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Friday, January 13, 2017

यू पी का चुनाव

यू पी का चुनाव

इन दिनों देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में चुनाव का शंख बजने के बाद जो भी हो रहा है वह सामान्य नहीं है. वहाँ की चार घटनाएं देश में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय हैं. पहला  है यू पी के बारे केंद्र सरकार का रुख , दूसरा है मुलायाम अखिलेश की नूरा कुश्ती , साईकिल को लेकर दंगल और कांग्रेस का सियासी लोभ. केंद्र का सामान्य रुख उसे कहते हैं जब दिल्ली में बैठी सरकार राज्य के सत्तारूढ़ दल पर्फ हमला बोलती. दिल्ली का तख़्त जिस पार्टी को अपना गहरा विरोधी मानती है उसपर गंभीर आरोप लगाती है , सरकार पर इनकम टैक्स और सी बी आई के छपे पड़ते हैं . आज तक यही होता आया है. जब कांग्रेस थी तब ऐसा ही होता था. जिस राज्य में चुनाव होते थे वहाँ विरोधी दलों से जुड़े लोगों पर छापे  , विरोधी दलों की मदद करने वाले अमीरों  - सेठों पर इनकम टैक्स के छापे इत्यादि सामान्य घटनाएं होती थीं. पर अभी फोकस दूसरी ओर है. सी बी आई के छापे कोलकता में पड़ रहे हैं . छापों के चरित्र से ही ल;अगता है कि इरादा राजनितिक है , सियासी खुंदक  निकाली जा रही है. जय ललिता के निधन के बाद चेन्नई में मुख्य सचिव धरे जा रहे हैं , आय कर के छापों की भी खबर भी है. दिल्ली सरकार पर कार्रवाई हो रही है , मुख्य सचिव राजिंदर कुमार भी जेल में है, मायावती के खिलाफ इनकम टैक्स के पुराने मामले खोले जा रहे हैं. नोट बंदी के दौरान कथित 10 4 करोड़ रूपए जमा करने के बारे में भी जांच चल रही है. लेकिन यू पी में सत्तारूस्ध दल समाज वादी पार्टी बिलकुल महफूज है. न कोई स्टिंग हो रहा है ना कोई मामला खुल रहा है.  नोट बंदी के दौरान रूपए तो सपा ने भी इधर उधर किये होंगे पर कहीं कोई चर्चा नहीं है. भाजपा नेताओं के सपा पर कोई तीख बयान नहीं आ रहे हैं. जो बयान आ रहे हैं वह बिलकुल रस्मी हैं. कई भाजपा नेता तो अकेले में यह कहते सुने जा रहे हैं कि अखिलेश ने कमाल की पोलिटिक्स खेली है. राज्य के नौजवानों को एक ही झटके में एक झंडे के नीचे ले आया. कुछ विश्लेषकों का तो यह भी मानना है कि अखिलेश ने बाप और चचा से लड़का कर खुद को एंटी इनकम्बेंसी से मुक्त करा लिया और अब कोई थ्गिक नहीं हैं यू पी उनकी सरकार बन जाय. अब ज़रा मुलायम अखिलेश की कुश्ती  देखिये.  एक पारिवारिक टी वी सिरिअल की तरह एक दम स्क्रिप्ट लिखित नाटक. लड़ते हैं, मिलते हैं, बयान जारी करते हैं फिर लड़ते हैं. जबकि आज तक यही देखा गया है कि यू पी में समाजवादी पार्टी की जंग ऐसी नहीं होती है. वहाँ हर बात बेकाबू होती दिखती है. वहाँ की तू तू मैं मैं कुछ इतनी कडवी होती है कि सुनना मुश्किल हो जाता है. लेकिन इस बार तो उनका लड़ना , मिलना, बर्खास्तगी, उसे रद्द किया जाना सब कुछ एकदम नाटकीय. सब जानते हैं कि चुनाव के ठीक पहले खेल ऐसे नहीं होते और अगर होते हैं तो फिर यू पी के सामाजिक मनोविज्ञान पर शोध होना ज़रूरी है. यह तो सब जानते हैं कि यू पी में असली लड़ाई सपा और भाजपा में है तथा सपा का टूटना भाजपा के हित में होगा और दूसरा कि यदि सपा टूटती है तो मुस्लिम वोटर बंट जायेगे और भाजपा  को लाभ होगा. कुछ विश्लेषक मानते हैं कि यू पी में भाजपा दूसरे नंबर पर और बसपा तीसरे नंबर पर  है. परन्तु भाजपा की भाषा की तल्खी और उसकी गतिविधि को देख कर लगता है कि वह बसपा को ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानती है. मायावती उसके लिए गंभीर चुनौती है. इस सन्दर्भ में सपा की लड़ाई बेहद नियंत्रित लगती है. हर बात ऐसी जैसे सब कुछ पहले से तय हो. बाप बेटे में सारे मामले सुलझ गए हगें बस एक साइकल बची है उसपर भी आज फैसला हो जाएगा.  इधर जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो सपा के टूटने की सूरत में उसके दोनों हाथ में लड्डू है. पहला कि अगर टूटने के बाद अखिलेश कमजोर होटर हैं तो उसकी चुनावी राह आसान हो जायेगी और अगर अखिलेश भारी पड़ते हैं तो गठबंधन की संभावनाओं के द्वार खुले हैं. वैसे अखिलेश का पलड़ा भारी होता दिख रहा है. अखिलेश की साफ़ सुथरी छवि ने उनके पक्ष में हवा बना हुआ है. कांग्रेस में यह भी चर्चा है कि अगर अखिलेश के साथ वह सत्ता में आती है तो राष्ट्रीय स्तर विपक्ष को एकजुट करने में सहूलियत होगी. अखिलेश को सीढ़ी  बना कर कांग्रेस संसदीय चुनाव में दाँव लगाने का मंसूबा बना रही है. यह स्वाभाविक है कि अगर यू पी में कांग्रेस सता में भागिदार बनती है तो अन्य राज्यों में उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढेगा और इससे 2019 के चुनाव की रणनीति बनाने में मदद मिलेगी.

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