शिक्षा को किफायती बनाना ज़रूरी
अब समय आ गया है जब हम इस बात पर विचार करें कि सरकारी धन से संचालित शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा संस्थानों तक या उसमे दाखिला महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि अच्छी शिक्षा की व्यवस्था में प्र्तावेश ज़रूरी है. हमारे देश में सरकारी नीतियों की स्थिति यह है कि शिक्षा संस्थानों में दाखिला और उनकी गुणवत्ता दोनों अलग- अलग चीजें हो गयीं हैं. बहु प्रचारित सरकारी योजनायें जैसे सर्व शिक्षा अभियान या राष्ट्रिय उच्चतर शिक्षा अभियान सिर्फ नामांकन की गिनती के तंत्र बनकर रह गए हैं . वहाँ शिक्षा की गुणवत्ता बिलकुल नहीं है. सकल नामांकन अनुपात( जी ई आर ) और विद्यालयों तथा कॉलेजों की बढती संख्या केवल आंकड़े पैदा कर रही हैं अच्छे शिक्षित छात्र नहीं. अगर स्पष्ट रूप में कहें तो यह कहा जा सकता है कि शिक्षा संस्थानों की तादाद और उनकी गुणवत्ता में कोई ताल मेल नहीं रह गया है. अब ऐसे संस्थान धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं जो भविष्य के नागरिकों को लोकतान्त्रिक ढंग से ताकतवर बना कर उन्हें सामाजिक आर्थिक गतिशीलता के लिए तैयार करे. यह तो सब जानते हैं कि सरकारी शिक्षा संस्थानो में बड़ी संख्या में छात्रों के दाखिले होते हैं पर बहुत ऐसे संस्थान हैं जहां शिक्षा की गुणवत्ता श्रेष्ठ होती है. अब तर्क ये दिए जा रहे हैं कि अच्छी शिक्षा महँगी होती है और सबके लिए सुलभ नहीं है. इस तर्क का निहितार्थ यह है कि हमारी आबादी के गरीब लोग अच्छी शिक्षा से बाधित किये जा रहे हैं. यह सामाजिक असमानता और शोषण को बढ़ावा देने वाला है और इससे वंचित लोगों की एक बड़ी आबादी तैयार हो रही है. अब अगर प्राइमरी और सेकेंडरी स्तर पर अच्छी शिक्षा नहीं होगी तो एक बहुत बड़ी आबादी प्रतिभा ( मेरिट ) के नाम पर उच्च शिक्षा में दाखिले से वंचित रह जायेंगे. आरक्षण विरोधी तर्क का आधार है कि उच्च शिक्षा में मेरिट के आधार पर दाखिला हो ना कि आरक्षण के आधार पर. लेकिन गरीब तबकों से सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे मेरिट के उस स्तर तक कैसे पहुँच पायेंगे. ऐसे सामाजिक न्याय का सविधानिक अधिकार केवल बात ही बन कर रह जाता है. गरीब और साधन विहीन लोग सामाजिक सुविधा से वंचित रह जा रहे हैं. लिहाजा स्कूलों में खासकर सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन दर में तेज गिरावट आ रही है. यह एक खास किस्म के सामाजिक हतोत्साह भरी स्थिति की ओर इशारा करता है. देश की सवा अरब की आबादी का आधा से कुछ ही कम भाग केवल चार प्रान्तों बिहार , मध्य प्रदेश , राजस्थान और उत्तर प्रदेश में रहता है और यहाँ स्कूल जाने का प्रतिशत केवल 43.6 है और साक्षरता दर देश के औसत दर से कम भी है. आंकड़े बताते हैं कि इन राज्यों आर्थिक तौर पर अशक्त लोगों की संख्या भी ज्यादा है. आंकड़े बताते हैं कि अगले 10 वर्षों में बिहार और उत्तर प्रदेश में देश की सबसे ज्यादा युवा आबादी होगी और अगर शिक्षा के प्रति इतना ज्या हतोत्साह भरा रुख रहा तो इस युवा आबादी को संभालना कठिन हो सकता है क्योंकि इनकी उत्पादकता और रोजगार के अवसरों में सुधर केवल उच्च शिक्षा पर निर्भर है जो महंगी होने के कारण इनकी पहुँच से बाहर है. रिव्यू ऑफ़ डेवलोपमेंट इकोनोमिक्स के आंकड़े बताते हैं कि भारत में गरीब परिवारों की तुलना में अमीर परिवारों के बच्चों के स्कूलों में भारती होने की संभावना ज्यादा होती है. अब उपरोक्त आंकड़े यह नहीं बताते की उसमें कितने बच्चे सरकारी स्कूलों के हैं और कितने महंगे प्राइवेट स्कूलों के. यही नहीं शिक्षक और छात्रों का अनुपात भी बड़ा बेढंगा है. मसलन उत्तर प्रदेश में 2.53 करोड़ छात्रों को महज 6 लाख 65 हज़ार 779 शिक्षक पढ़ाते हैं यानि 39 छात्रों पर एक शिक्षक जिनमें कुछ विद्यालय ऐसे भी हैं जहां सेकेंडरी और हायर सेकेंडरी की कक्षाएं भी समाहित हैं. लोक सभा के आंकड़े बताते हैं कि यू पी में 23 प्रतिशत शिक्षको के पद रिक्त हैं. सच यह है कि इन दिनों जिस तरह शिक्षा के निजीकरण का प्रसार हो रहा है वह सरकारी शिक्षा पर गंभीर आघात है और लोगों के मन में यह बात बैठ चुकी है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती और निजी स्कूलों में गरीब अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे? शिक्षा का अधिकार केवल कागजों में ही सिमित है. हमारा देश आर्थिक उदारीकरण का दौर पूरा कर चुका है और अब हम आगे तब ही बढ़ सकते हैं जब ज्ञान का समाज बनेगा और विसके लिए सर्व सुलभ शिक्षा का ढाँचा तैयार करना ज़रूरी है. यतः ध्यान रखना ज़रूरी है कि प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है क्योंकि विकास का पहला कदम यहीं से आरम्भ होता है.
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