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Friday, March 6, 2020

दिल्ली के दंगे और हमारा भारत

दिल्ली के दंगे और हमारा भारत

कई दिनों से दिल्ली के दंगों पर बहस चल रही है और इसमें इसके विभिन्न पक्षों का विश्लेषण किया जा रहा है। दंगों का ऐतिहासिक पक्ष बहस का एक मसला है। क्योंकि, इतिहास ही इंसानी विचार में अवचेतन का निर्माण करता है।  उस अवचेतन से ही हमारी चेतना और हमारी क्रिया शैली संचालित होती है। सबसे पहली बात है इन दंगों का ऐतिहासिक उत्स क्या है? क्या भारत में यह हाल की बात है? जिन्हें हम कह सकते हैं कि अंग्रेजों ने हवा दिया था बांटो और राज करो के माध्यम से या फिर इसकी जड़े 12 वीं सदी में भारत के इतिहास के उस हिस्से से जुड़ी हैं, जिसमें मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान की युद्ध की बात है। हाल के दिल्ली के दंगों ने इस बहस को फिर से हवा दे दी है। अगर दंगे के समाज विज्ञान का विश्लेषण करें एक  बात स्पष्ट सामने आएगी कि अब मोर्चे खुल गए हैं। कई उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी भारतीय इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि ब्रिटिश राज के पहले भारत की एक सामंजस्य पूर्ण संस्कृति थी। जबकि कुछ लोग इसे अपने "टी एन टी"( टू नेशन थ्योरी) यानी दो राष्ट्र सिद्धांत के हवाले से कहते हैं कि सांप्रदायिकता हमेशा से भारतीय इतिहास की विशेषता रही है। भारत हिंदू राष्ट्र रहा है।
       हाल में सांप्रदायिकता का जो स्वरूप देखने को मिला वह बेशक एक हालिया घटना थी। लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत में अतीत में सांप्रदायिक संघर्ष नहीं होते थे। जिस तरह भारतीय इतिहास में हिंदू और मुस्लिम शासकों द्वारा एक दूसरे की धार्मिक परंपराओं के संरक्षण के और आम लोगों की मिश्रित हिंदू मुस्लिम पहचान के असंख्य उदाहरण हैं। अकबर से लेकर फर्रुखसियर तक कई शासकों ने गौ हत्या पर रोक लगाई। मस्जिदों और मंदिरों को नष्ट किए जाने तथा होली या मोहर्रम के दिन सड़कों पर जुलूस निकालने के लिए कई स्थानीय झगड़े हुए , लेकिन इन विवादों ने कभी सांप्रदायिकता का रूप नहीं लिया।
    अंग्रेज भारत आए तब भी मुगल शासन का दौर चलता रहा। अंग्रेजों ने अपनी निरंकुशता और जातियों को कानून के शासन का जामा पहनाया। ब्रिटिश और भारतीय राष्ट्रवादी  लोगों ने ही मध्ययुग के भारत को अंधेरे युग के रूप में चित्रित किया। वे भूल गए की ईरानी अरबी प्रभाव के बिना हिंदुस्तानी संगीत उर्दू ग़ज़लें नहीं होती।
     लेकिन यह सब बदल गया। सबसे पहले उपनिवेशवाद भारत में सभ्यताओं के टकराव की अवधारणा लेकर आया। सैमुअल हंटिंगटन की पुस्तक के बहुत पहले यूरोप का हिस्सा इतिहास और यूरोप के लोग धर्म युद्ध के समय से लेकर 18 वीं सदी और उसके बाद इस्लाम के खिलाफ सक्रिय रहे थे जब ताकतवर ऑटोमन साम्राज्य  के दरवाजे पर दस्तक हुई और जब ब्रिटिश भारत आए तो वह उस पूर्वाग्रह को नहीं छोड़ पाए । बल्कि उन्होंने इसे एक राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया।   यहीं नहीं जनगणना के लिए तय प्रावधानों की भी इसमें भूमिका थी। लोगों को खुद को हिंदू या मुसलमान के रूप में चित्रित करने को कहा गया। अब ऐसे में मिश्रित पहचान बनाए रखना संभव नहीं था। धीरे धीरे यह पहचान बनती है और पहचान पक्की होती गई और फिर परस्पर विरोधी बनती गई । हर बार जनगणना में दोनों पक्षों के कट्टरपंथी जमात  लोगों से सही धर्म का उल्लेख करने के लिए हंगामा करते हैं। बात यहीं तक खत्म हो जाती तो कोई बात नहीं थी 1870 के बाद स्थानीय निकायों के चुनाव आरंभ हुए।  जनगणना आधारित जनसांख्यिकी और संख्याओं पर आधारित राजनीतिक शासन के संयोजन भारत में सामुदायिक पहचान बनने से बढ़िया राजनीतिक शासन का संयोजन बना और इसकी दशा बदल गई। यह लोकतंत्र के विपरीत चला गया। जैसा कि आज हम देख रहे हैं। यह संख्या आधारित बहुसंख्यक वाद ने अपने अलग मुहावरे भी गढ़ लिए । महिलाओं को शत्रु समुदाय में जाकर उनकी जनसांख्यिकी ताकत को बढ़ाने में योगदान से रोकने के लिए हिंदुत्व समर्थकों का लव जिहाद से लड़ना भी इसी का उदाहरण है।
    ईसाई धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म जैसे धर्मों के अतीत और वर्तमान दोनों से यह स्पष्ट है कि लोगों की पैदाइश और उनके निवास के भौगोलिक नक्शों में कभी पूर्ण साम्य  नहीं रहा। हमेशा ही अपने भीतर कई राष्ट्र भाषा और राजनीतिक  संस्कृतियों को समेटे रखा। आंतरिक बहुत ही धार्मिक विचारों की जीवनदायिनी है। क्योंकि यह आंतरिक आलोचनाओं और टकराव से ही विकसित होती है। धर्म समय के प्रभाव से भी विकसित होता है जैसा कि सूफी और भक्ति परंपराओं के आपसी संवर्धन के इतिहास से साबित होता है। धर्म को राष्ट्र तक और राष्ट्र को धर्म तक सीमित किए जाने से न सिर्फ राष्ट्रों को ही गरीब और कमजोर किया जा सकता है बल्कि समाज को भी अशक्त किया जा सकता है।यह दिल्ली के दंगों से साबित हुआ है।  इसे ही रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "सबका साथ सबका विकास" का नारा दिया। लेकिन राजनीति की भीतरी धाराओं ने इसे नजरअंदाज करने के लिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह बताने के लिए कि उनकी विचारधारा सही नहीं है ऐसे दंगों और विरोधियों की सृष्टि की । गौर करें यह दंगे सी ए ए के विरोध की नींव पर खड़े थे । सीएए का विरोध कितना सही कितना गलत है यह बताने की आवश्यकता नहीं है।


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