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Monday, January 30, 2017

भा ज पा का अंकगणित

भाजपा का अंकगणित

चुनाव फिर से आ गये। अलग –अलग क्षेत्रफल , आबदी, सामाजिक संरचना, आर्थिक स्थिति वाले पांच राज्यों में चुनाव होने हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं लेकिन इन चुनावों के नतीजे दूरगामी प्रभाव वाले होंगे। इन राज्यों में दो अखिल भारतीय और दो क्षेत्रीय दल सत्ता में हैं। ये चुनाव इनकी किस्मत का निर्णय करेंगे लेकिन दुखद यह है कि किसी के पास कोई प्रभावशाली दावा नहीं है। सबके सातने एक ही कठिनायी है। गोवा, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा के साथ आंतरिक कठिनाइयां हैं तो कांग्रेस की अपनी समस्याएं हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस के कई नेता भाजपा में शामिल हो गये जबकि मणिपुर में सत्तारूढ़ दल की हालत खराब है और पंजाब में घरघराहट अभी कायम है। समाजवादी पार्टी पारिवारिक कलह से ग्रस्त है। कहने का मतलब है कि शासन और संगठन के मामले में सभी दल एक ही तल पर खड़े हैं। हालांकि भाजपा चूंकि केंद्र में सत्रारूढ़ है और बहुमत में है अतएव उसकी स्थिति थोड़ी अच्छी है। बिहार की भांति यू पी भी भाजपा के लिये निकष होगा। यू पी में काहंग्रेस की सीमाओं और बहुकोणीय संघर्ष के बावजूद भाजपा की सीमाएं स्पष्ट दिख रहीं हैं। 2014 में भाजपा को उत्तर प्रदेश में जो भारी विजय मिली थी वह इस बार उसके लिये बोझ सा दिखने लगी है। यही नहीं वह भारी विजय राज्य में पार्टी में भितरघात और गुटबाजी की संभावनाओं को भी मजबूत कर रही है। लोकसभा चुनाव में उसे 403 विधान सभा चुनाव खंडों में से 327 खंडों में विजय मिली थी जो इस बार संबव नहीं दिख रही है। इस बार वे सब नहीं चलेंगे जो 2014 में उनकी विजय के लिये कारक थे। अगर यू पी में भाजपा ने विजय नहीं पायी तो इसका बड़ा घातक प्रभाव हो सकता है। विडम्बना यह है कि इस बार का चुनाव सपा के लिये अन्कमबेंट टेस्ट नहीं होगा उल्टे भाजपा के लिये होगा कि यह 2014 का अपना रिकार्ड कायम रख्ग सकती है या नहीं। अब सुप्रीम कोर्ट ने 1 फरवरी को बजट पेश करने की इजाजात दे दी है तो इससे यकीनन उसे थोड़ा लाभ मिलेगा। भाजपा चाहे जो कहे लेकिन मतदाताओं का फोकस राष्ट्रीय मसलों पर चला जायेगा। बजट के शोर शराबे में मतदाताओं और मीडिया का ध्यान विभाजित हो जायेगा। बजट का स्वरूप कैसा होगा और इसके बाद से भाजा कौन सी समर नीति अपनाती है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि गैर भाजपाई दलों के गणित गड़बड़ हो कते हैं। इसके बावजूद कई अन्य कारण है तथा बजट भी उनमें एक कारण है , भाजपा रक्षात्मक जंग लड़ने के लिये बाध्य है और उसके सामने कई जटिल चुनौतियां आ सकतीं हैं। अब बजट की ही बात लें तो भाजपा इसे लेकर दुविधा में है। संभवत: इस सरकार के लिये अर्थ व्यवस्था में भारी परिवर्तन लाने वाला बजट पेश करने का अंतिम अवसर है। यह बजट ही 2019 तक व्यवहारिक परिवर्तन ला सकता है। लेकिन इस बजट का समय और सरकार की प्रवृति से लगता है कि यह लोकलुभावन होगा। अतएव नोटबंदी की ही भांति बजट में जो कड़े कदम उठाये जायेंगे उनके कड़ुवेपन को दूर करने के लिये सरकार को एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा। चाह जे हो भाजपा को दबाव में काम करना होगा। यही नहीं नकारात्मक जनमत को सकारात्मक बनाने के लिये नरेंद्र मोदी सहित पूरी पार्टी को अपने सभी हथकंडे अपनाने होंगे। जनता और भाजपा का जो मधुमास था वह अब खत्म होता जा रहा है। अब अगर चुनाव में उसे बरी बहुमत मिलता है तो यह मधुमास फिर से शुरू हो सकता है। 2014 के चुनाव के नतीजों को यदि अखिल भारतीय स्तर पर देखें तो पता चलेगा कि जनादेश स्पष्ट था। मतदाताओं ने न केवल भाजपा को एक दल की तरह कबूल किया बल्कि नरेंद्र मोदी को अपना सारा भरोसा सौंप दिया था। मोदी जनभावना के प्रतिनिदि बन गये थे और साथ ही इस उम्मीद के भी प्रतिनिदि थे उनके नेतृत्व में भाजपा सब कुछ ठीक कर देगी। मोदी और जनता या मतदाताओं के मध्य एक अजीब समबंदा दिखने लगा था। वह सम्बंध मोदी से प्रेम और उममीद का मिलाजुला स्वरूप था। इसमें भाजपा की कोई बूमिका नहीं थी। यही कारण है कि बाद के चुनाव में अगर पार्टी हारी भी तो लोगों मोदी के प्रति आास्था और उम्मीद कायम रही। लोकसभा चुनाव के बाद जो बी विदान सबा चुनाव हुये उसमें भाजपा का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं रहा। जैसे जैसे समय बीतता गया मोदी का तिलिस्म घटता गया। मोदी ने नोटबंदी के माध्यम से कुछ करिश्मा दिखाने की कोशिश की थी पर कामयाबी नहीं मिल सकी। अब आने वाले चुनाव में मोदी और भाजपा कुछ करिश्मा कर सकेंगे यह तो समय ही बतायेगा। अगर मोदी के शासनकाल ना समाज वैज्ञानिक विश्लेषण करें तो दिखेगा कि मतदाताओं और मोदी में एक अजीब समबंदा था। इस सम्बंध से देश में खुशहाली नहीं आ सकी हालांकि मोदी का व्यक्तितव कायम रहा लेकिन चुनाव मशें विजयी बनाने का लाभ जनता को उम्मीद से कम मिला। लोग अब ‘अच्छे दिन’ के बारे उत्तर देने में हिचकिचाते हैं। सच तो यह है कि मोदी जी ने अच्छे दिन के स्टेज को कालाधन के खत्मे के मंच में तब्दील कर दिया। आंशिक तौर पर ही सही जनता ने इसे भी मान लिया। लेकिन कोई खास बदलाव तो नहीं आया। अब मोदी और भाजपा के लिये सामने चुनौती है।  

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