बिहार में पत्रकारों की हत्या
हत्या एक घिनौना अपराध है और यह एक कारण है कार्य नहीं है. अपराध शाश्त्र के अनुसार हत्या अक्सर किसी कार्य पर पर्दा डालने की गरज से की जाती है. बिहार को देखें तो वहाँ हत्याएं अक्सर होती हैं पर उनका वर्गीकरण कर के विश्लेषण किया जय तो समाज में हो रही विक्रितिओं के बारे में जाना जा सकता है. बिहार में ह्त्या की होने वाली घटनाओं के एक वर्ग सबसे ज्यादा चिंता का कारण बन गया है. वह है पत्रकारों की लगातार हो रही हत्याएं . अगर ध्यान से देखें तो ह्त्या की उन घटनाओं और शराब बंदी में कहीं ना कहीं कोई तालमेल है. बिहार के मुख्या मंत्री नीतीश कुमार का दवा हुआ है कि शराब बंदी के बाद से बिहार में आपराधिक घटनाओं में कमी आयी है. लेकिन पत्रकारों की ह्त्या की घटनाएं इस पर सवालिया निशाँ लगा रही हैं. अभी हफ्ते भर पहले बिहार के समस्तीपुर में एक पत्रकार ब्रजेश को दिन दहाड़े गोलियों से भून दिया गया. इसके पूर्व विगत पांच महीनों में 3 पत्रकारों की ह्त्या हुई. सबकी ह्त्या का तरीका लगभग एक ही था दिन दहाड़े इतनी गोलिया मारीं गयी कि बचने की गुंजायश नहीं रह गयी. इलाका भी लगभग वही था , उत्तर बिहार के शहरी क्षेत्र. यह मसला यहीं नहीं रुकता है बल्कि कई अन्य पत्रकारों और उनके परिजनों पर लगातार हमले हुए.परिजनों को डराने धमकाने की घटनाएं भी लगातार सुनने को मिलती रहीं. ये घटनाएं कारणों के बारे में दो संकेत दे रहीं है. पहली कि नितीश कुमार का दवा कि बिहार में अपराध घटे हैं. ये घटनाएं चीख चीख कर कह रहीं हैं ये दावे गलत हैं. घटनाएं सामने इसलिए नहीं आ रहीं हैं कि उन्हें बताने वाले डरे हुए हैं. पत्रकारों की कलम रोक डी जा रही है और जो “ बदजुबान “ हैं उनकी जुबान बाद कर डी जा रही है. हत्या सहस को भंग करने का साधन है. विख्यात अपराध शास्त्री .सैमुअल सोडरमन के मुताबिक़ “ किसी कृत्य के खिलाफ आवाज उठाने वाले की हत्या उस कृत्य का विरोध करने वालों के विरोश को दबाने का तरीका है”. बिहार में पत्रकारों की दिन दहाड़े हत्या इसी बात का सबूत है, साथ ही ये घटनाएं नीतीश के दावे पर विश्वास का खंडन करती हैं.
यही नहीं इन घटनाओं की अगर गंभीर पड़ताल करें तो पता चलेगा कि ये घटनाएं राजनीति और अपराध तथा पूँजी और अपराध के आपसी मेलजोल का प्रतिफल है. इसने बिहार करप्शन से जंग को कठिन और खतरनाक बना दिया है. ये घटनाएं उसर इशारा करतीं हैं जिधर राजनीती और अपराध के संगम का गलियारा मुड़ता है. इस संगम की ओर इशारा करने वाले हाथ को काट दिया जा रहा है. उसे रोकने कोशिश बड़े पैमाने पर होती है, कई बार बात बन भी जाती है और बार “बात बनाने “ की गरज से इस तरीके को अख्तियार किया जाता है. बात यहीं ख़तम नहीं होती है. यहाँ एक सवाल उठता है कि बिहार के पत्रकार कुछ ख़ास हैं जो उनकी जुबान बंद करने के लिए ह्त्या का तरीका इख्त्यार किया जाता है? बिहार के सामाजिक चरित्र या स्वभाव का को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रशासन और अपराध के खिलाफ अहंभाव इसका बुनियादी कारण बनता है. महाराष्ट्र के भ्रस्श्ताचार और मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले को देखें तो लोकल मीडिया ने इसे बिलकुल तूल नहीं दिया जो बातें आयीं वह नाशानल मीडिया के जरिये आयी. बिहार में लालू प्रसाद के जमाने में अपराध बहुत तेजी से स्थानीयकरण हुआ और अपराध के लोकल सेंटर और सत्ता के केंद्र में सीधा गठजोड़ रहता है. इस गठजोड़ का स्थानीय मीडिया पर सीधी नजर होती है. चूंकि इन गिरोहों को अफसरों तथा नेताओं का सीधा संरक्षण हासिल है इसलिए कठिनाई और बढ़ जाती है. हाल में बिहर के कुख्यात शाहबुद्दीन के जेल से रिहा होने के बाद उनका भव्य जलूस और बाद में राज्य के स्वस्थ्य मंत्री एवं शहाबुद्दीन के साथ मिलने की तस्वीरी खुद में बहुत कुछ कहती हैं. ये सारे हालत वहाँ पत्रकारों के लिए कठिनाई पैदा करते जा रहे हैं.
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