नेताजी जयंती : विशेष लेख
गांधी – नेहरू और बोस विरोधी नहीं थे
-हरिराम पाण्डेय
आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती है। पिछले साल इसी तारिख को बड़े जोश- ओ -खरोश के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सुभाष चंद्र बोस के जीवन से जुड़ी और उनकी रहस्यमय मौत से सम्बद्ध 100 फाइलों को अवर्गीकृत किया गया था और वादा किया गया था कि उस महान स्वतंत्रता सेनानी से जुड़ी 25फाइलें हर महीनें अवर्गीकृत की जायेंगी। यह सब एक बड़े समारोह के साथ हुआ। प्रधानमंत्री खुद राष्ट्रीय पुरात्वागार में गये , मीडिया ने इस पर खूब लिखा , दिखाया और लोगों ने तालियां बजायीं। लेकिन फाइलों से किसी ऐतिहासिक सच्चाई पर से परदा नहीं हट सका। लेकिन जब प्रदानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आये तो उन्होंने गृह मंत्रालय में रखी लगभग 1.5 लाख फाइलों को जलवा डाला। इन फाइलों में किसके बारे में क्या लिखा था यह केवल अटकल का विषय है। लेकिन जहां तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस का सवाल है मोदी जी को कुछ सनकी विद्वान और इतिहास की आधी अदारी जानकारी रखने वाले चंद कथित प्रभावशाली लोगों ने समझाया नि सुभाष चुद्र बोस 1945 में ताइवान में विमान दुर्घना में नहीं मरे थे और जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने सुभाष बाबू के जीवन और स्मृतियों पर से परदा ना हटाकर उनका अपमान किया था। इस प्रक्रिया को साल भर हो गये और आंकड़ों के मुताबिक लगभग 1200 फाइलें अवर्गीकृत हो गयीं। किसी में भी षड़यंत्र की कथा की पुष्टि नहीं हो सकी, उल्टे इस तथ्य की पुष्टि हो रही है कि सुभाष चंद्र बोस की स्मृतियों का अनादर नहीं किया गया था, जैसा कि कुछ लोगों ने देश को बताया था। आज इस आलेख का उद्देश्य है कि नेताजी और महात्मागांधी के बीच के रिश्तों के बारे में ऐतिहासिक तथ्यों के आदार पर कुछ बातें कहीं जायं क्योंकि यह हफ्ता इन दोनों नेताओं की स्मृति और राष्ट्र के गणतंत्र दिवस से जुड़ा हुआ है। उस गणतंत्र दिवस से जिसका सपना दोनों नेताओं ने देखा था ओर दोनों उसे हकीकत में बदलते नहीं देख सके। लेकिन इन दोनों के रिश्तों के बारे में ढेर सारी भ्रांतियां फैलायी गयीं। पहली बात कि जवाहर लाल नेहरू ने सुभाष चंद बोस की स्मृतियों का कभी अपमान नहीं किया। यहां तक कि उन्होंने आस्ट्रिया में रह रही उनकी पुत्री अनिता बोस के लिये सरकारी खर्चे से वजीफा तय कर दिया था। यही नहीं मोदी जी द्वारा अवर्गीकृत फाइलों में भी दर्ज है कि नेहरू ने 1952 में उनकी विधवा के लिये पेंशन दिये जाने की पेशकश की थी।
नेहरू के बारे में यह भी फैलाया जाता है कि उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली 27 दिसम्बर 1945 को एक पत्त भी लिखा था जिसमें उनहें युद्धापराधी घोषित किया गया था। यह पत्त फर्जी था जिसकी पुष्टि ब्रिटिश सरकार कर चुकी है। यही नहीं जब यह पत्र लिखा गया था उस समय नेहरू आजाद हिंद फौज के मुकदमे की अदालत में पैरवी कर रहे थे। यही नहीं पत्र की भाषा को ध्यान से पढ़ें तो पायेंगे कि इसमें व्याकरण की भयानक भूलें हैं ओर वर्तनी की भी गलतियां हैं। साथ ही जो कागजात अवर्गीकृत किये गये हैं उनसे भी इस तरह के पत्रों की पुष्टि नहीं हो पाती है। इसके अलावा और भी कई सबूत हैं नेहरू और सुभाष के संबंधों के। 1928 में भगत सिंह ने एक लेख लिखा था, ‘नये नेताओं के अलग – अलग विचार ।’ इस लेख में सरदार भगत सिंह ने कहा था कि ‘बोस और नेहरू दोनों महान देश भक्त हैं और स्वतंत्रता संग्राम के उभरते हुये सितारे हैं।’ हालांकि भगत सिंह ने ‘देश के नौजवानों से नेहरू का समर्थन करने को कहा था क्योंकि वे समाजवादी विचारधारा के उनका आदर्श अंतरराष्ट्रीय है।’ यहीं नहीं जब भगत सिंह को फांसी दी जाने वाली थी तो उनहोंने जेलर से पूछा था कि वे नेहरू और बोस को धन्यवाद देना चाहते हैं।
जहां तक गांधी और सुभाष के सम्बंधों की बात है तो यह कहा जाता है कि वे काफी तनावपूर्ण थे। ये भी पूरी तरह गलत है ओर आरंभ से इतिहास को विकृत करने की कोशिश है। वरना क्या बात थी कि सुभाष बाबू ने आजाद हिंद फौज के ब्रिगेड्स के नाम ‘नेहरू , गांधी और आजाद’ रख रखा था। बेशक , महात्मा गांधी के बाद सुभाष चंद्र बोस देश के सबसे लोकप्रिय नेता थे। हां यह बात दूसरी थी कि बोस के चरमपंथी विचारों के कारण गांधी बोस से ऊबने लगे थे। विख्यात इतिहासकार डा. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन पॉलिटिकल पार्टीज’ में लिखा है कि ‘गांधी की ऊब को देखते हुये कांग्रेस में दक्षिणपंथी नेता सरदार पटेल, गोविंद वल्लभ पंत, घनश्याम दास बिड़ला और राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने विरोधी प्रचार आरंभ कर दिया , क्योंकि बोस कांग्रेस के भीतर अत्यंत ताकतवर वामपंथी विचारधारा के नेता हो कर उभर रहे थे। बोस के करिश्मे ओर नेतृत्व से कांग्रेस में बहुमत लोग प्रभावित थे और देश की जनता भी उनके पीछे चलने लगी थी। हालांकि नेहरू भी उनसे कम नहीं थे लेकिन नेहरू गांदा के खिलाफ खड़े नहीं हो सकते थे।’ जब दूसरी बार 1939 सुभास चंद्र बोस गांधी जी उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को हरा कर कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित हुये तो सरदार पटेल ओर जी बी पंत के नेतृत्व में कांग्रेस के एक गुट ने प्रचंड विरोध किया और पंत ने तो एक प्रस्ताव भी रख दिया। अलबत्ता गांधी ने यह जरूर कहा कि ‘सीतारमैय्या की हार मेरी हार है।’ उनके इस वाक्य ने पटेल की टीम का समर्थन का संदेश दिया। नेहरू सुभाष चंद्र के खिलाफ कुछ नहीं कहा था। बोस के पत्र के जवाब में गांधी ने लिखा ‘आपने जो भी विचार जाहिर किये हैं वह दूसरों के विचार से और मेरे विचार से भी एक दम विपरीत है , मैं इसे दूर करने की कोई संभावना नहीं देख पा रहा हूं।’ उधर उनके विरोधी गुटों का दवाब बढ़ता जा रहा था और हार कर अत्यंत निराशाजनक स्थिति में उनहोंने पार्टी छोड़ दी। बाद उन्होंने अपनी गर्लफ्रेंड एमली को लिखे पत्र में गहरा क्षेभ जाहिर किया और कहा कि दक्षिणपंथी ताकतों ने उनके खिलाफ गांधी भड़काया। बाद उन्होंने कहा कि ‘यह मेरे लिये दुखद है कि मैंने दूसरों का भरोसा हासिल किया भारत के सबसे बड़े आदमी (गांधी) का विश्वास हासिल नहीं कर सका।’ उन्होंने फारवर्ड ब्लाक का गठन किया। यह ध्यान देने की बात है कि 1940 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम के दो बड़े नेता थे- गांधी और बोस। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और हिंदू महा सभा जैसे साम्प्रदायिक गुटों ने ‘बांटो और शासन करो(डिवाइड एंड रूल)’ तथा भारत के विभाजन का समर्थन किया था। उन्होंने कांग्रेस में साम्प्रदायिक गुटों के नेताओं के प्रवेश पर रोक की वकालत की थी। 4 मई 1940 को फारवर्ड ब्लॉक की साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादकीय में ‘कांग्रेस एंड कम्यूनल आर्गानाइजेशन’ शीर्षक से उन्होंने लिखा था कि ‘ अर्सा पहले हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के नेता कांग्रेस में शामिल हो सकते थे पर अब हालात बदल गये हैं और वे संगठन बहुत ज्यादा साम्प्रदायिक हो गये हैं अतएव कांग्रेस ने उनके प्रवेश पर रोक लगा दी है।’ जब श्यामा प्रसाद मीखर्जी हिंदू महासभा में शामिल हुये तो उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि ‘सुभास चंद्र बोस ने उनसे कहा था कि यदि वे बंगाल में हिंदू महा सभा को राजनीतिक पार्टी बनायेंगे तो हम देख लेंगे , जरूरत पड़ी तो बल प्रयोग भी करेंगे ताकि जन्म लेने के पहले वह टूट जाय।’ जो लोग गांदा को सुभास का विरोधी बताते हैं उन्हें 6 जुलाई 1944 को सिंगापुर रेडियो से सुभास बाबू के भाषण को सुनना चाहिये। उन्होंने पहली बार गांधी को राष्ट्रपिता कहा।’ गांधी और नेहरू बी बोस की प्रशंसा करते थे। गांधी उन्हें ‘देश भक्तों के राजकुमार कहते थे।’
बेशक गांधी- नेहरू और बोस में वैचारिक मतभेद थे पर ऐसा उस काल के अन्य नेताओं के मध्य भी था मसलन, भगत सिंह , अम्बेडकर, पटेल इत्यादि।
ऐतिहासिक सबूतों को विकृत करने के प्रयास का समर्थन नहीं होना चाहिये , इससे आने वाली पीढ़ी का ज्ञान भ्रमित होगा जो देश के भविष्य के प्रतिगामी है।
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