नोट बंदी : अर्थशास्त्र और गणित
गरचे रूपए की किल्लत है देश में और रूपए पर भरोसा घटा है तब भी रुपयों का यकीन बिलकुल ख़तम नहीं हुआ है. नोट बंदी के पक्ष में दलील देते हुए जगदीश भगवती और विवेक दहेजिया जैसे लोगों ने और इनके अलावा मोदी जी के सोशल मीडिया के भगतों ने इस सम्बन्ध में होने वाली आलोचनाओं को दर किनार करने की पुरजोर कोशिशें कीं हैं. यह सही है कि जली नोट , कला धन और करप्शन जैसी बुरायीओं का केवल नोट बंदी ही एक मात्र उपाय नहीं है बल्कि इसके साथ कुछ और उपाय करने होंगे. लेकिन नोट बंदी का जो लघु अवधि तथा दीर्घ अवधि मूल्य चुकाना पड़ रहा है इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. पर मोदी जी के प्रचंड समर्थकों का कहना है कि यह काले धन पर एकवक्ती एकमुश्त टैक्स है. इसकी सफलता को काले धन से मिले टैक्स के रूप में आंका जाना चाहिए. वे शुद्ध उपलब्धि के तौर पर इसे आंकना चाहते हैं. मसलन फर्ज करें कि ” नोट बंदी से एक ख़राब रूपए का कला धन नष्ट हो गया और लगभग इतना ही टैक्स मिला. इससे यह कहा जा सकता है कि 2 ख़राब रूपए अर्जित किये.“ यह नोत्बंदी की सफलता है. इस गणित से किसी को गुरेज नहीं हो सकता है पर दिक्कत तब होती जब इसकी अर्थ शास्त्रीय व्याख्या की जाती है. राजस्वा प्राप्ति सफलता का बड़ा विचित्र मापदंड है. किसी भी कार्यक्रम की आर्थिक सफलता का लेख जोखा केवल लाभ का आकलन नहीं है बल्कि उसमें लगी “ कीमतों” को घटाना भी पड़ता है. किसी भी टैक्स की क्षमता का आकलन इससे प्राप्त राजस्वा और अतिरिक्त बोझ, आर्थिक गतिविधियों के हतोत्साहित होने का कुल मूल्य और कर वसूली के खर्च की की तुलना कर के किया जाता है. सफलतम कर वह होता है जिसके हर रुपोय की वसूली पर कम से कम खर्च करना पड़े. जिन्होंने भी नोट बंदी पर तालियाँ बजायी हैं उन्होंने इस गणित को समझा नहीं है या इससे जुडी आर्थिक हानियों को दर किनार कर के इसका आकलन किया है. लेकिन सच्चाई सामने है. सेंटर फ़ॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार 50 दिनों में पुराने नोट हटा कर नए नोट देने में 1. 28 ख़राब रूपए खर्च हुए हैं. यह राशि 2 ख़राब रुपयों के अनुमानित राजस्वा वसूली का 64 प्रतिशत है. यह राजस्व में मुर्दा राशि है , बिलकुल अनुपयोगी या कहें यह “ डेडवेट ” है. इसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि नोट बंदी से जो राजस्व प्राप्ति हुई है वह बहुत महँगी है. सेंटर फ़ॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के अनुसार केवल नए नोट छपने में 168 अरब रूपए खर्च हुए. नोट लेने की करतार में खड़े लोगों की मजदूरी में लगभग 150 अरब का घटा हुआ. बैंकों द्वारा अन्य काम काज बंद कर नोट बदलने में 351 अरब रूपए खर्च किये गए. सबसे ज्यादा व्यावसायिक कारोबार में हुआ और नगदी लें दें रोकना पडा या उसमें भरी कटौती करनी पड़ी जिससे 615 अरब रुपयों का घटा लगा. सेंटर फ़ॉर मोनिटरिंग इंडियन इकॉनमी ने यह बहुत कम करके आंका है और यह आकलन केवल 30 दिसंबर तक का ही है. कई अन्य निष्पक्ष आकालान्कर्ताओं के मुताबिक़ अर्थ व्यवस्था के विकास में 3 . 3 परसेंटेज पॉइंट्स की हानि हुई है. भारत की अर्थ व्यवस्था में 1 परसेंटेज 1. 45 ख़राब के समतुल्य है. हो सकता है कि इसपर कुछ लोगों को आपत्ति हो पर शून्य का आकलन तो सही नहीं होगा. इन खर्चों में आडिटिंग , संग्रहण और टैक्स लागू करने वाले खर्च शामिल नहीं हैं. भारत के जटिल टैक्स कानून और देश के हर कर वंचक को दण्डित करने के प्रधान मंत्री के वायदे को हुए यह खर्च भी मामूली नहीं होगा. सरकार के पास पर्याप्त नए नोट नहीं है. यह सबने स्वीकार किया है. नए नोट आने में समय लगेगा इसबीच नगदी का भरी संकट आ सकता है. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि जमा करने या निवेश करने के तौर पर रूपए का आकर्षण घाट गया. संभवतः इसका सबसे बड़ा शिकार भारतीय रिजर्व बैंक हुआ है जिसे 50 दिनों में 60 अधिसूचनाएं जारी करनी पड़ी. हमें लाभ और खर्च दोनों का आकलन करना होगा तब कहीं जा कर यह पता चलेगा कि यह कार्यक्रम सफल है या असफल.
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