सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार इस जमाने में हर इंसान सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों जानकार खुद को समझता है और उसकी जानकारियों का आधार सोशल मीडिया है। यह विभिन्न प्लेटफार्म पर लगाए गए पोस्ट्स के संदर्भ होते हैं। जो लोग पोस्ट लगाते हैं उनका उद्देश्य सही जानकारी देना नहीं होता वह अपनी पसंद के मुताबिक स्थितियों को तोड़ मरोड़ कर पेश करते हैं तथा बाकी लोग सिर्फ उसे आगे बढ़ाते हैं। इन बातों से नफरत फैलती है। यह मनोवृति नफरत भरी बातें पर किसी भी प्रकार की सार्थक चर्चा से रोक देती है। इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है कि ऐसा समाज नफरत भरी बातें और खतरनाक बातों के अंतर को मिटा देता है। यह मिटाना जाने समझे तौर पर होता है और वह उनकी अपनी मनोवृति के मुताबिक होता है। अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव को ही देखिए उसमें कई स्तरों पर जहर बुझी बातें हुईं जो आगे चलकर चुनावी भाषणों में बदल गयीं। यह भाषण केवल अपमानजनक थे। बल्कि इनमें सौजन्यता की भारी कमी थी। अगर इन भाषणों का सही-सही विश्लेषण किया जाता तो इन नेताओं को चुनाव लड़ना तो क्या सड़क पर घूमने तक नहीं दिया जाता। उन्हें पुलिस जेल में डाल सकती थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिल्ली पुलिस आश्चर्यजनक तौर पर लापरवाह रही और उसने केवल बोलने की आजादी या कहें अभिव्यक्ति की आजादी का पर्दा आंखों के सामने लगा लिया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। भारत के पुलिस अधिकारी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसा कई बार कर चुके हैं। हैरत तो तब होती है जब ऐसे नेता भाजपा के नेताओं पर इस किस्म के आरोप लगाते हैं और सोशल मीडिया पर सरकार की आलोचना करते हैं। यकीनन इन आलोचनाओं में कोई दम नहीं होता। अब जैसे कल की ही बात है। मोदी जी ने 8 मार्च को सभी सोशल मीडिया से खुद को अलग करने एलान किया। चाहे कारण जो हो उसे बताया जा रहा है कि चूंकि वह महिला दिवस है और लड़कियां मोदी जी को तंग ना करें इसलिए उन्होंने ऐसा किया है। जहां "लड़कियों" नामक शब्द पर विशेष जोर है और इशारा कुछ दूसरा है। वह दूसरा इशारा आप आसानी से समझ सकते हैं। ऐसे ही कोई और बातें होती हैं और इन बातों से भारतीय लोकतंत्र को खतरा हो जाता है। इतना ही नहीं लोगों को भड़काया जाता है वह इस तरह के नारे लगाए जिसमें देश के प्रति जिम्मेदारी या देशभक्ति ना हो
भारतीय कानून जो बोलने पर पाबंदियां लगाते हैं वे सौहार्द को भी भंग करते हैं। राजनीतिज्ञों के खिलाफ शायद ही मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। देश में राजनीतिक विचार विमर्श आरंभिक दिनों से ही बहुत लंबा है। कोई भी नेता इससे बचा नहीं है। कोई यह जानने के लिए तैयार नहीं है कि नफरत फैलाने वाली बातों और खतरनाक बातों में क्या फर्क है? खतरनाक बातों का स्पष्ट मतलब है कि श्रोताओं को हिंसा के लिए भड़काया जाए और नफरत फैलाने वाली बातें तात्कालिक प्रतिक्रिया विशेषत तौर पर हिंसक प्रतिक्रिया जाहिर करने के लिए उकसाती है । यह ज्यादा खतरनाक है और यही कारण है कि लोकतंत्र में इसके खिलाफ कानून है। खतरनाक बातों का मुकाबला चुनौती भरा होता है क्योंकि, इसमें वरिष्ठ राजनीतिज्ञ शामिल होते हैं। अगर सरकार इस पर कार्रवाई नहीं करती है या कर पाने में सक्षम नहीं होती है तो इसका अर्थ है उसे मालूम है कि इसका स्रोत कहां है। कौन लोग इसमें शामिल हैं। अभी जैसे दिल्ली में दंगे हुए। उन दंगों को भड़काने में जो लोग शामिल थे सरकार इसके बारे में जानकारी है लेकिन इक्का-दुक्का लोगों को छोड़कर किसी पर कोई कार्यवाही होती नहीं दिख रही है। हालांकि और उसने जो हानि पहुंचाई है उसका कोई आकलन करना बड़ा कठिन है।
इस तरह की बातें केवल स्थानीय स्तर पर होती है। सोशल मीडिया के दौर में यह भावना पूरे देश में पाई जाती है। अफवाहों की भरमार और नफरत भरी बातें सांप्रदायिक हिंसा को जन्म देती है और इसका प्रसार तुरंत होने लगता है। इसने सांप्रदायिक संघर्ष और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण यह बीच की दूरी को कम कर दिया है। सांप्रदायिक संघर्ष कुछ ही देर में राष्ट्रीय मसला बन जाता है और स्थानीय घटनाओं के जरिए एक बड़ा सांप्रदायिक कथानक तैयार हो जाता है। कुछ लोग अक्सर फेक न्यूज़ और सांप्रदायिक संघर्ष की बातों को फैलाने में सोशल मीडिया की भूमिका का विश्लेषण में हम बहुत कम ही इस पर विपरीत सवाल करते हैं कि किसी स्थानीय सांप्रदायिक घटना के बाद सोशल मीडिया की भूमिका क्या है। सांप्रदायिक हिंसा कब और कैसे होती है। इसे सोशल मीडिया ने पूरी तरह बदल दिया है। इसके सिद्धांतों में भारी परिवर्तन हो गया है राजनीतिक विश्लेषक सांप्रदायिक घटनाओं के लिए सबको जिम्मेदार बताते हैं ताकि हुए खुद को सही साबित कर सकें लेकिन हकीकत यह है की एक समूह ज्यादा हिंसा करता है राष्ट्रीय स्तर पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब स्थानीय सांप्रदायिक घटनाओं को एक साथ पैदा करने को प्रेरित करता है। ताकि स्थानीय कारकों की भूमिका कम हो सके। जैसा कि दिल्ली के दंगों में दिखाई पड़ रहा है हम भारत के पुराने सांप्रदायिक तनाव की नई वास्तविकता का सामना करने के लिए मजबूर हैं। लेकिन हम इस बात से गुरेज करते हैं कि नफरत भरी बातें और जिन बातों से नफरत पैदा होती है उस में क्या फर्क है जब तक इसका फर्क नहीं जाना जाएगा तब तक ऐसी मनोवृतियों पर लगाम नहीं लगाई जा सकती।
Thursday, March 5, 2020
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment