उत्तर प्रदेश में सब कुछ ठीक नहीं है
रविवार को सपा कांग्रेस में गठबंधन के बाद कहा गया कि देश के संविधान के निर्माताओं की आशाओं के अनुरूप यह गठर्बधन राज्य में साम्प्रदायिक एकता को बढ़ावा देगा , लेकिन जो लोग उत्तर प्रदेश के समाज को समझते हैं वे डरे हुये हैं। डर है कि कहीं इससे तीव्र साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण ना हो। क्योंकि सबसे पहली बात कि गठबंधन के दलों –कांग्रेस और समाजवादी पार्टी – ने किसी आदर्श के आधार पर हाथ नहीं मिलये हैं , बस राजनीतिक सुविधा के लिये एक मंच पर आ गये हैं। वैसे कहा जाय तो आदर्श के मामले में दोनों दल एक दम दीवालिया है। गठबंधन के बाद दोनों दलों ने घोषणा की कि यह धर्म निरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता की जंग के लिये बना है। वैसे धर्मनिरपेक्षता क्या है इस पर बहुत कुछ कहा जा चुका है और लगभग सभी देशवासी जानते हैं कि चुनाव के समय यह शब्द ध्रुवीकरण प्रोतसाहित करता है। इसमें सबसे चौंकाने वाला तथ्य है कि दोनों दल हाल के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के उद्देश्य को बहुत कम माना है और देश के सबसे ‘विस्फोटक’ प्रदेश में गहरी धार्मिक परतों को निशाना बनाया है। गत 2 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिदित्व कानून 1951 की व्याख्या करते हुये झ्यवस्था दी थी कि किसी भी चुनाव में अगर कोई दल या उसका उममीदवार या उसके प्रचारक धर्म , जाति, नस्ल , सम्प्रदाय या भाषा के आधार पर वोट मांगता है तो उसका चुनाव रद्द कर दिया जायेगा। यह एक ऐतिहासिक फैसला था ओर राजनीतिक पार्टियों ने इसका स्वागत किया। पर सच क्या है? रविवार को लखनऊ में गठबंधन की घोषणा के बाद कांग्रेस के राज बब्बर ने कहा कि यह गठबंदान राज्य में साम्प्रदायिक ताकतों को उखाड़ फेंकने के लिये है। उन्होंने याचित 120 सीटों के बदले 105 सीटों पर चुनाव लड़ने के कारणों के बारे बताया कि यह इसलिये जरूरी था कि राज्य में भाजपा की अलगाववादी राजनीति को खत्म किया जा सके तथा धर्म निरपेक्षता को बढ़ावा देने के साथ साथ साम्प्रदायिक एवं सामाजिक सौहार्द्र को विकसित किया जा सके। भाजपा को उखाड़ फेंकने का दम भरते हुये प्रदेश कांग्रेस अदयक्ष राज बब्बर ने कहा कि दो युवा नेताओं के हाथ मिलाने से जाति एवं धर्म की छोलदारियां उखड़ जायेंगीं। कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस दौरान दोनो पक्षों के नेताओं केवल जाति, धर्म और सम्प्रदाय की ही बात की विकास पर कोई फोकस नहीं रहा। यही नहीं देश के निर्धनतम लोगों का एक तबका यू पी में भी है उनके लिये एक शब्द भी नहीं कहे गये और ना रोजमर्रा की जिन्दगी में आने वाली कठिनाइयों मसलन शिक्षा, आर्थिक विकास , स्वास्थ्य इत्यादि का जिक्र हुआ। सपा के प्रवक्ता नरेश उत्तम ने भी लगभग यही सब बातें कहीं। राज्य के सत्तारूढ़ दल और देश की ‘महान’ पार्टी के गठबंधन में जीवन के मसायल लापता थे और बातें केवल जाति , सम्प्रदाय और धर्म की होती रहीं। यह कैसा पाखंड है। यह देश की सियासी पैराडाइम की विद्रूपता है कि पार्टिया खुल्लम खुल्ला अपने साम्प्रदायिक अजेंडे का बयान कर रहीं हैं , उन्हें यह गुमान है कि वे धर्मनिरपेक्षता के सही किनारे पर हैं। राज्य में साम्प्रदायिक सौहार्द की बात करने वाली सपा शायद यह समझती है कि जनता को कुछ याद नहीं रहता है। मार्च 2013 में विधानसभा में एक लिखित प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बताया था कि उनके शासन काल में अबतक राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा की 27 घटनाएं हुईं। इनमें तीन –मथुरा , बरेली और फैजाबाद - की घटनाएं बड़ी थीं , यह सब सितम्बर 2013 के मुजफ्फरनगर के दंगे के पहले वाकयात हैं। यहां दंगों में 40 लोग मारे गये थे और 50,000 घायल हुये थे। इसके बाद भी सपा की तरफ से धर्मनिरपेक्षता का ताना बाना बुनने के लिये अखिलेश यादव को ही सामने रखा गया है। रविवार को ही सपा का चुनावी घोषणपत्र जारी हुआ और उसमें अल्पसंख्यकों के लिये व्यापार के एक लाख अवसर मुहैय्या कराने और सरकारी योजना में उनकी भागीदारी सुनिश्चत करने का आश्वासन है। साथ ही सुरक्षा की गारंटी है। इसमें यह नहीं कहा गया है कि उत्तार प्रदेश के महज 19 प्रतिशत मतदाताओं के लिये रोजगार के अवसर क्यों उपलब्ध कराये जा रहे हैं और बाकी लोगों पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया। यही नहीं राज्य 19 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं के अलावा 81 प्रतिशत अन्य जातियों को हिफाजत की जरूरत नहीं है। लेकिन यह इन दिनो कथित धर्मनिरपेक्ष दलों के काम करने का तरीका यही है। अदालत कृपया इसपर ध्यान दे।
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