देश में शिक्षा बदहाल
भारत में शिक्षा की बदहाली की खबरें अक्सर सुनाने में आती हैं. शिक्षण व्यवस्था में कमी के अलावा शिक्षकों की नियुतियों में करप्शन , सियासत इत्यादि की भी अक्सर मौजूदगी देखी जाती है. ऐसे छात्र टापर हो जाते हैं जो अपने विषय का नाम तक नहीं जानते, मंत्रियों की डिग्री पर विवाद होता है और कई स्कूलों में ऐसे भी शिक्षक मिलते हैं जिन्हें भारत और इंडिया दोनों एक हैं यह नहीं मालूम होता है. इसपर अयोग्य शिक्षकों की लगातार नियुक्तियाँ तो कोढ़ में खाज की तरह हो गयी हैं. बुधवार को जारी शिक्षा की वार्षिक स्थिति की रपट नें बताया हैं वह तो और निराशाजनक है. रपट के मुताबिक़ पहली कक्षा से आठवीं कक्षा एक बहुत बड़ा भाग दूसरी क्लास की किताबें ठीक से नहीं पढ़ सकता है. शिक्षा पर अलाभकारी संस्था “ प्रथम” की वार्षिक रपट के अनुसार विगत 10 वर्षों में बहुत कम बदलाव आये हैं, खास कर ग्रामीण शिक्षा में. गाँव के सरकारी तथा निजी स्कूलों के पहली क्लास के क्षत्रों से लेकर आठवीं कक्षा के छात्र कक्षा दो की पथ्य पुस्तक को सही सही नहीं पढ़ सकते हैं और ना अपनी उम्र के अनुरूप गणित के प्रश्न हल कर सकते हैं. गओ९न के अधिकाँश छात्र सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं और उनकी शैक्षिक स्थिति बहुत ही खराब है बनिस्बत कि निजी स्कूलों के. आर्थ शास्त्री विमिला वाधवा के अनुसार इसका बड़ा कारण सामाजिक आर्थिक अंतर है. देश के 589 ग्रामीण जिलो में किये गए सर्वेक्षण के आधार पर यह रपट तैयार की गयी है. इसमें स्थानीय भाषा में पहली कक्षा के पाथ पढने को दिए गए थे और दो अंकों घटाव तथा भाग दिए गए थे. नाटकीय शीर्षकों के साथ कई बार शिक्षा के राष्ट्रीय औसत की खबरें प्रकाशित हुईं हैं या होती आयीं हैं जिसमें गाँव में शिक्षा के विकास की बड़ी बड़ी खबरें होतीं हैं, बड़े बड़े दावे होते हैं पर सच तो यह है कि सरकारी विद्यालयों के क्लास तीन के महज 19 प्रतिशत छात्र ही क्लास दो की किताबें ठीक से पढ़ सकते हैं. उत्तर प्रदेश में छात्रों को लैप टॉप दिए गए हैं , पढने के नाम पर बड़ी राशि खर्च होती है पर आलम यह है कि क्लास तीन के केवल 7% छात्र ही कक्षा दो की किताबें पढ़ सकते हैं लेकिन अनुपात केरल में 38 प्रतिशत और हिमाचल प्रदेश में 45% है. यही नहीं केरल और महाराष्ट्र में सरकारी स्कूलों के छात्र निजी स्कूलों से ज्यादा मेधावी हैं. ये रपट राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् की त्रिवर्षीय रिपोर्ट तथा कई राज्यों की शिक्षा वार्षिक प्रतिवेदन की पुष्टि करती है. हालांकि शिक्षा की सही स्थिति के लिए उसकी उपलब्धियों के वार्षिक आकलन की ज़रुरत है. लेकिन जो सबसे ज्यादा ज़रूरी है वह कि देश शिक्षा की इस बदहाली कैसे दूर किया जाय. किसी भी प्रतिवेदन में ये उपाय नहीं सुझाए जाते हैं. पाठ्य पुस्तकों की तैयारी से लेकर विश्व विद्यालयों तक में अंक दिए जाने को लेकर भ्रष्टाचार व्याप्त है , शिक्षकों की सियासती दलबंदी ने हालात को और ख़राब कर दिया है. शिक्षा की स्थिति की इस रपट में भी केवल हालात का ही बयान है नाकि इसे कैसे सुधारा जय इसका जिक्र है. बात केवल प्रिमारी शिक्षा की हो तो गनीमत है. उच्च शिक्षा की भी यही हालत है. गत वर्ष बिहार में इंटर में जो लड़की टॉप की थी उसकी कथा तो सभी जानते हैं. इन दिनों शिक्षा एक कारोबार बन कर रह गयी है. इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के अध्ययन बताते हैं कि चालू वित्त वर्ष के दौरान अबतक शिक्षा का कारोबार 7.8 लाख करोड़ तक पहुँच गया है. जबकी गत वर्ष यह 6.4 लाख करोड़ था. निजी विश्वविद्यालयों की संख्या बहुत तेजी से बाधी है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008 -09 में जहां 3 प्रतिशत निजी विश्वविद्यालय थे वहाँ आज 29 % हैं. तेजी से सिक्षा संस्थान खुल रहे है और वहाँ से निकलने वाले छात्र बेकारों की संख्या बढ़ा रहे हैं. यह बेकारी एक अलग समस्या है जिसका राजनीतिज्ञ प्रचुर दोहन करतें हैं. देश में हर साल 15 लाख इन्जीनियर बनते हैं जिनमें आधे बेकार रहते हैं या मामूली वेतन पर काम करते हैं.अभिभावकों और समाज की मानसिकता भी इस अंधी दौड़ में मदद करती है और जिसका लाभ स्वार्थी तत्व उठाते हैं. इसका प्रमुख कारण है शिक्षक और छात्रो के अनुपात में असमानता और शिक्षकों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार. इसे भी ख़त्म करना ज़रूरी है.
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