क्या यू पी की माली हालत सुधरेगी
उत्तर प्रदेश में चुनाव के युद्दा का शंख बज चुका है और सारे योद्धा अपने अपने मोर्चे पर डट गये हैं। तैयारियों के तौर पर आपसी झगड़े हुए, दल टूटे, नये गुट बने,गठबंधन टूटे, गढबंदान बने और तरह- तरह के प्रचार हुये। अखबारों की सुर्खियां भी कायम रहीं। लेकिन इस सारे शोर में एक प्रश्न अनुत्तरित रह गया कि सरकार चाहे जिसकी बने क्या उत्तर प्रदेश की आर्थिक हालत सुधरेगी? ब्राजील से ज्यादा आबादी वाले इस प्रांत की माली हालत खस्ता है। इस राज्य की 20.40 करोड़ आबदी की आर्थिक स्थिति में क्या सुदार आयेगा? आंकड़े बताते हैं कि 1961 से 2016 के बीच एक दशक को छोड़ कर कांग्रेस का शासन रहा लेकिन राज्य की अर्थ व्यवस्था राष्ट्रीय औसत दर से सदा पीछे रही। ऐतिहासिक अयोग्यता को अगर छोड़ भी दें तो 1980 से अब तक जिन दलों का शासन रहा , चाहे वह भाजपा का हो या बसपा का या सपा का , कोई भी अर्थ व्यवस्था में सुधार नहीं ला सकी। 1990 से अब तक किसी भी दल का अर्थ व्यवस्था पर ध्यान गया ही ना किसी ने उसके विकास की नीति बनायी। अगर आप अब तक के हालात पर गौर करें तो पायेंगे कि सबकी आर्थिक नीतियां लगभग समान रहीं। जैसे लगता हो कि एक खास समस्या का तयशुदा एक दम स्टैंडर्ड समाधान है। यह अयोग्यता वहां की व्यवहारिक राजनीति (रीयलपोलिटिक) में भी कायम है। कभी बी चुनाव में अर्थ व्यवस्था मुद्दा नहीं बनी। वहां के चुनाव नेता की छवि, जाति और साम्प्रदायिक आधारों पर लड़े जाते हैं। ऐसे वातावरण में जनता या नेता बेशक विकास की बात तो करते हैं पर प्राथमिक बात नहीं होती। गत 22 जनवरी को सपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार और सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी किया। वे अपने 30 मिनट के भाषण में लगातार बोलते रहे कि किन सड़कों को सरकार ने 2012 में सत्ता में आने के बाद से अबतक बनाया और और उन योजनाओं का विवरण देते रहे जिससे सपा फिर से वोट हासिल कर सके। विकास की लम्बी सूची में केवल सड़कों का जिक्र था। सबसंे ज्यादा आगरा लखनऊ एकसप्रेस वे की बात हुई वह अभी तक पूरी तरह ऑपरेशनल नहीं है। बेशक प्रचार में वह पूरा हो चुका है। यही नहीं अखिलेश यादव ने प्रचार के माध्यम से सड़क निर्माण, बिजली क्षेत्र में सुधार और सामाजिन सुरक्षा योजनाओं के क्रियान्वयन में कामयाबी जरूर हासिल कर ली है। कई झ्यवसहई यह महसूस करते हैं कि सरकार के ढांचा निर्माळा में उन पर ध्यान नहीं दिया गया। अखिलेश यादव की हाई वे परियोजनाएं तुष्टिकरण का साधन हैं उनहें औद्योगिक क्षेत्रों से नहीं जोड़ा गया है। उन्हें कुछ इस तरह बनाया गया है कि आम आदमी को दिखे और वोट मिले। आर्थिक आंकड़े बहुत अच्चै नहीं हैं। उनकी तुलना देश के औद्योगिक तौर पर अत्यंत विकसित राज्य महाराष्ट्र या गुजरात तो दूर पिछड़ेपन के लिये बदनाम बिहार से भी नहीं की जा सकती है। जो लोग उत्तर प्रदेश में कारोबार करते हैं उनका मानना है कि बहुत मामूली बदला है। सरकार कोशिशें की हैं पर अफसरशाही ने उन्हें लागू नहीं किया। मसलन , सरकार ने करजमा करने की प्रक्रिया को सरल बनाया पर अफसर अभी बी तंग करते हैं। विकास का आलम यह है कि देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों में यू पी का स्थान 14 वां है। जो सरकार भी वहां सत्रा में आती है उसका कोई खास नजरिया नहीं होता वह केवल वोट पर निगाहें टिकाये रखती है। सरकार का यह तर्क है कि यू पी में खेती की समस्या जटिल है वहां लगभग 7प्रितिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है और मानसून के असफल होने के कारण कठिनायी बढ़ जाती है। अतएव सरकार किसानों को मुफ्त पानी देने में काफी धन खर्च करती है। चलो इसे मान लेते हैं लेकिन उत्पादन क्षेत्र का क्या होगा? वह क्यों पीछे है? कृषि इतर अर्थ व्यवस्था का क्या होगा। उत्तर प्रदेश का उत्पादन आधार पारम्परिक उद्दोग तथा दस्तकारी है। उसपर ध्यान नहीं दिया जाता क्यों? इसका सबसे अच्छा उदाहरण बनारस का रेशम उद्योग है। दिलचस्प तथ्य यह है कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव क्षेत्र है। वहां अभी भी मशीनी करघे नहीं हैं बस वही कबीरदास वाली बुनकरी पर वह चलता है। सरकार को व्यापारिक नेटवर्क, श्रृखलाओं, कड़ियों, समस्याओं और अन्य मसलों पर ध्यान देना होगा जो अलग अलग क्षेत्र के लिये अलग है। उत्तर प्रदेश का समस्त लघु और मध्यम उद्योग समस्याग्रस्त है। क्रिहिल के मुताबिक यूपी के केवल 31 प्रतिशत लघु और मध्यम उद्योग है जिनकी हालत सही है जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 60 प्रतिशत है। यही नहीं राज्य की समस्याएं पूरी तरह क्षेत्रीय हैं। जैसे वहां के उद्योग अधिकांशत: पश्चिमी यूपी में हैं लेकिन उनके अन्य क्षेत्र मसलन बुंदेलखंड और पूर्वांचल पर निगाह नहीं जाती। हालांकि कागज पर सबकुछ है पर वह लागू नहीं होता।कथनी और करनी में लगातार अंतर राजनीतिक तौर पर हानिकारक होता है। लेकिन एक बात और है कि आंकड़े चाहे जो कहें अंतिम कथन मतदाताओं का ही होता है और चुनाव में देखना है कि मतदाता क्या कह रहे हैं।
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