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Tuesday, March 10, 2020

कोरोना वायरस के बरअक्स रूस अमरीका की राजनीति

कोरोना वायरस के बरअक्स रूस अमरीका की राजनीति 

तेल निर्यातक देशों के संगठन- ओपेक और उनके सहयोगियों के बीच तेल उत्पादन में कटौती को लेकर समझौते पर बहुत दिनों से बातें चल रही थी लेकिन समझौता नहीं हुआ और पूरी दुनिया में तेल की कीमतों में भारी गिरावट देखने को मिल रही है। रूस ने वायरस के प्रभाव से मुकाबले के लिए आपूर्ति में कमी से इंकार कर दिया है। इससे तेल के भाव गिर गए हैं कई देशों में शेयर बाजार भी लुढ़क गए हैं। ओपेक देश इस वायरस के कारण तेल के दाम पर पड़े असर को रोकने के लिए उत्पादन कम करना चाहते हैं। फिलहाल ब्रेंट क्रूड आयल की कीमत 36 डॉलर प्रति बैरल है जबकि अमरीकी जब डब्लू टीआई फ्रिज की कीमत 32 डालर हो गई है। भारतीय रुपए में गिरावट का सिलसिला सोमवार को भी जारी रहा । अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया 16 पैसे और टूटा और उसकी कीमत 70.03 पर आ गया। घरेलू शेयर बाजार में तेज गिरावट और कोरोना वायरस के चलते आर्थिक मंदी की आशंका के कारण रुपए पर दबाव देखने को मिल रहा है। ओपेक की स्थापना 1960 सऊदी अरब  ,वेनेजुएला,  कुवैत  और इराक ने मिलकर की थी। वर्तमान में 14 देश इस समूह में हैं। ओपेक पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन  अपने सदस्य देशों की पेट्रोलियम नीति का समन्वय  करता है और तेल बाजारों को स्थिर करता है।
         तेल के खेल को अक्सर अंतरराष्ट्रीय राजनीति माना जाता है जो अमेरिका, रूस और सऊदी अरब के बीच चलता रहता है और इससे शीत युद्ध के जमाने की महाशक्तियों के बीच की राजनीति प्रभावित होती है। मौजूदा संकट असल में आपूर्ति का मामला है। चीन दुनिया में तेल का एक बड़ा मार्केट है और कोरोना वायरस के प्रसार के कारण तेल की डिमांड में भारी कमी आई है। यही नहीं इस साल के आखिर में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने वाले हैं। ओपेक ने तेल का उत्पादन कम करने का प्रस्ताव दिया है जिससे रूस ने इंकार कर दिया। रूस चाहता है वैश्विक बाजार में तेल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल से कम बनी रहे। जिससे अमेरिकी तेल बाजार में संकट आ जाए। इससे ट्रंप की लोकप्रियता पर आघात लगेगा और हो सकता है और चुनाव भी हार जाएं। तेल का  दाम कम होने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी दुष्प्रभाव  पड़ेगा। तेल के इस खेल में दो कारक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है एक रूम और दूसरा कोरोना वायरस। कोरोना वायरस ने संकट शुरू कर दिया और इसलिए तेल की कीमतें गिर गई हैं। रूस और सऊदी ने तेल के उत्पादन बढ़ा दिए हैं, जबकि उन्हें घटाना चाहिए था। परिणाम यह हुआ कि बाजार में  तेल उपलब्धता बढ़ गई है इसी साल अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। नतीजा यह हुआ है कि रूस चाहता है कि तेल की कीमत गिरने से वहां की अर्थव्यवस्था में कमजोरी आएगी और चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की पराजय हो सकती है। तेल के दामों में कमी होने से रूस पर फर्क नहीं पड़ेगा। जबकि चुनावी साल होने से अमेरिका पर इसका असर होगा। अगले तीन चार महीने संकट चलता रहा तो लाखों लोग बेरोजगार हो जाएंगे जिससे अमेरिकी लोगों में असंतोष बढ़ेगा और चुनाव प्रभावित हो सकता है। अमेरिका ही नहीं है इससे भारत भी प्रभावित होगा। भारत भारत अपनी कुल खपत का 85% तेल का आयात करता है और अगर तीन चार महीने से ज्यादा यह सिलसिला तो भारत के लिए मुश्किल हो सकते हैं पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में मंदी आ जाती है तो भारत से कैसे बचेगा? एक करोड़ से ज्यादा भारतीय लोग खाड़ी के देशों में नौकरी करते हैं और उन देशों की अर्थव्यवस्था तेलों से ही चलती है। तेल की कीमत गिर जाने से उन देशों में प्रोजेक्ट रुक जाएंगे और बड़ी संख्या में भारतीयों की नौकरी जा सकती है। प्रवासी भारतीयों द्वारा लगभग 65 अरब डॉलर खाड़ी के देशों से आता है। अगर उन देशों की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा जाती है तो आयात भी प्रभावित होंगे और भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस से अछूती नहीं रहेगी। ऐसी स्थिति में अमेरिका के पास मौजूदा समय में कोई विकल्प नहीं है। अमेरिका अपने मित्र देशों और सऊदी अरब से तेल के उत्पादन को घटाने को कह सकता है और अमेरिका का प्रयास यह होना चाहिए करोना वायरस के हड़कंप को रोके और दुनिया की अर्थव्यवस्था को सुधरने का मौका दे।


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