हकीकत का मुकाबला करें
1960 का वाकया है क्यूबा पर अमरीका ने हमला किया था और अमरीका को उसके भीषण दुष्परिणाम भुगतने पड़ रहे थे. तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन ऍफ़ केनेडी ने अपने सहयोगियों को कहा था “ मै इतना बेवक़ूफ़ कैसे हो सकता हूँ. “ साथ ही जो कुछ भी हुआ उसकी पूरी जिम्मेदारी उन्होंने खुद पर ले ली थी. उन्हें अपने किये का पछतावा था. लेकिन जिन्होंने भी नव वर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधान मंत्री का भाषण सूना होगा उन्हें एक बात ज़रूर खटकती होगी कि पूरे भाषण में नोट बंदी से पेश मुश्किलात के बारे में कहीं भी कोई पछतावा ज़ाहिर नहीं किया. न ही किसी तरह की जिम्मेदारी का आभास दिया. बेशक उनका सुर बदला हुआ था. उनके भाषण में उनका लम्बी सांस लेना , ऐतिहासिक़ तथ्यों को तोड़ना मरोड़ना और आधी हकीकत को पूरी की तरह पेश करना वगैरह नहीं था. ऐसा लग रहा था कि उनका भाषण लिखने वाला और भाषण देने की स्टाइल सिखाने वाला बदल गया है. इस से की को शिकायत भी नहीं हो सकती है. देश की जनता आधे दशक से जिस मोदी को देखती आ रही है उसमें बदलाव शुभ है. अब देश की जनता को मरहम की ज़रुरत है. उन्होंने जिन योजनायों की घोषणा की वह भी कोई मसला नहीं है. देश की अर्थ व्यवस्था को जितना भरी आघात लगा है उस चोट को सहलाने की ज़रुरत तो है ही. लेकिन मोदी जी ज़रा खुद से पूछें कि जो कुछ भी उन्होंने किया वह ज़रूरी था क्या? अगर नोट बदलने ही थे तो बैंकों के जरिये नोटों का बदलाव तो आसानी से हो सकता था. अब जो हो गया वह तो हो गया अब चाहिए कि मोदी जी देश से कम गलत बयानी करें. हम में से लगभग सभी लोग यह मानतें हैं की राजनीतिज्ञ अर्धसत्य बोलते हैं और पूरा झूठ बोलते हैं. लेकिन यह ज़रूरी है कि झूठ का घडा भरे नहीं और फूटे नहीं. उम्मीद है कि मोदी जी अपने अंध भक्तों के कीर्तन में इतने डूब नहीं जाएँ कि बाकि लोगों का भरोसा ही खो दें. उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम इस बात का फैसला कर देगा. अभी वहाँ से लोक सभा में 72 सीटें हैं. अगर ये सीटें घटती हैं तो उसका असर 2019 में भी दिखेगा. नोट बंदी के कारण देश को 3 लाख करोड़ के सकल घरेलू उत्पाद की हानि हुई है. लाखों लोगों की जिंदगी अस्तव्यस्त हो गयी , हज़ारों लोगों के राजगार छिन गए. सब कुछ सामान्य होने में अभी समय लगेगा.
सत्तारूढ़ दल अब देश के एक नए वर्ग की ओर ध्यान देने लगा है. ख़ास कर दलितों और मुस्लिमों की ओर. क्योंकि यह वर्ग आर्थिक वर्ण पट पर बहुत नीचे है . साथ ही सरकार ने अब ए टी एम मशीनों के वितरण ,विभिन्न क्षेत्रों के बीच पॉइंट ऑफ़ सेल मशीनों के वितरण पर बल दिया जाने लगा. कहाँ तो बात थी इस डिजिटल युग में आर्थिक समावेश की और होने लगालगा आर्थिक वहिष्कार. मसलन देश के ग्रामीण इलाकों में 2 लाख 15 हज़ार ए टी एम मशीनें हैं.इसमें भी बहुत बड़ा अंतर है. जैसे बिहार में 13,500 लोगों पर एक ए ट एम् है जबकि तमिलनाडु में 3000 लोगों पर एक ए टी एम है. पिछले दो महीनो में जो चुप हैं , या जो गरीब हैं उन्होंने सबसे ज्यादा संकट उठाया. जो अमीर हैं या जिनके पास आवाज है वे तो मजे में रहे. अधिकांश लोगों ने भूख को झेला या कर्जे में डूब गए. इन मुश्किलात से निजात पाने के लिए ज़रूरी है कि सरकार हकीकत को समझे ना कि गढ़े गए सच को लेकर चले. मोदी जी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह नोट बंदी के पहले के स्तर पर सकल घरेलु उत्पाद को ले आये. बचत और निवेश घाट रहे हैं. विदेशों को पूँजी का पलायन जारी है. आबादी के आधे लोगों का मानना है कि मामूली सेवाओं के लिए भी रिश्वत देनी पड रही है. इधर वित्त मंत्री अरुण जेटली ताल ठोंक रहे हैं कि “ मिशन एकमप्लिश्ड “ यानी उद्देश्य पूरा हुआ. जैसे वजन को कम करने के लिए जो इलाज होता उसमें बैरियाट्रिक सर्जरी शामिल है उसी तरह गरीबों को दबा कर नगद खर्च करना रोक सकते हैं. लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि नगदी, भाषणों और टी वी की बाईट्स के अलावा जहां और भी है.
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