‘धरती धोरां री’ के गौरव को खत्म करने की कोशिश को रोका जाना जरूरी
पद्मावति फिल्म की शूटिंग का विरोध जायज
हरिराम पाण्डेय
कोलकाता :‘पद्मावती’ फिल्म को लेकर जयपुर से उठा विवाद सोशल मीडिया के जरिये पूरे देश में व्याप्त हो गया है। राजस्थान से बाहर राजस्थानियों की सबसे बड़ी आबदी कोलकाता में है इसलिये यहां के समाज में उसे लेकर बेचैनी महसूस हो रही होगी। लोग इतिहास का हवाला दे रहे हैं और पद्मावती को साहित्यिक रचना बना कर उसपर विवाद को हवा दे रहे हैं। जो लोग ज्ञानगुमानी हैं उनका कहना है कि साहित्यिक रचना पर विरोधी विवाद नाजायज है। इस तथ्य पर आगे बढ़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि पद्मावती है क्या? पद्मावती की रचना 1540 में मल्लिक मोहममद जायसी ने की थी। यह काल तुलसीदास के रामचरित मानस की रचना से पहले का काल है। जायसी ने यह बताने की कोशिश की है कि चित्तौड़ की राजपूत रानी ने दिल्ली के सुल्तान के समक्ष आत्म समर्पण करने के बदले आत्मदाह कर लिया। अवधि की यह रचना इतनी सशक्त थी कि इसे इतिहास मान लिया गया। लोगों का तर्क है कि यदि यह साहितियक रचना है तो इतना बवाल क्यों?
आगे बढ़ने से पहले राजस्थान की जातीय संरचना को पहले देखना जरूरी है, क्योंकि सामाजिक आचरण उसी से निर्देशित होते हैं। राजपूतों के नाम पर बना कभी राजपूताना आज के राजस्थान में राजपूत इन दिनों जनसांख्यिक अल्पसंख्यक हैं। आजादी के बाद की चुनावी राजनीति ने ब्राह्मणों और जैनियों और जाट, गुज्जर , माली और मेघवालों जैसे पारम्परिक शक्तिशाली समूहों को विकसित किया और राजपूतों का पतन हुआ। सच तो यह है कि भैरों सिंह शेखावत के अलावा कोई राजपूत मुख्यमंत्री पद तक नहीं पहुंच सका। कभी के राजस्थान के शासक राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली समूह के तौर पर नहीं उभर सके। राजनीतिक और सामाजिक क्षरण के बाद वे धंदो की ओर झुकने लगे। कभी के शान - ओ-शौकत का प्रतीक हवेलियां होटल बनने लगीं और राजपूत नौजवान गाइड बन गये।
अब जहां तक फिल्म की शूटिंग के विरोध की बात है तो समाजवैज्ञानिक तौर पर यह राजपूत इतिहास तथा राजपूत स्मृति के बीच एक चौड़ी खाई के कारण है और इस खाई के फलस्वरूप इस समाज में भारी चिंता और भय है। यहां राजपूतों खासकर राजपूताना के राजपूतों के बारे में भी जानना जरूरी है। राजपूतों ने खुद को मुस्लिम शासकों के अंतिम विरोधी के तौर पर पेश किया है। उन्होंने इस विरोध के लिये भारी त्याग का भी दावा किया है। यह त्याग राजपूत रानियों में भी दिखता है , उन्होंने मुस्लिमों के हाथ जलील होने से बेहतर सती होना या जौहर कर लेना ठीक समझा। राजपूत होना इसी गर्व का प्रतीक है। इस प्रतीक को साहित्य तथा इतिहास में और सशक्त किया गया है। मुस्लिम विरोध का यह बिम्ब रज्य भर में बिखरा पड़ा है। राजाओं की मूर्तियां लगीं हुईं हैं जो देखने वाले को राजपूताना के गौरव की याद दिलाती है। चेतक पर सवार महाराणा प्रताप सर्वोच्च राजपूत गौरव के प्रतीक हैं जो राज्य या प्रांत या जाति से ऊपर हैं। महाकवि कन्हैया लाल सेठिया की ‘धरती धोरां री’ राजस्थान के गर्व का वाचिक बिम्ब है जो मनोवैज्ञानिक तौर पर रेगिस्तान को प्रतिबिम्बिन नहीं करता बल्कि एक ऐसी धरती के चित्र बनाता है जो वीरता और असम परिस्थितियों में परम त्याग की कथा कहता है। हालांकि राजपूत इतिहास अपने चारों तरफ विरोधी युद्ध का ढांचा बना चुका है लेकिन इसका कुछ भाग सामाजिक मौन ने भी रचा है। कवियों ने तो राजपूतों की उत्पति सूर्य और अग्नि से हुई बतायी जाती है साथ ही उन्हें साहसी घुमक्कड़ माना गया है। 15वीं सदी के बाद राजपूतों ने सगोत्रीय विवाह शुरू किया। इसके बावजूद राजपूतों की पदवियां बाहर की जातियों को भी दी जाने लगीं। मराठों और सिखों में भी कई राजपूत जातियां मिलतीं हैं। सजातीय विवाहों ने इसे उच्चवर्गीय बना दिया।
असहज स्मृतियां
लेकिन राजपूतों की पसलियों में एक कांटा अभी भी खटकता है वह है बेटियों की शादी मुसलमान सरदारों करने की मजबूरियां। उस काल में राजसत्ता के लिये दूसरी जातियों विवाह कोई असामान्य बात नहीं थी। राजपूतों और मुगलों के बीच शादियों का मुख्य कारण उनका उच्चवर्गी होना था। 16 वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं सदी तक अकबर से लेकर फारुखशियार तक लगभग 27 राजपूत राजकुमारियों के मुस्लिमों से शादियों का इतिहास है। यही नहीं कई राजपूत राजा भी मुगलों के चाचा, मामा, भतीजा , भानजा होने का गौरव हासिल कर चुके हैं। कर्नल टॉड ने राजस्थान का इतिहास लिखते हुये कहा है कि रणथम्मौर के दुर्ग के समर्पण में सुरजन सिंह हाडा और अकबर में बेटी नहीं सौंपना ही शर्त थी। यह भी कहा जाता है किबिकानेर के शासकों ने इतिहासकारों को केवल इसलिये पैसे दिये थे कि वे उन तथ्यों पड़ताल करें जिससे प्रमाशित हो कि उन्होंने मुगलों को अपनी बेटियां नहीं दी थीं। रमैया श्रीनिवासन ने अपनी पुस्तक ‘‘द मेनी लाइव्स ऑफ राजपूत क्वीन : हिरोइक पास्ट इन इंडिया- 1500-1900 ’’ में पद्मावत का उल्लेख करते हुये लिखा है कि ‘अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर कब्जे के लगभग 200 साल बाद लिखी रचना देश भर में प्रसिद्ध हुई। अंग्रेजी, हिंदी , उर्दू तथा बंगला में अनुवाद के दौरान कैसे इसे एक राष्ट्रीय पहचान के बदले जातीय पहचान से जोड़ दिया गया। ’
यद्यपि , पद्मिनी या पद्मावती एक कथा है या सूफी आदर्श यह राजस्थान के राजपूतों के लिये मायने नहीं रखता। उनके लिये यह एक हकीकत है और राजपूत शौर्य का बिम्ब है। तुर्कों, मुगलों, मराठों, पिण्डारियों , ब्रिटिश और लोकतंत्र के कारण राजस्थान के राजपूतो की हुई क्षति का लम्बा इतिहास है लेकिन इसके साथ ही यह विरोध और शौर्य की गाथ भी है कि महिलाओं ने मुस्लिमों के सामनशे आतम समर्पण करने की बजाय आत्मोत्सर्ग कर दिया। यह राजपूत होने का गौरव है। फिल्मों के कारण पद्मिनी का गुम हो जाना या उसका चरित्र बदल जाना राजपूत स्मृति तथा राजपूताना की स्मृति के लिये बहुत बड़ी हानि होगी। इसलिये इसका विरोदा होना उचित है। फिल्म बनाने वाले को यह समझना चाहिये कि इतिहास समाज की रचना नहीं करता है बल्कि इतिहास का डानामिक्स समाज के रस्मोरिवाज हैं। यही नहीं सदियों से कायम मान्यताओं और भावनाओं को आहत कर रुपया कमाने की यह साजिश भी है।
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