ये नक़ल नहीं तो और क्या है ?
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी जी को बोलते हुए सुनना खुद में एक नाटकीय अनुभव है. सोमवार को लखनऊ रैली में वे अपने खास अंदाज़ में बोल रहे थे कि “ वे कहते हैं मोदी हटाओ मैं कहता हूँ भ्रष्टाचार हटाओ, कालाधन हटाओ .“ हम लोगों में से बहुतों ने इंदिरा जी का 1971 का चुनावी भाषण सूना होगा. उस समय कांग्रेस दो टुकड़ों में बंट गयी थी, कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आर). कांग्रेस (ओ) की कमान दक्षिण के नेता कामराज नाडार के हाथ में थी और कांग्रेस (आर) की नेता इंदिरा गाँधी थीं. उस समय इंदिरा जी का भाषण बहुत मशहूर हुआ था कि “ वे कहते हैं इंदिरा हटाओ मैं कहती हूँ गरीबी हटाओ.” उस चुनाव में इंदिरा जी को 44 % मत मिले थे और दो तिहाई बहुमत के साथ वह लोक सभा में आयीं थीं. लोगों ने 1971 के उस चुनाव को इंदिरा लहर का नाम दिया था. इंदिरा जी के समर्थक बेहद भावुक हो गए थे. कवियों ने इंदिरा शतक लिखे , चित्रकारों ने उन्हें देवी की तरह चित्रित किया. 1971 की वह लहर बहुतों ने देखी होगी. 2014 में भी कुछ ऐसी ही लहर उठी थी. मोदी लहर. हालाँकि मोदी जी की विजय का अंतर इंदिरा जी से थोड़ा कम था. इतना ही नहीं इंदिरा गाँधी और मोदी जी में कई समानताएं भी दिख रहीं हैं. इंदिरा जी में भी सारी त्गकत खुद में केन्द्रित थी और मोदी जी भी कुछ ऐसा ही करते दिख रहे हैं. सरकार की सभी शाखाएं आसज पी एम् ओ से ही निकलती दिखती हैं. संबध विभाग केवल उसके पीछे चलते हैं. इंदिरा जी को भी लाल फीता शाही पसंद थी और मोदी जी भी बुरोक्रेसी पर ज्यादा भरोसा करते है तथा निर्वाचित सदस्यों पर कम. इंदिरा जी चारों तरफ “ कश्मीरी माफिया ” था क्योंकि वे खुद कश्मीरी थीं. मोदी जी गुजराती हैं और उनके चारो तरफ गुजरती अफसरों की लॉबी है. यहाँ तक कि नोट बंदी की योजना में उनके साथ एक गुजराती अफसर हंसमुख आढीया साथ थे जब कि सारे नेता मंत्री अँधेरे में थे.
इतिहास गवाह है और इमरजेंसी इसका उदाहरण है कि इस तरह के सत्ता के केंद्रीय करण का पहला शिकार फ़ेडरल व्यवस्था होती है. भरतीय फ़ेडरल व्यवस्था अन्य माडल्स से कमजोर है और ताकतवर प्रधान मंत्री से और जल्दी प्रभावित होती है. जवाहर लाल नेहरु राज्यों की निर्वाचित सरकारों को ठेंगे पर रखते थे और इंदिरा गाँधी तो राष्ट्र पति शाशन लगाने में हिचकती ही नहीं थीं. वो इस के माध्यम से यह बता देना चाहती थीं कि राज्य सरकारें जनता के वोट से नहीं उनकी मर्जी पर निर्भर हैं. 1978 से 1983 के बीच चार मुख्या मंत्री बदले गए थे केवल यह बताने के लिए कि वे कुछ नहीं हैं. वे नहीं चाहती थीं कि राज्य स्वतंत्र सत्ता केंद्र के रूप में ना उभरे.
मोदी जी भी कुछ ऐसा ही करते नजर आ रहे हैं. गुजरात और गोवा के मुख्यमंत्रियों को बदला जाना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है. महाराष्ट्र और हरियाणा में भी उन्ही को मुख्या मंत्री बनाया गया जो किसी विशाल जाति समूह से नहीं हैं. जैसे 1980 में महाराष्ट्र में मराठा लाबी को तोड़ने के लिए इंदिरा जी ने ए आर अंतुले को सी एम बना दिया. सत्ता के इस केन्द्रीयकरण के समर्था का आधार केवल प्रधान मंत्री की लोकप्रियता है. 1971 में इंदिरा जी की विजय इस लिए महत्वपूर्ण थी कि उन्होंने कांग्रेस के सारे पुराने सिपहसालारों को धूल चटा दिया था. 2014 में मोदी जी के सामने उतना बलशाली विपक्ष था ही नहीं . मोदी जी की क्रेडिट यही है कि वे भा ज पा को प्रचंड बहुमत के साथ लोक सभा में लेकर आये. यहाँ तक कि बंगाल में जहां भा ज पा का कोई अच्छा संगठन नहीं है एअहान भी 2014 में उसे 17 % वोट मिले थे. इसका सारा श्रेय मोदी जी को जाता है. यही नहीं अपनी लोकप्रियताबढाने के लिए इंदिरा जी कोई उपाय नहीं छोड़ा , यहाँ तक कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया. अपने पिटा से विपरीत उन्होंने अपने को हिन्दू नेता के रूप में भी खुद को पेशग करने की कोशिश की. 1983 में उन्होंने कश्मीर में “ धर्मयुद्ध” की घोषणा की थी. इंदिरा जी के शासन काल में आज़ादी के बाद पहली बार भारत में दंगे हुए थे. मोदी जी भी कुछ इसी पथ पर चल रहे हैं. बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद नोट बंदी सबसे बड़ा आर्थिक कदम है और इसका भी उद्देश्य अमीरों को दण्डित करना और गरीबों को अवास्तविक लाभ का वादा करना है. धर्म के मामले में उनकी अपील तो सर्व ज्ञात है. गुजरात के दंगे से लेकर वाराणसी जैसे धार्मिक क्षेत्र का चयन क्यों किया गया यह सब जानते हैं. लेकिन ऐसे प्रयासों का अंत बड़ा दुखद होता है. इंदिरा जी अपने जीवन काल में बेहद लोकप्रिय थीं. यहाँ तक कि उनकी हत्या के बाद की सहानुभूति लहर में कांग्रेस को 404 सीटें मिली थीं , जो एक रिकार्ड है. पर उसके बाद क्या हुआ? कांग्रेस कमजोर होती गयी. आज 1984 के मुकाबले लोक सभा में उसकी केवल 10 प्रति शत सीटें हैं. मोदी जी को इस पर विचार करना चाहिए.
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