यह कोई नयी बात नहीं है
प्रधानमंत्री जी को राष्ट्र के नाम संदेश देते देश की बड़ी आबादी ने सुना होगा। इन लोगों में सभी वर्गो के लोग शामिल होंगे। मोदी जी के भाषण की विषय वस्तु या असके असर पर अलग अलग राय हो सकती है पर एक बात तो सभी मानेंगे कि पहली बार भारतीय लोकतंत्र चरम सत्ता (एब्सोल्यूट पावर) से दो चार हो रहा था। उन्हें बोलता देख कर यह प्रतीत हो रहा था कि लोकतंत्र कैसे एक नेता की छवि उसके दंराग्रहों और पूर्वग्रहों में रुपांतरित हो जाता है। मोदी जी के पसंदीदा सिद्धांत और सनक ने उन्हें देश की 86 प्रतिशत करेंसी को तत्काल प्रभाव से चलन से बाहर कर देने के लिये उत्साहित किया या कहें उकसाया। समग्र भारतीय सत्ता के प्रभुत्व की अगर व्याख्या करें तो देखेंगे कि चाहे वह प्राचीन प्रकार की दयालुता हो या अर्वाचीन ढंग के लोकतांत्रिक लिबास में लिपटा मनुष्य हो , पूरी सत्ता एक आदमी के हाथों में क्रेंद्रित रहती है। यह केंद्रीयकरण उसे चाहे बपौती मिला हो या उसे खानदान से प्राप्त हुआ हो या लाकतांत्रिक तौर पर ताकतवर बनाकर प्राप्त हुआ हो। उसके सहयोगी उसे पूरा नियंत्रण सौंप देते हैं। इस दौरान अगर वह महसूस करता हे कि कोई उसकी बराबरी कर सकता है या पूर्ववर्ती सत्ताधारी उसकी तुलना में भारी पड़ सकता है तो वह ठहर कर नियमों को बदल देता है और ऐसी स्थिति को जनम दश्ता है कि कोई उसकी नकल ना कर सके। अशोक से कनिष्क तक, मोहम्मद बिन तुगलग से अकबर तक , ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरलों और ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान रहे वायसरायों तक या इंदिरा गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक सबने ऐसा ही किया है। सबने अचानक रवायतो को बदल दिया है और चुनौती देने वालों को पीछे छोड़ दिया है। कार्ल जुंग ने लिखा है कि यदि लोग समर्पण की एक सीमा के आगे चले जाते हैं तो उनसे कुछ भी करवाया जा सकता है। जब उनकी करतूतों का विश्लेषण किया जाता है तो सब कुछ बेकार और निरा थोथा सा प्रतीत होते लगता है उस समय थोड़ी झांय-झांय होती है और सबकुछ शांत हो जाता है। लाकतांत्रिक शासनों से कहीं पुराना इतिहास साम्राज्यों का है। इस समय पूरी दुनया में रुढ़िवाद और संरक्षणवाद के अनुकूल बयार चल रही है यह बयार लोकतांत्रिक धारा में बह रही किश्ती को ठेलकर साम्राज्यवाद की ओर ले जाती है। नोटबंदी इसका ताजा उदाहरण है। इस पर विचार करें कि इतिहास में ऐसा कदम अकसर चक्रवर्ती सम्राटों, शाहों के शाह और लोकतांत्रिक ठंग से निर्वाचित पार्टी के प्रदानों ने उठाया है। आज या इससे पहले पहले बी भारत राष्ट्र की ऊर्जा एक आदमी की ख्वाहिशों को पूरा करने में चुक जाया करती है , निम्नतम स्तर पर सुधार तो दूर की बात है। जरा इतिहास में झांके। ब्रिटिश राज के दौरान वह 1833 का वक्त , जब इस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी प्रेसीडेंसी में देसी सिक्कों का चलन बंद कर दिया था। ब्रिटिश इतिहासकार लार्ड लीवरपुल ने लिखा था कि दो धातुओं से बनी करेंसी का चलन अव्यवहारिक है। 1835 में विलियम बेटिंक ने कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में सोने के सिक्कों का चलन बंद कर चांदी का रुपया चलाया। मुगलिया सिक्के मोहर का जानबूझ कर अवमूल्यन कर दिया गया ताकि इसे लोग इस्तेमाल ना करें। 1841 में सरकार का नया फरमान आया कि वह सोने के सिक्के बदल कर चांदी के सिक्के दे सकती है। 1856 में लार्ड डलहौजी ने भूमि और मालगजिरी कानून लागू किया जिससे पूरा अवध हिल गया। क्योंकि वहां जागीरदारों और किसानों अनुपूरक सम्बंध थे। यह समबंध टूट गया ओर वहां सामाजिक विपर्यय हो गया। अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर पाबंदियां लगा दी गयी। नबाबों, जागीरदारों और नबाबों को मुआवजे के तौर पेंशन की व्यवस्था की गयी। भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गयी। फलस्वरूप सिपाही विद्रोह हुआ और आजादी की जंग छिड़ गयी। 90 वर्षों के बाद देश आजाद हुआ। सिपाही विद्रोह के 7 साल के बाद 1864 में ब्रिटिश इतिहास विलियम काये ने लिखा ‘‘टैक्स से पीड़ित भारतीय जनता के गुससे को परखने में ब्रिटिश ने गलती की लेकिन उद्देश्य आय बढ़ाना था जिससे जनता की भलाई हो सके।’’
आज जो हो रहा है उससे एक असंतोष फैल रहा है। सरकार बेशक ना समझे या जनबूझ कर अनदेखा करे पर संकेत मिलने लगे हैं। आज जो सबसे बड़ी समस्या है वह है करप्शन। मोदी जी ने इसी को आड़ बनाकर नोटबंदी की घोषणा की है। भारत र्जैसे नकारात्मक प्रतिदान के मौद्रिक मूल्य वाले देश में यह तो होगा ही। कालाधन संग्रह और आतंकवाद के भुगतान के पीछे भी करप्शन ही कारक है। सरकार को दौलत इकट्ठी करने में पाबंदियों को हटाने के बारे में सोचना चाहिये। सरकार उल्टा कर रही है। हो सकता है इस फैलते असंतोष को कम कर जनता का ध्यान दूसरी परफ भटकाने के लिये सर्जिकल हमले की तरह कुछ कर दिया जाय।
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