खाना बचाइए
दुनिया भर के वैज्ञानिक-दार्शनिक सलाह देते हैं कि पानी बचाईए लेकिन बहुत कम लोग यह कहते सुने जाते हैं कि खाना बचाइए। कितनी बड़ी विडंबना है कि दुनिया भर में अनाज का उत्पाफदन बढ़ रहा है, उत्पादन बढ़ाने के तकनीकों का भी रोजाना विकास हो रहा है पर दुनिया की एक तिहाई आबादी को दो जून का भरप्रेत भोजन मयस्सर नही होता। आंकड़े बताते हैं कि 7 अरब की आबादी की इस दुनिया में 80 करोड़ लोग हर रात भूखा ही सो जाते हैं। इसासे जहां वैश्विक अशांति का खतरा बढ़ रहा है वहीं बीमारियों का भय भी बढ़ता जा रहा है। ड्रग्स, दारू , तम्बाकू इत्यादि जैसे पदार्थों से जितने लोग रोगग्रस्त होते हैं उससे कहीं ज्यादा लोग खराब खानों से बीमार पड़ते पाए जा रहे हैं। बच्चे और महिलाएं इसका ज्यादा शिकार होती हैं।दुनिया में 15 करोड़ 60 लाख बच्चे अविकसित हैं और 40% महिलाओं में खून का अभाव है। इस भयावह भूख और बीमारियों की इस दुनिया में 2 लाख लोग रोज पैदा हो रहे हैं जिसमें भारत 58हजार बच्चे रोज पैदा होते हैं। विस्का मतलब है कि 2050 तक 2 अरब ज्यादा लोगों का भोजन जुटाना होगा और विकास की बाढ़ खेतों को उसी तरह निगलती जा रही है। शहर तेजी से बढ़ रहे हैं खेत घटते जा रहे हैं। 2050 तक जो आबादी बढ़ेगी उस के लिए अनाज की पैदावार डेढ़ गुनी करनी होगी। सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल( एस डी जी ) के 12वें प्रपत्र के लक्ष्य 3 के अनुसार वैश्विक स्तर पर प्रतिव्यक्ति जितना भोजन बर्बाद होता है उसे आधा करना होगा । इतना ही नहीं उत्पादन और आपूर्ति के दौरान अनाज की होने वाली बर्बादी को भी कम करना होगा। खाद्य एवं कृषि संगठनों के अनुसार 1खरब डॉलर का भोजन हर साल बर्बाद होता है जो रोजाना बहोखे सो जाने वाले 80 करोड़ लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त है।इन 80 करोड़ लोगों में सेव तो 20 करोड़ लोग तो भारत में हैं जहां 130 करोड़ की आबादी है और कहते हैं कि खेतों में फसल बम्पर होती है। मई में डसेलड्रॉफ में आयोजित खाद्य कांग्रेस में अनाज उत्पादन और अनाज अनुराक्षयं पर ही ज्यादा बहस चली। दुनिया में खाद्य की बर्बादी और खाद्य की हानि के आंकड़े क्रमशः 30 प्रतिशत उर 50% हैं। यह दशा विकसित और विकासशील देशों दोनों की है। विकसित देशों में खाने की बर्बादी ज्यादातर घरेलू उपभोक्ता स्तर पर होती है। इस स्टार पर खाने से ज्यादा सामान खरीद लिया ज्यादा है जो बाद में फेंक दिया जाता है। विकासशील देशों में आपूर्ति स्टार पर जैसे खेती, भंडारण और एक जगह से दूसरी जगह लाने ले जाने के दौरान ज्यादा बर्बादी होती है। मसलन भारत में 6 कसरोड 60 लाख टन की कुल क्षमता वाले कोल्ड स्टोर चाहिए जबकि विद्यमान क्षमता है महज 3 लाख टन। यानी आधे से ज्यादा खाद्यान बर्बाद हो जाते है। दूसरी तरफ भारत जैसे देश जहां अमीरी तेजी से बढ़ रही है वहां खाद्य भी उसी तेजी से बर्बाद हो रहा है। दोनों स्थितोयों में खाद्यान्न जिसे घटते जलस्रोतों की मदद से उपजाया जाता है वह बर्बाद हो रहा है। यानी यह केवल खाना बर्बाद नही होता उसके साथ जल और श्रम तो बर्बाद होता ही है समाज का पोषण भी बर्बाद होता है। देश में जो 40% खाद्य की बर्बादी होती है उसका मूल्य 7.5 अरब डॉलर आंका गया है। यह हालत उस देश की है जहां के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योग 15% है और 53 प्रतिशत लोगों को इसमें रोजगार मिलता है। ये गाम्भीर हालात है और इसे नही रोका गया तो स्वास्थ्य और पोषण की दशा रोज़ाना बिगड़ने से रोका नहीं गया तो भविष्य पर इसका बुरा असर होगा क्योंकि इसका असर पोषण पर पड़ता है। शहरीकरण और आय में वृद्धि के साथ लोगों की आदतें बदल रहीं हैं और इन दिनों देखा गया है कि लोग इन दिनों घर में काम और बाहर जाकर कहना ज्यादा पसंद करते हैं।दुनिया में 17% लोग कुपोषण के शिकार हैं जिनमें एक तिहाई केवल भारत में हैं। वर्ल्ड हैपिनेस रपट अनुसार 155 देशों में भारत का स्थान 122 वां है, यह अच्छी बात नहीं है। वविभिन्न प्राथमिकताओं के तहत हमें खाद्य अनुरक्षण को भी प्राथमिकता देनी होगी वरना भविष्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ेगा।
Wednesday, May 31, 2017
खाना बचाइए
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Tuesday, May 30, 2017
कितना बदल गया इंसान
कितना बदल गया इंसान
दुनिया के किसी भी देश या धर्म में मानवता या इंसानियत का पहला गुण दया और प्रेम बताया जाता रहा है । जो लोग इंसानियत के प्रति अपराध करते हैं उन्हें सुधारने के लिए कानून बने हैं और जो कानून से नही डरते उन्हें दंड दिया जाता है । इधर कुछ दिनों से हमारे देश भारत में और दुनिया के कई और देशों में लोग कानून से डरना छोड़ रहे हैं तथा इंसानियत के प्रति सबसे जघन्य अपराध जान से मार डालने की ओर बढ़ रहे हैं। अपने देश में कभी गो मांस को लेकर तो कभी गो हत्या को लेकर लागूं को पीट पीट कर मार दिए जाने की घटना कई बार सुनने को मिली पर हाल में देश की राजधानी दिल्ली में ऐसी बर्बर घटना सुनने को मिली कि हैरत होने लगती है इंसान की सोच पर। विगत शनिवार को दिल्ली के मुखर्जी नगर में एक रिक्शा चालक को इसलिए लोगों ने पीट पीट कर मार डाला कि वह दो नौजवानों को सड़क पर पेशाब करने से रोकने की कोशिश कर रहा था। और कोशिश भी कोई कोई रोका टोकी नहीं और ना कोई हाथापाई बल्कि वह बिचारा रिक्शावाला उन पर हंस रहा था कि सुलभ शौचालय बगल में है और ये सड़क पर पेशाब कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि क्या इस देश में कानून की इज़्ज़त करना अपराध है।आज हमारे देश में इसी का खतरा बढ़ता जा रहा है। लगता है कि इस देश में कानून को मानना और दूसरों को इसे मानने की सलाह देना सब्सडी बड़ी गलती है। सामूहिक हिंसा एक ऐसा उन्माद है जिसे नियंत्रित वातावरण में नही रखा जा सकता है। वाट्सएप और ट्वीटर के जरिये उठाया गया हिंसा ज्वार गौ आतंकियों ( इन्हें गौ रक्षक नहीं कहा जा सकता है) को भड़का कर हिंसा की ओर प्रवृत्त करता है। इसे रोकने की कोशिश करने वालों या इसकी आलोचना करने वालों के साथ भी ऐसे ही बर्ताव किया जाता है।सरकार भी जाने अनजाने उन्हें बढ़ावा देती है। अब मुखर्जी नगर वाली ही घटना को देखें । इस घटना के तुरंत बाद शहरी विकास मंत्री एम वेंकैया नायडू ने कहा कि " उसे इसलिए मारा गया कि वह स्वच्छ भारत की तरफदारी कर रहा था।" यानी मारने वाले स्वच्छ भारत के मुखालिफ थे मतलब विरोधी दल के थे। अब साधारण गुंडागर्दी और हत्या की घटना पर राजनीति का पर्दा डालने का प्रयास किया जा रहा है। यह कैसी विडम्बना है कि स्वच्छ भारत परियोजना अब नाकामयाब ह्यो चुकी है और आम भारतीय पर अधिभार लगाकर उसके लिए पैसे वसूले जाते हैं और थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि इसमें वे पैसे लगाए भी जाते हैं लेकिन नतीजा तो सिफर ही रहता है। एक तरफ सरकार फेल होती जा रही है और दूसरी तरफ आबादी का मानसिक वातावरण उत्तप्त होता जा रहा है। स्वच्छ भारत अभियान फकत पोस्टरों में दिख रहा है, आंदोलन नहीं बन पा रहा है। नायडू ने दिल्ली की घटना की निंदा की लेकिन उन्होंने झारखंड, उत्तर प्रदेश , राज स्थान , मध्य प्रदेश , असम , हरियाणा की घटनाओं की क्यों नहीं निंदा की? सच तो यह है कि अधिकांश मामलों में पीड़ितों के खिलाफ ही प्राथमिकी दर्ज की गई है। दूसरा सवाल है कि हमारे नौजवान इतने क्रूर क्यों होते जा रहे हैं? किसी भी घटना पर सीधे मार पीट पर उतर जाते हैं। फेस बुक और वाट्सएप तो गुस्से के इज़हार का सबसे बड़ा साधन बन चुका है? क्या उनकी सामूहिक कुंठा इसका कारक है?अगर यह सच है तो बहुत बुरा है। रपटों पर रपटें आ रहीं हैं और पता चल रहा है कि रोजगार नहीं बढ़ रहे हैं साथ ही दिनोदिन रोजगार घटते जा रहे हैं। परिणाम यह हो रहा है कि बेरोजगार नौजवानों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है और इससे बढ़ने वाली कुंठा क्रोध को जन्म दे रही है। चाहे वह रोजगार के घटते अवसर हों या रोजगार के नए अवसरों का अभाव हो सच तो यह है कि आज के नौजवानों की सुनिश्चित आय के साधन घट रहे हैं। इस खीझ तथा कुंठा की अभिव्यक्ति सड़कों पर हिंसा के रूप में देखी जा रही है।
भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में कहा कि " सबको नौकरी देना सरकार के वश में नहीं है इसलिए उद्यमिता और स्वरोजगार को बढ़ावा दिया जा रहा है। शाह के इस बयान को अगर नोटबंदी के संदर्भ में लें तो यह देश की जनता से क्रूर मज़ाक कहा जायेगा क्योंकि नोटबंदी का सबसे बुरा असर लघु उद्योग,छोटे मोटे कारोबारियों , दिहाड़ी पर काम करनेवालों , काम वेतन पाने वालों पर पड़ा है।
अब अपने देश में जो गोरक्षा के नाम -पर जो हिंसा हो रही है वह महामारी का स्वरूप ले चुकी है और अब इसे रोना बहुत जटिल है। जब किसी घटना को मामूली बता कर उसे टाल दिया जाता तो एक तरह से उसे पुरस्कृत किया जाता है।
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Monday, May 29, 2017
परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ का जाल
परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ का जाल
सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एडुकेशन का परिणाम रविवार को घोषित हुआ। इस परीक्षा में एक चहेरा को 99.6% अंक प्राप्त हुए हैं। यह एक ऐसा प्राप्तांक है जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती है। लेकिन आज कल की परीक्षाओं में अति उच्च प्राप्तांक आम बात है। इसी को देखते हुए उच्च शिक्षा के लिए नामांकन कट ऑफ भी बहुत ऊंचा हो गया है। कई मशहूर सबस्थानों में तो 90 प्रतिशत से ऊपर कट ऑफ देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन ये अंक लाभ के बदले हानि पहुंचाते हैं। परीक्षाओं में रैंक्स और कट ऑफ के बीच जो नामांकन प्रक्रिया है वह छात्रों को दृढ़ और आत्म विश्वास पूर्ण बनाने के बजाय उन्हें रैंक हासिल करने वाली मामूली संज्ञा में बदल देती है।ऐसे छात्रों का हजूम देश का बेहतरीन नागरिक या श्रेष्ठ कर्मचारी नही बनसकता बल्कि प्रमाण पत्र लक्सर दौड़ने वाली भीड़ में बदल जाता है। इस बुनियादी या आधार परीक्षा के बाद जब वे छात्र उच्च शिक्षा की प्रतियोगी परिक्षाओं में कट ऑफ को नहीं पर कर सकते तो जिस जिल्लत से उन्हें दो चार होना होता वह केवल वही समझ सकते हैं। एक अध्ययन के अनुसार परीक्षाओं की ढांचागत प्रणाली और छात्रों के आत्म अपमान के बीच संबंध है। छात्र और अभिभावक जहां बेचैन रहते हैं कट ऑफ और रैंकिंग के अपारदर्शी एवं अवैयक्तिक प्रणाली को लेकर वहीं परीक्षा आयोजित करनेवाले नई तकनीक अपना कर ऐंठते रहते हैं। इसबीच जो गुम हो जाता है वह है छात्र का अपना व्यक्तित्व जिसे नामांकन प्रणाली में कायम रहना जरूरी है। बेहतरीन कॉलेज या कोर्स में ज्यादा कट ऑफ ही देखा जाता है छात्र की खूबियां नहीं।
विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार और दार्शनिक रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा ‘जीवन का अपूर्व अनुभव का स्थाई हिस्सा’ है। उनका कहना था, “शिक्षा छात्रों की संज्ञानात्मक अनभिज्ञता के रोग का उपचार करने वाले तकलीफ़देह अस्पताल की तरह नहीं है, बल्कि यह उनके स्वास्थ्य की एक क्रिया है, उनके मस्तिष्क के चेतना की एक सहज अभिव्यक्ति है।”
भारतीय कालेजों में नियम बनाने वाले प्राधिकरण को दोषी बता कर लोग अपने हाथ झाड़ लेते हैं। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि यह सब केवल टालने वाली बात है।क्योंकि कोई कॉलेजों से यह नसाहीं पूछता की छात्रों को पढ़ाने के कौन से नए उपाय उन्होंने विकसित किये हैं या छात्रों के भीतर छिपे हुए हुनर को खोजने के कौन से तरीके इज़ाद किये हैं। बच्चे रिजल्ट में अपने रैंक्स देखते हैं उन्हें देख कर चिंता बढ़ती है कि ये शिक्षा प्रणाली की कैदी संख्या देख रहे हैं। यह संख्या उनके अंतर्मन पर जीवन भर चिपकी रहेगी। यह उनके आत्म उत्साह को ध्वस्त कर देगी। एक छात्र की प्रतिभा का सही मूल्यांकन इसके विपरीत होता है। एक बानी बनाई परीक्षा प्रणाली के बदले एक ऐसी पद्धति विकसित की जानी चाहिए जो उनकी आवाज़ को सुने, न कि उन्हें आतंकित कर दे जिससे छात्र की प्रतिभा ही कुंठित होजाय। कालेज के तीन साल या पांच साल छात्रों में संतोष नही बेचैनी और हाहाकार भर दे रहे हैं। दुर्भाग्यवश मेरिट की धारणा पूरी तरह रैंक्स से जुड़ी है। भारत में आर्ट्स और साइंस के बीच या आई आई टी और मेडिकल कोर्स के बीच प्रतियोगी परीक्षाओं में दूरी को लगभग स्थायी बना दिया गया है। अब नतीजा यह होता है कि प्रोफेसनल कोर्स पढ़ाने वाले संस्थान मानविकी नहीं पढ़ाते। जबकि , विकसित पश्चिमी देशों में यूनिवर्सिटी का मतलब साइंस और आर्ट्स ही है। अब हाल से अपने देश के पेशेवर कालेज चेतने लगे हैं। पेशेवर कोर्स चलाने वाले और मानविकी पढ़ाने वाले संस्थान भी आपस में ताल मेल बनाने पर विचार करने लगे हैं। यह एक शुभ संकेत है। शिक्षा छात्रों को आतंकित करने वाली ना हो बल्कि उन्हें आनंदित करने वाली हो।
शिक्षा दरअसल सोचने की शक्ति और कल्पनाशक्ति का विकास है। यह बेशक वयस्क जीवन के लिए दो महत्वपूर्ण क्षमताएं हैं।इसलिए इनका विकास बचपन से प्रारंभ होना चाहिए। शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य छात्रों को वास्तविक जीवन की सच्चाइयों, परिस्थितियों और परिवेश के साथ परिचय और समायोजन है।गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि "अवास्तविक शिक्षा ही हमारे लोगों में बौद्धिक बेईमानी, नैतिक पाखंड और मातृभूमि के प्रति अज्ञानता के लिए जिम्मेदार है।इसलिए शिक्षा और हमारी ज़िंदगी के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए।"
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Sunday, May 28, 2017
मोदी जी के तीन साल
मोदी जी तीन साल
मोदी प्रबंधन युग के तीन वर्ष गुजर गए। इस बीच " मोदी भक्तों " ने उनकी सफलताओं के कीर्तन गया गया कर यह बताने की कोशिश की कि यकीनन ये तीन वर्ष स्वर्णिम रहे और देश की राजनीतिक अर्थ व्यवस्था में व्यापक सुधार हुआ। लेकिन सवाल है कि क्या ये सुधार हुए हैं? अगर सरकार के प्रमुख आर्थिक आंकड़ों को देखें तो अनुभव होगा कि विगत तीन वर्ष औसत से भी कम उपलब्धि वाले रहे और जिस ' अच्छे दिन ' का मोदी जी ने वादा किया था वह दूर-दूर तक दिखाई नहीं पड़ रहा है। यहां तक कि सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद( जी डी पी) के आकलन की विधि बदल दी ताकि आंकड़ों के छल से उपलब्धियों की तस्वीर दिखाई जा सके लेकिन तब भी बीते तीन वर्ष बुरे ही दिखे। बहुतों को याद होगा कि सत्ता सम्भहलने बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बेहद दृढ़ता से दावा किया था कि अर्थ व्यवस्था आगे बढ़ रही है। लेकिन तीन साल बाद 2016-17 में जो आर्थिक विकास हुआ वह संप्रग सरकार के 2013-14 में हुए सबसे खराब आर्थिक विकास (6.9%) से भी खराब रहा। जबकि उस दौर में मोदी जी और उनके प्रच्छसरकों ने पानी पी पी कर इस विकास की खिल्ली उड़ाई थी। प्रचार में इस आंकड़े का बुरी तरह इस्तेमाल हुआ और इसी के पर्दे पर यह दिखाने और यकीन दिलाने की कोशिश की गई कि वे अच्छे दिन लाएंगे।लेकिन आज जो हालात हैं वे बहुत दुखद हैं। संगठित क्षेत्र में इन 3 वर्षों में जितना रोजगार सृजन हुआ वह संप्रग सरकार के आखिरी तीन साल से आधा भी नहीं रहा। श्रम मंत्रालय से हर तीन महीने पर जब- जब ये आंकड़े जारी किए जाते थे तब- तब सरकार पानी- पानी ह्यो जाती थी। एनडीए सरकार की उपलब्धियों की गिनाने के लिए बुलाये गए प्रेस कांफ्रेंस में जब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से रोजगार के बारे में पूछा गया तो वे संतोष जनक उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने कहा कि " 125 करोड़ लोगों को रोजगार देना असंभव है, स्व रोजगार ही रोजगार का सबसे अच्छा साधन है। " अब अमित शाह के इस कथन की व्याख्या की जाय तो यही स्पष्ट होगा कि जनता अपनी रोजी रोटी का जुगाड़ खुद करे( हमारी आशा ना करे)। यह उस पार्टी के अध्यक्ष का कथन है जिसका नेता 56 इंच के सीने को ठोक - ठोक कर रोजगार के अवसर बढ़ाने के दावे कर रहा था। जहां तक रोजगार का प्रश्न है तो सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि हाल के दशक में आधे रोजगार तो स्व रोजगार ही हैं। ये ज्यादातर असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि देश में 4करोड़ 80 लाख नियोजित लोगों में से 85% निजी क्षेत्र में लगे हैं। जहां तक रोजगार की गुणवत्ता की बात है तो ऐसे रोजगार जिसमें कुशल श्रमिकों की ज़रूरत होती है वैसे में, कौशल विकास मंत्रालय के अनुसार, महज 5% लोग जुड़े हैं। अब 95 प्रतिशत श्रमिकों की क्या गति होगी यह सरलता से समझा जा सकता है। सच तो यह है कि तीन वर्षों में यह सरकार बेरोजगारी के विकास को धीमी नहीं कर सकी। सरकार ने दावा किया कि 7.5 करोड़ गरीबों को 3.15 करोड़ रुपये मुद्रा बैंक से कर्ज दिए गए हैं ताकि स्वरोजगार का बंदोबस्त हो सके। यहां छल यह है कि इस कर्ज़ का बहुत बड़ा भाग विभिन्न बैंकों द्वारा पहले से दिया गया था और बाद में उस राशि को मुद्रा बैंक में तबादिल कर दिया गया। इसके अलावा जिन लोगों ने मुद्रा बैंक से 5 लाख रुपये कर्ज लिए थे उनमें से अधिकांश पहले से ही स्व रोजगार में लगे थे और उनकी क्षमता दूसरे को नौकरी देने की नहीं थी इसके अलावा खेती की हालत भी दर्दनाक है। आंकड़ों के मुताबिक इन तीन वर्षों में महज 1.7 % विकास हुआ। मोदी जी का दावा था कि वे किसानों की आमदनी में 50% वृद्धि कर देंगे अब कृषि मंत्रालय का कहना है कि ऐसा 2022 तक होगा यानी हर साल 10-12% विकास। जो सरकार तीन वर्षों में 1.7 प्रतिशत विकास कर पाई है वह साल भर में 10 प्रतिशत कैसे करेगी यह बात समझ में नही आती। नीति आयोग का कहना है कि विगत तीन वर्षों में किसानों की आमदनी में कोई उल्लेखनीय विकास नहीं हुआ है। और भी नियामक आशाजनक नहीं हैं। नोटबन्दी के वक्त यह आश्वासन दिया गया था कि इसकी अवधि पर होने के बाद बैंकों में रुपये भर्ड जाएंगे और बहुत आसानी से बैंक ऋण मिलेंगें।जबकि इस तिमाही में केवल 4% बैंक ऋण बढ़े हैं जो विगत 60 वर्षों में सबसे कम हैं।
कुल मिला कर मोदी जी तीन वर्ष व्यर्थ गए। वे कुछ भी सकारात्मक बदलाव नहीं कर सके। अब जिन लोगों ने मोदी जी को वोट दिया और जो दुबारा उन्हें देना चाहते हैं वे व्यापक तौर पर सवाल पूछते देखे जा रहे हैं। इतिहास में सभी चमत्कारिक नेताओं के साथ ऐसा हुआ है और मोदी कोई उनसे अलग नहीं हैं।
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Friday, May 26, 2017
नई शिक्षा का असर
नई शिक्षा का असर
देश में जब कोई नीति बनती है और लंबे समय तक जारी रहती है तो उनका प्रभाव हर गतिविधियों पर पड़ता है चाहे वह सामाजिक परिवर्तन हो शिक्षा ह्यो या विचार हो।लगभसग तीन दशक पहले हमारे देश में उदारवाद आरम्भ हुआ और उसके साथ ही कई परिवर्तन भी आरम्भ हो गए। वे बदलाव ना केवल अर्थ व्यवस्था में हुए बल्कि शिक्षा , सत्ता की आदतें और जनता की सोच में भी होने लगे। एक ज़माने में कहते थे कि ' जब तोप मुकाबिल ह्यो तो अखबार निकालो' , यानी तोप की हैसियत कागज़ के अखबार से छोटी थी । यहां तोप का अर्थ वह हथियार नहीं है बल्कि सत्ता की चरम शक्ति है और उस चरम शक्ति के समक्ष अखबार यानी उस शक्ति की वैधता पर उंगली उठाने वाला तंत्र। यह तंत्र समय के साथ इतना बदला की अब सत्ता पर सवाल उठाने की अखबारों की हिम्मत के क्षरण से राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी तक चिंतित हैं और वे अखबारों को सचेत करते दिख रहे हैं कि ' सत्ता से सदवाल करना उनका हक है और वे हक का प्रयोग करें।' यहां विचारणीय प्रश्न है कि ऐसी स्थिति आई ही क्यों? विख्यात मनोवैज्ञानिक डेविड जानसन का मानना है कि शिक्षा वैचारिक परिवर्तन का वाहक है कारक है। लेकिन उदारवाद का असर शिक्षा पर भी पड़ा है और आज उदार मूल्यों को ताक़तवर बनाने वाले नौजवान तैयार करने में हमारी शिक्षा व्यवस्था सक्षम नही है। उदार नैतिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने वाले उच्च शिक्षा संस्थान कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। वे आर्थिक उदारता की प्रक्रिया से उद्भूत सैद्धान्तिक तथा आर्थिक दबावों के आगे झुक जा रहे हैं। इसका मतलब है कि क्या आर्थिक उदारवाद और राजनीतिक उदारवाद में फर्क है तथा नाव उदारवाद से क्या समझा जाना चाहिए? अब यहां राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समझे बिना इस प्रश्न का उत्तर खोज पाना संभव नहीं है।हमारे देश में 1980 के मध्य से आर्थिक उदारवाद की शुरुआत हुई और बहुत कम लोगों ने सोचा कि इसका शिक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 1991 में आर्थिक नीतियों की धमाकेदार उपस्थिति हुई। इसके बाद शुरू हुई संरचनागत समन्वय की प्रक्रिया। शिक्षा की तरफ ध्यान गया ही नही जबकि 1980 के मध्य से 1992 तक शिक्षा को लेकर कई नीतियां बनीं। इस विंदु पर कोई सोच नहीं सकता था कि शिक्षा की गति ऐसी हो जाएगी कि संविधान ' रेटोरिक ' महसूस होने लगेगा। स्कूली शिक्षा के लिए कई नीतियां बानी पर कारगर नहीं हो सकीं। निजी स्कूल खुलने लगे जिसमें आर्थिक नजरिये को वरीयता मिलने लगी। शिक्षण के ढांचे पर जो नैतिक सुरक्षात्मक कवच भांग होने लगा। यह कमज़ोरी जब उच्च शिक्षा में गई तो ज्ञान गौण होने लगा तथा हुनर और कौशल को वरीयता दी जाने लगी। अभी हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालर के कुलपति और विख्यात मनोवैज्ञानिक प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने शिक्षा में मानविकी को हतोत्साहित किये जाने पर गंभीर चिंता जाहिर की थी और चेतावनी दी थी कि इसासे सामाजिक विपर्यय हो सकता है। प्रो. मिश्र की इसी चेतावनी से उदारता के अनिवार्य अर्थ खुलते हैं। विस्का सही अर्थ साहस और विस्तृत चेतना की रहनुमाई करने वाली आवाज़ है। ऐसी आवाज़ को पैदा करने का जिगर और जज़्बा तैयार करना है। औपनिवेशिक काल में भी यह सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में कायम रहा और यही कारण है कि आज़ादी की लड़ाई को बल मिला। पर जैसे जैसे चुनावी लोकतंत्र का विकास हुआ राजनीतिक दबाव बढ़ने लगा। नतीज़ा हुआ कि ये संस्थान नौजवानों में सवाल उठाने की ताकत पैदा करने में कोताही करने लगे। किसी ने कुछ नही कहा। आज तीन दशक के बाद जब हम पूछते हैं कि क्या उदारवाद ने उदारता के नैतिक मूल्यों को विकसित किया है तो उत्तर मिलता है " नहीं । " उल्टे इसने मूल्यों का क्षरण किया है।
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