CLICK HERE FOR BLOGGER TEMPLATES AND MYSPACE LAYOUTS »

Tuesday, April 30, 2019

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है


कभी कहा जाता था कि
" इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है हिंदुस्तान की "
उसी धरती पर आज हिंसा फरेब अविश्वास का जोरदार तूफान चल रहा है। जरा गौर करें
पिछले चुनाव में लोगों को भरोसा दिलाया गया था अगर भाजपा सरकार आती है तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। देश को बताया गया था कांग्रेसी देश को लूट रहे हैं। देश बर्बाद हो रहा है। शिक्षा का पूरा ढांचा समाप्त हो गया है। देश के अधिकांश लोग परेशान हैं । दलितों की हालत खराब है। इत्यादि। सरकार ने यह भी बताया था कि काला धन वापस लाया जाएगा लोगों को नौकरियां दी जाएगी और देश मजबूत होगा। इस तरह और भी कई मसले थे। सचमुच  यह हालात थे और यह बेहद जरूरी सवाल थे। जो आज भी यानी 5 वर्षों के बाद भी हमारे सामने खड़े हैं। उनका क्या हुआ? काला धन खत्म करने के नाम पर नोटबंदी की गई लेकिन नोट बंदी के फैसले पर बड़ी बहस नहीं हो सकी जिससे आम लोगों को इसे समझने में मदद मिलती। नोट बंदी से छोटे छोटे व्यापार तबाह हो गए। 100 से ज्यादा लोग जान से हाथ धो बैठे । भ्रष्टाचार का भस्मासुर अभी भी कायम है और आतंकवाद चारों तरफ से डरा रहा है। इस चुनाव में जो हम लोग देख रहे हैं उससे देखते हुए कई बार ऐसा लग रहा है यह सरकार बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं कोई तमाशा है। जो मसले सुर्खियों में हैं उनका कोई हासिल नहीं है। मसले तेजी से उभर रहे हैं और उतनी ही तेजी से खत्म हो जा रहे हैं। लोगों को ना इन्हें सोचने का वक्त मिलता है ना समझने का। इनकी तीव्रता को देख कर ऐसा लगता है जानबूझकर आम जनता के सोचने समझने की प्रक्रिया को बाधित कर दिया जा रहा है ताकि  जनता किसी भी मसले पर ठोस राय नहीं बना सके कि इसका मकसद क्या है?
          जरा गौर से सोचें, ऐसा नहीं लगता  है कि क्या बाजार की ताकतें और ताकतवर जातियों के समूहों ने देश के अधिकांश आर्थिक संसाधनों पर कब्जा कर लिया है। सरकारी उपक्रम या तो लाचार हैं या तो कमजोर हो चुके हैं।  निजी क्षेत्र अंगद की पांव की तरह जमाये हुये है। धन का केंद्रीकरण हुआ है । भारत का समाज क्योंकि जाति और संस्कृति के आधार पर ऊपर से नीचे तक सजा हुआ है इसमें ऊंच-नीच का भाव है इसलिए सरकार के सभी फैसले यह सोच कर हुए हैं कि उससे  जातिगत समीकरण साधने में सुविधा हो। हिंसा बढ़ती जा रही है यहां तक की हमारे समाज में छोटे-छोटे बच्चे भी हिंसक हो रहे हैं। पिछले 5 सालों के दौरान सांप्रदायिक  नफरत और दलितों के खिलाफ कुंठा का जोर बढ़ा है। नफरत एक राजनीतिक शक्ल में दिखाई पड़ने लगी है और ऐसा लगता है कि इसका मकसद है देश को ध्रुवों में बांटना और वह दो ध्रुव हैं हिंदू और मुसलमान । हमारे देश में हिंदुओं के समानांतर इस्लाम के अलावा कई अन्य अल्पसंख्यक धर्म हैं जैसे सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि।लेकिन पूरे देश को हिंदुओं और मुसलमानों के ध्रुवों में बांटने के पीछे आखिर क्या मंशा है ? क्रिकेट खेलने वाले बच्चे लाठी ,तलवार इत्यादि लेकर किसी पर हमला कर देते हैं। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह हमला कर देते हैं बल्कि यहां  यह महत्वपूर्ण है कि यह भाव कहां से आता है उनके मन में यह हमला करने के बाद उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं।  अगर यह सत्ता से जुड़े किसी संगठन  की शह पर नहीं हो रहा है तो और भी खतरनाक बात है। सामान्य जिंदगी जीते हुए लोग अचानक इतने हिंसक कैसे हो जाते हैं और आतंक मचाने में शामिल हो जाते हैं? दरअसल हमारे नेताओं में जिस तरह के सांप्रदायिक दुराग्रह दिख रहे हैं उसका तो असर होगा ही। उद्देश्य है कि ऐसी घटनाओं के लिए केवल हवा भर दी जाए बाकी तो जनता देख लेगी। समाज के लोगों को और उनके सोचने समझने के ढंग को इस स्तर का बनाया गया है या बनाए जाने की कोशिश की जा रही है कि नफरत की हवा भर से हिंसा की ज्वाला भड़क उठेगी। चुनाव के दिन बंगाल में क्या हुआ? मारपीट और अन्य हिंसक घटनाएं हुईं और पुलिस चुपचाप खड़ी देखती रही। हालात कुछ ऐसे ही होते जा रहे हैं।  मामूली बात पर भी "दुश्मन " को पकड़कर पीट-पीटकर मार दिया जाता है या भीड़ के हवाले कर दिया जाता है।
            सोचिए आने वाले दिनों में कौन सी सभ्यता विकसित हो रही है ? इस सभ्यता में आम लोगों को इस तरह तैयार किया जा रहा है कि उन्हें किसी जानवर के नाम पर किसी आदमी को पीट-पीट कर मार डालने में कोई संकोच नहीं हो। कोई सोचता तक नहीं है।  चुनाव में चतुर्दिक हिंसा इस बात का प्रमाण है कि लोगों में लोकतंत्र और सहिष्णुता पर से भरोसा उठ गया है और लोग अपनी इच्छित पार्टी की सरकार बनाना चाहते हैं ताकि उनकी नफरत से भरा ईगो कायम रहे। इस समाज व्यवस्था को तैयार करने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं कि जो दोषी हैं उनके संरक्षण का समय-समय पर दिखावे के लिए ही सही आयोजन होते रहना चाहिए। इसके लिए कभी किसी मंत्री के मुंह से इसे सही ठहरा दिया जाता है कभी किसी मंत्री के हाथों ऐसे लोगों को माला पहना दिया जाता है। इससे इनका मनोबल बना रहता है।
          यह सब क्यों हो रहा है? असभ्यता और बर्बरता का यह कारोबार क्यों चल रहा है? सिर्फ इसलिए कि समाज को अपने वास्तविक हकों के बारे में सोचने की फुर्सत ही न मिले।  चुनाव के दौरान  सरकार ने जो वादे किए थे उस पर कोई सोचे ही नहीं। सरकार क्या कर रही है उस पर किसी की नजर जाए ही नहीं । शिक्षा और रोजगार तक पहुंच की व्यवस्था को बहुत शातिर ढंग से बाधित कर दिया गया है या के सीमित कर दिया गया है, जिसका उद्देश्य है कि  वहां तक केवल साधन संपन्न लोग ही पहुंचें और अगर कोई इस पर सोचता भी है तो केवल इसी ढर्रे पर सोचे बाकी मसलों को दफन कर दे। इस तरह का समाज बनाने वालों ने वालों को एक बार भी नहीं सोचा कि हम भविष्य कैसा बना रहे हैं? राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठनों के बल पर एक ऐसे समाज का गठन किया जा रहा है कि  रोजमर्रा इस जिंदगी में उलझे लोग भी हिंसा की सियासत पर भरोसा करने लगें और अपने ही देश के दूसरे समुदाय के लोगों को अपना दुश्मन मान बैठें। अगर इस मुल्क को बचाना है और  आजादी की जंग में शहीद हुए लोगों की उन भावनाओं की कद्र करनी है जिसमें उन्होंने कहा था

हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के रखना इस देश को मेरे बच्चों संभाल के
      
स्पष्ट है अपने देश में बढ़ती हिंसा तनाव को कम करने के लिए बहुत कुछ करना होगा और इसके लिए जो सबसे ज्यादा जरूरी है वह आपस में बातचीत और एक दूसरे के  रस्मो रिवाज को समझने की।  हमें एक समुदाय से नफरत किए जाने की बात  जो सिखाई जा रही है उसे नजरअंदाज करने की। यह सबसे बड़ी आवश्यकता है वरना जो आज वरना जो आज हम सड़कों पर देख रहे हैं कल हमारे घर के भीतर भी हो सकता है। क्योंकि

मोहब्बत करने वालों में यह झगड़ा डाल देती है
सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है
तवायफ की तरह अपनी गलत कारी के चेहरे पर 
हुकूमत मंदिर और मस्जिद का पर्दा डाल देती है

Monday, April 29, 2019

राजनीतिक आदर्श और ग्लैमर की दुनिया 

राजनीतिक आदर्श और ग्लैमर की दुनिया 

इन दिनों सिनेमाई चरित्रों का राजनीतिक चरित्रों में बदलना परंपरा  बन रही है। ऐसा नहीं था कि पहले भी ये चरित्र सियासत में नहीं आते थे। भारत में एमजी रामचंद्रन और एनटी रामा राव का उदाहरण सबके सामने है। हॉलीवुड के अभिनेता और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रिगन ने एक सवाल पूछा था "एक एक्टर क्या जानता है?" उनके दो बार राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद  खुद इसका उत्तर मिल गया था। अमरीकी अभिनेता रीगन ने शीत युद्ध के जमाने में  यह प्रमाणित किया की अभिनेता भी चुनाव जीतने का हुनर जानते हैं। उन्होंने यह बिम्बित किया कि अमरीका को, वहां की जनता को  "एविल अंपायर" की मुश्कें  कसने के लिए "कैप्टन अमरीका" की जरूरत है। सिनेमा एक फंतासी है और उसे आवाज, प्रकाश, बिंबो और तस्वीरों के माध्यम से हकीकत की तरह पेश किया जाता है।  पश्चिम में हॉलीवुड ग्लैमर के इस मिथक को राजनीतिक संभावनाओं के रूप में पेश करता हैं ।आज भारतीय नेताओं के लिए फिल्मी सितारे  कमजोरी बन गए हैं। रीगन के साथ इसके पथ भी बदल गए। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया की अन्य फिल्मी सितारों की सहायक भूमिका के बगैर वे शीर्ष का सफर तय कर सकते हैं।
        भारत में भी यही बात है। हर राजनीतिक दल किसी न किसी वर्तमान या पूर्व सिनेमाई कलाकार को अपने साथ लेने के प्रयास में है ताकि उसका मतदाता वर्ग उसके साथ जुड़ सकें। नेताओं का सिनेमाई कलाकारों के साथ सेल्फी लेकर उसे सोशल मीडिया पर डालना आज एक चलन सा बन गया है। अभी हाल में बॉलीवुड के एक बड़े अभिनेता ने चुनाव की तारीख से ठीक पहले एक नेता का इंटरव्यू लिया और उसकी जमकर चर्चा हुई। इन दिनों बॉलीवुड के सितारे खुद चुनाव लड़ रहे हैं या चुनाव प्रचार में जुटे हैं ।  उन्होंने कई नेताओं की छवि धूमिल कर दी है। इस समय लगभग दो दर्जन मशहूर या कम नामी  अभिनेता अभिनेत्रियों की फौज चुनाव मैदान में  है। भाजपा में सबसे ज्यादा फिल्मी उम्मीदवार हैं।  यह नौजवान तथा नए मतदाताओं के पीछे लगे हैं। हालांकि यह खुद नौजवान नहीं हैं। अब देखिए, सनी देओल 62 वर्ष के हैं और उन्होंने अपने पिता धर्मेंद्र के राजनीतिक रास्ते पर चलना शुरू किया है। इस ताजा स्थिति से एक सवाल उठता है कि क्या हमारे राजनीतिक नेता मतदाताओं से अपना संपर्क बनाने के लिए या कहें बढ़ाने के लिए ग्लैमर की दुनिया पर निर्भर कर रहे हैं ? आमतौर पर चुनाव में आदर्श, विचार और संकल्प का संघर्ष होता है। अब अभिनेता अपने प्लॉट से  संकल्पबद्ध होते हैं इसलिए यह माना जा रहा है कि उनकी यह आदत राजनीतिक दलों से संकल्पबद्ध होने में मददगार होगी। उनके बहुत समर्थक नहीं हैं लेकिन उनके फैन बहुत ज्यादा हैं। अब हमारे नेता उन्हें सामने रख रहे हैं ताकि वे उनके ब्रांड वैल्यू को कैश करा सकें और सम्मोहन पैदा कर सकें। अब देखिए ना शत्रुघ्न सिन्हा, मनोज तिवारी, नुसरत जहां, उर्मिला मातोंडकर, किरण खेर, प्रकाश राज ,कमल हासन, जयाप्रदा इत्यादि सब में एक बात समान है। सब मध्यम दर्जे के शहर से आकर शोहरत की ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं। लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने इनमें एक नया गुण खोजा है। जो सब में समान है वह कि इन्हें कभी भी किसी खास जाति समुदाय या फिर धर्म को सामने रखकर कुछ करते नहीं देखा गया। भाजपा यह समझती है कि बीते दिनों की सुपरस्टार जयाप्रदा को आजम खान के खिलाफ खड़ा कर उत्तर भारत के मुस्लिमों, हिंदुओं  तथा  पिछड़ी जातियों को  आकर्षित किया जा सकता है। उनका मसाला चमत्कार है ना कि उनकी वैचारिक पहचान। दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने शत्रुघ्न सिन्हा की पत्नी पूनम सिन्हा को लखनऊ से गृह मंत्री  राजनाथ सिंह से  मुकाबले के लिए खड़ा किया है। इसलिए नहीं कि वह  बहुत बड़ी  राजनीतिक हस्ती हैं बल्कि इसलिए कि वह एक बड़े अभिनेता की पत्नी हैं।
भाजपा के पूर्व बड़बोले नेता शत्रुघ्न सिन्हा  इस समय कांग्रेस के टिकट पर पटना से चुनाव लड़ रहे हैं। जाहिर है    हेमा मालिनी और मुनमुन सेन आम राजनीतिक नेताओं से ज्यादा भीड़ इकट्ठा कर सकती हैं। बेशक ग्लैमर का पुट राजनीति गाली गलौज थोड़ी राहत पहुंचाएगा और लोगों का मनोरंजन करेगा।  यह तय है कि ये  सितारे वह भाषा नहीं बोल सकते जो आज के राजनीतिक नेता बोल रहे हैं। वे अपने व्यक्तित्व के स्तर पर वोट मांगते हैं ना की वैचारिक स्तर पर।
         फिल्मों के प्रभाव का निर्धारण भारतीय राजनीति में कोई  नया फिनोमिना नहीं है । भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पृथ्वीराज कपूर को राज्य सभा में भेजा था। उसके बाद से सभी प्रधानमंत्रियों ने ऐसा ही किया है। सक्रिय राजनीति में या गंभीर राजनीति में फिल्मी अभिनेताओं का पदार्पण दक्षिण भारत से उस समय शुरू हुआ जब दक्षिण भारतीय फिल्मों के स्क्रिप्ट राइटर, निदेशक ,हीरो और हीरोइनों ने वर्ग और जाति के आधार पर अपनी पार्टियां गठित की। यह परिपाटी तमिलनाडु में अन्नादुरई ने शुरू की। उसके बाद एमजी रामचंद्रन ,करुणानिधि, जयललिता और रामा राव ने इसी नक्शे कदम पर चलना शुरू किया। दक्षिण भारत में फिल्मी सितारों के लिए कांग्रेस सबसे बड़ा खलनायक थी। जिसने क्षत्रिय और साम्प्रदायिक हस्तियों को आगे बढ़ने से रोका था। फिल्मी सितारों के राजनीति में आने से कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी और अंतत वहां वर्चस्वहीन हो गई। बॉलीवुड ने राष्ट्रीय पार्टियों को सितारों से भर दिया है। हिंदी सिनेमा ने उत्तर भारतीय राजनीति पर एक तरह से हमला कर दिया है। यह नई बात नहीं है। 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अपने मित्र अमिताभ बच्चन को इलाहाबाद से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया था और अमिताभ ने एच एन बहुगुणा को रिकॉर्ड मतों से हराया था।  1991 में राजेश खन्ना ने लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता  के छक्के छुड़ा दिए थे।  आडवाणी जी जीते थे लेकिन फकत 1502 मतों से। उसके बाद से चुनाव में फिल्मी हस्तियों की मांग बढ़ने लगी। कांग्रेस ने सुनील दत्त ,गोविंदा, राज बब्बर इत्यादि को टिकट दिया। भाजपा ने विनोद खन्ना ,धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा को खड़ा किया। 2014 में विभिन्न दलों की ओर से 19 फिल्मी सितारे मैदान में थे जिनमें 9 भाजपा की ओर से थे और सात ने चुनाव जीता था। चुनाव में खड़े  राज बब्बर, नगमा, जावेद जाफरी, गुल पनाग इत्यादि पराजित हो गए बंगाल में टीएमसी की ओर से लड़ने वाली मुनमुन सेन विजई हुई।  सभी जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बॉलीवुड से विशेष रिश्ता है। पिछले साल उन्होंने प्रियंका चोपड़ा, सलमान खान, कमल हासन और आमिर खान को स्वच्छ भारत पहल से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया था। शेक्सपियर का कहना था कि "पूरी दुनिया एक स्टेज है और हम केवल उसके अभिनेता।" आज राजनीतिक मंच पर अभिनेता ही दिखाई पड़ रहे हैं और मोदी जी के कट्टर राष्ट्रवादी विचारों का समर्थन करते सुने जा रहे हैं। भीड़ खींचने की उनकी खूबी ने सार्थक राजनीति के अर्थ को छोटा कर दिया है। ग्लैमर  का आधिक्य बड़े से बड़े नेता को छोटा कर देगा।यह हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है।

Sunday, April 28, 2019

धनबल और हमारा लोकतंत्र

धनबल और हमारा लोकतंत्र

हाल के वर्षों में मतदाताओं को धमकाने , उन्हें वोट  देने से रोकने तथा बूथ दखल की घटनाओं पर रोक लगी है । लेकिन आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों का प्रतिशत अभी भी चिंता का विषय है। इसके अलावा सबसे ज्यादा चिंता होती है धनबल को लेकर। चुनाव में बढ़ता धन बल का प्रभाव हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। देश भर से खबरें आ रहीं हैं कि विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में मतदाताओं को प्रत्यक्ष रिश्वत दी गई है। हाल में कर्नाटक से खबरों में बताया गया  कि कई चुनाव क्षेत्रों में राजनीतिक नेताओं नए 30 करोड़ से ज्यादा खर्च किए। कुछ चुनिंदा चुनाव क्षेत्रों में 100 करोड़ से भी ज्यादा खर्च किए गए । लोकसभा की हर सीट पर चुनाव के दौरान रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं और इस क्रम में साधारण आदमी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग हो जाता है। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स  उम्मीदवारों द्वारा नामांकन के दौरान जमा किए गए शपथ पत्रों विस्तृत विश्लेषण मुहैया कराता है। विश्लेषण के अनुसार लोकसभा की 521 सीटों पर जो हलफनामे दर्ज किए गए हैं वह  बेहद चिंता का विषय हैं। विश्लेषण के अनुसार केवल तीसरे चरण में 340 ऐसे उम्मीदवार हैं जो अपराधिक मामलों में संलग्न है और इनमें से 230 उम्मीदवारों पर गंभीर आपराधिक अभियोग हैं। तीसरे चरण में 1612 उम्मीदवार मैदान में हैं जिनमें 1594 उम्मीदवारों के हलफनामे का विश्लेषण किया गया । इनमें से 392 उम्मीदवारों के पास एक करोड़ या उससे  ज्यादा की दौलत है और यह उम्मीदवार बड़ी राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव लड़ रहे हैं। 43% उम्मीदवार ग्रेजुएट या उससे ज्यादा पढ़े लिखे हैं। एक तिहाई उम्मीदवार 25 से 40 वर्ष की उम्र के हैं यानी नौजवान हैं। एक चौथाई उम्मीदवारों ने बताया है कि उनके पास एक करोड़ से ज्यादा की दौलत है। इनमें 74 उम्मीदवार कांग्रेस के हैं 81 उम्मीदवार भाजपा के हैं 12 बसपा से हैं और नौ सपा के। महाराष्ट्र गुजरात और कर्नाटक में सबसे ज्यादा उम्मीदवार करोड़पति हैं। इनमें से सबसे ज्यादा अमीर 3 उम्मीदवारों में से एक देवेंद्र सिंह यादव हैं जिन की कुल संपत्ति 204 करोड़ है। यह उत्तर प्रदेश के एटा  चुनाव क्षेत्र से समाजवादी पार्टी की टिकट पर लड़ रहे हैं। दूसरे हैं एनसीपी के उदयनराजे भोसले जो सतारा से चुनाव लड़ रहे हैं और इनके पास 199 करोड़ की संपत्ति है और तीसरे हैं उत्तर प्रदेश के ही प्रवीण सिंह आरोन यह बरेली से चुनाव लड़ रहे हैं और इन्होंने 147 करोड़ की संपत्ति की घोषणा की है। यही नहीं दूसरे चरण के चुनाव में जिन 1590 उम्मीदवारों के हलफनामे  का विश्लेषण किया गया उनमें से 27% उम्मीदवार करोड़पति हैं इनमें से 39 उम्मीदवार   हैं जिनकी संपत्ति में 2014 के मुकाबले 67% की वृद्धि हुई है। दूसरे चरण में 44 पूर्व सांसद जोर आजमा रहे हैं जिन की कुल संपत्ति 1262 करोड़ है । इतनी रकम से प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत से 6000 किलोमीटर लंबी सड़क बन सकती है। पहले चरण के चुनाव में जिन 1266 उम्मीदवारों के हलफनामा का विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि उनमें 401 उम्मीदवार यानी 32% उमीदवार ऐसे हैं उनकी संपत्ति एक करोड़ या उससे ज्यादा है। इस चुनाव में तीन ऐसे उम्मीदवार हैं जिनकी संपत्ति सबसे ज्यादा है ।इनमें कांग्रेस के  बेला चुनाव क्षेत्र के विशेश्वर रेड्डी जिनकी संपत्ति 895 करोड़ है। दूसरे वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के प्रसाद वीरा पोटलूरी है जिनकी संपत्ति 347 करोड़ से ज्यादा है और आंध्र प्रदेश के नरसापुरम चुनाव क्षेत्र से वाईएसआर कांग्रेस के ही कनमुरू राजू है जिनकी कुल दौलत 325 करोड़ है।
      पिछली लोकसभा में भी यही हालात थे। 521 सांसदों में से  174 यानी एक तिहाई सदस्यों ने हलफनामे में कहा था कि उनपर  आपराधिक मामले चल रहे हैं । इनमें 106 सदस्य ऐसे  थे जिन पर हत्या  का प्रयास अपहरण और सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करने जैसे गंभीर मामलों में फंसे थे। जहां तक धनबल का प्रश्न था इनमें 430 सदस्य करोड़पति थे। इसके पहले वाली लोकसभा के सदस्यों वर्तमान के उम्मीदवारों को  देखते हुए  समझा जा सकता  है कि चुनाव के बाद बनने वाली लोकसभा के सदस्यों में बहुत कुछ बदलेगा नहीं ।  इसे बदलना होगा और इसका सबसे अच्छा उपाय है कि आपराधिक बैकग्राउंड के लोगों को तब तक चुनाव नहीं लड़ने दिया जाए जब तक वह बरी न हो जाए। प्रतिशोध के लिए दायर किए जाने वाले मुकदमों को रोकने के लिए अदालतों को प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई करनी चाहिए। ऐसे मुकदमों को जो प्रतिशोध के लिए दायर किए जाते हैं उन्हें रोकने के लिए एमएन वेंकटचलिया की सिफारिशों पर ध्यान देना चाहिए। पांच दशक पहले चुनाव के दौरान भारी हिंसा हुआ करती थी  लेकिन बाद में बाहुबल को नियंत्रित कर लिया गया है। चुनाव के दौरान अर्ध सैनिक बलों की तैनाती और मतदाताओं को रिश्वत देने के लिए जमा की गई बड़ी संख्या में नगदी सोना शराब और ट्रक जप्त करने के बावजूद चुनाव आयोग असहाय लग रहा है सुनकर हैरत होती है कि पहले दो चरणों में चुनाव आयोग ने सात सौ करोड़ रुपए नगदी ,1152 करोड़ मूल्य के ड्रग्स  218 करोड़ मूल्य की शराब और  500 करोड़ रुपए रुपए मूल्य  के सोना चांदी जप्त किए जो  अभूतपूर्व है। लेकिन फिर भी यह संपूर्ण नहीं है चुनाव आयोग को इस पर विचार करना चाहिए और इसे रोकना चाहिए वरना हमारा लोकतंत्र एक दिखावा बनकर रह जाएगा ।

Friday, April 26, 2019

कीचड़ उछालने में लगे हैं हमारे नेता

कीचड़ उछालने में लगे हैं हमारे नेता 

मिशेल ओबामा ने 2016 में नेशनल डेमोक्रेटिक कन्वेंशन में अपने भाषण के दौरान एक बड़ी विलक्षण बात कही थी कि" जब वे नीचे जाएंगे तो हम ऊपर जाएंगे।" यह कथन बातचीत की शैली और स्तर के संबंध में था। यह कथन अमरीका में सोशल मीडिया पर बहुत प्रसारित हुआ और लोगों ने इस की जमकर प्रशंसा की। मिशेल ने कहा ,उन्होंने अपनी बेटी का पालन पोषण राष्ट्रपतित्व के  प्रकाश में किया है लेकिन उसे यह सिखाया है कि "वह सभी नकारात्मक प्रभावों से दूर रहे तथा उससे ऊपर उठे।" उनका यह कथन बुनियादी मानव मूल्यों संबद्ध था जो आज बहुत कम देखने सुनने में आता है, विशेषकर भारत में। क्योंकि ,यहां हमारे सार्वजनिक क्षेत्र के लोग यह मानते हैं कि जितना नकारात्मक बोलो उतना ज्यादा महत्व बढ़ेगा। आज हमारे देश में राजनीतिज्ञों में एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का उद्देश्य है कि जब वह नीचे जाएगा तो हम भी जाएंगे। वह नीचे उतर सकता है तो हम क्यों नहीं उतर सकते। भाजपा के नेता जयाप्रदा पर आजम खान की" खाकी अंडरवियर" वाली टिप्पणी यह बताती है कि अब राजनीतिक बातचीत लगभग समाप्त हो गई है । राजनीति से संबंधित बात  कहने के लिए किसी के पास नहीं है । अगर केवल भारत के राजनीतिज्ञ मिशेल ओबामा से यह सीख सकें कि प्रचार के दौरान कैसे बुनियादी शिष्टाचार को कायम रखा जाए तो उन्हें लोगों को समझाने में आसानी हो जाएगी। लेकिन बदकिस्मती से 2019 के लोकसभा चुनाव में हम जो सुन रहे हैं वह राजनीति के पर्दे में केवल विद्वेष का प्रचार है। खराब और अभद्र भाषा से विपक्षियों को संबोधित किया जा रहा है ।भय और विभाजन की राजनीति के माध्यम से चुनाव जीतने की कोशिश हो रही है ।हमारे नेता एक अत्यंत गलत मिसाल गढ़ रहे हैं।
          जब भाजपा नेता अमित शाह नेशनल सिटीजन रजिस्ट्री (एनआरसी) बनाने का वादा करते हैं तब वह कहते हैं कि वे सभी घुसपैठियों को देश से बाहर निकाल देंगे ,केवल हिंदुओं, सिखों ,जैन और बौद्धों को छोड़कर। इससे भारत में रह रहे अन्य समुदायों के पास गलत संदेश जाता है ।  चुनाव प्रचार  विभाजित करने वाला  मॉडल अपनाता जा रहा है और हाशिए पर रह रहे समाज को अपमानित कर रहा है ।  निश्चित ही यह संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के विपरीत है। उसी तरह जब एक नेता खुल्लम खुल्ला मतदाताओं को  कहता है यदि वे एक विशिष्ट उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं डालेंगे तो उन्हें पार्टी से कोई उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।  इससे  उसकी हेकड़ी तथा बेअदबी साफ दिखाई पड़ती है। चुनाव प्रचार में जुटे नेताओं में से बहुत या कहें अधिकांश नेताओं में एक नई प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है कि वह है एक दूसरे को नाम से बुलाने की। इसमें समझ में नहीं आती है कि यह सब इलेक्शन जीतने के लिए उनका एक हथकंडा है या इलेक्शन हारने के भय से उनका आक्रामक होना है । पप्पू, नामदार ,स्पीड ब्रेकर, एक्सपायरी बाबू, ज़हर की शीशी इत्यादि नाम यह बताते हैं कि हमारे राजनीतिज्ञ कैसे बोल सकते हैं। उनकी बातें इतनी दुर्भावनापूर्ण है कि राष्ट्रपति ट्रंप का बर्नी सांडर्स को "क्रेजी बर्नी" और हिलेरी क्लिंटन को "क्रूक हिलेरी" कहना साधारण लगता है। अगर यह इन दिनों सामान्य बात हो गई है तो यह एक ऐसा मसला है जिस पर हमें सोचना जरूरी है, चिंतित होना आवश्यक है।
               यह बात हैरान करने वाली है यह हमारे नेता इस स्तर तक बे अदब हो सकते हैं। हमारे राजनीतिज्ञ यह भूल जाते हैं कि वे फकत राजनीतिज्ञ ही  नहीं बल्कि रोल मॉडल भी हैं। लेकिन ऐसा लगता है वे इसकी परवाह नहीं करते कि उनके शब्दों का जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वे तो इस कोशिश में रहते हैं कि अखबारों को या मीडिया को सनसनीखेज सुर्खियां मिल जाएं और वह ब्रेकिंग न्यूज़ का आधार बने। इनमें चुनाव जीतने की लालसा  ज्यादा है और लोगों से जुड़ने की जरूरत कम समझ में आती है। शायद वे स्कूलों में विनम्रता  और  शालीनता के सबक  मोरल साइंस में जो   पढ़े हैं उसे भूल चुके हैं। इन दिनों हम अपने नेताओं में दूसरे के प्रति  असम्मान  और उन्हें अपमानजनक नाम से दूसरे को बुलाने और लोगों को छोटा समझने जैसे (अव) गुण ही दिखते हैं ।क्या हम अपने बच्चों को यही सिखाएंगे ? क्या सब ऐसी बातें नहीं हैं जिसे हम नहीं चाहते कि हमारे बच्चे देखें और सुनें। बच्चे टेलीविज़न इत्यादि देख कर बहुत जल्दी सीखते हैं। एक जमाने में कहा जाता था कि टेलीविजन देख कर हम केवल मनोरंजन ही नहीं करते हैं बल्कि सीखते भी हैं। यह हमारे बच्चों को सूचित करता है और सिखाता है। लेकिन इसका एक अवगुण यह भी है कि अगर सूचना गलत हो और उसका स्वरूप विद्रूप हो तो बच्चे वह भी सीख लेते हैं। इसका मतलब है बच्चे जो भी टेलीविजन पर देखते हैं, सुनते हैं उससे सीखते हैं और उसी से उनका आचरण नियंत्रित होता है । जब बच्चे असहिष्णुता , रेप, खून, मॉब लिंचिंग , गद्दार जैसे शब्द सुनते हैं और अपने नेताओं को देखते हैं कि वे कैसे  विपक्षियों का मजाक बना रहे हैं , उनके तरह-तरह के नाम गढ़ रहे हैं और मतदाताओं को धमका रहे हैं तो बच्चे इसे मान्य और सही आचरण मान लेते हैं। वे सीखते हैं कि कमजोर को चुप कराने के लिए ऊंची आवाज में बोला जाए। जो सबसे ज्यादा खतरनाक है वह है कि जो भाषा हम अपने राजनीतिज्ञों से सुनते हैं वह भारत के वास्तविक उद्देश्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती।  यह इस तरह के नेता नहीं हैं कि इसे देखें और समझें नाही हमारे देश के लोग यह चाहते हैं कि हमारे बच्चे भय तथा असुरक्षा के ऐसे वातावरण में रहें।  असहिष्णुता ने देश के सामाजिक ताने-बाने को बदल दिया है।

Thursday, April 25, 2019

सवाल केवल अदालत की साख का नहीं 

सवाल केवल अदालत की साख का नहीं 

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह  अधिवक्ता उत्सव सिंह बैंस के उस दावे के तह तक जाएगा की प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई को फंसाने की साजिश हो रही है । न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि यदि फिक्सर अपना काम और न्यायपालिका के साथ हेरा फेरी कर रहे हैं, जैसा कि दावा किया गया है ,तो ना तो  वह संस्था  और ना ही इसमें कोई बचेगा। न्यायालय हम सबसे ऊपर है। मंगलवार को हलफनामे में बैंस ने दावा किया कि आरोप लगाने वाली महिला का प्रतिनिधित्व करने और प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ प्रेस क्लब आफ इंडिया में प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए डेढ़ करोड़ रुपए देने की पेशकश की गई थी। बुधवार को सुनवाई के अंतिम क्षणों में बैंस ने पीठ से कहा कि उनके पास इससे संबंधित ढेर सारे सबूत हैं।
         जजों की इस खंड पीठ ने सीबीआई के निदेशक , गुप्तचर ब्यूरो के निदेशक और पुलिस कमिश्नर से भी मिली तथा बैंस के आरोपों पर विचार किए। यह आरोप उनके पास एक बंद लिफाफे में पहुंचा था। खंडपीठ ने कहा कि बैंस की सूचना को गुप्त रखा जाएगा। इस संबंध में कोर्ट ने तीन अधिकारियों को निर्देश दिया है कि वह इस सामग्री की जांच करें ।  दूसरी तरफ, अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि बैंस के फेसबुक पोस्ट और सब्मिशन मेल नहीं खाते।अपनी पोस्ट में   बैंस ने कहा था कि  असंतुष्ट न्यायाधीशों के एक समूह ने प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ साजिश रची थी। कानून अधिकारी ने कहा हलफनामे में इसका कोई जिक्र नहीं है। बैंस ने अपने सभी  स्रोतों के खुलासे करने में आंशिक विशेषाधिकार का दावा भी किया। इस पर अटार्नी  जनरल न कहा कि कोई कैसे कुछ आरोप लगा रहा है और बाकी के दावे को विशेषाधिकार बता सकता है।   
         अब यह सवाल उठता है कि न्यायमूर्ति गोगोई के खिलाफ कौन  आरोप  लगा रहा है? अभी पिछले साल 12 जनवरी की बात है, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की नीति के खिलाफ बगावत कर एक तरह से न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था। अपना असंतोष जताने के लिए उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी बुलाया और कहा कि न्यायालय सही तरीके से काम नहीं कर रहा है। जिससे लोकतंत्र को खतरा है । तब उस समय उनके अनुसार कोर्ट में ढेर सारी गड़बड़ियां हो रही थीं। जिन्हें देखकर उनके द्वारा कोई 2 महीने पहले चीफ जस्टिस को पत्र भी लिखा गया था, लेकिन यह पत्र किसी काम नहीं आया । उस समय कोर्ट की इज्जत को ही गंभीर आघात नहीं लगा था बल्कि पहली बार कोर्ट के परिसर से बात बाहर गई थी और देश में यह बात फैली थी कि न्याय व्यवस्था में सब कुछ ठीक नहीं है। अनेक देशवासियों के लिए  यह  अनिष्ट का संकेत था ।  जजों की बगावत रंग लायी थी  डैमेज कंट्रोल के प्रयास किए गए थे और लगा था कि आगे चलकर अदालत अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस प्राप्त कर लेगी। अंदरूनी व्यवस्था को ठीक करेगी जिससे यह अप्रिय स्थिति दुबारा नहीं पैदा होगी।
           लेकिन अब वे पुराने वाले जज तो रहे नहीं उनमें से तीसरे रंजन गोगोई प्रधान न्यायाधीश पद पर आसीन हो गए और विडंबना देखिए कि उन्हीं की एक महिला जूनियर असिस्टेंट ने उन पर यौन प्रताड़ना का आरोप लगाया।  लगता नहीं है अभी  हालात पहले से और ज्यादा बिगड़ गए । खुद चीफ जस्टिस के शब्दों में न्यायपालिका खतरे में है। यहां यह प्रमुख नहीं है कि वह आरोप सच्चा है या झूठा है या बैंस जो कह रहे हैं वह सच्चा है या झूठा है। यहां जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है चीफ जस्टिस का अपने पद पर बने रहना। सामान्य विवेक कहता है कि आरोप लगाए जाने के बाद उन्हें अपना पद छोड़ देना चाहिए। वह राजनीतिक नेता नहीं न्यायाधीश हैं। यह विडंबना है कि  यह किसी न्यायाधीश पर पहला आरोप नहीं है। इसके पहले भी कई जगहों पर उनकी सहायकों और नौकरानियों ने आरोप लगाए हैं। लेकिन ऐसे किसी जज को सजा पाए जाने का कोई रिकॉर्ड नहीं है। यौन आकर्षण तो प्रकृति का आधार है और उससे कोई मुक्त नहीं है लेकिन चीफ जस्टिस का कहना है कि   20 साल से ज्यादा अवधि की उनकी नौकरी में उनका कैरियर निष्कलंक रहा। किसी ने उन पर आरोप नहीं लगाया। यहां इंसाफ का एक सिद्धांत  याद आता है कि जब तक आरोप प्रमाणित ना हो जाए तब तक अभियुक्त को सजा नहीं दी जा सकती। लेकिन इसका क्या किया जाए कि न्यायमूर्ति खुद इसे एक बड़ी साजिश कह रहे हैं और अदालत में इस  मामले की सुनवाई भी चल रही है। जिससे लगता है कि साजिश हुई है। यह गंभीर मसला है। क्योंकि अभी यह स्पष्ट होना बाकी है कि मामले में वास्तविकता क्या है और साजिश करने वाले के   चेहरे से नकाब को हटाना जरूरी है। क्योंकि ऐसे लोगों की  इस तरह की साजिशों में न जाने कितनों को फंस जाएंगे।
        बात में कुछ दम भी लगती है क्योंकि इसकी टाइमिंग कुछ अजीब है । अगर यह घटना पिछले वर्ष घटी तो अब तक वह क्यों चुप थी और आरोप लगाने के लिए इसी वक्त को क्यों चुना ? यही नहीं देश को यह जानने का भी अधिकार है कि चीफ जस्टिस पर आरोप लगाए जाने मात्र से देश की सबसे बड़ी अदालत के निर्णय की प्रक्रिया को बाधित किया जा सकता है। इसका तार्किक उत्तर आवश्यक है । क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में फैसले कोई एक जज नहीं करता बल्कि जजों की पीठ करती है।कई बार कई सदस्य रहते हैं। न्याय व्यवस्था में जनता के भरोसे को बनाए रखने के लिए बेहतर होगा कि वह उस बड़ी साजिश की जांच कर उसका पर्दाफाश करें। यह आरोप केवल चीफ जस्टिस पर नहीं है बल्कि समस्त न्याय प्रक्रिया पर है।  साजिश करने वाले उन हाथों को अगर नहीं पकड़ा गया तो आगे चलकर ऐसी साजिशों से पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। न्यायिक स्वतंत्रता पर भारी आंच आएगी।

Wednesday, April 24, 2019

यह क्या हो रहा है इस देश में 

यह क्या हो रहा है इस देश में 

आरोप -प्रत्यारोप, फब्तियां और जुमले के स्तर से नीचे उतर कर आज हमारे नेता एक दूसरे पर ऐसे तंज कसने के साथ-साथ   जनता को  भयभीत  करने लगे हैं। हैरत होती है कि अत्यंत सुसंस्कृत हमारा देश और हमारे नेता कहां पहुंच रहे हैं ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को आसनसोल में कहा कि दीदी मुट्ठी भर सीटों पर लड़कर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहीं हैं। उन्होंने घुसपैठियों के मुद्दे पर राज्य सरकार पर जमकर बरसते हुए कहा की घुसपैठियों के दम पर बंगाल की राजनीति नहीं चलेगी और गुंडों पर शासन चलाने की परंपरा समाप्त होगी। मोदी जी ने कहा कि  बंगाल का भाग्य और देश की दिशा "भारत माता की जय बोलने वाले ही तय करेंगे। " उन्होंने कहा कि देश को एक ऐसी सरकार चाहिए जिसमें दूरदर्शिता हो, विजन हो, डिवीजन करने वाली सरकार की जरूरत नहीं है। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा स्पष्ट कहा कि ममता दीदी ने पहले घुसपैठियों को अपना कैडर बनाया आज तृणमूल की रैलियों में भीड़ नहीं आ रही है तो विदेशी कलाकारों को बुलाना पड़ रहा है ।प्रधानमंत्री ने कहा कि जम्मू कश्मीर के बाप बेटे ( फारुख और उमर अब्दुल्ला) कोलकाता में दीदी के साथ एक मंच पर आए थे और उमर अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर में दो प्रधानमंत्री की बात कही थी। क्या देश में दो प्रधानमंत्री दीदी भी चाहती है? इस पर उन्हें अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तान के पक्ष में दीदी ने आंसू बहाए यही ही उनकी नीति है। उन्होंने चिटफंड घोटालों की ओर इशारा किया और कहा कि बंगाल में भ्रष्टाचार और अपराध दोनों नॉनस्टॉप हैं बाकी सभी चीजों के लिए दीदी स्पीड  ब्रेकर हैं। घोटालों के मामले में तृणमूल कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे रही है। मोदी ने कहा कि तृणमूल की फुल पत्ती कोयले के काले धन से खिलती है । नारदा, शारदा, रोज वैली  सिर्फ घोटाले नहीं हैं यह गरीबों के साथ किया गया अपराध भी है। इसके तार कहां तक पहुंचे हैं यह सभी जानते हैं । सर्जिकल स्ट्राइक के हवाले से उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में कितने आतंकी मारे गए इसका सबूत दीदी को चाहिए। मतदान करने वाले नौजवान नई राजनीति का सूत्रपात करने वाले हैं। हिंसा ,आतंकवाद ,तस्करी की सियासत बंगाल  को विरासत में नहीं चाहिए। प्रधानमंत्री ने कहा कि लोगों को ऐसा हिंदुस्तान चाहिए जहां पूजा करने और शोभायात्रा निकालने की आजादी हो। उन्होंने कहा कि 23 मई को एक बार फिर मोदी सरकार आएगी।
         दूसरी तरफ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आराम बाग में  एक सभा में कहा कि केंद्रीय बल भाजपा के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि केंद्रीय बल  के जवानों को भाजपा के लिए वोट देने की मतदाताओं से अपील करते वे पाया गया है।  केंद्रीय बलों को नियम तोड़ने वाला बताया है। उन्होंने आरोप लगाया कि देश में चुनावी प्रक्रिया इतनी लंबी चली, 3 महीने तक चुनाव से जुड़े रहे नेता और मतदाता। ऐसा करके भाजपा को तो सुविधा दी गई है मगर आम जनता की तकलीफों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है। ममता बनर्जी ने कहा कि मोदी जी की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। देश का दुर्भाग्य है कि 5 साल तक मोदी जी जैसा प्रधानमंत्री मिला। अब भाजपा बंगाल आंख दिखा रही है। उन्होंने जनता को सचेत करते हुए कहा कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की हरमदवाहिनी के जुल्मों को याद कीजिए।
         दोनों नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप का स्तर तो गिरा ही है उनके भाषणों में जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य है वह है कि वह आम जनता को डरा रहे हैं। दीदी कह रही हैं कि मोदी जी को वोट दिया ऐसा हो जाएगा।  मोदी जी कह रहे हैं कि दीदी को वोट दिया तो बंगाल में  अपराध और भ्रष्टाचार बढ़ेगा तथा घुसपैठियों का आतंक भी बढ़ेगा। पूरे देश में एक अजीब सनसनी है । वह सनसनी चुनाव पर चर्चा को लेकर नहीं ,चुनाव के परिणामों को लेकर नहीं है। वह एक  आतंक  है। आज भारत को वे भीतर और बाहर दोनों तरफ से सुरक्षित नहीं बता रहे हैं। हमारे नेता मतदाताओं के बड़े हिस्से को  नौजवानों को जो अपना इतिहास व्हाट्सएप पर पढ़ते हैं और मानते हैं कि 2014 के बाद भारत एक अंधे युग से बाहर आ गया है, उन नौजवानों को यह लोग  भय दिखाने में सफल हो गए हैं। वे बता रहे हैं कि हमारे पूर्वजों के दौर के खतरे कायम हैं और इन से मुकाबले के लिए एक मजबूत और आक्रामक नेता की जरूरत है। जो सर्जिकल स्ट्राइक के लिए या दुश्मन के इलाके में बमबारी के लिए हुकुम देने में हिचकिचाए नहीं। जब देश में आर्थिक दुरावस्था है, रोजगार की हालत निराशाजनक तो ऐसा लग रहा है कि चुनाव को "देश खतरे में है" वाले "राष्ट्रीय सुरक्षा चुनाव " में बदल देने की कोशिश की जा रही है और इसमें में सफल हो रहे हैं। यही कारण है कि वह राष्ट्रहित की उन्मादी परिभाषा गढ़ रहे हैं । एक ऐसा विदेशी दुश्मन गढ़ रहे हैं जिससे  सच्चे राष्ट्रवादी नफरत करे और इस दुश्मन से सांठगांठ करने वाले या उसके प्रति हमदर्दी जताने वाले से भी लोग नफरत करे।  इसी भावना को सामने रखकर वोट मांगा जा रहा है। यह द्वेषपूर्ण राजनीति है और ज्यादा मारक है। अमरीकी रणनीतिकार जोसेफ नाइ जूनियर ने हाल में लिखा कि "राष्ट्र हित एक फिसलन भरी अवधारणा है और इसका उपयोग विदेश नीति के वर्णन करने के लिए भी किया जाता है और उसे तय करने के लिए भी।" उन्होंने सैमुअल हंटिंगटन को उद्धृत करते हुए लिखा है कि" राष्ट्रीय पहचान के सुरक्षित बोध  के बिना आप अपने राष्ट्र हित को परिभाषित नहीं कर सकते।" यहां यह स्पष्ट है कि हमारी राष्ट्रीय पहचान हिंदू है और राष्ट्रवाद का मूल भी यही है जो हिंदुओं के लिए अच्छा है वहीं भारत के लिए अच्छा है। जो गैर हिंदू  अगर इसे स्वीकार नहीं करते और शिकायत करते हैं तो वे  शंकालु पत्रकार, आदतन   विरोध करने वाले ,शहरी नक्सली जैसे विशेषण से नवाजे जाएंगे। आज चुनाव प्रचार को देखने से बड़ा अजीब लग रहा है। हालांकि  देश में कोई प्रचंड राष्ट्रवादी लहर नहीं है लेकिन वह इतनी मजबूत तो है ही कि आर्थिक तकलीफ  और असंतोष को थोड़ा फीका कर दे । आज ऐसे नौजवान भी मिलेंगे जो कह रहे हैं कि देश के लिए हम थोड़ी तकलीफ सह सकते हैं। आज ऐसा माहौल हो गया है कि सबके दिमाग में एक डर बैठ गया है। सबके मानस में एक शंका कायम है। चाहे वह पाकिस्तानियों के लिए जेट विमान और कमांडो हो या देश के भीतर बैठे गद्दारों के लिए मिथ्या लांछन और सोशल मीडिया पर लिंचिंग से लेकर तरह-तरह के अन्य भ्रामक तथ्य। इस भय को देख कर एक बहुत पुराना फिल्मी गाना याद आता है:
      झांक रहे हैं अपने दुश्मन 
      अपनी ही दीवारों से 
      संभल के रहना
      अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से
       

Tuesday, April 23, 2019

सोच समझ कर क्यों नहीं बोलते

सोच समझ कर क्यों नहीं बोलते

कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने हलफनामे में चौकीदार चोर है बयान पर खेद जताया है।राहुल गांधी ने 10 अप्रैल को कहा था कि "अब तो सुप्रीम कोर्ट  भी मानती है चौकीदार चोर है। " इस पर भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने बवाल खड़ा कर दिया था और मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया। सोमवार को राहुल ने अपने हलफनामे में खेद जताया। उन्होंने कहा वे प्रचार के जोश में कह गए थे।  ऐसा कोई फैसला पढ़ा नहीं था। अब भविष्य में बिना फैसला पढ़ें कुछ नहीं कहा जाएगा। मीनाक्षी लेखी ने 15 अप्रैल को याचिका  दायर की थी और सुप्रीम कोर्ट ने 22 अप्रैल तक स्पष्टीकरण देने को कहा था। उन्होंने कहा कि  प्रमाण के इस   माहौल में सर्वोच्च न्यायालय राफेल मामले को फिर से सुनवाई के लिए रखना चाहता था जबकि सरकार का प्रयास था कि इसके बारे में नए तथ्यों को रोक दिया जाए। अपने 19 पृष्ठों के स्पष्टीकरण में राहुल गांधी ने कहा "चौकीदार चोर है" कांग्रेस पार्टी का एक राजनीतिक नारा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में यह नारा तीखी बहस का केंद्र भी है। राहुल गांधी ने अपने कहे पर खेद जताया। राहुल गांधी ने कहा कि समय जो यह हवा चल रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में अपने 14 दिसंबर के फैसले में मोदी जी को क्लीन चिट दे दी है और इसी हवा में बिल्कुल शुद्ध राजनीतिक संदर्भ में यह टिप्पणी की गई। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यशाली तुलनात्मकता को विपक्षियों ने एक साथ मिला दिया। वे इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहते थे और उन्होंने अफवाह फैला दी कि मैंने (राहुल गांधी)  जानबूझकर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी मान लिया कि चौकीदार चोर है । इसके बाद से तो मेरी तरफ से कभी कुछ नहीं कहा गया । इससे यह स्पष्ट हो जाता है की अदालत राजनीतिक नारों पर संज्ञान लेती  है आज तक किसी अदालत ने ऐसा नहीं किया था।   उनकी टिप्पणी मीडिया पार्टी के कार्यकर्ता और वहां के वातावरण पर आधारित थी। उन्होंने कहा की 10 अप्रैल के फैसले को पढ़ा नहीं गया था। यह टिप्पणी उन लोगों के लिए थी जो राफेल मामले की जांच के लिए प्रचार कर रहे थे। राफेल मामला कई महीनों से देश में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सामाजिक मामला बना हुआ है। राहुल गांधी ने अपने हलफनामे में कहा कि न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुंचाने की प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई मंशा नहीं थी।
              राहुल गांधी ने अपने जवाब में ऐसे उदाहरण भी दिए है कि जब राफेल मामले पर 14 दिसंबर के फैसले के संदर्भ में सत्तारूढ़ दल के नेता यहां तक कि प्रधान मंत्री  और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों ने कथित रूप से सुप्रीम कोर्ट का हवाला दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा  जानबूझकर अदालत की खिलाफ टिप्पणी किए जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता है । उन्होंने कहा कि उन्हें दृढ़ विश्वास है कि प्रधानमंत्री मोदी राफेल मामले से जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा कि वे इस अवसर पर यह दोहराना चाहते हैं कि उनकी पार्टी का दृढ़ विश्वास है प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने इस मामले में अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है और इसकी जांच जरूरी है । किसी भी मौके पर एक सार्वजनिक हस्ती की दूसरी छवि पेश किया जाना किसी भी मानहानि याचिका का आधार नहीं बन सकता।
          राहुल गांधी ने अपने हलफनामे में एक तरह से अपने कहे के प्रति क्षमा मांग ली। हो सकता है कि इसकी वैधानिक प्रक्रिया समाप्त हो जाए। लेकिन, हमारे  नेताओं के इस तरह के कथनों का सामाजिक प्रभाव क्या पड़ेगा और इसे किस अदालत में चुनौती दी जाएगी? यह बहुत बड़ा प्रश्न है। हमारे नेता चाहे जो हों, उनका कद कितना भी बड़ा हो वे अपनी बातचीत के मामले में कभी भी अपेक्षित संयम  नहीं बरतते। चारों तरफ बदजुबानी का माहौल गरमाया हुआ है किसी ने भी यह नहीं सोचता कि इस तरह से भाषणों का हमारे देश की आम जनता पर और  आने वाले दिनों में कैसा प्रभाव पड़ेगा।  दूर की बात क्यों लें, तीसरे चरण का चुनाव लड़ने वाले नेताओं में 340 ऐसे हैं जिनके आपराधिक रिकॉर्ड है और उनमें से 230 तो गंभीर अपराधों के अभियुक्त हैं और इनमें भी 14 लोगों को सजा हो चुकी है। तीसरे चरण में कुल 1612 उम्मीदवार जोरा आजमा हैं और इनमें 346 अपराधी हैं, 393 करोड़पति है और 1.4% निरक्षर हैं। सत्ता के लिए संघर्ष करने वाले भाजपा और कांग्रेस में 27- 27% ऐसे उम्मीदवार हैं जिन पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं। 13 उम्मीदवारों के ऊपर तो खून के मुकदमे चल रहे हैं। इसके पहले समाप्त हुए दूसरे चरण में 16% उमीदवार आपराधिक मामलों से जुड़े हुए थे और पहले चरण में 17% उम्मीदवार।
              यह आंकड़े यहां पेश किए जाने का आशय केवल दिया था कि जिन उम्मीदवारों की शिक्षा-दीक्षा इतनी कम है और जिन में कानून के प्रति इज्जत इतनी कम है वह हमारे लोकतंत्र में अगर कानून बनाने और माननीय कहे जाने की मंशा लेकर अगर समाज में घूम रहे हैं तो उनका हमारे समाज के प्रति, हमारे समाज के सरोकारों के प्रति और शालीनता के प्रति कितनी ज्यादा प्रतिबद्धता होगी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। राहुल गांधी ने जो कुछ भी कहा और जो भी अपने हलफनामे में उन्होंने माफी मांगी यहां यह उद्देश्य नहीं है।। उद्देश्य है कि यह कैसा समाज बन रहा है और उस समाज को सुधारने की जिम्मेदारी किन लोगों पर है । क्या यही समाज आने वाले वक्त में हमारे देश को उन्नति और समृद्धि की ओर ले जा सकता है। महान मनोवैज्ञानिक फ्रायड का कथन था कि आप की भाषा और आपके बोलने का ढंग आपकी दिमागी संरचना का प्रतिबिंब है । राहुल गांधी जो प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार हैं वह ऐसी बातें करते हैं तो सचमुच देश के भविष्य को लेकर चिंता जरूरी है।

Monday, April 22, 2019

भारत में लोकतंत्र का भविष्य

भारत में लोकतंत्र का भविष्य

वर्जिनिया वूल्फ ने लिखा है कि दिसंबर 1910 में मानव स्वभाव में परिवर्तन आ गया। मानवीय संबंध बदल गए। धर्म, आचरण राजनीति और साहित्य में बदलाव आ गया। इस आधुनिकता का मूल 19  वीं सदी की प्राविधिकी में तेजी से हुए बदलाव में था। फ्रायड ,मार्कस , डार्विन  और  नीत्शे जैसे विचारकों विचारों ने  उन्नीसवीं सदी में  वैचारिक तौर पर सब को प्रभावित करने लगे। तकनीक बदलने लगी। अब अगर कहा जाए  कि इस कथन के एक सदी के बाद के पहले दशक के बीतते ही 2014 से 2019 के बीच भारत में मानवीय चरित्र बदल गया है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी।  इस अवधि में स्मार्टफोन की संख्या 10 करोड़ से 40 करोड़ हो गई है। जिस तरह वर्जिनिया वूल्फ और उनके समकालीन लेखकों ने यह बताने की कोशिश की है कि  किस तरह औद्योगिकरण ,सामूहिक लोकतंत्र, टेलीग्राम,  टेलीफोन,  जैसी तकनीक  के  अभूतपूर्व प्रसार ने मानवीय संबंधों को परिवर्तित कर दिया उसी तरह भारत में स्मार्टफोन ने आदमी के निजी और सार्वजनिक जीवन में परिवर्तन ला दिया है। लाखों नौजवानों और गरीब भारतीयों के लिए इस औजार ने पहली बार कैमरा ,कंप्यूटर, टेलिविजन ,म्यूजिक प्लेयर ,वीडियो गेम ,ई रीडर और इंटरनेट का एक साथ अनुभव कराया है । स्मार्ट फोन ने कई तकनीको बहुत कम समय में एक साथ जमा कर दिया। इस तरह की तकनीकों के अलग-अलग अविष्कार में पश्चिम को काफी समय और धन लगाना पड़ा था। उदाहरण के लिए प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत से लेकर फोटोग्राफी ,रेडियो टीवी पर्सनल कंप्यूटर मॉडेम इत्यादि के विकास में कितना वक्त लगा था। पश्चिम में इस तकनीकी विकास में सामाजिक और राजनीतिक क्रांति भी जुड़ी थी। उदाहरण के लिए प्रिंटिंग प्रेस ने पहली बार आसानी से दुनिया को किताबे मुहैया कराई और पढ़ने पढ़ाने का एक नया वर्ग तैयार हो गया।
            आज भारत में वर्ग शक्ति के मामले में भारी बदलाव आया है।  स्मार्टफोन के जरिए कोई भी आदमी अपने विचार जाहिर कर सकता है और उसे दूर दूर तक भेज सकता है। 
यह संप्रेषण परंपरागत राजनीतिक प्रतिनिधियों तथा मीडिया के विचारकों को नजरअंदाज कर या कभी-कभी उन्हें चुनौती देकर अपना पृथक स्वरूप ग्रहण करने लगता है। इस नए स्वरूप का असर होता हुआ भी दिखता है। यह अनुभव विश्वसनीय भी लगता है। तीव्र संचार दुनिया भर में लोकतंत्र तथा आजादी को प्रोत्साहित करते हैं । झूठे समाचार व्हाट्सएप  , फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के माध्यम से प्रसारित होते हैं ।भारत में इसी के कारण मॉब लिंचिंग की घटना है देखी जाती है।  अब इससे भारत के चुनाव को प्रभावित किए जाने का खतरा पैदा हो रहा है, यह  ठीक वैसे ही है जैसे पिछले साल ब्रजिल के चुनाव में हुआ था । स्मार्ट फोन धारक स्थाई रूप से सूचनाओं से जुड़े हैं। यह सूचनाएं गलत भी हो सकती हैं लेकिन इनका भी असर देखा जाता है। इसका मुख्य कारण है  लोगों में सही और गलत को समझ पाने की क्षमता का अभाव ।  जब सरकारी शिक्षा व्यवस्था अपर्याप्त हो और निजी शिक्षा व्यवस्था अधिकांशत ठगी हो तथा छोटी नौकरियों के लिए भी भयानक प्रतियोगिताएं हैं तो क्या क्रांति के लिए स्थितियां में तैयार हो गई हैं। जी नहीं ,वह स्थिति अभी नहीं आई है।क्योंकि इन दिनों विमर्श के बदले अधिकांश लोग स्मार्टफोन के स्क्रीन से जुड़े हुए रहते हैं। लोकप्रिय राजनीतिज्ञ सोशल मीडिया का सहारा लेते हैं लेकिन इसका असर तभी पड़ता है जब सूचनाएं मनोरंजन तथा प्रचार के साथ ही साथ बॉलीवुड के वीडियो से जुड़ी हों या कहें यह सब उनमें गुंथा हो और सब कुछ एक ही साथ हो एक ही परदे पर हो। कभी के बहुत सक्रिय लोग इन दिनों निष्क्रिय उपभोक्ता में बदलते जा रहे हैं। उनकी चेतना का स्तर घटता जा रहा है । वोटिंग मशीन का बटन ठीक उसी तरह और राजनीतिक उत्साह से दबाया जाता है जिस तरह फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर के आइकन को क्लिक किया जाता है। स्मार्टफोन के कारण आरंभ हुआ सोशियोपेथिक आचरण उस समय और प्रोत्साहित होता है जब वह कहीं दिखता नहीं है। भारत कुल मिलाकर एक अपरिवर्तनवादी समाज है लेकिन साथ ही  इस देश में झूठे  समाचारों और कामुक तस्वीरों की लत और आकर्षण बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत बड़े संकट का लक्षण है क्योंकि एक आदमी लिखे हुए वाक्यों से परदे की ओर बढ़ रहा है या महत्वपूर्ण वैचारिक स्तर से निष्क्रिय खपत तथा लेखन से छवि बनाने की ओर कदम बढ़ा रहा है ।लोकतंत्र का सामाजिक अनुबंध उसके लोगों में सच्चाई के प्रति दृष्टिकोण क्या है इस पर निर्भर करता है। लेकिन तब क्या हो जब सोचे समझे और व्यवस्थित ढंग से तैयार की गई छवियां सच्चाई के नए विकल्प के रूप में उपस्थित हो रही हों? पश्चिम के पढ़े लिखे  और धर्मनिरपेक्ष समाज के साथ भी यही समस्या है ,लेकिन आंशिक तौर पर पढ़े लिखे और अत्यंत धार्मिक समाज में इसपर विचार करना ज्यादा जरूरी है। क्यों फिर ऐसे समाज में मिथक और चमत्कार का माननीय कल्पनाओं पर ज्यादा प्रभाव होता है।
         पश्चिम में ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब धमकी  या रहस्य की काल्पनिक छवि प्रसारित की जाती है तो लेखन से उसका विरोध होता है और उसे वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित किये जाने की चुनौती दी जाती है। कई मौकों पर धर्म की सत्ता को ललकार भी दिया जाता है। 
      लेकिन भारत में ऐसा बहुत कम देखा जाता है । खास करके पिछले कुछ सालों में तो गति प्रतिगामी हो गई है। गढ़े हुए रहस्य फेसबुक, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया अन्य प्लेटफार्म से प्रसारित किए जाते हैं । इससे वैचारिक विमर्श की संभावनाएं समाप्त हो रही हैं। जो लोकतंत्र की बुनियाद के लिए जरूरी है। एक काल्पनिक विडंबना करोड़ों लोगों चमत्कारिक पौराणिक युग की ओर ले जा रही है और इस का जरिया है स्मार्टफोन । इसका ताजा उदाहरण  है  एक दक्षिण पंथी पार्टी की एक साध्वी उम्मीदवार यह कहती है कि उस के श्राप से मुंबई के पुलिस अधिकारी की मृत्यु हो गई और लोग  उसकी वास्तविकता नहीं  ऐसा होने और नहीं होने पर  बहस करने लग जाते हैं । क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि हम  रहस्य और चमत्कार की ओर बढ़ रहे हैं  हमारी तार्किकता समाप्त हो रही है  बौद्धिकता  कुंद होती जा रही है । फंतासी  की ओर बढ़ते समुदाय के लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि चुनाव में कौन जीता कौन हारा। स्मार्टफोन बड़े ही नाटकीय अंदाज में भारत में मानवीय चरित्र को पुनः नियोजित कर रहा है और यह देश के भंगुर लोकतंत्र तथा सिविल सोसायटी को कितना प्रभावित करेगा इसकी गणना नहीं की जा सकती।

ईस्टर में मातम

ईस्टर में मातम

श्रीलंका की राजधानी कोलंबो के उत्तरी भाग में निगम्बो में एक चर्च में विस्फोट से 200 से ज्यादा लोग मारे गए। विस्फोट रविवार को हुआ । रविवार को ईसाईयों का ईस्टर पर्व था। न्यू टेस्टामेंट में उल्लेख है कि  उस दिन  सन 30 में  प्रभु यीशु मौत के बाद जीवित हो उठे थे। इसे ईस्टर के रूप में मनाया जाता है। ईस्टर प्रभु यीशु के मौत के बाद से वापस लौटाने के दिन का पर्व है इसलिए  चर्च में प्रार्थना के लिए बहुत लोग इकट्ठे थे और उस दिन प्रभु यीशु की आराधना में लगे सैकड़ों लोग मौत के आगोश में चले गए। इस सिलसिले में 13 लोगों को अभी तक गिरफ्तार किया गया है। भविष्य में और गिरफ्तारियां हो सकती हैं। श्रीलंका सरकार के अधिकारियों के मुताबिक इस घटना को जिहादियों ने अंजाम दिया है । उस दिन लंका में आठ स्थानों पर विस्फोट हुए। विस्फोट से जुड़े एक व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने के बाद जांच के दौरान उसके परिजनों ने बताया कि वह 6 महीने से गायब है। खबर मिली है की इस घटना के बारे में पहले से ही सूचना दे दी गई थी। भारत सरकार ने इस महीने की शुरुआत में श्रीलंका सरकार को खुफिया सूचना दी थी की उनके यहां बहुत जल्दी आतंकी हमले होने वाले हैं । इस सूचना के आधार पर कोलंबो पुलिस के प्रमुख ने 11 अप्रैल को देशभर में सतर्कता जारी कर दी थी। उन्होंने चेतावनी दी थी कि भारतीय उच्चायोग तथा चर्च पर हमले हो सकते हैं। सतर्कता में जिस संगठन का नाम लिया गया था वह था नेशनल तौहीद जमात। यह कट्टर इस्लाम का समर्थक है। लेकिन तब भी श्रीलंका में चौकसी नहीं थी। दरअसल वहां 12 अप्रैल से ही छुट्टियां चल रही थी।  तमिल -सिंहल नववर्ष, गुड फ्राइडे और ईस्टर की  मस्ती में डूबे लोग जश्न मना रहे थे। इससे पता चलता है कि श्रीलंका शांति के प्रति कितना अभ्यस्त हो चुका है। उसने चेतावनी ऊपर भी कान देना उचित नहीं समझा। ऐसा देश जो आतंकी हमलों के प्रति अजनबी नहीं है। इस देश में मई 2009 के बाद जब एल टी टी ई को  फौज के हाथों पराजित होना पड़ा था उस के बाद यह पहला हमला है । तमिल टाइगर्स के आतंकी ग्रुप ने  सबसे बड़ा विस्फोट श्रीलंका के सेंट्रल बैंक के समीप किया था जिसमें 91 लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हो गए थे। उसके हर हमले पुलिस और सेना पर ही हुआ करते थे। न्यू यॉर्क 9/11 की घटना से 2 महीने पहले 2001 की जुलाई में उन्होंने भंडारनायके अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हमला किया था और लगभग सभी उड़ाने रद्द हो गई थी। लेकिन रविवार के विस्फोट में इस तरह के कोई सबूत नहीं दिखाई पड़ रहे हैं । एलटीटीई लगभग समाप्त हो चुका है और वैसे भी यह  कैथोलिक चर्च पर हमले नहीं किया करता था। क्योंकि उत्तर पूर्व के बहुत से तमिल क्रिश्चियन थे और शांति पूर्वक रह रहे थे। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि इस दिन विस्फोट करने वाले किसी भी संगठन ने अभी तक  जिम्मेदारी नहीं ली है।  इस तरह के विस्फोटों के तौर-तरीकों आधार पर ही अंदाजा लगाया जा रहा है।
         इन  8 विस्फोटों में से दो आत्मघाती थे। यह इन दिनों आतंकी हमलों के लिए सामान्य बात है। लेकिन जब टारगेट को देखा जाए तो चर्च का चुनाव इसी वर्ष जनवरी में दक्षिणी फिलीपींस के जोलो में  विस्फोट की याद दिलाता है जहां 20 लोग मारे गए थे।  इस घटना को पूर्वी एशिया से संबद्ध आईएसआईएस संगठन ने अंजाम दिया था।  यही नहीं हाल में न्यूजीलैंड में मस्जिद में गोलीबारी की घटना की भी याद आती है। जहां तक मृत्यु संख्या का सवाल है इसमें एक बड़े होटल का चयन जहां विदेशी पर्यटक ठहरे हुए थे और हमले का तौर तरीके को देखकर 2008 के मुंबई हमलों की याद आती है। उस हमले में 166 लोग मारे गए थे। जहां तक ईस्टर के दौरान हमले की बात है तो गत 27 मार्च 2016 को लाहौर में गुलशने इकबाल पार्क  में हमला याद आता है जिसमें 75 लोग मारे गए थे और इस घटना की जिम्मेदारी पाकिस्तानी तालिबान ने ली थी। यही नहीं 2017 में "पाम संडे" के दिन मिस्र में चर्च पर हमला हुआ था जिसमें 45 लोग मारे गए थे।  चर्च और ईसाईयों  से जुड़े टारगेट्स पर जितने हमले हुए हैं उसकी जिम्मेदारी आईएसआईएस अथवा उससे जुड़े संगठन ने ली है । ताजा घटना के लिए सुना  जा रहा है कि वह संगठन है नेशनल तौहीद जमात और एक साल पहले आईएसआईएस में शामिल होने के लिए घर से भागे सैकड़ों श्रीलंकाई नागरिक इस जमात के प्रभाव में बताए जाते हैं।
        घटना के कारण श्रीलंका में भय व्याप गया  है कि कहीं एलटीटीई वाले दिन न लौट आएं। चाहे जो हो इस घटना का असर लंका की अस्थिर राजनीति पर जरूर पड़ेगा। राष्ट्रपति श्रीसेना और प्रधानमंत्री विक्रम सिंघे में 2018 से ही तनाव है फिर भी सरकार चलती है। इस साल के आखिर में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं और राजपक्षे को गुट उम्मीद है वह दोबारा जीतेगा। रविवार की घटना के बाद श्रीलंका के चुनाव में आतंकवाद मुख्य मुद्दा बनेगा। इस घटना को देखते हुए ऐसा लगता है कि कहीं भारत के दक्षिणी क्षेत्र में भी ऐसा ना हो। क्योंकि दक्षिणी भारत में आईएस अपना पैर पसारने कोशिश में लगा हुआ है। भारत सरकार को इसे देखकर चौकन्ना रहना पड़ेगा।

Sunday, April 21, 2019

नकली उत्सव

नकली उत्सव

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और आज आम चुनाव के दौर से गुजर रहा है।  इतिहास गवाह है कि लोकतंत्र के इस महादेश में कभी भी किसी राजनीतिक गठबंधन या राजनीतिक पार्टी ने 50% बहुमत नहीं पाया है। यहां बहुमत का आशय यह है कि 50% मतदाताओं का वोट उसे मिला नहीं मिला है। कई बार तो पूरे देश के मतदाताओं की संख्या के 30% के आधार पर ही सरकारें बनी हैं। हालांकि, लोकतंत्र अवधारणा सिंधु घाटी सभ्यता से ही आरंभ हुई थी तथा यूनान  एवं रोमवासियों ने इसे एक संस्थान का दर्जा दिया।  अब सवाल है कि क्या भारत एक ऐसा  लोकतंत्र होने का दावा कर सकता है जो पश्चिमी देशों में है? क्या सचमुच यहां लोकतंत्र का उत्सव कुछ चुनिंदा लोगों के नियंत्रण से मुक्त है?
          विश्व बैंक की हाल की रपट के मुताबिक देश की 32.7% आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुजर करती है और 68.7% आबादी $2 प्रतिदिन पर जीवन बसर करती है। जैसा कि आंकड़े बताते हैं 45% बच्चे और 21%  वयस्क कुपोषण के शिकार हैं। यही नहीं जो नए पढ़े लिखे लोग हैं उनमें से बहुत कम लोग  उस शिक्षा का उपयोग करने में कामयाब हैं जिसे उन्होंने पढ़ा है? नव शिक्षित लोग उन रोजगारों के माध्यम से रोजी-रोटी  जुटा रहे हैं जिसके लिए कम पढ़े लिखे लोग पर्याप्त हैं।कुछ लोग जो ज्यादा पढ़े हैं वह भी छोटे-छोटे कामों में लगे हुए या अपने खानदानी पेशे से जुड़े हुए हैं । विकास उपलब्धियां उनके रोजगार को नहीं बदल सकीं और ना ही जीवन शैली को । तो ऐसे लोग दिलो दिमाग से किस तरह लोकतंत्र के इस उत्सव में शामिल हो सकते हैं इसके बावजूद इस वर्ष मतदान के प्रतिशत आश्चर्यजनक रूप से ज्यादा हैं।
मिलती नहीं कमीज पावों से पेट ढक लेते हैं
कितने मुनासिब हैं ये लोग इस सफर के लिए 

अक्सर चुनाव बाहुबल तथा धन बल से प्रभावित होते हैं क्योंकि भारत के बहुसंख्यक लोग ताकतवर लोगों पर निर्भर हैं। वह ताकतवर हस्ती चाहे राजनीतिज्ञ हो, अमीर व्यापारी हो या अफसर हो । ऐसे  आम आदमी की जमात कैसे स्वतंत्र तथा निष्पक्ष होकर मतदान कर सकती है।  हम  अक्सर डरे रहते हैं या डरा कर रखा जाता है । विख्यात समाजशास्त्री रजनी कोठारी के मुताबिक देश में जातियों का राजनीतिकरण या राजनीति का जातीय करण बहुत तेजी से हो रहा है। राजनीतिक नेता जाति के आधार पर अपने मतदाताओं को लुभाते हैं । वैसे में विभिन्न जातियों के नेता ताकतवर राजनीतिज्ञों  के साथ कंधा मिलाकर चलने का गौरव हासिल कर लेते हैं और वह फायदा उठाते हैं जो संविधान के दायरे में रहकर नहीं उठाया जा सकता है। उदाहरण के लिए जातीय नेता अपनी जाति के नौजवानों को आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन में कूद जाते हैं । कहा जाता है वे कमजोर है उन्हें आरक्षण दिया जाए।  कमजोर लोगों का यह जत्था ट्रेन में आग लगा देता है, बसों को फूंक देता है, दुकानें जला देता है, सड़क जाम कर देता है फिर भी वह कमजोर है। सभी राजनीतिक दलों का एक ही फॉर्मूला है कि कुछ मुफ्त में दे कर वोट बटोर लें। चाहे वह रोजगार गारंटी योजना हो या आय गारंटी योजना हो सब का गेम प्लान एक ही है। इन दिनों एक नया गेम प्लान आकार ले रहा है वह दूसरों के या प्रतिद्वंदी के चरित्र पर कीचड़ उछाला जाना और उसे बदनाम किया जाना। इसका सबसे ताजा उदाहरण भारत के प्रधान न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप है। यह आरोप सच है या गलत इस पर कोई बहस नहीं है लेकिन इसकी टाइमिंग अपने आप में इसे संदेहास्पद बना दे रही है। आदर्श आचार संहिता चुनाव की तारीख घोषित किए जाने के दिन से ही लागू हो जाती है और परिणाम निकलने तक कायम रहती है ।  पार्टी उसी के अनुसार अपने वायदे करती है । लेकिन जनता को हर बार मूर्ख नहीं बनाया जा सकता।  आज चुनाव की गति तथा पिछले चुनावों का अनुभव बताते हैं कि वायदे तोड़ने के लिए ही किए जाते हैं।  ऐसा है तो चुनाव लोकतंत्र का उत्सव कैसे हो सकते हैं?
          ताजा चुनाव में जोर आजमाने वाले उम्मीदवारों का इतिहास देखें तो बहुत निराशा होती है। आजादी के पहले जो लोग राजनीति में भाग लेते थे उनका एक जज्बा था देश की सेवा। आजादी के बाद यह जज्बा बदलता गया। अब राजनीति में जाना अपनी महत्वाकांक्षा तथा स्वार्थ को पूरा करने का एक जरिया बन गया है । आजादी के बाद बहुत भयानक मानसिक परिवर्तन हुआ है। देशभक्त स्वार्थी बन गए हैं। वरना हमारे राजनीतिज्ञ कैसे इतना धन इकट्ठा कर लेते हैं। क्यों हमारे सांसद और विधायक उन लोगों से ज्यादा लोकप्रिय हैं जो इमानदारी और कठोर मेहनत से जीवन यापन करते हैं? क्या औपनिवेशिकरण ने हमारे देश की अधिकांश जनता को लोभी और भ्रष्ट बना दिया?
         आजादी के बाद से विकास का फल प्रभावशाली लोगों ने ही पाया है और इससे समाज में वर्गीय ध्रुवीकरण हुआ है। एक गरीब आदमी अपनी इमानदारी को प्रदर्शित नहीं कर सकता और अगर करता भी है तो वह बात किसी को मालूम नहीं पड़ती। गरीब अक्सर बेईमानी के चंगुल में फंस जाते हैं या कहें फंसा दिए जाते हैं। क्योंकि वह गरीब हैं और बेकार हैं। ऐसे लोग चुनाव के दौरान पैसे के लिए राजनीतिक पार्टियों से जुड़ जाते हैं और धीरे धीरे राजनीति के अपराधीकरण के तंत्र बन जाते हैं।  चुनाव के दौरान आतंक फैलाने के काम में आते हैं। कहा जाता है कि लोकतंत्र शासन   की एक पद्धति है जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि व्यवस्था को संचालित करते हैं। यह निर्वाचन आम जनता के मतों से होता है लेकिन भारत जैसे देश में जहां धन, शिक्षा, संस्कृति, रस्मो रिवाज और सामाजिक अवसरों में बहुत बड़ा अंतर है वहां लोकतंत्र विकास का सार्थक उत्प्रेरक कैसे बन सकता है? सवाल है भारत जैसे कम विकसित देश में क्या लोकतंत्र अपने सही अर्थों में कायम रह सकता है?
             वर्तमान लोकतंत्र की अवधारणा हमारे देश में नेहरू के इशारे पर पश्चिम से लाकर रोप दी गई। लोकतंत्र के लिए जरूरी है समाज का शिक्षा उन्मुख होना नाकी संस्कृति उन्मुख । हमारा देश संस्कृति उन्मुख रहा है इसलिए आज संस्कृति को ही मुख्य विभाजन कारी औजार के रूप में उपयोग में लाया जा रहा है। बेलगाम भ्रष्टाचार, धन और  सत्ता का असमान बटवारा, दोषपूर्ण प्रशासन प्रणाली ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश में जो लोकतंत्र लागू किया गया है वह हमारे लिए नहीं है। हाल के आतंकवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद ने देश में लोकतंत्र की सीमाओं को स्पष्ट कर दिया है। ऐसी स्थिति में हम इस चुनाव को कैसे लोकतंत्र का महा उत्सव कर सकते हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

Friday, April 19, 2019

हो चित जहां भय शून्य  

हो चित जहां भय शून्य  

गुरुवार को चुनावी माहौल काफी गर्म रहा। एक तरफ मतदान का दूसरा चरण चल रहा था और दूसरी तरफ नेताओं के भाषण। भाषण भी ऐसे जैसे आग लगाने की कोशिश की जा रही है या आतंकित करने की कोशिश हो रही है। चाहे वह आतंक एनआरसी का हो या गरीबी का।  निर्वाचन आयोग ने कांग्रेस के विज्ञापन "चौकीदार  चोर है " पर पाबंदी लगा दी। इस रोक से लिए मध्य प्रदेश के संयुक्त मुख्य चुनाव पदाधिकारी राजेश कौल ने सिफारिश की थी। कहा गया है  कि चौकीदार चोर है विज्ञापन में अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया है और यहां चौकीदार का आशय है मोदी से। इस विज्ञापन से व्यक्ति विशेष को निशाने पर लिया गया है । इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ दायर एक याचिका को भी मंजूर किया है। यहां एक संदर्भ का उल्लेख प्रासंगिक हो रहा है कि जब 1989 में राजीव गांधी चुनाव लड़ रहे थे और बोफोर्स का मामला गरमाया  तो सड़कों पर खुल्लम खुल्ला नारे लगते थे "राजीव गांधी चोर है।" उस जमाने में इस पर बात नहीं हुई नाही इस नारे पर पाबंदी लगी। एक तरफ तो  बंदिशों की बात चल रही है और तो दूसरी तरफ एक दूसरे पर सीधा हमला किया जा रहा है।
      गृह मंत्री राजनाथ ने बंगाल में हावड़ा और मालदह में अपने भाषणों के दौरान गुरुवार को कहा कि गरीबी हटाने का कांग्रेस का कथन गलत है, झूठा है। गरीबी तभी दूर हो सकती है जब भारत कांग्रेस मुक्त हो। श्री सिंह ने कहा कि जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही कांग्रेस गरीबी हटाने के झूठे वादे  कर रही है। इंदिरा गांधी, उनके बाद  राजीव गांधी और अब राहुल गांधी भी गरीबी हटाने की बात कर रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि कांग्रेस मुक्त बनाने पर ही भारत से गरीबी हटेगी। उन्होंने बताया कि अमरीका ने 2016 में एक सर्वे किया था जिसमें भारत में 12.5 करोड़ गरीब थे।2019 में वह संख्या घटकर 5 करोड़ पहुंच गई है।
         उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री  ममता बनर्जी ने मालदा में कहा कि केंद्र की फसिस्ट और स्वेच्छाचारी सरकार 5 वर्षों तक देश को लूटती रही है अब उसकी विदाई का समय आ गया है। वह इस देश को एनआरसी देना चाहती है एनआरसी उस पर एनबीसी( नेशनल बिदाई सर्टिफिकेट) साबित होगा। उन्होंने कहा कि  वह बंगाल में एनआरसी लागू नहीं होने देंगी । एनआरसी का फैसला उल्टा पड़ेगा। देश में नोटबंदी और जीएसटी से बेरोजगारी बढ़ाने वाली सरकार को वोट मांगने का अधिकार नहीं है। वाह असम सहित बंगाल में किस आधार पर वोट मांग रही है । असम में एनआरसी के जरिए लगभग 42 लाख हिंदू मुसलमान समुदाय के लोगों को नागरिकता सूची से एक झटके में हटा दिया गया और वह बंगाल में एनआरसी लागू करने की बात कर रही है। उन्होंने कहा बंगाल में एनआरसी का कभी लागू नहीं होने दिया जाएगा।
        चुनावी भाषणों में आरोप-प्रत्यारोप पहले भी लगते रहे है लेकिन इन दिनों इन का स्तर बहुत ही नीचे चल आया है। खास करके जब जनसभाओं में हमारे नेता भाषण दे रहे हैं। यह एक तरह से हमारे समाज के सोचने के ढंग को परिलक्षित करता है। इन दिनों हमारे अवचेतन में बैठे भय के भूत को जगाया जा रहा है। हमारे अवचेतन में बैठी जो बात हमें लगातार आतंकित करती आ रही है या हमारे गुस्से को भड़का देती है आज चुनाव में बार बार उन्हीं बातों का उपयोग किया जाता है । कहा जा सकता है कि पूरा मतदाता वर्ग उपभोक्ता है तथा आवाज ,लेखन एवं नारों से  औजार बनाकर उसके सामने इस तरह से पेश किया जा रहा है जैसे कोई हथियार दिखा कर लूटना चाह रहा हो। इलेक्शन जीतने वाले आम जनता को भयभीत कर चुनाव जीतते हैं। मनोवैज्ञानिक तौर पर कहें तो भय बहुत बड़ा औजार है । बट्रेंड रसल का मानना था की कोई देश या समाज जब तक आतंकित नहीं होगा  तब तक उसे विश्वसनीय तौर पर उपयोग में नहीं लाया जा सकता। आज हमारे नेता यही कर रहे हैं। वह समाज को तरह-तरह के जुमलों से ,नारों से भयभीत कर रहे हैं। उनके भीतर बैठे भय को जगा रहे हैं । वह भय चाहे  एनआरसी का भय हो या झूठ का भय हो। हमें इस बात पर विचार करना होगा कि हम कैसे भय मुक्त हो सकें। कवि गुरु रवींद्रनाथ ने लिखा था
       हो चित जहां भय शून्य, माथ हो उन्नत
        बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा

Thursday, April 18, 2019

बालाकोट को कारगिल -2 बना रहे हैं

बालाकोट को कारगिल -2 बना रहे हैं

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव में खुद को प्रधान सेवक बताया था। 2019 आते-आते वे प्रधान सेवक से खुद प्रधान सेनापति बन गए और उन्होंने राष्ट्रीयता का कवच धारण कर लिया । दुश्मन के घर में घुसकर मारने की चेतावनी दे रहे हैं और खुल्लम खुल्ला कह रहे हैं कि चाहे वे जहां छुपे हैं उन्हें मारे बिना नहीं छोड़ेंगे। वे अपने विरोधियों को चाहे वह कांग्रेस हो या गांधी परिवार या ममता बनर्जी सबको पाकिस्तान का तरफदार और आतंकवादियों का हमदर्द बता रहे हैं। यही नहीं पहली बार  वोट डालने वाले   नौजवानों को या कहें किशोरों से मोदी जी अपील कर रहे हैं कि वे अपने वोट पुलवामा के शहीदों समर्पित कर दें। यह एक तरह से देश के वीर जवानों के नाम वोट डालने का इशारा है। वे चुनाव सभाओं में कहते हैं की मोदी ही देशद्रोहियों से देश को बचा सकते हैं। 31 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्धा में कहा कि "राहुल गांधी बहुसंख्यकों  के दबदबे वाली सीट से भागकर वायनाड जैसी जगह में पनाह ली है, जो अल्पसंख्यक बहुल है।" वे इशारा कर रहे हैं कि राहुल गांधी ने अल्पसंख्यकों से जुड़कर ईशनिंदा का अपराध किया है। उनका इशारा है कि अगर कोई नेता अल्पसंख्यकों की मदद से जीतता है तो वह अच्छा हिंदू नेता हो ही नहीं सकता है। बड़ा अजीब लगता है यह सोच कर क्या हम 1909  में जी रहे हैं ? जब यह नारा दिया गया था कि हिंदुओं को हिंदू नेता ही चुनना चाहिए और मुसलमानों को मुस्लिम। इसका नतीजा हुआ कि  1947 में हमें बंटवारे का दर्द सहना पड़ा।
यही नहीं पार्टी के अध्यक्ष और एक तरह से मोदी जी की छाया के रूप में विख्यात अमित शाह भी राहुल गांधी पर पाकिस्तान से चुनाव लड़ने का आरोप लगाते हैं, क्योंकि वायनाड में आईयूएमएल के कार्यकर्ता हरे झंडे लेकर प्रचार कर रहे थे। यह उनकी पार्टी  के झंडे का रंग है। यही नहीं, वे चुनाव में वादा कर रहे हैं कि अगर उनकी सरकार आई तो वह हिंदुओं और बौद्धों को छोड़कर सभी घुसपैठियों को निकाल बाहर करेगी ।  योगी आदित्यनाथ ने नारा दिया "उनके अली हमारे बजरंगबली" और इस चुनाव को  उन्हीं का संघर्ष बताया। भाजपा के संकल्प पत्र में स्पष्ट कहा गया है कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं।  बालाकोट का हवाई हमला तथा उड़ी आतंकवादी हमले उनके प्रतीक चिन्ह हैं और देश को विभाजित होने से रोकना उनका मिशन है । पार्टी ने संकल्प पत्र में कश्मीर से धारा 35 ए को खत्म करने का वादा किया है। एक नजर में देखने में यह राष्ट्रवाद लगता है। लेकिन इसका दूसरा पहलू सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी है और कई असफलताओं पर या सरकार के  उदासीन रिकार्डो पर पर्दा डालने की कोशिश है।
            भक्तों की टोलियां इसे कारगिल- 2 की रणनीति बता रही हैं और यह स्पष्ट करने की कोशिश कर रही हैं 1999 के कारगिल युद्ध के पश्चात तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी। उसी तरह बालाकोट के बाद मोदी जी की लोकप्रियता बढ़ गई है। उनका मानना है कि जिस तरह बाजपेई जी जीते थे उसी तरह मोदी भी जीत जाएंगे। वे पाकिस्तान , डर, हिंदुत्व और विपक्ष के डरपोक नेताओं का हौवा दिखाकर चुनाव जीतना चाहते हैं। बहुत ही अच्छा गेम प्लान है।  इसे विजय का फार्मूला मान लिया गया है। लेकिन अगर इस स्थिति के मद्देनजर भारतीय समाज का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें ऐसा लगता है कि ऐसा सोचने वाले अति आत्मविश्वास के शिकार हो गए हैं। जो लोग यह बताते हैं की 1999 में कारगिल- 2 के कारण बाजपेई जी जीते थे वे गुमराह कर रहे हैं। बाजपेई जी के जीतने के चार कारण थे। पहला 13 महीने के बाद सरकार के गिरने की घटना से जबरदस्त सहानुभूति मिली थी।  लोगों के मन में यह बात थी कि बाजपेई ने परमाणु परीक्षण किया था और अमरीकी पाबंदियों का मुकाबला किया था इसलिए वे मजबूत नेता हैं। दूसरा कारण था , देश 10 साल में 6 प्रधानमंत्री देखकर ऊब चुका था और लोग स्थिरता चाहते थे। तीसरा कारण था कि बाजपेई जी बड़े दिल के नेता थे और गठबंधन को साथ लेकर चलना जानते थे और चौथा कारण कांग्रेस की पॉलिसी में भारी भूल थी खास करके पंचमढ़ी बैठक के बाद ।जब उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। वह फैसला वह गलत था।
           अगर ठंडे दिमाग से देखें तो कारगिल विजय का श्रेय बाजपेई जी को देना भ्रामक था। उनकी विजय के दूसरे कारण थे लेकिन मोदी जी और उनके साथी शायद यह नहीं देख पा रहे हैं और वह सारे तीर पाकिस्तान तथा बालाकोट को निशाना बनाकर चला रहे हैं। यह  एक सूत्रीय विमर्श है और  डर है कि कहीं निशाना गलत ना हो जाए। पर अभी तो यह उम्मीद की जा सकती है कि इसका असर हो रहा है। लोग या कहें मतदाता किस ढंग से सोचते हैं यह जान पाना बड़ा मुश्किल है। इसलिए परिणामों का इंतजार लाजिमी है। उसके पहले किसी तरह का कोई विचार बनाना निहायत गलत और जल्दबाजी है।

Wednesday, April 17, 2019

मॉनसून का शुभ संकेत

मॉनसून का शुभ संकेत 

जो खेती से जुड़े हैं वह समझते हैं मौसम के मिजाज से क्या-क्या गड़बड़ियां हो सकती हैं। अगर अतिवृष्टि हो गई है तो सब कुछ सफेद अगर सूखा पड़ा तो  दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं खेतिहर। इसलिए मौसम का समाचार कृषि व्यवस्था में जुड़े लोगों के लिए एक बड़ा समाचार होता है। हमारे देश के मौसम विभाग ने अनुमान लगाया है कि इस साल मौसम खास करके मानसून सामान्य रह सकता है। वैसे इस पर ज्यादा भरोसा करना है उचित नहीं होगा । क्योंकि कई तरह से मौसमी प्रवाह और प्रभाव इसे बदल सकते हैं। जैसे हाल के अल नीनो प्रभाव ने बहुत कुछ बदल दिया। बहुत उम्मीदें धूल में मिल गयीं। फिर भी सकारात्मक सोचना अच्छी बात है और मौसम विभाग के इस अनुमान से कृषि तथा अर्थव्यवस्था से जुड़े   लोगों को थोड़ी राहत पहुंची है। मौसम विभाग ने बताया है की मानसून के 4 महीने यानी जून से सितंबर तक बारिश अच्छी होगी। तकनीकी तौर पर कहें तो यह बारिश लॉन्ग पीरियड एवरेज (एल पी ए ) का 96% रह सकती है। लॉन्ग पीरियड  एवरेज (एल पी ए ) दरअसल विगत 50 साल में देशभर में बारिश का औसत  है। यद्यपि यह मौसम विभाग का पहला अनुमान है और इसमें बदलाव भी हो सकते हैं। मौसम विभाग का मानना है इस साल  सामान्य बारिश की संभावना 39% है जबकि सामान्य से कम बारिश की संभावना 32% है और कहीं कहीं 17% में बारिश की संभावना है यह भी अनुमान लगाया गया है की कई जगहों पर सामान्य से 10% ज्यादा बारिश हो सकती है तथा अतिवृष्टि की सूरत में यह 10% बढ़कर 12 प्रतिशत भी हो सकता है। मौसम विभाग मानसून के संबंध में देश में विगत 50 वर्षों में कितनी बारिश हुई इसी के औसत के आधार पर होने वाली बारिश  का आकलन करता है। अगर यह औषत  96 प्रतिशत से 104% तक हो  सामान्य माना जाता है और 104% से 110  प्रतिशत तक हो तो सामान्य से ज्यादा है।  90 से 96% बारिश को सामान्य से कम और 90 प्रतिशत से कम बारिश हो सूखे की श्रेणी में गिना जाता है। हमारे देश में मानसून के दो चरण होते हैं पहला अरब सागर से नमी को लेकर चलता है और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप से गुजरता है । इससे जून से सितंबर तक बारिश होती है। लेकिन जब यही हवा हिमालय तक पहुंचती है तो वहां से घूम जाती है तथा  बारिश अक्टूबर से दिसंबर के बीच होती है।  यह देश भर से होती हुई  हिंद महासागर में चली जाती है। यह अच्छी बात है कि मानसून सही  समय पर आए और सही बारिश से लाए लेकिन अगर यह विलंब से आती है और कमजोर होती है । वैसी स्थिति में सूखा पड़ जाता है। जब बहुत ज्यादा होती है तो बाढ़ आ जाती है। भारत में कृषि इसीलिए दो तरह की होती है। पहली किस्म जून से सितंबर के बीच होती है जिसे खरीफ कहते हैं और दूसरी किस्म अक्टूबर से दिसंबर के बीच होती है उसे रबी कहते हैं। 
         दरअसल देश की कुल खेती लायक जमीन का लगभग आधा भाग बारिश पर निर्भर रहता है। अगर अच्छी बारिश ना हुई तो खेती उत्पादन में कमी आ जाएगी और इससे पूरी अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा क्योंकि देश की लगभग 58% आबादी खेती पर ही निर्भर करती है। सामान्य मॉनसून से खरीफ फसलों की पैदावार अच्छी होगी और गांव के लोगों की आमदनी बढ़ेगी। अगर पैदावार अच्छी हुई तो खाद्यान्न की महंगाई को भी नियंत्रण में रखा जा सकता है और इसका लाभ पूरी अर्थव्यवस्था को मिलेगा। पिछले वर्ष मौसम विभाग ने एलपीए के 97% बारिश की भविष्यवाणी की थी जो बाद में घटकर 95% हो गई। 2018 में वास्तविक तौर पर 91% बारिश हुई जो सामान्य से कम थी यह सिलसिला 5 वर्षों से चल रहा है। 2016 में हालात में बदले थे। उस वर्ष एलपीए के 97% बारिश हुई थी 2014 और 15 तो बेशक सूखे वाले साल रहे। 2018 में हालात थोड़ी सुधरी। देश में खरीफ की फसल की शुरुआत जून से ही होती है और देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन में खरीफ की फसल का 50% हिस्सा है। कमजोर मानसून का मतलब क्या होता है? इसका अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। आंकड़े बताते हैं 2016 में जब मानसून सामान्य था तो खाद्य उत्पादन में वृद्धि देखी गई थी। लेकिन इसके पहले के 2 वर्षों में उत्पादन में गिरावट भी पाई गई। पिछले वित्त वर्ष में भी खाद्यान्न  के उत्पादन में गिरावट दर्ज की गई। इसका सीधा असर ग्रामीण क्षेत्र की आमदनी पर पड़ता है और इसके फलस्वरूप खपत और आर्थिक विकास कम हो जाता है। कमजोर मानसून से केवल खपत ही प्रभावित नहीं होती बल्कि कई बार तो सरकार को अनाज का आयात करना होता है और किसानों की कर्ज माफी जैसे फैसले लेने पड़ते हैं। जिसका असर प्रत्यक्ष तौर पर वित्त व्यवस्था पर पड़ता है। सकल घरेलू उत्पाद  में कृषि की भागीदारी लगातार कम हो रही है। इस समय वह 17- 18 प्रतिशत के आसपास है । इसलिए  खाद्यान्न की कमी से आंकड़ों पर जो असर पड़ता है वह साफ नहीं दिखता है । इसके बावजूद विगत 5 वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की दर का असर महसूस होता रहा है।
          विशेषज्ञों का मानना है अगर मानसून सामान्य रहा तो हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में चौथाई से आधे प्रतिशत तक अतिरिक्त उछाल आ सकती है । 2010 में तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि हमारे देश का असली वित्त मंत्री मानसून है।  हम इससे सहज ही मॉनसून की विशेषता के बारे में जान सकते हैं।
           हमारे देश में खेती को लेकर कई समस्याएं हैं। देश के अधिकांश भाग में सिंचाई के साधन उपलब्ध हो गए हैं जिससे आपात  स्थिति में उपयोग में लाया जा सकता है । लेकिन इनके साथ समस्याएं भी हैं। पहली मुश्किल तो यह है कि किसानों को इस सिंचाई व्यवस्था के लिए बिजली चाहिए और बिजली का एक विकल्प डीजल है। देश की तेल की कुल मांगो में 40% मांग डीजल की है और किसान इस के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं। दूसरी तरफ किसान ही सबसे बड़ा मतदाता वर्ग है। मानसून को लेकर चिंता नई नहीं है। मानसून भारत के जीवन को प्रभावित करता है।  यह केवल मौसमी या कृषि समस्या नहीं बनता है बल्कि एक प्रमुख आर्थिक समस्या भी बन जाता है और तब राजनीतिक डायनामिक्स का स्वरूप बदलने लगता है । यह बदलाव क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर देखा जा सकता है।
       

Tuesday, April 16, 2019

बदजुबानी पर लगाम

बदजुबानी पर लगाम

इन दिनों चुनाव प्रचार में भाषणों का स्तर इतना बिगड़ चुका है के सुप्रीम कोर्ट तक को इस पर संज्ञान लेना पड़ रहा है और चुनाव आयोग को कदम उठाने पड़ रहे हैं।  यह किसी एक पार्टी के लिए नहीं लगभग सभी पार्टियों के साथ है । चुनाव आयोग ने सोमवार को योगी आदित्यनाथ, मायावती, मेनका गांधी और आजम खान पर 48 से 72 घंटे तक चुनाव प्रचार करने से रोक लगा दिया है। उन पर आरोप हैं कि  उन्होंने चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन किया है। इस पाबंदी पर एतराज जताते हुए मायावती ने कहा कि "यह क्रूर और असंवैधानिक है।  मुझे कहीं भी जाने और बोलने के हमारे बुनियादी अधिकार के उपयोग से रोका जा रहा है।  यह आदेश चुनाव आयोग के इतिहास में एक काले दिवस के रूप में याद किया जाएगा। यह फैसला ऐसा लगता है कि किसी दवाब में लिया गया है इसके पीछे का उद्देश्य स्पष्ट है कि मैं लोगों से अपील न कर सकूं कि भाजपा को गद्दी से हटाओ।"
        समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ट्वीट किया है यह प्रधानमंत्री के खिलाफ जाएगा। उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडेय ने चुनाव आयोग से अपील की है कि वह इस आदेश पर पुनर्विचार करे। हमारे लोकतंत्र में फैल रहे एक विशेष रोग का क्या लक्षण है यह। वह रोग है स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के प्रति  राजनीतिक दलों  और उम्मीदवारों  में आनास्था।
चुनाव आयोग का आदेश मंगलवार को एक तरह से चुनाव प्रचार में  बाधा उत्पन्न कर रहा है। इसके पूर्व चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि इस सिलसिले में उसके अधिकार सीमित हैं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की पीठ को यह दलील संतुष्ट नहीं कर पाई।
बात यहीं खत्म हो जाती कोई बात नहीं थी। देशभर में हर जगह कुछ न कुछ इस तरह का कहा जा रहा है । हिमाचल प्रदेश  और केरल के भाजपा अध्यक्षों ने कुछ ऐसा कह दिया है कि वह बात भी चुनाव आयोग तक गई है। हिमाचल प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती में सोलन लोकसभा सीट पर प्रचार करते हुए मंच से कहा की "वह मंच से कह रहे हैं चौकीदार चोर है।  नरेंद्र मोदी को चोर बोल रहे हैं । अरे भैया तेरी मां जमानत पर है, तेरे जीजे की जमानत हुई है। नरेंद्र मोदी की ना जमानत हुई है ना केस बना है और ना किसी ने सजा दी है। तू कौन होता है जज की तरह चोर बोलने वाला।" यही नहीं, चौकीदार चोर है वाले जुमले पर राहुल गांधी को भी सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया है। चारों तरफ बदजुबानी का एक माहौल तैयार होता जा रहा है। चुनाव आयोग की परवाह किसी को नहीं है ।1996 के बाद शायद पहली बार चुनाव आयोग इस तरह  निरीह लग रहा है। आज तो यह हालत है कि लोगों के मन में बात बैठ गई है कि चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन पर या तो अपर्याप्त कार्रवाई करता है अथवा बिल्कुल नहीं करता है। आदर्श आचारसंहिता 10 मार्च को लागू हुई थी और यह 23 मई तक लागू रहेगी। जब से लागू हुई है तब से कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है जिसे संहिता का उल्लंघन कहा जा सकता है । उनमें बड़े नेता, यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी, शामिल हैं। नेता भारतीय सेना का   भी चुनाव प्रचार में उपयोग कर रहे हैं । सांप्रदायिक बयान बाजी को तो छोड़ भी दें व्यक्तिगत बयान बाजियां  भी हो रही हैं।
       मॉडल कोड आफ कंडक्ट या कहें आदर्श आचार संहिता भारतीय चुनाव आयोग का अपना अविष्कार है और यह भारत में लोकतंत्र  में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव को सुनिश्चित करता है। कुछ निर्देश ऐसे हैं जो कानून नहीं है लेकिन एक प्रभावशाली औजार जरूर हैं। जब चुनाव आयोग चुनाव की तिथियों की घोषणा कर देता है तो उम्मीद की जाती है कि सभी पार्टियां और सभी उम्मीदवार इस प्रक्रिया में शामिल होंगे तथा निष्पक्ष चुनाव को बढ़ावा देंगे । लेकिन आज वक्त बदल गया है। चुनाव आयोग और आचार संहिता दोनों  दोराहे पर खड़ी हैं। इस समय दो स्पष्ट प्रवृत्तियां दिखाई पड़ रही हैं। पहली कि चुनावी गड़बड़ियां एक नया  स्वरूप ले रही हैं। मतदाताओं को रिश्वत दी जा रही है और मीडिया के माध्यम से उन्हें गलत समझाया जा रहा है। इन गड़बड़ियों को रोकना बड़ा मुश्किल है। पहले बूथ दखल की घटनाएं होती थी जिसे देखा जा सकता था।  आज जो हो रहा है उसे जान पाना और रोक पाना दोनों कठिन है। नई चुनौतियों के प्रति चुनाव आयोग क्षमताएं पर्याप्त नहीं दिखाई पड़ रही हैं। चुनाव आयोग ने खर्चों पर पर नजर रखने के लिए पर्यवेक्षक नियुक्त किए। सोशल मीडिया के लिए नई संहिता बनी और अभी हाल में किसी नेता की जीवनी पर फिल्म बनाने पर भी रोक लगा दी गई है । यही नहीं सोमवार को नेताओं की बयानबाजी पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जब चुनाव आयोग  को आंख दिखाई तो उन नेताओं पर चुनाव प्रचार में शामिल नहीं होने की कुछ दिनों के लिए पाबंदी लगा दी गई। लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इन उपायों से कुछ सुधार हुआ है और होगा। दूसरी प्रवृत्ति जो दिखाई पड़ रही है वह है आदर्श आचार संहिता उल्लंघन को रोकने की चुनाव आयोग की क्षमता भी कम हो गई है। बड़े नेता जब कुछ बयान देते हैं तो इस पर चुनाव आयोग की कार्रवाई या तो धीमी हो जाती है अथवा नहीं होती है । इससे नेताओं में आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा है कि चुनाव आयोग कुछ नहीं कर सकता। आदर्श आचार संहिता हमारे देश में बह रही लोकतंत्र की हवा का रुख बताती है। आरंभ में राजनीति के जो बड़े नेता थे उन्होंने स्वेच्छा से चुनाव को निष्पक्ष और स्वतंत्र बनाने का विचार किया था।  उसके पश्चात आदर्श आचार संहिता आरंभ की गई थी। समय के साथ-साथ राजनीतिक वर्ग की प्रतिबद्धताएं कम होती गई और धीरे धीरे निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव से आस्था समाप्त होने लगी। 1990 के आरंभ से ही आदर्श आचार संहिता को  पर  से राजनीतिज्ञों की आस्था खत्म होने लगी। आज हालात बदल गए हैं।  आदर्श आचार संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट की शरण में जाना पड़ रहा है।
     हम कौन थे क्या हो गए 
और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिलकर
यह समस्याएं सभी

Monday, April 15, 2019

हमारा लोकतंत्र और महिलाओं की हैसियत

हमारा लोकतंत्र और महिलाओं की हैसियत

हमारे देश में महिलाओं को वोट देने का पुरुषों  के बराबर हक है लेकिन नीति निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं की हैसियत क्या है? यह एक बड़ा अजीब विरोधाभास है कि घर हो या बाहर ,चाहे वह संसद हो या कार्यक्षेत्र सब जगह हमारे देश में लैंगिक असमानता की जड़ें बहुत गहराई तक फैली हुई हैं। बेशक सभी क्षेत्रों में महिलाओं ने न केवल अपनी उपस्थिति का एहसास कराया है बल्कि बदलाव में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।  चुनाव में लगातार महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है और इस भागीदारी की वजह सरकार में बैठे लोगों द्वारा बनाई गई नीतियों में बदलाव भी आया है ।  महिलाओं ने स्वेच्छा से कदम उठाया है इसे निशब्द क्रांति भी कह सकते हैं। लेकिन इस क्रांति से इस देश में महिलाओं की राजनीतिक हैसियत नहीं बढ़ सकी। आंकड़ों के अनुसार देश के पहले मतदान 1950 के दशक में महिलाओं की मतदान में भागीदारी केवल 38.8 प्रतिशत थी। 60 के दशक में यह 60% हो गई यानी  महिलाओं की भागीदारी में  21 .2% वृद्धि हुई जबकि पुरुषों से भागीदारी केवल 4% बढ़ी। यह भागीदारी लगातार बढ़ती गई। 2004 के आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी में केवल 8.4 प्रतिशत अंतर रह गया और 2014 में यह अंतर सिर्फ 1.8% रह गया। यानी 2014 के मतदान में महिलाओं और पुरुषों की संख्या लगभग बराबर थी। यही नहीं 2014 में एक नया रिकॉर्ड भी बना कि अरुणाचल, बिहार, मणिपुर ,तमिलनाडु, गोवा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड ,उड़ीसा और पंजाब ऐसे राज्य थे जहां मतदान में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी।
         यहां एक शाश्वत प्रश्न आता है कि इन सब के बावजूद हमारे देश में राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी कम क्यों है? विशेषज्ञ बताते हैं इसकी एक वजह हमारे देश में खराब लैंगिक का अनुपात है।  2011 की जनगणना के अनुसार हमारे देश में प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाएं हैं और इस कमी के बावजूद मतदाता के रूप में महिलाओं का पंजीकरण भी कम होता है।  अभी मतदान में महिलाओं की संख्या ना सिर्फ तेजी से बढ़ रही है बल्कि धीरे-धीरे पुरुषों के बराबर होती जा रही है। इस वृद्धि और मतदान में इतना बड़ा हस्तक्षेप करने वाली एक जनसंख्या को राजनीतिक पार्टियां कभी भी वोट बैंक या नीति निर्धारक के रूप में नहीं देखतीं। वोट बैंक नहीं बन पातीं इसलिए उनका कोई समूह अपने हितों को ध्यान में रखकर मतदान नहीं करता।   वे  ज्यादा संगठित नहीं हैं। दूसरी बात महिलाओं में राजनीतिक जागरूकता थोड़ी कम है और स्वतंत्र सोच का अभाव  है। राजनीतिक पार्टियां इस मनोविज्ञान का फायदा उठाती हैं और उन्हें यह लगता है कि पुरुषों को प्रभावित कर लो तो महिलाओं के वोट खुद ब खुद आ जाएंगे। इसलिए वे अलग से ऐसी कोई तैयारी नहीं करते जिससे यह लगे कि महिलाओं को प्रभावित करने का प्रयास किया जा रहा है। यद्यपि हालात धीरे-धीरे बदल रहे हैं। बिहार में महिलाओं की मांग पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शराबबंदी जैसा कदम उठाया। समाज वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर सही नेता मिले और सही मसले उठाए जाएं तो महिलाएं वोट बैंक के रूप में बदल सकती हैं। परंतु आज एक सशक्त दूरदर्शी नेताओं का भारी अभाव है और ना ही सही मुद्दे हैं। बेशक महिलाओं के लिए आरक्षण के बाद स्थानीय निकायों में महिलाओं की मौजूदगी बढ़ी है और इसके चलते उनकी राजनीतिक ताकत भी बढ़ी है लेकिन संसद और विधानसभाओं में उनकी संख्या अभी भी कम है । आंकड़ों के अनुसार देश की आबादी में महिलाओं  का अनुपात 48.1% है जबकि वर्तमान लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व केवल 12.1% है। जिस देश में पुरुषों और महिलाओं के बीच आबादी के घनत्व में 2% से भी कम अंतर है वहीं लोकसभा में प्रतिनिधित्व में चौगुना के आसपास अंतर है। वर्तमान लोकसभा चुनाव में भी इससे बेहतर स्थिति नहीं दिखती। इससे स्पष्ट होता है की बड़ी राजनीतिक पार्टियों में भी महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल करने के लिए बहुत  ज्यादा प्रयास नहीं किया है। दुखद स्थिति तो यह है कि हमारे देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री स्तर तक भी महिलाएं पहुंची हैं लेकिन उन्होंने महिलाओं के भीतर नेतृत्व को विकसित करने का कोई प्रयास नहीं किया । ममता बनर्जी ,जयललिता और मायावती निसंदेह प्रधानमंत्री बनकर कर दिल्ली जाने के प्रयास में हैं, लेकिन महिलाओं की नेता के रूप में इनसे क्या उम्मीद है? ममता बनर्जी की कुछ परियोजनाओं को  अगर छोड़ दें को बाकी महिला नेताओं को महिला केंद्रित नीतियां बनाने और महिलाओं को आगे लाने की कोशिश करते नहीं देखा गया। तमाम पार्टियां महिलाओं को लुभाने की कोशिश तो जरूर करती हैं लेकिन वह यथास्थिति बनाए रखते हुए अपना चुनावी लक्ष्य साधने की ओर ज्यादा ध्यान देती हैं। चाहे वह बिहार में ग्रेजुएट हुई लड़कियों को 25हजार रुपए देने या साइकिल देने योजना हो या फिर कर्नाटक में सिद्धारमैया सरकार की शादी भाग्य योजना हो। इससे यथास्थिति में कोई परिवर्तन होते नहीं देखा गया है। केंद्र में सत्तारूढ भाजपा सरकार को भी तीन तलाक के माध्यम से मुस्लिम वोट बैंक के भीतर से महिला वोट बैंक तोड़ने की कोशिश करते  देखा गया है और यही नहीं उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद उनके नेताओं ने यह बारंबार कहा कि मुस्लिम महिलाओं  ने वोट दिया है।  उज्जवला योजना हो या ई हाट हो सब में महिलाओं को सतही मदद करती नजर आती है सरकार। महिलाओं को इस स्तर पर ताकतवर नहीं बनाया जा रहा है कि वह अपने मसलों पर स्वयं निर्णय ले सकें।
          बंगाल में तृणमूल ने 41% महिलाओं को चुनाव में उम्मीदवार बनाया है इससे एक उम्मीद बनती है। ऐसी ही उम्मीद आरक्षण विधेयक से भी की जा सकती है। अगर यह सब होता है तो उनका असर जरूर दिखाई पड़ेगा। इस बार के मतदान में भी 18 साल की लड़कियों की बड़ी संख्या मतदाताओं के रूप में दिखेगी । हो सकता है यह लड़कियां अपने उम्र के लड़कों से ज्यादा शिक्षित हों। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 2016 में लड़कों का स्कूल में नामांकन 74.59 प्रतिशत था जबकि लड़कियों में यह अनुपात 75.8% था । अभी हाल में एक सर्वे के मुताबिक 68% लड़कियों ने कहा है कि महिलाओं को राजनीति में पुरुषों की बराबरी की भूमिका निभानी चाहिए।
           यहां एक सवाल है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में महिलाओं की बढ़ती भूमिका को कैसे देखा जाए। क्या इसे आम नागरिकों की भागीदारी के रूप में देखा गया है,यह महिलाओं की भागीदारी मानी जाए । "द सोशियोलॉजिस्ट " पत्रिका में  प्रकाशित शमीक  रवि  के शोध के मुताबिक  "दुनिया भर में महिलाएं  बदलाव को चुनती हैं,  जबकि पुरुष यथा स्थिति को बढ़ावा देते हैं।" भारत में भी महिलाएं बदलाव के एजेंट के रूप में भूमिका निभा रही हैं। वह बिजली ,पानी और सुरक्षा जैसे मसलों पर ज्यादा बात करती हैं और इन्हीं मुद्दों पर वोट भी देती हैं। एक सर्वे के मुताबिक महिलाएं पुरुषों की तुलना में इस बात पर बहुत कम ध्यान देती हैं कि कोई प्रत्याशी किस पार्टी का है । वे प्रत्याशी के पहले रिकॉर्ड को देख कर फैसला करती हैं। इससे साबित होता है कि महिलाओं को निर्णय लेने की भूमिका में शामिल होना जरूरी है।  अगर वह एक मतदाता के रूप में अलग सोचती   हैं तो फैसलों में भी उनकी मानसिकता पुरुषों से अलग होगी हो सकती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, नारी कल्याण और बाल कल्याण जैसे मसलों पर वे ज्यादा उदारवादी ढंग से सोचेंगी। इसलिए नीति निर्माण में महिलाओं की भूमिका को बढ़ाना समाज के विकास के लिए भी जरूरी है।

Sunday, April 14, 2019

रखना इस देश को संभाल के 

रखना इस देश को संभाल के 

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुरुवार को बंगाल में अपनी  चुनाव सभाओं में कहा की वह देशभर में नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) लागू करेगी । उन्होंने दार्जिलिंग में भाषण देते हुए कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एनआरसी के बारे में झूठ फैला रही हैं। उन्होंने कहा कि हमने अपने चुनाव घोषणा पत्र वादा किया है कि अगर नरेंद्र मोदी के सरकार दोबारा बनती है देशभर में एनआरसी लागू किया जाएगा । उन्होंने कहा कि हम देश से हर घुसपैठिए को निकाल बाहर करेंगे , सभी हिंदू तथा बौद्ध शरणार्थियों की पड़ताल की जाएगी और उन्हें भारतीय नागरिकता दी जाएगी तथा देश में उन्हें जगह मिलेगी। असम में लागू नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस का अर्थ है कि इसमें असम राज्य के सभी सही नागरिकों के नाम हैं। जिस दिन से यह रजिस्टर लागू हुआ उस दिन से यह अत्यंत विवादास्पद है। बहुत लोग यह कहते सुना जा रहे हैं कि उनके नाम नागरिकता की सूची से गलत ढंग से हटा दिए गए हैं। जबकि भाजपा प्रतिबद्ध है कि वह घुसपैठियों को निकाल बाहर करेगी । भाजपा के संकल्प पत्र में यह भी कहा गया है कि देश के अन्य भागों में चरणबद्ध तरीके से एनआरसी लाया जाएगा। अमित शाह ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की खिंचाई करते हो कहा कि वे और कांग्रेस आतंकवादियों पर कार्रवाई पर शोकाकुल हैं।  उनकी वोट बैंक पॉलिसी यह नहीं चाहती और उनके वोट बैंक पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई के विरोधी हैं। अमित शाह ने ममता बनर्जी की तुष्टीकरण की नीति पर सवाल उठाया और कहा यह लोग बालाकोट पर हमले का सबूत मांगते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि क्या वे नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला बातों से इत्तेफाक रखती हैं? उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर के लिए अलग प्रधानमंत्री की मांग की थी। उन्होंने कहा कि तृणमूल कांग्रेस आज तुर्किस्तान ,माफिया और चिटफंड का पक्ष ले रही हैं। "आपको (ममता को) पाकिस्तान के साथ इलु इलु करना है तो कीजिए लेकिन अगर पाकिस्तान गोली मारेगा तो हम भी मारेंगे।"
       अमित शाह ने कहा कि भाजपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र वादा किया है कि गोरखा समुदाय को जनजाति का दर्जा दिया जाएगा। गोरखा समुदाय की वीरता और दार्जिलिंग उसकी संस्कृति तथा यहां का प्राकृतिक सौंदर्य दुनिया भर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का कारण है । उन्होंने कहा कि अपने  घोषणापत्र में भाजपा ने वादा किया है कि वह दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र, सिलीगुड़ी ,तराई तथा डुआर्स क्षेत्र का स्थाई राजनीतिक समाधान तलाशने के लिए प्रतिबद्ध है। शाह ने यह भी कहा की अगर भाजपा सरकार केंद्र में आई वह धारा 370 समाप्त कर देगी। धारा 370 जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करती है। दार्जिलिंग लोकसभा चुनाव क्षेत्र में 18 अप्रैल को मतदान है और यहां से भाजपा के राज सिंह बिष्ट जोर आजमा रहे हैं।
         दूसरी ओर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में अपने भाषण के दौरान भूमि पुत्र का पत्ता फेंका । उन्होंने कहा कि उनकी तरफ से यहां के भूमिपुत्र को चुनाव का टिकट दिया गया है। उन्होंने दिल्ली या मणिपुर से किसी को यहां नहीं पहुंचाया है। उन्होंने भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधते हुए कहा कि क्या कभी भाजपा अध्यक्ष ने यहां तक की सड़क मार्ग से यात्रा की है ? क्या वे यहां की जगहों को जानते हैं ?वे हेलीकॉप्टर से आते हैं तथा भाषण देकर उड़ जाते हैं। भाजपा ने विगत 5 वर्षों में यहां के लिए क्या किया? अमित शाह एनआरसी के नाम पर सबको यहां से भगाना चाहते हैं । वह कौन होते हैं यह तय करने वाले कि कौन रहेगा या कौन जाएगा? असम में एनआरसी की सूची  से 40 लाख लोगों के नाम हटा दिए गए। उन्होंने गोरखा, बंगाली हिंदुओं, मुस्लिम, बिहारियों इत्यादि के नाम हटाए हैं । उनका उम्मीदवार मणिपुरी है और दिल्ली से आया है। ममत जी  ने कहा कि  यदि आप 5 वर्षों के लिए विदेशी हो जाते हैं तो सोच सकते हैं कि आपका भविष्य क्या होगा? यह जरूरी नहीं है कि आपको दोबारा नागरिकता प्राप्त हो जाए। ममता बनर्जी ने कहा कि वह भाजपा को पश्चिम बंगाल में एनआरसी नहीं लागू करने देंगी।
        इस दावे -प्रति दावे, आरोप-प्रत्यारोप के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण तथ्य गुम हो गया है वह है कि देश में या कहें हमारे राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता और सौहार्द का क्या होगा? राजनीति तथा सत्ता की शतरंज अपनी जगह पर है आम आदमी का जीवन अपनी जगह पर । सत्ता के खेल में यही जीवन सबसे ज्यादा प्रभावित होता है । अगर सचमुच देश भर में एनआरसी लागू हो गया तो  सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले दिन कैसे होंगे। इस देश को बचाना देश के निवासियों का कर्तव्य है। क्या विडंबना है कि यह सारी बातें तब सामने आ रहे हैं जब संजोग वश जलियांवाला बाग के 100 साल पूरे हुए हैं। जिस देश को स्वाधीनता दिलाने वाले आम लोगों ने गोलियों की परवाह न कर इंकलाब नारा बुलंद किया उस देश में यह क्या सब हो रहा है । राजनीति इस नए खेल से हमें सतर्क रहना होगा।

Friday, April 12, 2019

सन्मार्ग : चैत्रे नावमिके तिथौ

सन्मार्ग : चैत्रे नावमिके तिथौ

आज रामनवमी है भगवान श्री राम के जन्म का दिन और सन्मार्ग की स्थापना का शुभ दिन। बड़ा अजीब अवसर है आज का । अब से 9 दिन पहले यानी चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को नए संवत्सर की शुरुआत हुई थी। इसी दिन शकों को  पराजित कर विक्रम संवत की शुरुआत की गई । महाराजा विक्रमादित्य  सिंहासन आरोहण किया  और उन्होंने बौद्धिक विजय  की घोषणा करते हुए प्रकृति का सूक्ष्मतम अवलोकन किया।  सूरज ,चांद एवं पूरे सौरमंडल की व्यवस्था के रहस्य को समझा।  मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की कई पीढ़ियों ने इसे महसूस किया और प्रकृति का रहस्य-परिवर्तन विक्रमसम्वत में ही झलकने लगे! अब देखिए प्रकृति के इस उत्सव को बसन्त के नाम से ही जाना जाता है। इसी नव संवत्सर के नौवें दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्म हुआ।  आदिकवि महर्षि वाल्मीकि भाव विभोर होकर गा उठे
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतुनां षट् समत्ययु:।
ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ।।
राम दिव्य शिशु के रूप में जन्मे।  उस तेजस्वी शिशु का तेज आज भी दीपित है। इसी आस्था की रौशनी में  वसुधा का समग्र असह्य विलीन हो जाता है । इसी रहस्य को महाकवि कालिदास ने भी अकेलेपन के अनुभवों में पाया होगा। अभी रामजन्म के दृश्य को महसूस करिए महाकवि कालिदास के साथ-
अथाग्रमहिषी राज्ञ: प्रसूति समये सती।
 पुत्रं तपोपहं लेभे नक्तं ज्योतिरिवौषधि:।।
इसी तेज के एहसास ने मनीषियों को आज से 74 वर्ष पहले सन्मार्ग की स्थापना करने को प्रेरित किया ।
वाराणसी से कोलकाता तक गंगा की यात्रा, राम धुन और उसके समानांतर सन्मार्ग। इसका  खुद में बहुत पौराणिक अर्थ और बिंब है। कोलकाता से आगे जाकर सगर पुत्रों का उद्धार करती हुई गंगा सागर में समा जाती है। कह सकते हैं कि भगवान शिव की जटा से मुक्त होकर पावन सलिला गंगा कोलकाता से आगे बढ़ते ही अपना उद्देश्य पूरा कर लेती है । उसी तरह शिव की नगरी वाराणसी से कोलकाता आए सन्मार्ग का अपना एक उद्देश्य है । यहां सवाल है कि रामनवमी के दिन ही क्यों? रामनवमी में राम का नाम जुड़ा है। "राम" रसायन है। एक बार विख्यात मानस मर्मज्ञ डॉक्टर कामिल बुल्के ने बताया था कि राम का "र" अग्नि वाचक है "अ" बीज मंत्र है और "म" ज्ञान है। यह मंत्र पाप को जलाता है और पुण्य को सुरक्षित रखता है । ज्ञान प्रदान करता है। वह ज्ञान जो आज के समाचारों के घटाटोप को भेदकर कर सच की ज्योति दिखाता है। सच को सुरक्षित रखने का हुनर बताता है और तब सत्य की ओर कदम बढ़ाने के लिए शिक्षित करता है।
यहां जरूरी है कि इस दिन हम थोड़ा ठहर कर अतीत का विहंगावलोकन करें और और इस तथ्य की पड़ताल करने की कोशिश करें कि जिन लक्ष्यों को लेकर सन्मार्ग की स्थापना हुई थी उसे किस हद तक हासिल किया जा सका है। उस समय किए गए हमारे फैसले कितने पूरे हो सके हैं । आज के बदलते वक्त में जब झूठ और उत्तेजना का साम्राज्य चारों तरफ है तो हमें इस बात की चिंता है कि क्या आरंभिक काल में हमारे मनीषियों ने जो फैसले किये थे वह सही और तर्कसंगत थे क्या? क्या हम आज की रोशनी में उन फैसलों को बदलकर एक नई दिशा तय कर सकते हैं । यहां यह जरूरी नहीं है कि हम अपने कर्म में कितने कामयाब हो सके बल्कि यह नितांत आवश्यक है जानना कि वे कर्म कितने सच और शुचिता पूर्ण हैं। सन्मार्ग की स्थापना उस काल में हुई जब हमारा समाज आंदोलन के उत्कर्ष पर था और उसका लक्ष्य थी स्वाधीनता। सन्मार्ग की स्थापना जिन मनीषियों ने की उन्होंने लक्ष्य भी तय किया कि वे चिंतन, कर्म और व्यवस्था को उन्हीं मर्यादाओं से जोड़ेंगे जो 200 वर्षों की अंग्रेजी शासन व्यवस्था में दूषित हो चुकी थी। हमारे स्वतंत्र कर्म और चिंतन को जिन वर्जनाओं ने  200 वर्षों तक रोके रखा उन्हें भंग कर एक सांस्कृतिक वातावरण को तैयार करना ।
चिंतन कर्म और व्यवस्था मानव जीवन के 3 पहलू हैं जिन्हें शुचिता की सीमा में आबद्ध करना  जरूरी है । यह भौतिकता का मूलभूत तत्व है। यही 'सत" है । यही "सत" सच्चिदानंद का सृजन करता है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । क्षमा कृपा समता रजु जोरे ।। 
ईसभजनु सारथी सुजाना । बिरति धर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा । बर बिज्ञान कठिन कोदंडा ।।
अगम अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
' कवच अभेद्य बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।' 
लेकिन स्वतंत्रता के बाद हमारी  लोकतांत्रिक संस्थाओं , व्यवस्था  और शिक्षण प्रणाली ने हमारी अध्यात्मिक आस्था और व्यवहारिक कार्यप्रणाली को प्रदूषित कर दिया। यह स्वयं में एक भयदायक दुर्घटना ही नहीं थी बल्कि हमारे सामने एक भारी चुनौती भी थी। वह चुनौती  जो एक सवाल से शुरू होती है कि क्या एक भारतीय होने के नाते हमें अपने देश से कोई लगाव रह गया है। बार - बार सोचते हैं तो  उत्तर एक ही मिलता है -नहीं । क्योंकि हम अब तक  पश्चिम की बौद्धिक गुलामी से मुक्त होने का साहस नहीं कर पाए और ना ही सोचने समझने के चिंतन के अपने औजार विकसित कर पाये। हमारे भीतर एक भारी अभाव पैदा हो गया है और उसे छुपाने के लिए हम आडंबर का रास्ता अपनाते हैं । आज हमारा देश दो तटों के बीच में झूल रहा है। एक तरफ प्रकृति का विनाश और दूसरे छोर पर हमारी स्मृतियां हैं और इन्हें बचाना हमारी चुनौती है। सन्मार्ग की स्थापना करने वाले हमारे मनीषियों ने यही लक्ष्य निश्चित किया। सनमार्ग आज भी उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कटिबद्ध है । तो सवाल उठता है कि हमने उस लक्ष्य को कहां तक प्राप्त किया है। यहां यह बता देना जरूरी है इस किस्म की प्रतिज्ञा या इस प्रकार के लक्ष्य सभ्यता के  भाव बोध के भीतर ही पूरे किए जा सकते हैं । भारत की भौगोलिक एकता का एक ही सूत्र है , वह है संस्कृतियों और धर्म संप्रदाय को प्रेरित करने वाले देश के सभ्यता बोध को बचाने के लिए देशवासियों में एक जज्बा कायम कर दें। यही आज हमारा लक्ष्य है।
हम यह गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम अपने लाखों पाठकों के भीतर सभ्यता बोध की इस ज्योति को जलाने में बहुत हद तक कामयाब हो गए हैं। जब सन्मार्ग ने पहला सूर्योदय देखा था तो हालात ऐसे नहीं थे। लेकिन हमारे मनीषियों को  भरोसा था  नमोस्तु रामाय..... जैसे मंत्र पर। क्योंकि मंत्र किसी को पुकारने के लिए नहीं अकेले  संधान के लिए निकल पड़ने की प्रेरणा देता है। यहां गौर करने की बात है कि लक्ष्य हमारा साधन है साध्य नहीं। साधन अगर शुचितापूर्ण हो और वह उपलब्ध हो जाए तो साध्य खुद सध जाते हैं। आज हवा में एक अजीब सी चेतावनी और आने वाली आंधी की भनक सुनाई दे रही है। यही हालात उस समय भी थे। आज झूठ को विश्वसनीय   बनाने के लिए उसमें सत्य का कुछ अंश मिलाया जा रहा है और हमारी परंपरागत धार्मिक भावनाओं का शोषण किया जा रहा है। देश के आम आदमी को धर्म से उन्मूलित  कर सांप्रदायिक बनाया जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में सच क्या है यह बताने के लिए सन्मार्ग की स्थापना हुई थी। वह आज भी उसी उद्देश्य पर कायम है आप पूछ सकते हैं की आज जबकि सूचना क्रांति के संजाल में सूचना का हर कतरा तैरता हुआ ऊपर आ जाता है ऐसे में सन्मार्ग का क्या उद्देश्य रह गया। लेकिन जिसे हम आज सूचना का संजाल समझ रहे हैं वह दरअसल सूचना के आधुनिक स्वरूप का मायावी धुंध है। सन्मार्ग की स्थापना हुई थी तो हम हमारा समाज आशंका के घने कोहरे में खड़ा था आज समाज सूचना के गहरे धुंध में खड़ा है। सच उस दिन भी ओट में था आज भी नजरों से ओझल है। इसलिए हमारा मानना है कि खबरें अनेक सच्चाई एक
      74 वर्ष पहले जो दीपशिखा प्रज्वलित हुई थी आज भी प्रकाशित है । क्योंकि हमारे सुधि पाठक, विज्ञापनदाता और हितैषी अनवरत अपना स्नेह प्रदान कर रहे हैं । हम इस दीपक को प्रकाशमान रखने के लिए उनके अत्यंत आभारी हैं।
   सखा धर्म मय अस रथ जाके। 
जीतन कहँ ना कतहुं रिपु ताके।।

Thursday, April 11, 2019

राफेल का मामला फिर गरमाया

राफेल का मामला फिर गरमाया

बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एकमत से स्वीकार किया राफेल मामले पर दिसंबर 2018 में दिए गए फैसले पर फिर से विचार करेगा। अदालत में मामले पर दायर पुनर्विचार याचिका पर योग्यता के अनुसार सुनवाई की जाएगी और उसने व्यवस्था दी कि अदालत में गवाह द्वारा  सबूत के रूप में प्रस्तुत संवेदनशील दस्तावेज को माना जाएगा तथा अदालत में इसके उपयोग पर केंद्र द्वारा की गई आपत्ति को खारिज कर दिया। सुनवाई की तारीख आगे तय की जाएगी।
          प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एस के कौल की एक पीठ ने कहा कि आरंभिक आपत्तियों को खारिज करना हम उचित समझते हैं।  उन्होंने स्वीकार किया कि जिन तीन दस्तावेजों को केंद्र ने स्वीकार करने योग्य नहीं बताया था वह प्रासंगिक हैं और उन्हें सबूत के रूप में स्वीकार कर उनके आधार पर सुनवाई की जा सकती है। न्यायमूर्ति केएम जोसेफ ने एक अलग किंतु मिलता जुलता बयान जारी किया। सुप्रीम कोर्ट में  इस संबंध में  दिसंबर 2018 में फैसला दिया था   और पुनर्विचार के लिए दायर याचिका पर  14 मार्च को फैसला टाल दिया था। अदालत ने कहा था कि राफेल जेट खरीदने के फ्रांस से समझौते पर जांच की जरूरत नहीं है। अदालत ने 26 फरवरी को इस पर खुली अदालत में पुनर्विचार पर सुनवाई स्वीकार कर ली थी। राफेल मामले में अदालत को यह तय करना था कि इससे संबंधित जो रक्षा दस्तावेज लीक हुए हैं उसके आधार पर सुनवाई की जा सकती है या नहीं। वहीं अदालत में 14 दिसंबर के फैसले के विवादास्पद अनुच्छेद 25 में दो लाइनों को सुधारने वाली केंद्र सरकार की याचिका के साथ साथ परिवाद याचिका की थी समीक्षा  की गई । उल्लेखनीय है की पिछले साल इस मामले पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रक्रिया में विशेष कमी नहीं रही है और इस पर सवाल उठाना सही नहीं है। अदालत ने यह भी कहा था कि विमान की  क्षमता में कोई कमी नहीं है।
एक अर्जी पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा के साथ साथ वकील प्रशांत भूषण की भी थी । इन्होंने मांग की थी कि अधिकारियों पर अदालत को गुमराह करने के दोष की सुनवाई हो।
         अदालत के फैसले से चुनाव के दौरान सरगर्मियां बढ़ गई हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने बुधवार को अमेठी से नामांकन पत्र भरने के बाद कोर्ट के ताजा फैसले के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कई सवाल दागे। उन्होंने केंद्र सरकार की शुरुआती आपत्तियों को ख़ारिज करके पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के अदालत को सामने रखकर मोदी को घेरा। राहुल ने कहा मोदी ने सुप्रीम कोर्ट से क्लीन चिट ली थी अब नए फैसले से साबित हो गया कि कुछ न कुछ घोटाला हुआ है। राहुल ने कहा, इसमें दो लोग अनिल अंबानी और नरेंद्र मोदी शामिल हैं। राफेल सौदे में खुल्ला चोरी हुई है। साथ ही  कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि राफेल सौदे में कई स्तर पर झूठ बोले गए हैं।
         दूसरी तरफ रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने राहुल गांधी के आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि कुछ पढ़े बिना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाना सही नहीं है।
          जहां तक तार्किकता है लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को सरकारी गोपनीयता कानून का सहारा लेने का सुझाव ही गलत था। चूंकि पूरा मामला खरीद और सौदे का है ना कि भारतीय सेना का है और सौदा आर्थिक मामला है।  पैसा जनता पर लगाए गए टैक्स से आता है। यदि यही दस्तावेज सेना की तैनाती का होता या उसकी व्यवस्था का होता और वह दस्तावेज लीक हो जाते हो तो मामला गोपनीयता कानून का बनता ही था। विमानों की खरीद में गोपनीयता का कानून का सहारा लेना गलत था। सरकार ने समझा कि वह इसकी आड़ में निकल जाएगी।  मामला उल्टा पड़ गया। सरकार को आरंभ से ही पाक -साफ ढंग से बात करनी चाहिए थी। मामले को उलझाने से बात का बतंगड़ बन गया। सरकार अगर इस मामले में पारदर्शिता बरतती तो विमानों की खरीद में शीघ्रता आ जाती। लोकतंत्र में सवाल पूछने का अधिकार सबको है और सरकार अगर इसमें उत्तरों को नहीं छुपाती तो मामला इतना बिगड़ता नहीं।
       बोलना चाहे जो हो लेकिन अदालत के इस फैसले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को झटका तो जरूर लगा है। यह कहा जा सकता है कि सरकार ने बड़ी सावधानी से भारत और भारत सरकार के बीच की दूरी को खत्म करने की कोशिश की है। आज सरकार के खिलाफ किसी भी बात को राष्ट्र विरोधी करार दे दिया जाता है या गोपनीयता कानून का उल्लंघन बताया जाता है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसे समय में  सरकार के लिए घातक कहा जा सकता है। सरकार ने इस तरह से राफेल मामले को पेश किया  है कि उसमें अपारदर्शिता है। सरकार को इस तरह से कदम बढ़ाना चाहिए था जिससे वह तर्कसंगत लगे। चुनाव की वजह या फिर जनादेश से सरकार को अप्रासंगिक ढंग से काम करने की अनुमति नहीं मिल जाती। बोफोर्स तोप सौदे से सरकार को सबक लेनी चाहिए थी। बेशक कई बार ऐसा होता है की वित्तीय विवरण देना राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं होता है लेकिन जब बड़े सौदे किए जाए तो उसमें पारदर्शिता जरूरी होती है।

Wednesday, April 10, 2019

खतरा बना सोशल मीडिया

खतरा बना सोशल मीडिया

20 साल पहले का वह दिन याद करें जब कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने  या शहर छोड़ने के बाद  हम अपने दोस्तों से अलग होते थे। नौजवान गले मिलते थे और कहते थे,
अब के बिछड़े तो ख्वाबों में मिलेंगे
जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलेंगे
ऐसा लगता था कि अब शायद नहीं मिल पाएंगे तब ना मोबाइल फोन थे और ना ही सोशल मीडिया।  अब दुनिया बदल गई। सोशल मीडिया ने देश के कोने-कोने  में अपनी जगह बना ली है और बिछड़े हुए लोग आपस में दोस्त बनने लगे हैं। यह बड़ा अच्छा लगता है। ऐसा लगता है कोई क्रांति आ गई है कोई चमत्कार हो गया है। शुरू- शुरू में सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले लोग स्कूल कॉलेज जाने वाले किशोर और नौजवान तथा आईटी कंपनियों में काम करने वाले युवक  थे और यह ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के लोग थे या फिर थोड़े से उच्च वर्गीय परिवार के भी। लेकिन अचानक हालात  बदल गए। भारत मोबाइल फोन का एक बहुत व्यापक बाजार बन गया और इंटरनेट उपभोक्ता वर्ग विस्तृत हो गया।  जैसे इसका विस्तार हुआ  इस की बुराइयां  सामने आने लगी । जहां सोशल मीडिया एक दूसरे को जोड़ता था अब उन्हें दूर करने लगा। एक ही परिवार के सभी सदस्य अलग-अलग बैठे अपने-अपने  फोन में व्यस्त रहते हैं । एक दूसरे से बेखबर। सोशल मीडिया ने हमें भावनात्मक स्तर से काट दिया है। विचारधारा के स्तर से भी परिवार बंट गए हैं। दोस्तों और समुदायों के बीच  गहरी खाई पैदा हो गई है। वाल स्ट्रीट की क्रांति और ट्यूनीशिया की अरब क्रांति ने बताया कि सोशल मीडिया की राजनीतिक ताकत  क्या है। सोशल मीडिया के जरिए अरब में या कहें मध्य-पूर्व में लोकतंत्र का पथ प्रशस्त हुआ। शुरू में तो ऐसा लगा की किसी आंदोलन को कम कीमत पर तेजी से ज्यादा भागीदारों और कार्यकर्ताओं तक पहुंचा जा सकता है जो आंदोलन को बल दे सकता है। बहस और तर्क के लिए नए-नए प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकता है। लोगों को सच्चाई से अवगत करा सकता है और गलत के खिलाफ खड़े होने के लिए लोगों को एकजुट कर सकता है। 2014 में भारत में आम चुनाव हुए और और हमने सोशल मीडिया ताकत को देखा।  अचानक 2016 में अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में रूस की भूमिका पर से जब पर्दा उठा तो लगा यह सोशल मीडिया लोकतंत्र के लिए एक खतरा बन गया है।
           रूसी एजेंसियों ने अमरीकी नागरिकों के फेक अकाउंट बनाए और कुछ ऐसी खबरों को फैलाना शुरू किया जो लगते थे कि सच हैं लेकिन  खबरें दरअसल गलत थीं। आइरिश शोधकर्ता जॉन नॉटन के अनुसार 2016 के बाद सोशल मीडिया चुनाव को प्रभावित करने वाला औजार ही नहीं रहा बल्कि वह एक ऐसी  जमीन में बदल गया जिस पर हमारी पूरी चुनावी संस्कृति खड़ी है। जिसकी गलियां हमारे रोजाना के विमर्श तय करती हैं और ऐसे भी विमर्श जिन के दुरुपयोग की सीमा नहीं रहती है । हालात इतने खराब हो गए हैं कि हमें कभी भी किसी भी वैचारिक हमले का शिकार होना पड़ेगा और हम अपने आदर्श और अपने विचारों को बदलने के लिए बाध्य हो जाएंगे। सोशल मीडिया आने वाले दिनों में हमारे मन पर हमारी किशोर पीढ़ी दिलोदिमाग पर ऐसे भ्रमित और दूषित विचार छोड़ जाएगा कि वह तय नहीं कर पाएगी कि सही क्या है और गलत क्या है । सच क्या है और सच के आसपास क्या है। 
       इन दिनों हमारा भारत दो हिस्सों में बंट गया प्रतीत हो रहा है । एक हिस्सा नरेंद्र मोदी के समर्थकों का है दूसरा विरोधियों का।  यह विभाजन इतना बढ़ गया है कि लोगों के बीच तनाव के बाद अब नफरत फैलने लगी है। दोस्ती  टूटने लगी है। लोग विचारों को लेकर अतिवाद के दायरे में प्रवेश करने लगे हैं।
        प्यू रिसर्च संस्था की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे देश में तेजी से ध्रुवीकरण हुआ है। सोशल मीडिया के विशेषज्ञ रॉबर्ट कोजिनेट्स मुताबिक सोशल मीडिया लोगों के जुनून को भड़काता है और उन्हें अतिवादी बनाता है। हमारे देश में सोशल मीडिया का प्रयोग जितनी तेजी से बढ़ रहा है लोगों में वैचारिक अतिवाद भी बढ़ता जा रहा है । विमर्श की भाषा बदलती जा रही है।साथ ही देश में लोकवादी ताकतों का उभार बढ़ रहा है।  यह  हमारे देश में नहीं यह पूरी दुनिया में हो रहा है। एक ऐसी राजनीति की शुरुआत हो रही है जो भय और तनाव पर फल-फूल रही है। इसके लिए जनता को दो भागों में बांटना जरूरी होता है। सोशल मीडिया पर किसी भी खबर को बिना उसकी विश्वसनीयता तय किए फैलाया जा सकता है। यह स्पष्ट देखने को मिल रहा है कि इस प्लेटफार्म पर अक्सर तर्क और तथ्यों की बात नहीं होती बल्कि भावनात्मकता के जरिए लोगों को भड़काया जाता है, उन्हें गुमराह किया जाता है।
       अंततोगत्वा यह हमें तय करना होगा कि हमें किस राजनीतिक पार्टी के साथ चलना है और अपने से अलग विचारधारा वाले दोस्तों को साथ रहना है या उनसे रिश्ते तोड़ देने हैं। क्या हमें सवाल पूछने की भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाए रखना है या उन्हें नष्ट कर देना है।