ऐ काफिले वालों इतना भी नहीं समझे
लूटा तुम्हें रहजन ने रहबर के इशारे पर
दिल्ली का चुनाव खत्म हुए महीना भी भर नहीं गुजरा है। जिन लोगों ने चुनाव प्रचार पर नजर रखी होगी उन्होंने देखा होगा की हर दिन नए-नए नारे निकल रहे हैं। धर्म से लेकर बिरयानी तक की बात हो रही थीं। आतंकवाद से लेकर भारत-पाकिस्तान तक की बातें हो रही थीं। चारों तरफ एक खास किस्म की नकारात्मकता फैली हुई थी। वहीं काम और विश्वास को लेकर भी बातें हुई थीं। लेकिन, सबसे यह प्रतिबिंबित हो रहा था कि सब के सब अपनी पहचान बनाने पर आमादा हैं।
इन दिनों हमारे देश में ही नहीं दुनिया के लगभग हर देश में अलग-अलग गुट अपनी पहचान बनाने पर तुले हुए हैं और उसके प्रभाव देखने को मिल रहे हैं। सवाल उठता है यह क्या पहचान की राजनीति में आक्रामक नेतृत्व को बढ़ावा मिलता है। आज पहचान की राजनीति के अर्थ खो चुके हैं। आज राजनीति का अर्थ है अपनी पहचान कायम करना। वैसे पहचान की राजनीति हमेशा से राजनीति का एक हिस्सा तो जरूर रही है लेकिन इनदिनों इसका स्वरूप बदलता जा रहा है। पहचान एक प्याज की तरह होती जा रही है जहां कुछ नहीं है हर परत को खोलते जाइए एक नई परत मिलती जाएगी और अंत में कुछ नहीं बचेगा। राजनीति आज अपने लिए एक कबीले का निर्माण कर रही है। यह कदम कदम कर विभाजन की मानसिकता की ओर बढ़ती जा रही है। लेकिन यह दुखद है।
लोकतंत्र में नेता हमेशा से अपने फायदे के लिए इसका उपयोग करते हैं इन दिनों आतंकवादी और समाज विरोधी जुमलों का अलग अलग स्वरूप में लगातार उपयोग हो रहा है। लोकतंत्र में विरोध आम जनता का हक है। सत्ता पक्ष को विरोध सुनना ही पड़ता है और उस पर प्रतिक्रिया देनी ही होती है। अमेरिकी राष्ट्रवाद सबसे पुराना राष्ट्रवाद है। अमेरिका दरअसल कृत्रिम राष्ट्र है। यह कभी भी राष्ट्र रहा ही नहीं। छोटे-छोटे राज्यों को मिलाकर एक राष्ट्र बनाया गया है। उसे साथ रखने के लिए राष्ट्रवाद का नारा दिया गया है। यहीं से शुरू होती है पहचान की सियासत। अपनी पहचान को एक नया स्वरूप देने के लिए अमेरिका के फाउंडिंग फादर्स ने तरह-तरह के नारे दिए। खासतौर पर उन्होंने बताया, यह मानवता की जीत है। अमेरिका के मूल निवासी अमेरिकन इंडियंस थे। उन्हें वहां से भगाया गया। इस प्रकार से अमेरिका की जो आईडेंटिटी बनाई गई थी उस पर हमला हुआ और इसका नतीजा है कि आज वहां ध्रुवीकरण देखने को मिल रहा है। पहचान के दो पहलू हैं। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जिस तरह से अमेरिका को इस राष्ट्र का स्वरूप दिया गया था उससे उसको सकारात्मक बल मिला। लेकिन इसी पहचान की सियासत के लिए भारत का बंटवारा हुआ। यानी , भारत की पुरानी पहचान को मिटाकर एक नई पहचान बनाने का प्रयास हुआ। तत्कालीन नेताओं ने इस बात को नहीं समझा और भारत का बंटवारा होने दिया। पूरे देश में एक नई पहचान के लिए भयानक दंगे हुए खून खराबा हुआ और अंत में भारत का बंटवारा हो गया।
जितने भी लफ्ज़ हैं वह महकते गुलाब हैं लहजे के फर्क से इन्हें तलवार मत बना
आज फिर दिल्ली के दंगों से यह दिखाई पड़ रहा है। आज हमारी सरकार या कहें हमारे नेताओं को इतिहास से सबक लेने के लिए और पहचान भी इस भूख को मजबूत हाथोंसे दबा देना चाहिए वरना दिल्ली के दंगे अभी तो मेघालय तक ध्रुवीकृत रूप में देखने को मिल रहे हैं। कल देशभर में जगह-जगह उभर सकते हैं। क्योंकि कथित तौर पर इसी को कारण बताया जा रहा है। उससे इसका कोई लेना देना नहीं है। सी ए ए सिर्फ एक बहाना है। सरकार को इसे समझना चाहिए और मजबूत हाथों से इस तरह के इरादा रखने वाले लोगों को दबा देना चाहिए।
सियासत की अलग जुबान होती है
लिखा जो हो इकरार तो इनकार पढ़ना
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