लोग शामिल हैं जो हर 40- 50 वर्षों के बाद अपना घर बार बदलते रहे हैं। एक मुल्क से दूसरे मुल्क जाते रहे हैं और इसी तरह की बेचारगी का शिकार होते रहे हैं। चाहे वह पाकिस्तान हो या बांग्लादेश। हालांकि प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है कि नागरिकता संशोधन विधेयक से पूर्वोत्तर को कोई नुकसान नहीं होगा और उनकी संस्कृति ,विरासत, भाषा तथा परंपरा की रक्षा की जाएगी । यहां एक बड़ा अजीब मुहावरा है और वहीं से डर पैदा हो रहा है। वह मुहावरा है "रक्षा की जाएगी" यानी फिलहाल उसको खतरा है। चाहे वह बड़ा हो या छोटा प्रधानमंत्री ने उसी खतरे की ओर इशारा करते हुए यह आश्वासन दिया है और यह भी बताने की कोशिश की है कि विरोधी दल खासकर कांग्रेस उस क्षेत्र में अफवाहें फैला रही है। लेकिन सरकार ने क्या पूर्वोत्तर के लोगों के मानस का अध्ययन किया है? इस विधेयक से वहां के लोगों के मन की यह अभिव्यक्ति है। उन्हें लग रहा है कि उनकी भाषा और संस्कृति धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। सरकार को इस डर का ध्यान रखना चाहिए था और उसके अनुरूप कदम उठाने चाहिए थे। लेकिन, उसने ऐसा नहीं किया और लोगों के मन में यह बात बैठ गई यह सरकार मनमाने ढंग से सब कुछ कर रही है। यही वजह है कि लोग सड़कों पर उतर गए। यहां के लोगों का यह कदम स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया है । 14 अगस्त 1947 की रात जब भारत आजाद हो रहा था तो जवाहरलाल नेहरू का एक मशहूर भाषण "ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी " हमारे इतिहास का एक अंग बन गया। आज नागरिकता संशोधन विधेयक के बारे में हम कह सकते हैं यह एक नई तरह की डेस्टिनी से हमारा मुकाबला है। शुरुआत में भारत ने लोकतांत्रिक संवैधानिकता के पथ का अनुसरण करने का निश्चय किया था। इससे सबसे पहला अर्थ जो प्राप्त होता था वह था नागरिकता एक अधिकार है और यह अधिकार समानता के सिद्धांतों पर निर्भर है। भारत की राष्ट्रीयता दुनिया के लिए मिसाल बन गई। नागरिकता संशोधन विधेयक जिसे भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव घोषणापत्र में बड़े गर्व के साथ शामिल किया था आज उसी नागरिकता संशोधन विधेयक में पाकिस्तान , बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों , जैन, पारसियों एवं ईसाइयों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का आश्वासन यह साफ स्पष्ट करता है की अन्य किसी समुदाय के लिए इसमें जगह नहीं है। हमारे गृह मंत्री इसे लेकर अत्यंत उत्साहित हैं और वह इससे उत्पन्न होने वाले अलगाववाद के भाव को मानवतावाद चोले से ढकना चाहते हैं। नतीजा यह हुआ समस्त पूर्वोत्तर भारत उबल उठा । इसका कारण है कि भारत का यह क्षेत्र घुसपैठ का सबसे बड़ा शिकार हुआ है। यह जहर केवल भाजपा नहीं फैला रही है बल्कि कई अन्य राजनीतिक दल भी इसमें शामिल हैं। जिन्होंने इसके पक्ष में मतदान किया है। आज नहीं कल यह ताजा हालात भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा जरूर बनेंगे।
Posted by pandeyhariram at 4:59 PM 0 comments
Thursday, December 12, 2019
सी ए बी : मुश्किलें और हैं
एक तरफ राज्यसभा में भी सीएबी यानी नागरिकता संशोधन विधेयक पारित हो गया दूसरी तरफ इस बिल को लेकर पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों में भारी असंतोष दिखाई पड़ रहा है और कुछ लोग इसे सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की बात कर रहे हैं । राजनीतिक गलियारों में यह बात फैलाई जा रही है कि अब देश में अल्पसंख्यक नहीं रहेंगे और अगर रहेंगे तो उनकी हैसियत वैसी नहीं रहेगी जैसी आज है । जबकि गृह मंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि "हम नागरिकता छीनने नहीं देने की कोशिश में हैं।" लंबी बहस के बाद सीएबी बुधवार को राज्यसभा में भी पारित हो गया। इसके पक्ष में 125 और विपक्ष में 105 वोट पड़े। कुल 209 सांसदों ने मतदान में हिस्सा लिया। भाजपा की पुरानी सहयोगी शिवसेना ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। वह वकआउट कर गई। अब इस बिल के कानून बनने के रास्ते साफ हो गए।
बुधवार को इस विधेयक पर चर्चा के दौरान जमकर विरोध हुआ। विरोध के उस माहौल में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि "अगर देश का बंटवारा नहीं हुआ होता तो यह विधेयक कभी नहीं आता। बंटवारे के बाद जो स्थिति उत्पन्न हुई उससे निपटने के लिए या कहें उस से मुकाबले के लिए इस विधेयक को लाना पड़ा। अब से पहले की सरकारें समस्याओं से दो-दो हाथ करने को तैयार नहीं थीं प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हमने ऐसा करने का साहस किया।"
अमित शाह ने जोर देकर कहा कि "हम ईसाई ,हिंदू, सिख ,जैन और पारसी समुदाय को नागरिकता दे रहे हैं। हम किसी की नागरिकता छीन नहीं रहे।" इसके पहले 2015 में भी इस बिल को पेश किया गया था लेकिन लोकसभा में पारित होने के बावजूद राज्यसभा में वह पारित नहीं हो सका। क्योंकि सरकार के पास सदन में बहुमत नहीं था। शाह ने कहा "70 वर्षों तक इस देश को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया था। नरेंद्र मोदी ने सबके साथ न्याय किया है। मोदी जी ने वोट बैंक के लिए कुछ नहीं किया। अमित शाह ने कहा इस बिल का उद्देश्य चुनावी लाभ नहीं है। उन्होंने कहा कि देश का बंटवारा धर्म के नाम पर हुआ और इसी कारण इस विधेयक को पेश करना पड़ा। बकौल अमित शाह नेहरू लियाकत समझौते में अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने की बात है भारत में इस समझौते को लागू किए जाने के बाद उस पर अमल किया गया लेकिन पाकिस्तान में ऐसा नहीं हुआ। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर बेहद जुल्म हुए उन्हें इतना सताया गया कि वह अपना घर बार छोड़कर भाग आए और यदि रहे तो अपना धर्म परिवर्तन करना पड़ा। जबकि भारत में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्पसंख्यक समुदाय से या स्पष्ट करें तो मुसलमान रहे हैं। अब से पहले भी नागरिकता बिल में संशोधन हुआ है। जब श्रीलंका और युगांडा की समस्याएं आईं तो तत्कालीन भारत सरकार ने उसी हिसाब से बिल में संशोधन किया। आज फिर कुछ ऐसी समस्या उत्पन्न हुई है इसलिए कानून में संशोधन करने की जरूरत महसूस की गई है। इसे राजनीतिक नजरिए से नहीं मानवीय नजरिए से देखने की जरूरत है। अमित शाह ने स्पष्ट कहा इस विधेयक को हमारी लोकप्रियता से कोई लेना देना नहीं है हम चुनावी राजनीति अपने दम पर करते हैं।
उधर सोनिया गांधी ने इस विधेयक पर विरोध करते हुए कहा कि यह संविधान का काला दिन है और इसी तरह की संज्ञा से संविधान की इतिहास में इसे याद किया जा सकता है। सोनिया गांधी का कहना है यह कट्टरपंथी सोच वालों की जीत को दिखाता है। यह कुछ ऐसा है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लड़ाई लड़ी थी भारतीय संविधान के नींव के पत्थर के रूप में जाने जाने वाले डॉक्टर अंबेडकर ने भी कहा है कि अगर हमारे पड़ोसी देशों में लोगों को प्रताड़ित किया जाता है तो उन्हें नागरिकता देना हमारा कर्तव्य है। अमित शाह ने इसी बात को उठाते हुए कहा कि हमारे देश में लोकतांत्रिक पद्धति को कभी रोका नहीं गया, सिर्फ इमरजेंसी की अवधि में थोड़ा ऐसा हुआ। उन्होंने अफगानिस्तान , बांग्लादेश और पाकिस्तान के संविधान का हवाला देते हुए इन तीनों देशों का राज धर्म इस्लाम है और यह तीनों देश हमारी भौगोलिक सीमा से जुड़े हैं और इस्लामी हैं । इसलिए अल्पसंख्यक समुदाय वहां हिंदू है और उनपर सारे जुल्म होते होते हैं इसलिए वह भागकर हमारे देश में आते हैं । शाह ने आंकड़े पेश करते हुए कहा कि हमने विगत 5 वर्षों में उपरोक्त 3 देशों के 566 मुसलमानों को भारत की नागरिकता दी है उन तीनों देशों में उन लोगों को नागरिकता दे रहे हैं जो अल्पसंख्यक हैं और धर्म के आधार पर उनको उत्पीड़ित किया जा रहा है विपक्षी दलों में इसे संविधान के समानता के अधिकार के विपरीत बताया और कहा कि सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाएगा।
पूर्वोत्तर भारत में इस विधेयक का जमकर विरोध हो रहा है। जगह जगह छात्रों ने मार्च निकाला है और कई जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। उनका कहना है कि यह संविधान के विपरीत है। छात्रों के प्रदर्शन को देखते हुए वहां अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया है। लोग कह रहे हैं यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है और कोर्ट में इसे निरस्त किया जा सकता है। लेकिन अगर ऐसा होता भी है तो जो व्यक्ति या जिस दल ने इसे कोर्ट में पहुंचाया है उसकी जिम्मेदारी होगी कि वो प्रमाणित करें कि यह संविधान के विपरीत है । इस विधेयक से संविधान के मूलभूत ढांचा नहीं बदला जा सकता है। यह मामूली कानून है जिसके जरिए संविधान का ढांचा बदलना मुश्किल है। इसलिए इस बात को कोर्ट में साबित करना कठिन हो जाएगा कि इससे संविधान का ढांचा बदला है और अब अगर कोर्ट से स्वीकार करता भी है तो हालात थोड़े से बदल सकते हैं । क्योंकि अब यह कोर्ट पर निर्भर करता है कि संविधान के मूलभूत ढांचे को कैसे परिभाषित करता है। अगर इसे कोर्ट में चुनौती दी गई तो देश ही नहीं संपूर्ण विश्व की निगाहें इस पर होंगी । बहुसंख्यक वाद के कारण कई बार संसद गलत कानून बना देती है तो ऐसी स्थिति में अदालत न्यायिक समीक्षा की अपनी ताकत को प्रयोग में लाते हुए इस पर अंकुश लगाती है और संविधान को बचाती है। अब अगर यह मामला कोर्ट में जाता है तो पूरी दुनिया की निगाहें इस पर होगी।
Posted by pandeyhariram at 4:42 PM 0 comments
Wednesday, December 11, 2019
सीएबी पर सकारात्मक नजरिए की जरूरत
नागरिकता संशोधन विधेयक सी ए बी के आलोचकों में बहुत से ऐसे विद्वान भी शामिल हैं जो यह प्रमाणित करना चाह रहे हैं कि यह आइडिया ऑफ इंडिया के खिलाफ है। यह उसके आधारभूत सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन करता है। लेकिन संभवत है ऐसा कुछ नहीं है। दरअसल, नागरिकता संशोधन विधेयक 1955 के नागरिकता कानून में बदलाव को मंजूरी देता है। 1955 का कानून हमारे देश के दुखद बंटवारे और बड़ी तादाद में अलग-अलग धर्मों के मानने वालों फिर पाकिस्तान से भारत आने और भारत से पाकिस्तान जाने के कानून में बदलाव के उद्देश्य से लाया गया था। क्योंकि भारत-पाक के बीच आवागमन से परिस्थितियां भयावह हो रही थीं। जिस समय दोनों देश नहीं बने थे और जनसंख्या की अदला-बदली नहीं हो सकी थी और उसके बाद जब बंटवारा हुआ तो तात्कालिक रूप में भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनाने का फैसला किया गया। लेकिन पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया। किसी धर्म के नाम पर देश को बनाना शायद उस काल में ताजा उदाहरण था। पाकिस्तान के इस कदम से पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के सारे सिद्धांत धरे के धरे रह गए। 1948 में जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान धीरे धीरे धार्मिक राष्ट्र बन गया। वहां रहने वाले गैर मुसलमानों ,खास करके हिंदुओं और ईसाइयों की मुसीबतें आकाश छूने लगीं। पाकिस्तान में गैर मुसलमानों पर जुल्म बढ़ने लगे और उनका वहां से पलायन शुरू हो गया। यह क्रम 1971 में बांग्लादेश बनने तक जारी रहा। पाकिस्तान के हिंदू और ईसाई समुदाय ने भाग कर भारत में शरण ली। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान में गैर मुस्लिम समुदायों की आबादी बुरी तरह कम हो गई । आंकड़े बताते हैं कि उनकी आबादी महज 2% रह गई थी। अपुष्ट आंकड़ों के मुताबिक कहा जाता है कि लगभग 45 लाख हिंदू और सिख पाकिस्तान से भागकर भारत आए थे। इस सूरत में 1955 में नागरिकता कानून में संशोधन की जरूरत महसूस होने लगी। जो पाकिस्तान से छोड़कर भारत को अपना घर बार मान कर आ गए थे वह बिना मुल्क के आदमी हो गए। उनकी अपनी कोई भी गलती नहीं होने के बाद भी वह गैर मुल्की थे । इसी पृष्ठभूमि में "आइडिया ऑफ इंडिया " तैयार हुआ। यह दरअसल एक ऐसे देश की कल्पना है जो धर्मनिरपेक्षता को व्यवहार तथा कर्म और शब्दों में शामिल करता है । यहां हर धर्म के लोग बिना भेदभाव रह सकते हैं ।आहिस्ता आहिस्ता राजनीतिक स्वार्थ ने इस धर्मनिरपेक्षता शब्द को एक गाली बना दी और इसी के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक को तैयार किया गया। इसकी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से भारत आए हिंदू ,बौद्ध ,जैन धर्मावलंबियों को नागरिकता हासिल करने का मौका देता है । मूल नागरिकता कानून में किसी को भी भारत का नागरिक बनने के लिए लगातार 11 वर्षों तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती है नए संशोधन में 11 साल की अवधि को घटाकर 6 साल कर दिया गया है। धार्मिक आधार पर लोगों पर होने वाले जुल्म एक कटु सत्य है। इससे जाहिर होता है कि सीएबी धार्मिक आधार पर होने वाले जुल्मों से बचने के लिए इधर उधर पलायन करने और राजनीतिक उठापटक की वजह से अपना देश छोड़ने को मजबूर हुए लोगों में फर्क करता है । कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं नागरिकता संशोधन विधेयक लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के आतंक की वजह से भारत में आए तमिल शरणार्थी शिविरों में शरण लिए लोगों को कोई राहत नहीं देगा । लेकिन 2008 -9 से पहले के कई दशकों में तमिलों ने भारत में पनाह ली थी। लेकिन उचित तो यह होगा सरकार आगे चलकर इन बारीकियों को भी स्पष्ट करे। नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोधी खास करके राजनीति की रोटी सेंकने वाले लोग यह प्रचार कर रहे हैं कि इस विधेयक के प्रावधान मुस्लिम विरोधी हैं। सरकार को इसके लिए व्यापक स्तर पर जागरूकता अभियान आरंभ करना चाहिए। क्योंकि इस विधेयक में उन करोड़ों मुसलमानों का कोई जिक्र नहीं है जो भारत के नागरिक के तौर पर देश के बाकी नागरिकों की तरह अपने अधिकारों का बराबरी से उपयोग कर रहे हैं। इसे मुस्लिम विरोधी कहने वाला जुमला केवल वोट बैंक की राजनीति है। ताकि देश का माहौल खराब हो। ऐसे में सरकार का यह कर्तव्य बनता है कि वह इस असत्य का फौरन जवाब दे। वरना हालात सांप्रदायिक तनाव में बदल जाएंगे और इसके बाद जो विद्वेष फैलेगा उसे संभालना मुश्किल हो जाएगा। यही नहीं इस विधेयक के खिलाफ यह भी कहा जा रहा है कि यह संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है। संविधान की धारा भारत के सभी नागरिकों को बराबरी का अधिकार देती है। इस विधेयक से स्पष्ट है कि इसके प्रावधान अरुणाचल प्रदेश मिजोरम और नगालैंड पर लागू नहीं होंगे। सवाल उठता है कि इस विधायक का असम में क्यों विरोध हो रहा है, खास करके जो इलाके कृषि प्रधान या चाय बागान वाले हैं । इसकी मुख्य वजह है कि इन इलाकों में बांग्लादेशी घुसपैठियों पर काफी दबाव है । 1971 मैं बांग्लादेश के जन्म के बाद और बांग्लादेश के जन्म से पहले बड़ी तादाद में हिंदू समुदाय के लोग भारत में पनाह ले रहे थे। ऐसे में हिंदुओं को शरणार्थी और मुसलमानों को बाहर का घुसपैठिया माना गया था । हमारे भारतीय राजनेताओं को देश में तेजी से बदलते सामाजिक स्वरूप और उस समाज के भू राजनीतिक समीकरणों में आ रहे परिवर्तनों को ठीक से समझने की जरूरत है। तभी वह लोग नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 को समझ पाएंगे और मानवाधिकार के नजरिए से देख सकेंगे। सबसे जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर भरोसे के माहौल में नागरिकता के व्यापक पहलुओं को देखें ताकि बंटवारे का घाव भर सके। समाज में नया विद्वेष पैदा होने से बचें। आइडिया ऑफ इंडिया का सबसे पहला सिद्धांत है इंडिया को कायम रखना ना कि इंडिया छिन्न-भिन्न कर देना। इसके लिए सकारात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है राजनीतिक स्वार्थ की नहीं।
Posted by pandeyhariram at 4:48 PM 0 comments
Tuesday, December 10, 2019
सीएबी आगे क्या होगा कोई जाने ना
बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित नागरिकता संशोधन विधेयक सोमवार को लोकसभा में पास हो गया। लोकसभा में जब इसे विचारार्थ प्रस्तुत किया गया तो भारी वाद विवाद हुआ। हालात यहां तक पहुंचे एक सदस्य ने तो विधायक की प्रति तक फाड़ डाली। फिर भी इसके पक्ष में 293 मत मिले और विपक्ष में 82 वोट पड़े।
जैसी कि उम्मीद थी पाकिस्तान ने इस विधेयक की आलोचना करते हुए कहा है कि यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार तथा धर्म या आस्था के आधार पर भेदभाव रोकने वाले अंतरराष्ट्रीय नियमों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है। इस बीच पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के एक संगठन मंगलवार की सुबह से 11 घंटे का बंद बुलाया है।
लोकसभा में इस विधेयक को पेश करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिलेगी। विधेयक पर आपत्ति उठाते हुए कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि इसका निशाना देश के अल्पसंख्यक लोगों पर है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5,10 ,14 ,15 की मूल भावना का उल्लंघन करता है। गृहमंत्री ने जवाब में कहा कि यह .001 प्रतिशत भी अल्पसंख्यकों के लिए अभिप्रेत नहीं है। कई राजनीतिक और सामाजिक तबके इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि बांग्लादेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हिंदू ,बौद्ध, जैन ,पारसी, ईसाई और सिख धर्मावलंबी को भारतीय नागरिकता देने का इसमें प्रस्ताव है इसमें मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। संविधान विशेषज्ञों के अनुसार इसके पहले 1955 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया था उसके अनुसार अवैध तरीके से बाहर से आए लोगों जो परिभाषा तय की गई थी, इसके अनुसार इसकी दो श्रेणियां थी, एक वह लोग जो बगैर पासपोर्ट या वीजा के या बिना किसी कागजात के भारत में दाखिल हुए हैं और दूसरे हुए जो सही दस्तावेजों के साथ रहे हैं लेकिन एक तयशुदा अवधि के बाद भी यहां रुके रह गए हैं। इसी में संशोधन किया जा रहा है। बांग्लादेश ,पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले 6 समुदाय के लोगों को अब अवैध या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा । लेकिन इसमें मुसलमान शब्द नहीं है। यानी इन तीनों देशों से जो आए हैं और अगर मुसलमान हैं तो उन्हें घुसपैठिया माना जाएगा। ऐसे लोगों को भारत में नागरिकता अवसर नहीं मिलेगा। इसीलिए राजनीतिक नेता इसे मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभाव वाला बताकर समाज में असंतुलन पैदा करना चाहते हैं।
गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा कि शरणार्थी और घुसपैठिए में फर्क होता है। वे लोग जो किसी जुल्मों सितम के कारण भारत में आए या अपने धर्म की रक्षा के लिए या अपने परिवारों की महिलाओं की रक्षा के लिए भारत में आए वह शरणार्थी हैं और जो लोग गैर कानूनी ढंग से यहां आए वे घुसपैठिया हैं। उन्होंने कहा कि रोहिंग्या को नहीं स्वीकार किया जाएगा मैं इसलिए पूरी तरह से साफ करना चाहता हूं कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर हमारा है और वहां के लोग भी हमारे हैं। आज भी हम उनके लिए जम्मू कश्मीर विधानसभा में 24 सीटें आरक्षित रखे हुए हैं। गृह मंत्री ने कांग्रेस की बात का करारा जवाब दिया और कहा कि यह संविधान की धारा 14 का उल्लंघन नहीं है। 1991 में भारत में हिंदुओं की आबादी 84% थी और 2011 में यह घटकर 79% हो गई 1991 में भारत में मुस्लिमों की आबादी 9.8% थी आज 14.33% हो गई है। हमने कभी भी धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया और ना ही करेंगे।
अब यह विधेयक राज्यसभा में पेश किया जाएगा इसके लिए भाजपा ने सदन में अपने सदस्यों को 10 और 11 दिसंबर के लिए व्हिप जारी किया है।
यह भारतीय नागरिकों के पक्ष में है लेकिन भारत में कुछ लोगों का सुर बदल रहा है। इस विधेयक के समर्थकों को बंटवारे की बात फिर से उठाते सुन रहे हैं। वह बकाया मसलों जैसे जुमले का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे हैं पर गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ न्याय आदि की बात से लगभग साफ साफ संकेत दे रहे हैं कि उनका कहना है कि यह अधिनियम पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों से किए गए वादे को निभाता है। वादा किया था इस पर बहस हो सकती है इसमें कोई संदेह नहीं है। इस देश में मुसलमानों के लिए अपने जिस एक मुल्क पाकिस्तान की कल्पना की गई थी उस के लिए संघर्ष करके हासिल किया था लेकिन इसका मतलब यह नहीं था इसके बाद भारत में उनका घर नहीं रहेगा। यह भी सच है कि मजहब के आधार पर आबादी का बहुत बड़ी संख्या में बदल बदल हुआ जिसमें भारी खून खराबा, कत्लेआम और बलात्कार इत्यादि हुए। पश्चिमी क्षेत्र में यह बदलाव करीब 2 साल में पूरा हो गया। भारत के पंजाब में काफी मुसलमान रह गए तो पाकिस्तान के पंजाब में काफी कम हिंदू बच गए थे। यह सिलसिला 1960 के दशक तक थोड़ा बहुत चला। 1965 के युद्ध के बाद फिर अदला बदली हुई और फिर उसके बाद यह सिलसिला बंद हो गया। लेकिन पूर्वी भारत में इसकी तस्वीर बहुत अलग थी। कई कारणों से पूर्वी पाकिस्तान और भारत के पश्चिम बंगाल, असम एवं त्रिपुरा के बीच ऐसा नहीं हो सकता। बंगाली मुसलमानों की बहुत बड़ी आबादी भारत में रह गयी और हिंदुओं की आबादी तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में रह गई। दंगे फसाद होते रहे और जवाबी अदला बदली भी होती रही। इसे रोकने के लिए नेहरू- लियाकत समझौता हुआ। जिसमें काफी स्पष्टता और विस्तार से कई शर्ते जोड़ी गयी थीं। भाजपा का आज यह कहना है कि बंटवारे के एक बकाया मसले का यह नया विधायक जवाब है। इसका मुख्य कारण है कि पाकिस्तान ने नेहरू - लियाकत समझौते में अपने वायदे को नहीं निभाया। यहीं से हमारा सामना इतिहास की जटिलताओं से होने लगा। विख्यात इतिहासकार सी एच फिलिप्स ने अपनी किताब "पार्टीशन ऑफ इंडिया" में इस जटिलता की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार पहली जटिलता थी कि भारत के संस्थापकों ने जो धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बनाना चाहा उसमें जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं थी और दूसरी कि पुराने इतिहास के अंत और नए इतिहास की शुरुआत की रेखा कहां मानी जाए, तीसरे क्या राष्ट्रीय और स्थानीय पर्याय हैं ,क्या धर्म में और जातीयता तथा भाषा में फर्क नहीं है। लेकिन पूरब की हालत कुछ दूसरी थी। असम की आबादी घनी नहीं थी 20 वीं सदी की शुरुआत में पूर्वी बंगाल से बहुत बड़ी संख्या में लोग यहां आए वे मूलतः आजीविका की तलाश में आए थे । 1931 में असम में जनगणना करने वाले अंग्रेज अधिकारी सीएम मुल्लन ने पहली बार उनके लिए "घुसपैठ" शब्द का प्रयोग किया। मुल्लन ने लिखा यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है जो असम के भविष्य और असमी संस्कृति सभ्यता को हमेशा के लिए बदल सकती है। 1947 के पहले मुसलमान तो रह गए लेकिन इसके बाद प्रताड़ित हिंदू यहां आने लग गए। पूरे क्षेत्र में जातीय संतुलन बिगड़ गया और यही वजह है कि सीएबी असम की चिंताओं को दूर करने में नाकाम है। यहां प्रमुख चिंता धर्म को लेकर नहीं है बल्कि जातीयता, संस्कृति और राजनीतिक सत्ता को लेकर है। आर एस एस ने और भाजपा में विगत 3 दशकों में इसे बदलने की कोशिश की लेकिन कुछ हो नहीं पाया, क्योंकि ज्यादातर मुसलमान आजादी के पहले के लोग हैं। उन्हें नागरिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। बंगाली हिंदू हाल के हैं यही वजह है कि एनआरसी के तहत जिन 19 लाख लोगों को खारिज किया गया है उनमें ज्यादातर या कह सकते हैं 60% के आसपास गैर मुस्लिम हैं। यहीं आकर भाजपा एक विरोधाभास में फंस जाती है। इंदिरा- मुजीब समझौते के अनुसार 23 मार्च 1971 को कटऑफ तारीख तय किया गया था लेकिन इस तारीख को अगर सामने रखें तो ज्यादा हिंदू फंसते हैं तो फिर कितना पीछे जाएं । भाजपा इसे ताजा सीएबी के जरिए हल करने की कोशिश कर रही है। असम वाले से मानेंगे नहीं। भाजपा को भी पता है कि सीएबी और इसके साथ एनआरसी के विचार शुरू से ही व्यर्थ हैं लेकिन कुछ तो करना होगा! इसका विरोध जरूर होगा। जो इसका विरोध करेंगे उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाकर राजनीतिक लाभ तो मिल ही जाएगा बस यही पर्याप्त है।
Posted by pandeyhariram at 7:02 PM 0 comments
Monday, December 9, 2019
क्या हम सचमुच गुस्से में हैं?
विगत कुछ दिनों से, फर्ज कर लीजिए, हफ्ते भर से ज्यादा वक्त होगा देश में महिलाओं के खिलाफ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जो बेशक दहला देने वाली थी और हम उसे देख कर सबसे ज्यादा आक्रोशित भी हुए। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ, या आगे क्या होगा?
रविवार को सिवान जंक्शन पर सरेआम एक महिला को किसी ने गोली मार दी वहीं उसकी मृत्यु हो गई उसके साथ की महिला शायद उसकी मां थी चीखती चिल्लाती रही कोई उसकी मदद के लिए सामने नहीं आया सब वीडियो बनाने में मशगूल थे। 2 दिन पहले का हमारा आक्रोश इस तरह दिखाई पड़ रहा था कोई मददगार नहीं था एक बेबस महिला प्लेटफार्म पर चीख रही थी और सामने पड़ी थी एक लहूलुहान लाश। क्या यही हमारा आक्रोश है? आगे क्या होगा कोई नहीं जानता।
2012 में निर्भया कांड हुआ था। कई दिनों तक मोमबत्तियां जलाई गई थीं, धरने हुए थे, नारे लगे थे । ऐसा लग रहा था सब कुछ बदल जाएगा लेकिन इन 7 वर्षों में कुछ नहीं बदला। अब इन घटनाओं को लेकर भी ऐसा ही महसूस हो रहा है। लेकिन क्या बदलेगा यह कोई ठीक से नहीं जानता।
अगर अपराध के रिकॉर्ड देखेंगे तो उत्तर प्रदेश महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगह है।देश में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य में महिलाओं के प्रति सबसे ज्यादा अपराध हुए हैं। 2011 की गणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में महिलाओं की संख्या 9 करोड़ 53 लाख है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि इस राज्य में 1 वर्ष में महिलाओं के साथ हिंसा के 56000 वाकये हुए। पुराना रिकॉर्ड अगर देखें तो 2015 में महिलाओं के साथ 35908 ,2016 में 49262 घटनाएं हुईं जो 2017 में बढ़कर 56000 हो गईं। उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा नंबर है महाराष्ट्र का। वैसे अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2017 के आंकड़े बताते हैं कि देशभर में महिलाओं के साथ हिंसा और अपराध की घटनाएं बढ़ी हैं। उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल राजस्थान कुछ ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा अपराध हुए हैं। उन्नाव कांड की रोशनी में देखें तो ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। पूरे देश में उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रांत है जहां पूरी घटनाओं का 15.6 प्रतिशत महिलाओं के प्रति हैं इसके बाद महाराष्ट्र 8.9 प्रतिशत और मध्य प्रदेश 8.3 प्रतिशत है।
हैदराबाद से लेकर उन्नाव तक की घटनाओं से पूरा देश का आक्रोश अखबारों की खबरें और टीवी चैनलों के समाचारों मैं दिख रहा है और वह समस्त दृश्य और श्रव्य वर्णन इस बात के गवाह हैं कि पूरा देश बहुत आक्रोश में है लेकिन यह क्लीव आक्रोश क्या कर सकता है? क्या इसका कोई सकारात्मक नतीजा निकलेगा? यहां एक सवाल उठता है कि क्या सचमुच हम आक्रोशित हैं और अगर आक्रोशित हैं इसका असर क्या होगा? यह आक्रोश कितने दिनों तक टिकेगा? ऐसा इसलिए पूछा जा रहा है की आक्रोश के पीछे कई बार राजनीतिक एजेंडे का स्वरूप भी दिखाई पड़ता है। कुछ लोग इस गुस्से में मजहबी एंगल भी ढूंढ लेते हैं । थोड़े-थोड़े थोड़े दिनों के बाद देश ऐसे ही कुछ कांडों पर जान समुदाय आक्रोशित होता है और उसके बाद सब कुछ शांत हो जाता है। ऐसा नहीं लगता है कि आक्रोश जाहिर करने के पहले हमें अपनी जागृत संवेदना के साथ कुछ ठोस करना होगा? यद्यपि, क्रोध प्रकट करना कोई गलत नहीं है क्योंकि एक आम आदमी इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है। लेकिन हमें वास्तव में इसके समाधान के लिए इसके कारणों को समझना होगा।
हैदराबाद के दर्दनाक कांड के बाद राज्य कृषि मंत्री की एक बड़ी हास्यास्पद टिप्पणी आती है कि "बेहतर होता , पीड़िता अपने बहन को फोन करने की बजाय पुलिस को फोन करती। " जबकि हकीकत यह है कि थानों में भी महिलाओं के साथ यौन अपराध की घटनाएं सुनी गई हैं । राजस्थान के थाने के भीतर का कांड अभी बहुत ज्यादा पुराना नहीं है। रुकैया की चीखें अभी भी कानों में गूंज रही है। जो लोग कठोर कानून ,न्यायपालिका और सरकार को ही इनका समाधान मानते हैं। वह शायद विषय की गंभीरता को समझे बिना फौरी तौर पर अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं। कानून का भय निश्चित ही समाज में जरूरी है। ऐसी आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस को बहुत जल्दी अपनी जांच पूरी करनी चाहिए और समस्त रिपोर्ट जल्द से जल्द कोर्ट के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। जल्द से जल्द इसकी सुनवाई होनी चाहिए और इस पर इंसाफ हो जाना चाहिए। अपराधी को दंड आनन-फानन में मिलना चाहिए। यकीनन इससे अपराधियों में कानून का भय बनेगा और अपराध कम होंगे। लेकिन इन सब बातों में क्या हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं या हम उस उत्तरदायित्व को तय करते हैं कि कठोर कानून बेहतर पुलिसिंग और त्वरित न्याय व्यवस्था का निश्चित ही असर होगा। लेकिन जब तक इन पर कोई सामाजिक प्रक्रिया नहीं होगी इसके प्रभाव नहीं पड़ेंगे। ऐसे में अपराध से निपटने के लिए केवल सरकार, राजनीति, पुलिस और न्यायपालिका पर ही सारी जिम्मेदारी छोड़कर केवल कोरा आक्रोश व्यक्त किया जाए। उससे ज्यादा अच्छा तो होगा कुछ सकारात्मक सुझाव राजनीतिक दलों ,सामाजिक संगठनों, अध्यात्मिक धार्मिक संगठनों ,शैक्षिक संस्थाओं और समाज के बुद्धिजीवी वर्गों को पहल करनी चाहिए। यही नहीं, ऐसे अपराधियों की मनोदशा का कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा शोध किए जाने की आवश्यकता है। शहरों में तो पास पड़ोस के लोग आपस में परिचित तक नहीं होते। उसमें सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव हो सकती है। कानून के भय से बड़ा समाज का होता है । समाज ने खुद ही इस भय को दूर कर दिया। वस्तुतः बलात्कार की शिकार अधिकांश खरगोन के भीतर लोक लज्जा के परदे में दबी रह जाती है और दरिंदों का क्रूर है अट्टहास जारी रहता है इस पर लगाम लगाना जरूरी है।
Posted by pandeyhariram at 5:09 PM 0 comments
Sunday, December 8, 2019
न्याय जरूरी है बदला नहीं
हैदराबाद मुठभेड़ के बाद बलात्कार पीड़िता के परिजन और आम जनता में बहुत से लोग इस पर खुशी से तालियां बजाते नजर आए के कि बलात्कारियों को मार डाला गया। कुछ लोगों ने पुलिस के समर्थन में जुलूस भी निकाले। टीवी और सोशल मीडिया में पुलिस कार्रवाई के समर्थन में6 बयानात भरे थे। हालांकि इस तरह के जवाब कभी भी कार्रवाई की वैधानिकता को उचित नहीं बता सकते और ना प्रमाणित कर सकते हैं । यह कानून के प्रति हमारे अविश्वास का एक उदाहरण है। हमारी संसद में लिंचिंग पर बहस होती है उनके बारे में दलीलें दी जाती हैं ऐसा लगता है की इनका इरादा कानून बनाने का नहीं कानून तोड़ने का है। बेशक बलात्कार एक गंभीर तथा अत्यंत घृणित अपराध है और इस तरह के अपराधियों से तुरंत तथा कड़ाई से निपटने की जरूरत है। ऐसा होता नहीं है और यह नहीं होना हमारी पुलिस व्यवस्था तथा न्याय व्यवस्था का एक दुखद अध्याय हैं । ऐसे मामलों को जल्दी निपटाने के लिए पुलिस को प्रभावशाली ढंग से तथा तीव्रता से जांच करनी चाहिए। न्याय व्यवस्था में इसे फास्ट ट्रैक कोर्ट से निपटाया जाना चाहिए और जल्दी से जल्दी सजा मिलनी चाहिए। जब तक लोगों के मन में घटना की तस्वीर रहेगी उसके पहले अगर सजा मिल जाती है तो यह हमेशा याद रहती है। सार्वजनिक सोच से घटना के बिंबो या प्रतीकों के धुंधला जाने से सजा का मोल कम हो जाता है। दुर्भाग्यजनक है कि निर्भया कमेटी की अनुशंसाओं को अभी तक लागू नहीं किया जा सका। जबकि घटना के 7 वर्ष हुए ।सरकार ने इस मामले में खर्च के लिए एक सौ करोड़ रुपयों का आवंटन किया है। इनमें से अधिकांश राशि निर्भया कोष में मिले धाम से एकत्र की गई है। अभियुक्तों को इस तरह के मुठभेड़ों में मार दिया जाना न्याय पूर्ण नहीं है। मुठभेड़ कभी भी सामान्य नहीं होते। इस तरह के न्याय आमतौर पर सशक्तिकरण के विरुद्ध होते हैं। यह कानून से अलग मारा जाना और इसके लिए जनमत तैयार करके एक तंत्र को विकसित करना एक तरह से से पुलिस और उच्च वर्गीय मानसिकता है। इससे सबसे बड़ी गड़बड़ी यह होती है की समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस की मानसिकता पनपने लगती है और लोग कानून को अपना काम करने से रोक देते हैं। उत्तर प्रदेश में एक विधायक पर इसी तरह बलात्कार का मुकदमा हुआ और वह केवल जन बल के आधार पर मुक्त घूम रहा है। यही हालत कठुआ बलात्कार कांड में भी हुई। जो बलात्कार का अपराधी था उसका वहां जनाधार व्यापक था और भारी जन बल था। पकड़ा नहीं जा सका जो लोग इस तरह के न्याय को उचित बताते हैं वह इस तरह के अपराधों को भी उचित बता सकते हैं। अगर इस मामले में कोई उदाहरण तैयार करना है तो एक ही रास्ता है कि तेजी से न्याय हो। संविधान दिवस के समाप्त हुए अभी एक पखवाड़ा भी नहीं गुजरा है। संविधान दिवस के दिन बड़ी-बड़ी बातें हुई थी अगर इसी तरह का न्याय करना है तो हमें संविधान की क्या जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबडे ने शनिवार की शाम को इस मुठभेड़ पर उंगली उठाते हुए कहा कि न्याय कभी मुठभेड़ नहीं सकता। गैंगरेप के आरोपियों को एनकाउंटर में मारे जाने की घटना की आलोचना की। उन्होंने कहा कि न्याय कभी भी आनन-फानन में नहीं हो सकता। ऐसा होने पर वह अपना चरित्र खो देता है। विख्यात मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री लियोन एफ सोल्जर के मुताबिक न्याय और बदले की भावना में कई फर्क होते हैं। बदला प्रथम स्थान पर तो स्पष्ट रूप से भावनात्मक होता है जबकि न्याय निष्पक्ष होता है।
Posted by pandeyhariram at 4:47 PM 0 comments
Friday, December 6, 2019
जरूरत है स्थाई व्यवस्था की
Posted by pandeyhariram at 7:22 PM 0 comments
Thursday, December 5, 2019
अब शुरू होगी नागरिकता पर नई बहस
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को नागरिकता संशोधन विधेयक पारित कर दिया है। इस विधेयक के अनुसार गैर मुस्लिमों को जो बांग्लादेश पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान से आए हैं भारतीय नागरिकता प्रदान करने का भी प्रावधान है। अब यह विधेयक संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। नए विधेयक में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किसे घुसपैठिया माना जाएगा। विधेयक में कट ऑफ तारीख 31 दिसंबर 2014 तय की गयी है। यही नहीं, किसी भी भारतीय प्रवासी नागरिक को फरियाद का मौका दिया जाएगा। नए विधेयक में यह स्पष्ट किया गया है कि इसकी धाराएं अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड ,मिजोरम और मणिपुर में लागू नहीं होंगी। कैबिनेट द्वारा मंजूरी दिए जाने के पूर्व मंगलवार को गृह मंत्री अमित शाह ने असम के छात्र संगठनों और नागरिक संस्थानों के प्रतिनिधियों के साथ भी नागरिकता संशोधन विधेयक पर बातचीत की। इस वार्ता में असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल भी शामिल थे। बातचीत के दौरान ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन समेत कई संगठनों ने गृह मंत्री के सामने इस विषय पर अपनी चिंता प्रगट की कि इस विधेयक पर पूर्वोत्तर के लोग काफी नाराज हैं। इसी नाराजगी की छाया में गृहमंत्री ने यह बैठक बुलाई थी । बड़ी संख्या में पूर्वोत्तर के लोगों और कुछ संगठनों ने इस विधेयक का विरोध किया है। उनके मुताबिक सन 1985 की असम संधि के प्रावधानों को इस बिल के बाद निसंदेह निरस्त मान लिया जाएगा ।जबकि उन प्रावधानों में 24 मार्च 1971 के बाद आए सभी लोगों को घुसपैठिया माना गया है। सभी लोग चाहे जिस जाति के हों , जिस धर्म के हों। पिछले हफ्ते पूर्वोत्तर के 12 गैर भाजपा सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलकर इससे होने वाली मुश्किलों पर भी ध्यान रखने की अपील की थी। यहां इस बात को समझना बहुत आवश्यक है कि इसका विरोध क्यों हो रहा है? विरोध का कारण है कि पड़ोस में बांग्लादेशी मुसलमान और हिंदू दोनों बड़ी संख्या में अवैध तरीके से भारत में आकर बस जा रहे हैं और इसके पीछे का राज यह है कि वर्तमान सरकार हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष में करने की फिराक में है और इसीलिए प्रवासी हिंदू समुदाय को सुविधाएं मुहैय्या कराने की बात चल रही है और इसी के विरोध में स्थानीय समुदायों ने प्रदर्शन आरंभ कर दिया है। हालांकि अभी तक कोई हिंसक घटना सुनने को नहीं मिली है लेकिन यह तय है कि इस पर अगर सरकार आगे कदम बढ़ाती है तो स्थानीय जनता का गुस्सा फूट पड़ेगा और जब जनता का गुस्सा सरकार के खिलाफ होता है तो उस सरकार का हश्र क्या होता है यह सब जानते हैं। अब सवाल है कि विरोध की आशंका के बावजूद भाजपा क्यों इस पर कदम बढ़ा रही है? भाजपा के भरोसे का मुख्य कारण है उस क्षेत्र में भाजपा को मिला समर्थन। समूचे पूर्वोत्तर की 25 संसदीय सीटों में से भाजपा को और फिर सहयोगी पार्टियों को अट्ठारह पर विजय मिली।असम भा ज पा नेताओं का कहना है कि असम के लोगों ने उनकी पार्टी को नागरिकता के मुद्दे पर समर्थन दिया है इस विधेयक के पारित हो जाने से भाजपा को बहुसंख्यको की पार्टी होने की छवि और सुधरेगी।
अब ऐसा दिख रहा है कि भाजपा इसे संसद के शीतकालीन सत्र में पारित करवाने की योजना बना रही है। लेकिन इस विधेयक की व्यवहारिकता पर बहुत कम चर्चा हुई है। अमेरिका मैक्सिको सीमा पर दीवार बनाने की ट्रंप की योजना की तरह भी व्यावहारिक नहीं है। लेकिन इससे जो आर्थिक बोझ पड़ेगा उससे इनकार नहीं किया जा सकता। लड़खड़ाते जीडीपी के इस माहौल में यह बहुत बड़ा बोझ होगा असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया में 4 साल से ज्यादा समय लगा था और खबरों की मानें तो 55 हजार लोगों को इस पर काम में लगाया गया था। जिसमें सरकार का सोलह सौ करोड़ रुपया खर्च हुआ था। याद होगा कि शुरुआत में इससे 40 लाख लोगों को बाहर रखा गया था और कारण सत्यापन की प्रक्रिया के दौरान धन और उपयोगिता का काफी नुकसान हुआ। डर है कि एनआरसी की यह पूरी कवायद लगभग नोटबंदी की तरह व्यर्थ ना हो जाए। क्योंकि इस पर अंतिम सूची के प्रकाशन भर से ही पूर्णविराम नहीं लग रहा है। दरअसल यह संपूर्ण प्रक्रिया का पहला भाग है। सबसे बड़ी समस्या तो तब उत्पन्न होगी जब एनआरसी से बाहर लोगों के बारे में सोचा जाएगा । उनका क्या होगा? वह कहां रखे जाएंगे ? एनआरसी समर्थक आनन-फानन में कहते हैं कि उन्हें बांग्लादेश भेज दिया जाएगा। लेकिन बांग्लादेश अवैध प्रवासियों को क्यों लेगा? मोदी सरकार को इस समस्या का अंदाजा है। इसीलिए वह हिरासत केंद्रों पर काम कर रही है। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती। असम का पहला हिरासत केंद्र बन रहा है। इस पर 46 करोड रुपए की लागत आ रही है। करीब ढाई एकड़ में फैले इस केंद्र में तीन हजार लोगों को रखा जाएगा। लेकिन एनआरसी की जो अंतिम सूची है उसमें 19 लाख लोग बाहर है अगर इनका हिसाब लगाया जाए तो इन लोगों के लिए जो हिरासत केंद्र बनाया जाएगा उस पर 27000 करोड रुपए लगेंगे और यह तो सिर्फ असम की बात हुई है । अगर पूरे देश में ऐसा करना पड़ा अनुमान लगाना मुश्किल है। यह तो सिर्फ निर्माण की बात है। उसके बाद उनका रखरखाव ,भोजन - पानी ,देखरेख का भी खर्च शामिल है । इन मुद्दों पर लाखों करोड़ों रुपए खर्च हो सकते हैं और यह सारा का सारा खर्च नकारात्मक होगा ,अनुत्पादक होगा।
Posted by pandeyhariram at 4:46 PM 0 comments
Wednesday, December 4, 2019
आने वाले दिनों में पाक की हालत बिगड़ेगी
पाकिस्तान एक अजीब देश है उसे सब कुछ यूं ही मिल गया है या कहें सहज ही मिल गया है इसलिए उसे शासन का दर्द नहीं है । उसने स्वतंत्र होने के लिए किसी देश से संघर्ष नहीं किया। बस, भारत से फकत अलग होने के लिए खून खराबा किया। जिस मुल्क की शुरुआत ही अलगाव से है उसके संस्कार क्या होंगे? इसलिए वहां कई दिलचस्प हकीकतें देखने को मिलती हैं। अब जैसे वहां अफवाहें उड़ती हैं लेकिन दरअसल वह अफवाह नहीं होती वह अपूर्ण सत्य होता है। एक ऐसा सच जो समय से पहले ही लोगों के बीच घूमने लगा और साथ ही उसे पूर्ण होने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। अगर वह पूर्ण हो गया यानी उसकी प्रक्रिया पूर्णता को प्राप्त कर ली तो सबके सामने जाहिर हो जाता है और अगर अपूर्ण रहा तो दबा दिया जाता है। अब तक इस प्रक्रिया के दौरान कहीं न कहीं बातें तैरती रहती हैं लोग इसे सरगोशियां मान लेते हैं। कहते कुछ भी नहीं हैं। अब जैसे पिछले हफ्ते हुआ। अचानक बात उड़ी कि इस सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल समाप्त हो रहा है। कुछ टेलीविजन चैनलों ने अति उत्साह में इसे पाकिस्तान में तख्तापलट की पहली पहली सीढ़ी बता दिया। बातें हवा में तैरती रहीं और तरह-तरह के इम्कान लगते रहे। आखिर में बाजवा को 6 महीने का एक्सटेंशन मिल ही गया। विगत कई महीनों से पाकिस्तान की सत्ता के गलियारों में यह चर्चा थी कि कुछ होने वाला है। यह चर्चा प्रधानमंत्री इमरान खान की बात कि उन्हें( जनरल बाजवा) तीन वर्ष का एक्सटेंशन मिलेगा से शुरू हुई । आनन-फानन में कई बातें हो गयी और सिफारिश की गई कि मुल्क की ताजा हालात को देखते हैं उनके कार्यकाल में विस्तार दिया जाना जरूरी है। लेकिन चर्चा तो चल पड़ी थी। आखिर में फौज के दबाव के कारण सरकार को झुकना पड़ा और जनरल बाजवा को एक्सटेंशन देना पड़ा। इस एक्सटेंशन का भी एक कूटनीतिक कारण है । इमरान के साथ चलते हुए सबसे ज्यादा शोर मचाने वाले संगठन तहरीक ए इंसाफ को जनरल बाजवा ने ही सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया था। इसलिए ,जरूरी था उसे रखा जाए और इसके लिए इमरान खान को रखा जाना मजबूरी है। यही कारण है की इमरान की कुर्सी बच गई।
अब इमरान सरकार के फैसले की वजह चाहे जो भी हो लेकिन इसे अच्छी निगाह से नहीं देखा गया। सीधे तौर पर बेशक कोई आवाज नहीं उठाई लेकिन भीतर ही भीतर फौज में खिचड़ी जरूर पकने लगी। इसी बीच मौलाना फजलुर रहमान की हुकूमत के खिलाफ आजादी मार्च की मुहिम शुरू हुई।मार्च सेना प्रमुख की आपत्ति के बाद भी निकाला गया। जाहिर है कि किसी की मदद और इशारे के बगैर मौलाना इतना बड़ा कदम नहीं उठा सकते थे। हवा फिर बहने लगी कि कुछ होने वाला है और इसे बल और मिल गया जब मौलाना ने आजादी मांग किए जाने के ऐलान के बीच यह भी ऐलान किया कि दिसंबर और जनवरी में हुकूमत बदल जाएगी। इस ऐलान के बाद मौलाना का मार्च खत्म हो गया। उस समय यह माना गया कि इमरान खान बहाना हैं, निशाना तो बाजवा पर है। कुछ फौजी अफसरों ने पूरा षड्यंत्र रचा है ताकि बाजवा को उनके पद से हटाया जा सके। दिसंबर शुरू हो चुका है और इस दौरान पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने बाजवा को लेकर जो कुछ टिप्पणियां की। उसके मूल में भी यही सब चालबाजियां हैं। बाजवा के खिलाफ जिस शख्स ने याचिका दायर की थी उसका यह शगल है। वह आदतन ऐसा करता रहता है। इसके पहले भी बाजवा के अहमदी होने और उन्हें पद से बर्खास्त किए जाने दायर की गई थी। लेकिन जो ही दिनों में उसने वापस ले लिया और यही कारण है की नई याचिका को भी ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। लेकिन इस बार नई याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने मंजूर कर लिया और सुनवाई भी शुरू कर दी। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा बुनियादी सवाल उठाया। "आजादी के बाद से मुल्क के हालात कमोबेश ऐसे ही रहे हैं तो क्या ऐसी स्थिति में सेनाध्यक्ष का सेवा विस्तार उचित है? हालात इतने खराब हैं इसकी क्या गारंटी है कि अगले कुछ सालों में ठीक हो जाएंगे और अगर पहले ठीक हो गए तो क्या जनरल बाजवा पद छोड़ेंगे और यदि 3 वर्ष बाद भी बिगड़े रहे तो क्या बाजवा को पद पर ही रखा जाएगा?" इसमें सबसे अहम बात यह है कि कोर्ट ने पूछा कि "क्या फौज नाम की संस्था इतनी लचर है कि एक आदमी की हटने से टूट जाएगी।" लेकिन तब भी उनकी दुबारा नियुक्ति हुई या सेवा विस्तार हुआ
यहां यह साफ लग रहा है कि अदालत के कंधे पर बंदूक रखकर जनरल बाजवा का शिकार किया गया। सामने तो यह बताया जा रहा था कि वहां फौजी विद्रोह की आहट सुनाई पड़ रही है। वैसे पाकिस्तान में अदालत का उपयोग करने का तरीका बड़ा पुराना है। नवाज शरीफ और यूसुफ रजा गिलानी जैसे प्रधानमंत्रियों को भी इसी तरीके से सत्ता से बाहर किया गया, और कहा गया किस्तानी फौज का डीप स्टेट इशारे पर यह सब हुआ। कहा तो यही जाता है कि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट स्वायत्तशासी है लेकिन सच तो य होगा हूं कुछ पूछना पड़ेगा जो जो कुछ जनरल बाजवा के साथ हुआ वाह इमरान खान के साथ भी हो सकता है । लेकिन सबसे प्रबल आशंका है इस बार दो काम हो सकता है। यानी बाजवा की स्थिति डांवाडोल होगी इमरान सरकार की हालत भी खराब होगी।
Posted by pandeyhariram at 4:09 PM 0 comments