अखिलेश को मिली साईकिल
देश के सबसे बड़े प्रान्त उत्तरप्रदेश में सियासी दंगल दिलचस्प होता जा रहा है. प्रान्त की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और महाबली नेता मुलायम सिंह यादव एक दूसरे के पर्यायवाची थे लेकिन सोमवार को यह मिथक टूट गया. पुत्र अखिलेश सिंह से चाचा शिवपाल सिंह यादव को लेकर विवाद हो गया और उस पारिवारिक रस्साकसी में चुनाव चिन्ह साईकिल भी फँस गयी. साईकिल को लेकर बात बढ़ी और इस पर अपना अपना हक़ जताते हुए बाप बेटा दोनों चुनाव आयोग की चौखट पर आ गए. दोनों का दवा था कि नेता हम है इसलिए साईकिल मुझे मिलनी चाहिए. दोनों की दलीलें सुनने के बाद आयोग ने सोमवार को अखिलेश को सही दावेदार बताया और उन्हें पार्टी का चुनाव चिन्ह साईकिल सौंप दिया. यह फैसला महत्वपूर्ण माना जा रहा है. महत्वपूर्ण इसलिए कि अखिलेश – कांग्रेस – राष्ट्रिय लोकदल के गत बंधन की रह खुल गयेदे और उम्मीद है कि इसकी घोषणा जल्दी ही कर दी जायेगी. यह गठबंधन राज्य के विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के दांत खट्टे कर सकता है. भा ज पा ने 2014 के चुनाव में राज्य में सभी दलों को धूल कहता दी थी और सत्ता के प्रमुख दावेदार बा स पा को तो हाशिये पर लाकर खडा कर दिया था. वैसे 2012 के पराभव के बाद से ब स पा और उसकी नेता का राजनितिक ग्राफ नीचे ही गिरता जा रहा है. चुनाव आयोग के आदेश के बाद राम गोपाल यादव का कहना है कि उत्तर प्रदेस्ध में इस बार गठबंधन ही जीतेगा. पार्टी में विवाद पैदा करने का आरोप रामगोपाल पर भी है. इस पूरे निर्णय में सबसे मजेदार मसला यह है कि पहली जनवरी 2017 को पार्टी की आपात बैठक हुई थी , इसी बैठक के बाद तो अखिलेश यादव और उनके समर्थकों ने मुलायम का तख्ता पलट दिया था , आयोग ने उस बैठक पर विचार नहीं किया. पार्टी के 90 प्रतिशत कार्यकर्ताओं ने ध्वनि मत से अखिलेश सिंह को पार्टी का . राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना और मुलायम सिंह को परामर्शक के पद पर दाल दिया. मुलायम के भाई शिवपाल यादव को भी प्रांतीय अध्यक्ष के पद से हटा दिया गया. अखिलेश सिंह नकी ओर से वकील कपिल सिब्बल ने 13 जनवरी को आयोग के सामने दलील राखी थी कि पार्टी के अंदरूनी कम काज में बहुमत को देखा जाना चाहिए और अगर ऐसा नहीं होता है तो अल्पमत वाले गुट का अत्याचार बढेगा. अखिलेश की ओर से 4716 पार्टी प्रतिनिधियों केव शपथपत्र , 205 विधायकों , 15 सांसदों और 56 विधान पार्षदों के हस्ताक्षर सौपे थे. मुलायम सिंह की ओर से ऐसा कोई शपथ पात्र नहीं सौंपा गाया था जबकि चुनाव आयोग ने इसके लिए बार बार कहा था. यह गुट केवल पार्टी के संविधान की दुहाई देते हुए आयोग के सामने खडा था. संविधान का मामला तकनीकी आधार था और आयोग ने इसे नहीं माना. चुनाव आयोग ने अपने फैसले के आधार स्वरुप सादिक अली मामले का हवाला दिया. इस मामले के तहत 1969 में जब कांग्रेस टूटी थी तो सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत के तर्क पर ही चुनाव आयोग के एक फैसले को कायम रखा था. इसने भी चुनाव चिन्ह के मामले में नियम के पैरा 15 के आदेश को कायम रखा. चुय्नव आयोग का यह फैसला मुलायम सिंह यादव पर एक बड़ा आघात है.मुलायम सिंह अब तो अपने राजनितिक करिअर के अंतिम मोड़ पर हैं और यहाँ खड़े होकर वे अपने ही पुत्र से पंजे लड़ाने लगे. मुलायम एक घुटे हुए राजनीतिज्ञ हैं और वे यह नहीं भाप पाए कि पार्टी पुराने पहरुओं से निजात पाना चाहती है. वे जिद्द पर अड़े रहे और शिवपाल सिंह यादव और अमर सिंह का साथ देते रहे. जबकि उनपर पार्टी को तोड़ने का आरोप था. जैसा की सुनगुन है मुलायम सिंह इस फैसले के खिलाफ अदालत में भी जाने वाले हैं. हालांकि मुलायम सिंह हाशिये पर आ गए हैं पर वे पुत्र अखिलेश यादव के चुनावी पथ को सहज नहीं रहने देंगे. सोमवार को पार्टी मुख्यालय में कार्य कर्ताओं को संबोधित करते हुए मुलायम सिंह ने कहा था कि “ वे अखिलेश के खिलाफ चुनाव भी लड़ सकते हैं. उन्होंने कहा कि अखिलेश अल्पसंख्यक विरोधी नेता हैं.” उधर अखिलेश गुट ने कांग्रेस, रालोद और अन्य छोटे दलों से गठबंधन की योजना बना रखी हैं. अखिलेश अपने प्रस्तावित गठबंधन के साथियों को 120 से ज्यादा सीटें शायद नहीं देंगे.जैसे कि संकेत मिल रहे हैं वे 403 सीटों वाली विधान सभा में 75-90 सीटें कांग्रेस को और 25 सीटें रालोद को देने का मन बना रहे हैं बाकी एनी छोटे छोटे दलों को. अब चूँकि साईकिल का चुनावचिन्ह उने हासिल हो गया है वे तो सौदेबाजी के लिए और ताकतवर हो गये हैं. कांग्रेस और रालोद भी इसके लिए लालायित हैं , क्योंकि उन्हें मालूम है कि अगर अकेले चुनाव में गए तो उनका सफाया हो जाएगा. मुजफ्फरनगर के दंगे बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद की हालत और खराब हो गयी है. उत्तर प्रदेश चुनाव में अब सारा खेल मुस्लिम मत दाताओं पर निर्भर है, सवाल यह है कि क्या वे मुलायम से अखिलेश के पक्ष में पाला बदलेंगे या फिर मायावती के पीछे चलेंगे. मायावती ने इस बार 97 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. यह हो सकता है कि चुनाव में ध्रुवीकरण को भी हवा दे, क्योकि वोट बैंक की बात उदानेद का मसाला तो भा ज पा के पास हो ही गया. कांग्रेस और रालोद का गत बंधन इस प्रयास को थोडा रोक सकता है और जो वर्ग केंद्र की नीतियों से संतुष्ट नहीं हैं. नोट बंदी ने उन्हें मसाला दे दिया है.
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